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 ली का प्रवास सिद्धान्त (Lee’s Migration Theory) 

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ली का प्रवास सिद्धान्त (Lee’s Migration Theory)

ली (F.S. Lee) ने अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन सन् 1966 में किया। उन्होंने जनसंख्या प्रवास को चार कारकों का परिणाम माना है – 

(1) मूल स्थान के कारक

(2) गन्तव्य स्थान के कारक

(3) मध्यवर्ती अवरोध

(4) व्यक्तिगत कारक

  • मूल स्थान या प्रवास जनन स्थान पर कुछ दाब या प्रतिकर्षण कारक (Push factors) होते हैं जो लागों को वहाँ से जाने के लिए प्रेरित करते हैं। इन कारकों में प्राकृतिक प्रकोप, रोजगार का अभाव, संसाधनों की कमी, जनसंख्या वृद्धि आदि प्रमुख हैं। 
  • गन्तव्य स्थान पर विद्यमान आकर्षण कारक ((Pull factors) लोगों को बाहर से अपनी ओर आकर्षित करते हैं। सामान्यतः नगरों में रोजगार की विविधता तथा अन्यान्य सुविधाएँ पायी जाती हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। इसी प्रकार विकसित क्षेत्र पिछड़े क्षेत्रों से व्यक्तियों को रोजगार आदि के लिए आकर्षित करते हैं।
  • मूल स्थान और गन्तव्य स्थान के मध्य स्थित अवरोध प्रवास को हतोत्साहित करते हैं। दूरी में वृद्धि से परिवहन व्यय तथा समय अधिक लगता है। अतः दूरी बढ़ने के साथ-साथ प्रवास की मात्रा कम होती जाती है।
  • प्रवास की मात्रा और दिशा पर व्यक्तिगत कारकों का भी प्रभाव पाया जाता है। प्रवास के निर्धारण में आयु, लिंग, व्यक्ति के ज्ञान, अनुभव, मनोवैज्ञानिक दशा, जीवन स्तर आदि वैयक्तिक कारकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है।

ली ने मूल स्थान और गन्तव्य स्थान से सम्बन्धित कारकों तथा दोनों के मध्य स्थित अवरोधों को आरेखीय रूप में प्रदर्शित किया है। 

ली ने मूल स्थान और गन्तव्य स्थान के कारकों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया है

  • धनात्मक कारक
  • ऋणात्मक कारक
  • तटस्थ कारक

वे कारक जो किसी स्थान पर मनुष्यों को रहने के लिए आकर्षित अथवा प्रेरित करते हैं उन्हें ली ने धन (+) चिन्ह द्वारा और जो कारक लोगों को बाहर जाने के बाध्य करते हैं उन्हें ऋण (–) चिन्ह द्वारा प्रदर्शित किया गया है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक स्थान पर कुछ ऐसे भी कारक होते हैं जो लोगों के प्रवास के प्रति तटस्थ रहते हैं। ऐसे तटस्थ कारकों को शून्य (0) चिन्ह द्वारा प्रदर्शित किया गया है। 

इनमें से कुछ कारक सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्रभावित करते हैं किन्तु अनेक अन्य कारकों का प्रभाव विभिन्न लोगों पर भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है। उदाहरण के लिए एक स्थान की शिक्षा व्यवस्था छोटे बच्चों वाले अभिभावकों के लिए धनात्मक होती है किन्तु यह सन्तान रहित लोगों के लिए ऋणात्मक हो सकती है। इसी प्रकार अविवाहित स्त्री या पुरुष के लिए यह तटस्थ या निष्प्रभावी कारक हो सकती है।

ली के अनुसार व्यक्तियों द्वारा अनुभूत मूल स्थान और गन्तव्य स्थान पर विद्यमान सुविधाओं तथा असुविधाओं की तुलना का परिणाम ही प्रवास होता है। किन्तु प्रवास की यह प्रक्रिया अत्यन्त कठिन एवं जटिल है क्योंकि धनात्मक तथा ऋणात्मक कारकों की गणना के अतिरिक्त अन्यान्य कारक भी प्रवास प्रक्रिया के निर्धारण में सहायक होते हैं। 

मूलस्थान और गन्तव्य स्थान के बीच कुछ मध्यवर्ती बाधाएँ विद्यमान होती हैं जो कुछ मामलों में निर्बल किन्तु कुछ मामलों में शक्तिशाली हो सकती हैं। मध्यवर्ती बाधाओं में दूरी सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा सर्वव्यापी होती हैं। दूरी बढ़ने के साथ-साथ प्रवास की मात्रा कम होती जाती है। ली के सिद्धान्त का अंतिम अंग व्यक्तिगत कारकों का एक समूह होता है जो व्यक्ति के ज्ञान, अनुभव, विचार, जीवन-स्तर आदि को परस्पर संयुक्त करता है। 

इस प्रकार ली ने मूल स्थान और गन्तव्य स्थान के धनात्मक तथा ऋणात्मक कारकों, अन्तर्वतीं बाधाओं और व्यक्तिगत कारकों को एक साथ संयुक्त करके जनसंख्या प्रवास की मात्रा, दिशा (प्रवाह), तथा प्रवासियों के लक्षण सम्बन्धी कई परिकल्पनाओं का प्रतिपादन किया है जिन्हें निम्नलिखित तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है – 

  • प्रवास की मात्रा सम्बन्धी परिकल्पनाएँ
  • प्रवास की धारा सम्बन्धी परिकल्पनाएँ
  • प्रवासियों के लक्षण सम्बन्धी परिकल्पानाएँ

प्रवास की मात्रा (Volume of Migration) सम्बन्धी परिकल्पनाएँ

ली ने प्रवास की मात्रा से सम्बन्धित 6 परिकल्पनाों की चर्चा की है जो निम्नलिखित हैं

  • किसी दिए गए क्षेत्र के भीतर जनसंख्या के प्रवास की मात्रा क्षेत्र की भिन्नता के अनुसार परिवर्तनशील होती है। अधिक भिन्नता वाले क्षेत्र में प्रवास का स्तर उच्च पाया जाता है।
  • जनसंख्या सम्बन्धी भिन्नता अधिक रहने पर अधिक प्रवास होता है किन्तु जाति, धर्म, शिक्षा, आय, परम्परा सम्बन्धी एकरूपता रहने पर प्रवास की मात्रा कम होती है।
  • मूल स्थान और गन्तव्य स्थान के बीच बाधाओं की मात्रा जितनी ही अधिक होगी प्रवास की मात्रा उतनी ही कम होती है। 
  • अर्थव्यवस्था के उतार-चढ़ाव प्रवास की मात्रा को प्रभावित करते हैं। आर्थिक प्रगति के समय प्रवास की मात्रा अधिक और आर्थिक मंदी के समय कम पायी जाती है।
  • जब तक कोई समुचित नियंत्रण नहीं लगाया जाता, तब तक प्रवास की मात्रा और दर में समय के साथ-साथ वृद्धि होती जाती है।
  • देश या क्षेत्र में विकास की अवस्था के अनुसार प्रवास की मात्रा और दर परिवर्तित होती रहती है। विकसित देशों में उच्च प्रवास और अल्पविकसित देशों में निम्न प्रवास पाया जाता है।

प्रवास की धारा (Stream of Migration) सम्बन्धी परिकल्पनाएँ

जनसंख्या प्रवास की धारा या दिशा के सम्बन्ध में भी ली ने निम्नलिखित 6 परिकल्पनाएँ बताया है –

  • मूल स्थान और गन्तव्य के बीच जनसंख्या प्रवास की एक निश्चित (प्रमुख) धारा उत्पन्न होती है और उसके अन्तर्गत अधिक प्रवास होता है क्योंकि सामान्यतः अधिकांश प्रवासी किसी विशिष्ट लक्ष्य की ओर निश्चित मार्ग से ही प्रवास करते हैं।
  • प्रत्येक मुख्य जनसंख्या प्रवाह के विपरीत दिशा में प्रवास की प्रतिधारा (Counter Stream) का विकास होता है। किसी गन्तव्य के लिए प्रवास के प्रारम्भ होने पर लोग मूल (उद्भव) स्थान पर विद्यमान सुविधाओं के प्रति भी जागरूक हो जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप मूल स्थान की ओर भी प्रवास की प्रतिधारा उत्पन्न हो जाती है।
  • प्रवास के विकास के लिए मूल स्थान पर दाब कारक (Push factor) के प्रभावी होने पर प्रवास की धारा अधिक बलवती होती है क्योंकि दाब या प्रतिकर्षण कारक आकर्षण कारकों (Pull factor) की तुलना में अधिक प्रभावशाली होते हैं।
  • मूल स्थान और गन्तव्य स्थान की विशेषता समान होने पर प्रवास की धारा और प्रतिधारा दोनों क्षीण प्रकृति की होती हैं।
  • यदि मूल स्थान और गन्तव्य स्थान के बीच मध्यवतीं बाधाएँ अधिक होती हैं, तब प्रवास की धारा की दक्षता उच्च होती है।
  • आर्थिक दशाओं में परिवर्तन के साथ-साथ प्रवास धारा की क्षमता भी परिवर्तनशील होती है। यह समृद्धि काल में उच्च और विपन्नता के समय निम्न होती है। 

प्रवासियों के लक्षण (Characteristics of Migration) सम्बन्धी परिकल्पनाएँ

ली ने प्रवासियों की विशेषताओं (लक्षणों) से सम्बन्धित निम्नलिखित 7 परिकल्पनाएँ प्रस्तुत की हैं –

  • जनसंख्या प्रवास चयनात्मक होता है और किसी प्रदेश में कुछ लोग ही स्थानान्तरित होते हैं। उदाहरणार्थ, बच्चों एवं वृद्धों की तुलना में प्रौढ़ तथा स्त्रियों की तुलना में पुरुष अधिक प्रवास करते हैं।
  • जो प्रवासी गन्तव्य स्थान पर उपस्थित सुविधाओं (धनात्मक कारकों) से आकर्षित होकर प्रवास करते हैं उन्हें चयनित (Positively selected) माना जाता है क्योंकि ये प्रवास के लिए बाध्य नहीं होते हैं बल्कि अच्छे अवसरों की प्राप्ति के लिए स्वेच्छा से प्रवास करते हैं।
  • जो प्रवासी मूल स्थान पर उपस्थित प्रतिकूल दशाओं (ऋणात्मक कारकों) से बाध्य होकर प्रवास करते हैं उन्हें ऋणात्मक चयनित (Negative selected) माना जाता है। जिस क्षेत्र में ऋणात्मक कारक अधिक प्रबल होते हैं, वहाँ प्रवास चयनात्मक नहीं होता है बल्कि लोगों को बाध्य होकर प्रवास करना पड़ता है। मूल स्थान (उद्भव स्थान) के कठोर ऋणात्मक कारकों का सर्वाधिक प्रभाव आर्थिक एवं सामाजिक रूप से कमजोर लोगों पर होता है।
  • जनसंख्या प्रवास सामान्यतः द्वि-बहुलक (Bi-Modal) होता है। कुछ लोग उद्भव स्थल के ऋणात्मक कारकों से बाध्य होकर तथा कुछ लोग गन्तव्य स्थान के धनात्मक कारकों से आकर्षित होकर प्रवास करते हैं। 
  • धनात्मक चयनात्मकता मध्यवर्ती बाधाओं के अनुकूल होती हैं अर्थात् मध्यवर्ती कठिनाइयों में वृद्धि के साथ धनात्मक चयन की मात्रा में भी वृद्धि होती है।
  • प्रवास आयु परक या आयु के अनुसार चयनात्मक होता है। जीवन-चक्र की कुछ अवस्थाओं में प्रवास अधिक होता है। 
  • प्रवासी जनसंख्या की विशेषता उद्भव स्थल और गन्तव्य स्थल की जनसंख्या विशेषताओं के मध्य की होती है। प्रवासी उद्भव स्थल की विशेषताओं को पूर्णतः छोड़ नहीं पाते हैं और गन्तव्य स्थल की विशेषताओं को पूर्णतः ग्रहण नहीं कर पाते हैं। अतः प्रवासी जनसंख्या की विशेषताएँ दोनों के बीच की और मिश्रित प्रकार की होती हैं।

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