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व्यावहारिक भूआकारिकी (Applied Geomorphology): अर्थ, परिभाषाएं एवं विकास

भूआकारिकी (Geomorphology) भूगोल के की एक प्रमुख शाखा है, जिसमें पृथ्वी की स्थलाकृतियों और उनके बनने की प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। इसके अध्ययन के दो प्रमुख पहलू हैं – सिद्धांतिक और व्यावहारिक। जहां सिद्धांतिक पहलू हमें प्राकृतिक प्रक्रियाओं की गहराई समझने में मदद करता है, वहीं व्यावहारिक पहलू या कहें व्यावहारिक भूआकारिकी (Applied Geomorphology) इन सिद्धांतों को मानव जीवन में उपयोगी बनाता है।

व्यावहारिक भूआकारिकी (Applied Geomorphology) का अर्थ एवं परिभाषाएं 

व्यावहारिक भूआकारिकी (Applied Geomorphology), भूआकृति विज्ञान की एक शाखा है, जो धरातलीय आकृतियों के अध्ययन और उनके व्यावहारिक अनुप्रयोगों पर केंद्रित होती है। इसका मुख्य उद्देश्य भूआकृतियों के ज्ञान का उपयोग करके पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान करना है।

परिभाषाएं:

  1. डी.के. सी. जोन्स (1980) के अनुसार, “भूमि उपयोग, संसाधन विदोहन, पर्यावरण प्रबंधन एवं नियोजन से संबंधित समस्याओं के समाधान हेतु भूआकृतिक ज्ञान का उपयोग व्यावहारिक भूआकृति विज्ञान कहलाता है”1.
  2. सविन्द्र सिंह एवं यस.एस. ओझा (1996) के अनुसार, “संसाधन मूल्यांकन, सामाजिक-आर्थिक विकास एवं प्राकृतिक प्रकोप एवं आपदा के निवारण हेतु भूआकृतिक तकनीकों एवं शोध से प्राप्त परिणामों का उपयोग व्यावहारिक भूआकृति विज्ञान का प्रमुख पक्ष है”1.

भूआकारिकी का व्यावहारिक महत्व

पिछले कुछ समय तक भूआकारिकी के सिद्धांत अधिकतर पुस्तकों तक सीमित थे, क्योंकि उनके प्रायोगिक उपयोग पर ध्यान कम दिया गया था। लेकिन अब भूआकारिकी के गहन अध्ययन और शोध के कारण इसके सिद्धांतों का प्रयोग विभिन्न समस्याओं के समाधान में किया जाने लगा है।

उदाहरण के लिए विभिन्न स्थलरूपों का अध्ययन करते समय भूवैज्ञानिक संरचना (Geologic Structure), स्तरशैल विज्ञान (Stratigraphy), और अपक्षय कालक्रम (Denudation Chronology) का गहन अध्ययन किया जाता है। इन अध्ययनों से खनिज संपदा का निर्धारण, प्राकृतिक आपदाओं का पूर्वानुमान, और भूगर्भीय गतिविधियों की समझ में मदद मिलती है।

व्यावहारिक भूआकारिकी (Applied Geomorphology) इतिहास और विकास

उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में संयुक्त राज्य अमेरिका में भूआकारिकी पर व्यापक ध्यान दिया गया। जे. हेसन्यू. पावेल और जी. के. गिलबर्ट जैसे विद्वानों ने अमेरिकी पश्चिमी भाग के सर्वेक्षण में भूआकृतिक सिद्धांतों का उपयोग किया। आज भी, आधुनिक तकनीकों और आकारमिति (Morphometry) के जरिए भूआकारिकी में नई जानकारियां जोड़ी जा रही हैं, जिससे मानव और भौतिक भूआकृतियों के बीच के संबंधों को बेहतर समझा जा सकता है।

भारत के विभिन्न भागों में, विशेषकर काजरी (CAZRI, Central Arid Zone Research Institute) जोधपुर में, भू-आकृति विज्ञानियों का ध्यान भू-आकृति विज्ञान के व्यावहारिक पक्ष की ओर आकर्षित हुआ। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में आर.एल. सिंह ने 1960-70 के दशक में भू-आकृति विज्ञान और अधिवास के बीच संबंधों का अध्ययन शुरू किया। इसके बाद, पी.सी. वत्स (1976), पी.सी. वत्स और सुरेन्द्र सिंह (1980, पश्चिमी राजस्थान की नागौर तहसील), आर.के. राय (1982, मेघालय), सविन्द्र सिंह और ओ.पी. सिंह (1976, पलामू उच्चभाग, बिहार) ने इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किए।

भूमि उपयोग और कृषि नियोजन पर भूआकृतिक विशेषताओं के प्रभाव पर भी महत्वपूर्ण शोध हुए हैं। उदाहरण के लिए, ए.के. सेन और सुरेन्द्र सिंह (1977, बीकानेर, राजस्थान) ने भूमि उपयोग नियोजन और विकास पर भूआकृतिक कारकों का अध्ययन किया। बी.एल. भार और यम.एन. झा (1977) ने वानिकी में भूआकारिकी का प्रयोग किया। के.एस. भाटिया और आर.एस. सिंह (1976) ने भूमि संरक्षण के लिए वर्षा गहनता और अपरदन सूचकांक का मूल्यांकन किया।

एच.एस. शर्मा (1979) ने निचली चम्बल घाटी की भूआकृतियों और कृषि विकास पर अध्ययन किया। अनिताकर और अमलकर (1981) ने कृषि नियोजन में भूआकारिकी की सार्थकता पर शोध किया। आर.के. पाण्डेय (1988) ने लघु हिमालय में भूमि उपयोग और ढाल अस्थिरता का अध्ययन किया।

मध्य भारत में बांध की नींव पर ग्रेनाइट अपक्षय का अभाव, भारतीय रेगिस्तान में जल संसाधन की खोज और नियोजन में भूआकारिकी की सार्थकता, और राजस्थान की लून बेसिन में समन्वित प्राकृतिक संसाधन सर्वेक्षण में फोटो-भूआकृतिक तकनीक की भूमिका जैसे क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया गया है।

उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जनपद के ट्रान्स-यमुना प्रदेश की पर्यावरणीय भूआकृति विज्ञान, तटीय स्तूपों का पर्यावरण प्रबंधन, लहुल हिमालय की ऊपरी चन्द्रा बेसिन में पर्यावरणीय परिवर्तन, मध्यप्रदेश के भाण्डेर पठार के आकारजनक प्रदेश, पूर्वी उत्तर प्रदेश की गोमती बेसिन में बाढ़ प्रकोप और पर्यावरण अवनयन, और भरतपुर में अपवाह तंत्र बाढ़ प्रकोप जैसे क्षेत्रों में भी भारतीय भूआकृति विज्ञानियों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

इस प्रकार, भारतीय भूआकृति विज्ञानियों ने विभिन्न क्षेत्रों में भूआकृतिक ज्ञान और तकनीकों का व्यापक रूप से उपयोग किया है।

व्यावहारिक भूआकारिकी (Applied Geomorphology) के कुछ उदाहरण 

भूआकारिकी का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में किया जा सकता है:

1. क्षेत्रीय योजना और विकास – शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए।

2. राजनीतिक सीमाओं का निर्धारण – क्षेत्रीय विवादों को सुलझाने में।

3. बांध निर्माण और बाढ़ नियंत्रण – जल संसाधनों के प्रबंधन में।

4. खनिज पदार्थों की खोज – खनन उद्योग के लिए।

5. सैन्य उपयोग और हवाई अड्डों का स्थान चयन।

6. जलविज्ञान और जल प्रबंधन।

निष्कर्ष

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि व्यावहारिक भूआकारिकी न केवल प्राकृतिक प्रक्रियाओं को समझने का माध्यम है, बल्कि यह मानव जीवन की समस्याओं के समाधान में भी अहम भूमिका निभाती है। इसके अध्ययन और उपयोग से हम बेहतर क्षेत्रीय विकास, आपदा प्रबंधन, और प्राकृतिक संसाधनों का कुशल उपयोग कर सकते हैं।

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