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इस लेख को पढ़ने के बाद आप
- यह जन पाएंगे कि पवन का अपरदन कार्य (Wind Erosional Work) क्या होता है?
- पवन का अपरदन कार्य किन रूपों में होता है (अपवाहन, अपघर्षण तथा सन्निघर्षण)?
- पवन का अपरदन कार्य किन दशाओं से प्रभावित होता है?
- पवन के अपरदन कार्य द्वारा बनाए जाने वाले स्थलरूप कौन-2 से हैं?
पवन का अपरदन कार्य (Wind Erosional Work)
अपरदन के अन्य कारकों के समान ही पवन भी अपरदन व निक्षेपण का एक प्रमुख कारक है। लेकिन पवन का परिवहन कार्य नदियों या हिमनदियों से अलग होता है। क्योंकि पवन के चलने की दिशाऔर स्थित होती है इसलिए पवन द्वारा परिवहन कार्य किसी भी रूप में तथा किसी भी दिशा में हो सकता है। वैसे तो पवन का कार्य विस्तृत क्षेत्र पर होता है, लेकिन शुष्क एवं अर्धशुष्क मरुस्थलीय भागों में यह अपरदन का एक महत्वपूर्ण कारक है।
पवन अपना अपरदन संबंधी कार्य भौतिक या यांत्रिक रूप में ही पूर्ण करता है। हालांकि मरुस्थलीय भागों में रासायनिक कार्य भी कुछ सीमा तक वर्षा के जल तथा नदियों द्वारा होता है। फिर भी वर्षा के द्वारा रासायनिक की अपेक्षा यांत्रिक अपरदन अधिक होता है।
पवन अपरदन के रूप
अपरदन का कार्य पवन द्वारा मुख्यतः तीन रूपों में संपादित किया जाता है:-
अपवाहन
अपवाहन की प्रक्रिया में यांत्रिक अपक्षय के द्वारा ढीली की गई चट्टानों के कणों को पवन चट्टानों से अलग करके उड़ा ले जाती है। अपवाहन को इसलिए उड़ान की क्रिया भी कहते हैं। यह शब्द लैटिन भाषा के ‘deflare’ से लिया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है उड़ाना।
लगातार अपवाहन की क्रिया से चट्टानों की परत दर परत उड़ती रहती है तथा कुछ समय के बाद आधार शैल दिखाई देने लग जाती है। इस आधार नग्न चट्टान पर समय के साथ छोटे-छोटे छिद्र व गर्त बन जाते हैं। ऐसे छिद्र व गर्त मिश्र देश में देखे जा सकते हैं। यहां का कतारा गर्त उल्लेखनीय है जो सागर तल से 420 फीट गहरा है।
अपघर्षण
जब पवन बहुत तेज गति से चलती है तो वह अपने साथ रेत तथा धूलकणों को पर्याप्त मात्रा में साथ लेकर चलती है। ये रेत तथा धूलकण अपरदनात्मक यंत्र के रूप में कार्य करते हैं तथा अपने मार्ग में आने वाली चट्टानों को रगड़कर, घिसकर तथा चिकना करके इनको अपरदित करते रहते हैं। पवन के द्वारा इस प्रकार चट्टानों का किया गया अपरदन अब अपघर्षण कहलाता है।
अपघर्षण का प्रभाव चट्टान की संरचना के अनुसार अलग-अलग देखने को मिलता है। जहां बहुत अधिक कठोर चट्टानों पर रेत के कण या धूलकण बहुत तेजी से टकराकर उनको घिसकर चिकना कर देते हैं, वहीं कोमल एवं कमजोर चट्टानों को ये धीरे-धीरे काटते जाते हैं तथा कुछ समय के बाद उन्हें पूर्ण रूप घिस देते हैं।
अपघर्षण का कार्य सामान्य तौर पर धरातल की सतह से थोड़ी ऊंचाई पर लेकिन 6 फीट के नीचे ही अधिक प्रभावशाली होता है। इस प्रकार अपघर्षण न तो धरातल पर तथा न ही अधिक ऊंचाई पर होता है।
सन्निघर्षण (attrition)
तेज पवन के साथ उड़ने वाले धूलिकण अपने मार्ग में आने वाली चट्टानों को रगड़ने तथा घिसने के अलावा स्वयं भी आपस में टकराकर टूटते-फूटते रहते हैं। इस कारण कणों का आकार छोटा तथा गोल होने लगता है। अधिक रगड़ होने के कारण कण बारीक हो जाते है। इस तरह शैलकणों के आपस में रगड़ खाकर यांत्रिक ढंग से टूटने की क्रिया को सन्निघर्षण कहते हैं।
पवन अपरदन को प्रभावित करने वाली दशाएं
जैसा कि हम जान चुके हैं, पवन द्वारा अपरदन मुख्य रूप से यांत्रिक या भौतिक अपरदन के रूप में होता है। यह यांत्रिक अपरदन कई बातों पर आधारित होता है, जिनका वर्णन नीचे किया जा रहा है:-
पवन वेग (wind velocity)
मरुस्थलीय भागों में अपरदन का कार्य मुख्य रूप से प्रचलित पवन के वेग पर आधारित होता है। मन्द गति से चलने वाली पवन का अपरदन कार्य नगण्य होता है। इसके दो प्रमुख कारण हैं। प्रपाला तो यह कि मन्द पवन के मार्ग में पआने वाली चट्टानों से टक्कर प्रभावशाली नहीं हो पाती तथा दूसरा यह कि मन्द वेग से चलने वाली पवन के साथ उड़कर चलने वाली रेत तथा धूलिकणों की मात्रा कम होती है। इस तरह मन्द पवन के अपघर्षण तथा सन्निघर्षण, दोनों कार्य नगण्य होते हैं।
इसके विपरीत तेज चलने वाली पवन द्वारा चट्टानों का अपरदन अधिक होता है, क्योंकि यह इनके मार्ग में पड़ने वाली शैलों से टकरा करके उनके कमजोर तथा असंगठित पदार्थों को अलग करके उन्हें उड़ा ले जाती है और तेज वेग से चलने वाली पवन के साथ रेतकण अधिक मात्रा में होते हैं, जिस कारण अपघर्षण (abrasion) तथा सन्निधर्षण (attrition), दोनों कार्य अधिक होते हैं।
रेत तथा धूलिकणों की मात्रा तथा स्वभाव
पवन के अपरदन का कार्य अपरदनात्मक यंत्र (erosional tools) द्वारा ही पूरा होता है। इन यंत्रों में रेतकण, धूलिकण, कंकड़- पत्थर आदि शामिल होते हैं। इन पदार्थों की मात्रा पर ही अपरदन की मात्रा आधारित होती है। यदि पवन तीव्र वेग वाली होती है तो उसके साथ अपरदन की सामग्री अधिक होती है, परन्तु तीव्र पवन में ऊँचाई के अनुसार इन पदार्थों की मात्रा में भिन्नता होती है।
पवन के निचले स्तर अर्थात् धरातलीय सतह के पास रेत तथा धूलिकण न केवल अधिक मात्रा में होते हैं, वरन् उनका आकार भी बड़ा होता है। जैसे-जैसे सतह के ऊपर जाते हैं, रेत तथा धूलिकणों की मात्रा तथा आकार दोनों में ह्रास होने लगता है। इस कारण पवन के निचले स्तर अर्थात् धरातलीय सतह के पास 6 फीट (182 सेंटीमीटर) की ऊँचाई तक अपरदन अधिक होता है।
परन्तु ऊँचाई के साथ यह क्रिया घटती जाती है। इसका सबसे आसान प्रमाण यह है कि आंधियों के समय यदि खुले भाग में चला जाए तो नंगे पैरों में कंकड़ियों की चोट अधिक लगती है तथा शरीर के ऊपरी भाग में धूल का प्रकोप अधिक होता है।
शैलों की संरचना
पवन के साथ उड़कर चलने वाले पत्थर के कण अधिक नुकीले तथा प्रखर धार वाले एवं कठोर होते हैं। यदि चट्टान की बनावट विभिन्न प्रतिरोध वाली है तो ये नुकीले पत्थर के टुकड़े कोमल तथा कम प्रतिरोधी शैलों का अधिक अपरदन करके उन्हें चट्टानों से अलग कर लेते हैं, परन्तु प्रतिरोधी शैलें अप्रभावित रहती हैं। इसी कारण जालीदार शैल की रचना हो जाती है। यदि चट्टानों के स्तर लम्बवत् रूप में धरातल पर खड़े होते हैं तो अपरदन अधिक होता है।
जलवायु
उच्च तापमान वाले मरुस्थलीय भागों में वर्षा की अपेक्षा वाष्पीकरण अधिक होता है। अतः स्थल पर जल का संचयन अधिक समय तक न होने के कारण स्थल शुष्क बना रहता है, जिस कारण पवन का अपवाहन या उड़ाव (deflation) अधिक सक्रिय हो जाता है। रेगिस्तानी भागों में दिन के अधिक तापमान तथा रात के अपेक्षाकृत कम ताप के कारण शैलों में क्रमशः विस्तार तथा संकुचन होता रहता है, जिस कारण शैल विघटित होकर असंगठित हो जाती है तथा बड़े- बड़े टुकड़ों में टूटने लगती है।
ये टुकड़े पुनः बारीक हो जाने पर पवन द्वारा उड़ा लिए जाते हैं। अचानक वर्षा के कारण गर्म चट्टानों पर जब जल की छींटें पड़ती हैं तो शैल चटक जाती है। इस तरह रेगिस्तानी भागों में यांत्रिक अपक्षय (mechanical weathering) पवन के अपरदन कार्य को आसान बना देती है। आर्द्र भागों में जल के कारण स्थल नमी के कारण भारी हो जाता है तथा पवन का कार्य उस पर नहीं हो पाता है।
पवन के अपरदन कार्य द्वारा बनाए जाने वाले स्थलरूप
अपवाहन बेसिन या वात गर्त (deflation basin or blowout)
सतह के ऊपर असंगठित तथा कोमल शैलों को पवन अपने अपवाहन या उड़ाव की क्रिया से प्रभावित करके उनके ढीले कणों को उड़ा ले जाती है, जिस कारण अनेक छोटे-छोटे गर्तों का आविर्भाव होता है। धीरे-2 इन गर्तों का आकार तथा गहराई दोनों बढ़ती जाती है, परन्तु इन गर्तों की गहराई की अन्तिम सीमा भौम जलस्तर (groundwater table) द्वारा निर्धारित होती है।
चूंकि मरुस्थलों में या तो भूमिगत जल होता ही नहीं, यदि होता भी है तो वह अधिक गहराई पर मिलता है। यही कारण है कि अपवाहन के कारण इन गर्तों का निर्माण सागर तल से कई मीटर नीचे तक हो जाता है। पवन द्वारा असंगठित तथा ढीले कणों से उड़ा लिए जाने से निर्मित गर्त को अपवाहन बेसिन कहते हैं। चूंकि इन गर्तों का निर्माण पवन द्वारा होता है, अतः इन्हें पवन गर्त या वात गर्त (blowout) भी कहते हैं। इनकाआकार प्रायः तस्तरीनुमा होता है।
सहारा के रेगिस्तान, कालाहारी, मंगोलिया तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के पश्चिमी शुष्क भागों में पवन निर्मित अनेक गर्तों के उदाहरण पाए गए है। संयुक्त राज्य अमेरिका के ग्रेट प्लेन्स में छोटे आकारवाली अपवाहन बेसिनों को बफैलो वालोस तथा मंगोलिया में वृहदाकार बेसिनों को पांग कियांग कहते हैं।
इन्सेलबर्ग (inselberg)
इन्सेलबर्ग जर्मन भाषा का पारिभाषिक शब्द है, जिसका तात्पर्य पर्वत, द्वीप या द्वीपीय पर्वत होता है। वास्तव में रेगिस्तानी क्षेत्र में कठोर चट्टान के सामान्य सतह से ऊंचे ऊँचे टीले इस तरह लगते हैं मानो सागर स्थित द्वीप हों।
मरुस्थलों में अपक्षय तथा अपरदन के कारण कोमल शैल आसानी से कट जाती हैं तथा कठोर शैल के अवशेष भाग ऊँचें-2 टीलों के रूप में बच जाते हैं। इस तरह के टीलों या टापुओं को इन्सेलबर्ग कहा जाता है। इन्सेलबर्ग के पार्श्व (किनारे) तिरछे ढाल वाले होते हैं।
बोर्नहार्ट नामक विद्वान ने इस प्रकार के इन्सेलबर्ग के निर्माण की क्रिया का पता लगाने का कार्य प्रारम्भ किया था। इस कारण इन्सेलबर्ग को बोर्नहार्ट भी कहा जाता है। इन्सेलबर्ग प्रायः गुम्बदाकार हुआ करता है। इन्सेलबर्ग का निर्माण ग्रेनाइट या नीस नामक चट्टानों के अपरदन तथा अपक्षय द्वारा होता है।
छत्रक शिला (mushroom rock)
मरुस्थलीय भागों में यदि कठोर शैल के रूप में ऊपरी आवरण के नीचे कोमल शैल लम्बवत् रूप में मिलती है तो उस पर पवन के अपघर्षण के प्रभाव से विचित्र प्रकार के स्थलरूप का निर्माण होता है। तेज पवन के साथ रेत तथा धूलिकणों की प्रचुरता पवन के निचले स्तर में अर्थात् सतह से 6 फीट (182 सेंमी०) की ऊँचाई तक ही होती है। ऊपर जाने पर इनकी मात्रा कम होती जाती है। इस कारण पवन द्वारा चट्टान के निचले भाग में अत्यधिक अपघर्षण द्वारा उसका आधार कटने लगता है, जबकि उसका ऊपरी भाग अप्रभावित रहता है।
यदि पवन एक ही दिशा में चलती है तो चट्टानों का कटाव केवल एक ही दिशा में हो पाता है, परन्तु यदि पवन कई दिशाओं में चलती है तो चट्टान का निचला भाग चारों तरफ से अत्यधिक कट जाने के कारण पतला हो जाता है, जबकि ऊपरी भाग अप्रभावित रहने के कारण अधिक विस्तृत रहता है। इस तरह एक छतरीनुमा स्थलरूप का निर्माण होता है, जिसे छत्रक शिला कहते हैं। छत्रक शिला को सहारा के रेगिस्तान में गारा कहा जाता है।
भूस्तम्भ (demoiselles)
शुष्क प्रदेश में जहाँ पर असंगठित तथा कोमल शैल के ऊपर कठोर तथा प्रतिरोधी शैल का आवरण होता है, वहाँ पर इस आवरण के कारण नीचे की कोमल शैल का अपरदन नहीं हो पाता है, क्योंकि ऊपरी कठोर शैल के आवरण से निचली कोमल शैल को संरक्षण प्राप्त होता है। परन्तु समीपी कोमल चट्टान का अपरदन होता रहता है, जिस कारण अगल-बगल की शैल कट कर हट जाती है और कठोर शैल के आवरण वाला भाग एक स्तम्भ के रूप में सतह पर दिखाई पड़ता है। इसे भूस्तम्भ कहा जाता है।
ज्यूजेन (zeugen)
ज्यूजेन के निर्माण की क्रिया अत्यन्त सरल है। यदि मरुस्थली भाग में कठोर शैल की परत के नीचे कोमल परत का विस्तार होता है तो ऊपरी कठोर शैल की परत की संधियों तथा छिद्रों में ओस भर जाती है जो दिन में सूर्य की किरणों से सुरक्षित रहती है। रात के समय यह ओस हिम के रूप में बदल जाती है।
इस कारण उसमें प्रसार होने से शैल की संधियों पर दाब पड़ने से वे विस्तृत हो जाती हैं तथा ऊपरी कठोर शैल का कुछ भाग विघटित होकर टूट-फूट जाता जाती है तथा निचली कोमल शैल दिखाई देने लग जाती है। समय के साथ अपक्षय की क्रिया के कारण इन निचली कोमल शैलों की परत भी उधड़ जाती है, जिस पर पवन अपरदन द्वारा उसे घिस करके शिलाचूर्णों को उड़ाती रहती है। जब कोमल शैल की परत कट जाती है तो उसके नीचे की कठोर शैल उधड़ जाती है।
इस कठोर शैल की संधियों पर पुनः तुषार की क्रिया होती है जिससे नीचे की ओर छिद्र का विस्तार होता जाता है। उपर्युक्त क्रिया की पुनरावृत्ति के कारण ज्यूजेन नामक स्थलरूप का विकास हो जाता है, जो ढक्कनदार दवात के समान होते हैं। इस तरह ज्यूजेन का निर्माण अपक्षय (weathering) तथा विशेषक अपरदन (differential erosion) के फलस्वरूप होता है। ज्यूजेन की ऊँचाई 90 से 150 फीट तक मिलती है।
यारडंग (yardang)
यारडंग की रचना ज्यूजेन के विपरीत होती है। जब कोमल तथा कठोर चट्टानों के स्तर लम्बवत् दिशा में मिलते हैं, तो पवन कठोर शैल की अपेक्षा मुलायम शैल को शीघ्र अपरदित करके उड़ा ले जाती है। इस प्रकार कठोर शैलों के मध्य कोमल शैलों के अपरदित होकर उड़ जाने के कारण कठोर चट्टानों के भाग खड़े रह जाते हैं।
इन शैलों के पार्श्व में पवन द्वारा कटाव होने से नालियाँ बन जाती हैं। इस तरह के स्थलरूप को यारडंग कहते हैं। यारडंग प्रायः पवन की दिशा में समानान्तर रूप में होते हैं। इनकी ऊँचाई 20 फीट तक तथा चौड़ाई 30 से 120 फीट तक होती है। यारडंग का निर्माण निश्चित रूप से पवन के अपघर्षण (abrasion) कार्य द्वारा होता है।
ड्राइकान्टर (dreikanter)
पथरीले मरुस्थलों में सतह पर पड़े शिलाखण्डों पर पवन से अपरदन द्वारा खरोंचें पड़ जाती हैं, जिस कारण शिलाखण्ड या पत्थर के टुकड़ों पर तरह-तरह की नक्काशी हो जाती है। यदि पवन कई दिशाओं से होकर चलती है तो इन शिलाखण्डों की आकृति चतुष्फलक जैसी हो जाती है, जिसका एक फलक भूपृष्ठ पर होता है तथा शेष तीन फलक बाहर की होते हैं।
इस प्रकार बाहर की ओर निकले तीन फलक या पार्श्वों वाले टुकड़ों को त्रिकोणाकार कंकड़ या ड्राइकान्टर कहते हैं। इन टुकड़ों पर पवन के थपेड़ों से उत्पन्न खरोंचें स्पष्ट नजर आती हैं। तीन फलक (facets) वाले बोल्डर को ड्राइकाण्टर तथा 8 अपघर्षित फलक वाले बोल्डर को वेन्टी फैक्ट कहते हैं।
जालक या जालीदार शिला (stone lattice)
मरुस्थलीय भागों में जब तेज गति से चलने वाली पवन के सामने ऐसी शिलायें आ जाती हैं, जिनकी संरचना विभिन्न स्वभाव वाली चट्टानों से हुई होती है अर्थात् जिनके विभिन्न भागों में कठोरता में पर्याप्त भिन्नता होती है, तो पवन रेत कणों की सहायता से अपघर्षण द्वारा शैल के कोमल भागों को अपरदित करके उड़ा ले जाती है, परन्तु कठोर भाग यथास्थान स्थिर रहते हैं। इस प्रकार के अपरदन के कारण शैल भाग में जाली का निर्माण हो जाता है। इस तरह की शैल को जालीदार शैल या जालक शैल या अहिश्मक जालक कहते हैं।
पुल तथा खिड़की (bridge and window)
जालीदार शिला में पवन के अपरदन द्वारा पवनोन्मुखी भाग में छिद्र हो जाता है। पवन धीरे-धीरे इस छिद्र के विघटित पदार्थों को उड़ा-उड़ा कर उसे बड़ा करती जाती है। एक लम्बे समय तक अपरदन के कारण यह छिद्र शैल के आर-पार हो जाता है। शैल के इस आर-पार छिद्र को पवन खिड़की या पवन वातायन (wind window) कहा जाता है। इस खिड़की से होकर अपरदन द्वारा चट्टान का शनैः शनैः नीचे तक कटाव हो जाता है परन्तु ऊपरी भाग छत के रूप में वर्तमान रहता है। इस तरह एक महराब (arch) की आकृति का निर्माण होता है। इसे पुल भी कहा जाता है।
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