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मृदा संरक्षण के उपाय(Methods of Soil Conservation)

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Table of contents

वर्तमान समय में मृदा अपरदन की समस्या ने भयावह रूप ले लिया है क्योंकि मृदा अपरदन के कारण विश्व स्तर पर हर वर्ष लाखों हेक्टेयर उत्तम कृषि भूमि का विनाश होता जा रहा है। वास्तव में मृदा अपरदन की दर एवं मात्रा में प्रतिवर्ष तेजी से वृद्धि हो रही है, अत: अब यह आवश्यक हो गया हे कि मिट्टियों के अपरदन  की कारगर रोकथाम की जाए ताकि इस बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन के विनाश को रोका जा सके। 

मृदा संरक्षण के किसी भी कारगर उपाय में निम्न आधारभूत उद्देश्यों को शामिल किया जाता है: 

  • वर्षा की जलबूँदों से धरातलीय सतह की रक्षा
  • वर्षा के जल का अधिक भाग भूमिगत जल में शामिल  में हो जिसके लिए वर्षाजल के अन्त: संचरण की दर एवं मात्रा में वृद्धि करना
  • धरातलीय वाहीजल के आयतन एवं वेग में कमी करना
  • मिट्टी की अपरदनशीलता (erodibility) में कमी करना या मिट्टियों के भौतिक एवं रासायनिक गुणों को परिवर्तित करके उनकी अपरदन के प्रति प्रतिरोधिता (resistance) में वृद्धि करना। 

मृदा अपरदन को दो प्रकारों में बाँटा जा सकता है :

मृदा अपरदन के प्रकार (Types of Soil Conservation)

मन्द गति से होने वाला मृदा अपरदन

यह मुख्य रूप से वृष्टि आस्फालन अपरदन (rain splash erosion), वृष्टि घुलन (rainwash) तथा चादर घुलन (sheetwash) की प्रक्रियाओं द्वारा खासकर कृषित क्षेत्रों, वनों के सफाया होने से प्राप्त क्षेत्रों तथा परित्यक्त कृषि क्षेत्रों में अधिक होता है। 

तीव्र गति से होने वाला अपरदन

यह मुख्य रूप से अवनलिका अपरदन (rill and gully erosion) की प्रक्रियाओं द्वारा सम्पन्न होता है। इस तरह का अपरदन मुख्य रूप से वनस्पतिविहीन (मानव द्वारा साफ किए जाने पर) पहाड़ी ढ़ालों, ढलुआ भूमि तथा जलोढ़ नदियों के किनारे वाल भागों में अधिक होता है। अत: विभिन्न प्रकार के मृदा अपरदन की रोकथाम के लिए अलग-अलग संरक्षण उपाय तथा तकनीकों का प्रयोग किया जाना चाहिए। 

मृदा अपरदन के उपाय (Methods of Soil Conservation)

फसलों के प्रबन्धन से सम्बन्धित उपाय तथा तकनीक 

मृदा अपरदन को रोकने के लिए फसलों के प्रबन्धन से सम्बन्धित उपायों का प्रयोग सामान्यतया उन क्षेत्रों में किया जाता है जहां पर फसलों की खेती की जाती है तथा मृदा अपरदन अधिक नहीं होता है। मृदा अपरदन को रोकने के लिए फसलों के प्रबन्धन (crop management) के निम्न उपायों को प्रयोग में लाया जाना चाहिए :

खुले क्षेत्रों की मात्रा तथा अवधि दोनों में कमी करके

यदि कृषि के लिए फसलों का उचित चुनाव किया जाए तो खुले क्षेत्रों की मात्रा तथा अवधि दोनों में भारी कमी हो सकती है और वृष्टि आस्फालन अपरदन (rainsplash erosion) के प्रकोप से कृषि भूमि की रक्षा हो सकती है। उदाहरण के लिए भारत में रबी की फसलों (गेहूँ, जौ, चना, मटर, तिलहन आदि) की कटाई के बाद अधिकांश खेतों को अगली मानसूनी वर्षा के आगमन तक खुला छोड़ दिया जाता है। 

कुछ खेतों को तो वर्षा काल (जून से सितम्बर) में भी खुला छोड़ दिया जाता है (उत्तरी भारत में ऐसे खेतों को चौमास या पलिहर या पलेवा खेत कहते हैं), परिणामस्वरूप ये फसल-विहीन खेत पूरे वर्षाकाल में जलवर्षा के आघात के लिए खुले रहते हैं। इस कारण अधिकतम मृदा अपरदन होता है। 

भारत में हरित क्रान्ति के बाद कम से कम उन क्षेत्रों में, जहाँ पर सिंचाई की सुविधा प्राप्त है, अब कोई भी खेत वर्षाकाल में खुला या खाली नहीं रखा जाता है। सिंचाई वाले क्षेत्रों में धान की अधिकाधिक क्षेत्रों पर कृषि की जाने लगी है, परिणामस्वरूप मृदा अपरदन में भारी कमी आयी है (ज्ञातव्य है कि इनमें से अधिकांश खेत पहले पलिहर/ चौमास के रूप में वर्षाकाल में खाली रखे जाते थे जिस कारण मृदा अपरदन अधिक होता था) । 

इसके बावजूद रबी की फसलों की कटाई तथा धान के पौधों के रोपण के मध्य एक लम्बा अन्तराल होता है। इस अवधि में पूर्वमानसूनी (pre-monsoon) वर्षा द्वारा होने वाले अपरदन से भूमि का बचाव किया जा सकता है। यदि इस समय (शुष्क ग्रीष्म काल) खाली खेतों में ग्रीष्मकालीन दलहनी फसलों (leguminous crops) की खेती प्रारम्भ कर दी जाए। 

उचित फसल का चुनाव करके

जहाँ तक सम्भव हो सके अधिक से अधिक ऐसी फसलों की खेती की जानी चाहिए जो अधिकतम क्षेत्र को ढक सके तथा मिट्टी के कणों को अधिकाधिक रूप से आपस में बांध सके ताकि भूमि सतह को जलवर्षा के सीधे प्रहार से बचाया जा सके। 

इस विधि का पूर्ण रूप से कार्यान्वयन सम्भव नहीं हो सकता है क्योंकि फसलों का चयन निम्न कारकों द्वारा निर्धारित होता है : 

(i) स्थानीय मांग

(ii) फसलों की व्यापारिक कीमत

(iii) बाजार की दशायें (उत्पादों की मांग एवं खपत)

(iv) उपभोक्ताओं की व्यक्तिगत पसंद तथा वरीयता

(v) उत्पादों का आहार मान (food value)

(vi) फसलों की खेती के लिए जल एवं श्रम की आवश्यकता तथा मांग आदि। 

हालांकि उपरोक्त कारकों की वजह से फसलों के चयन में किसान फसलों के व्यापारिक एवं खाद्य महत्व को ध्यान रखता है फिर भी फसलों की अपरदन के प्रति रक्षात्मक क्षमता को ध्यान में रखकर चुनाव करने से मृदा अपरदन को कम किया जा सकता हैं। 

फसलों की बुआई को उचित रूप में समायोजित करके

फसलों की बुआई को इस तरह उचित रूप में समायोजित कर लेना चाहिए कि कोई भी कृषि भूमि अधिक समय तक तीव्र जलवर्षा के प्रहार के लिए खुली न रह सके। उदाहरण के लिए एशिया के मानसूनी प्रदेशों में यदि धान की रोपाई को पहले (मानसून के आरम्भ होने के पहले) प्रारम्भ कर दिया जाए तो मानसून के प्रथम प्रस्फोट के दौरान जनित तीव्र वर्षा के द्वारा होने वाले मृदा अपरदन से कृषि भूमि को बचाया जा सकता है। 

नोट : N. W. Hudson (1957) के अनुसार रोडेशिया (अफ्रीका) में समय से पहले तम्बाकू के पौधों के रोपण से मृदा अपरदन में 50 प्रतिशत ह्रास हुआ है। 

intercropping and mixed cropping
अन्तराल सस्य (intercropping) तथा मिश्र सस्य (mixed cropping)

अन्तराल सस्य (intercropping) तथा मिश्र सस्य (mixed cropping) पद्धति अपनाकर

यदि अन्तराल सस्य (intercropping) तथा मिश्र सस्य (mixed cropping) (अलग-अलग पंक्तियों में भिन्न-भिन्न फसलों के उगाने को अन्तराल सस्य तथा एक ही साथ कई फसलों के सामूहिक रूप से उगाने को मिश्र सस्य कहते हैं) की पद्धतियों के अनुसरण से मृदा अपरदन में कमी हो सकती हैं क्योंकि खेत का अधिक भाग कभी खुला नहीं रहता है क्योंकि सभी फसलें एक साथ नहीं पकती हैं अत: उनकी एक साथ कटाई नहीं होती है। 

इतना ही नहीं पहले पकने वाली फसलें देर से पकने वाली फसलों को सुरक्षा प्रदान करती हैं। भारत में प्राय: उन क्षेत्रों में, जिनमें सिंचाई की सुविधा उपलब्ध नहीं है, खरीफ मौसम में इस तरह की खेती की जाती है। इस तरह की मिश्र खेती में मक्का, दलहनी फसल (मूंग, उरद आदि), अरहर तथा ज्वार की साथ- साथ खेती की जाती है। 

मल्चिंग (mulching) प्रक्रिया अपनाकर

फसलों की कटाई के बाद पौधों की पत्तियों, तनों तथा अन्य घास-फूस से खेतों को ढ़क देने पर भूमि की जलवर्षा के सीधे प्रहार से रक्षा हो जाती है तथा मृदा अपरदन कम हो जाता है। इस क्रिया द्वारा मिट्टियों से वाष्पीकरण द्वारा नमी का क्षय भी घट जाता है। इस प्रकिया को stubble mulching कहते हैं। हालांकि मृदा संरक्षण के इस उपाय के कार्यान्वयन से कई अन्य समस्यायें पैदा हो जाती हैं। 

उदाहरण के लिए खेतों पर घास-फूस के आवरण के कारण बीजों के जमने तथा बढ़ने में बाधा होती है, साथ ही साथ खेतों में खरपतवार तथा हानिकर कीटों की भरमार हो जाती है। इस विधि के स्थान पर छाडन कृषि (trash farming) की वैकल्पिक विधि प्रयोग में लाई जा सकती है। इस विधि के अन्तर्गत फसलों के पौधों को खेत में जोत दिया जाता है। जिस कारण पौधों के विभिन्न भाग मिट्टियों से मिलकर उनकी अपरदन के प्रति प्रतिरोधिता को बढ़ाते हैं।

mulching and trash farming
मल्चिंग (mulching) और छाडन कृषि (trash farming)

रासायनिक खादों के पर्याप्त प्रयोग से

रासायनिक खादों के पर्याप्त प्रयोग के कारण मिट्टियों की उर्वरता बढ़ती है। इस कारण मिट्टियों के कणों का समूहन (aggregation) अधिक होती है जिस कारण वर्ष के जल का मिट्टियों में अन्तः संचरण (infiltration) बढ़ जाता है। परिणामस्वरूप धरातलीय वाही जल में कमी होने से मृदा अपरदन कम होता है। मृदा संरक्षण की इस पद्धति का कार्यान्वयन अधिक खर्चीला है, अत: किसान इस खर्च का वहन नहीं कर पायेंगे। 

फसल चक्र (crop rotation) अपनाकर

रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग के कारण मिट्टियों में जैविक तत्वों की मात्रा में कमी होने लगती है। ज्ञताव्य है कि मिट्टियों के कणों के समूहन के लिए जैविक तत्वों का होना आवश्यक होता है। रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग के कारण मिट्टियों में जैविक तत्वों की मात्रा में होने वाली कमी को फसल चक्र (crop rotation) के द्वारा दूर किया जा सकता है क्योंकि फसल चक्र के द्वारा खेतों में उर्वरता तथा जैविक तत्वों की मात्रा में वृद्धि होती है। 

नाइट्रोजन का स्थिरण (nitrogen fixing) करने वाली दलहनी फसलों (मूंग, उड़द, मसूर, मटर, अरहर आदि) को उगाने से मिट्टियों में उर्वरक तथा जैविक तत्वों की मात्रा में वृद्धि होती है। इस दिशा में कई प्रकार के सस्य संयोजनों (crop combinations) को सुझाया जा सकता है परन्तु अधिकांश विकासशील देशों में फसल चक्र का कार्यान्वयन सम्भव नहीं हो सकता है क्योंकि बढ़ती जनसंख्या के कारण खाद्यान्नों की मांग में निरन्तर वृद्धि होने से खाद्यान्नों वाली फसलों के स्थान पर अन्य फसलों का उगाना सम्भव नहीं हो पायेगा। 

अवनलिका अपरदन (rill and gully erosion) से प्रभावित क्षेत्रों में कृषि एवं चराई बंद करके

सक्रिय अवनलिका अपरदन (rill and gully erosion) से प्रभावित क्षेत्रों को सक्रिय कृषि एवं चराई से हटा लेना चाहिए, अर्थात् ऐसे क्षेत्रों में खेती करना या चराई करना तत्काल बन्द कर देना चाहिए ताकि अपरदन से दुष्प्रभावित भूमि में भूमि संरक्षण एवं भूमि सुधार की तकनीकों का प्रयोग किया जा सके। 

इस योजना का भी कई प्रकार की आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी तथा कानूनी प्रतिबन्धों एवं कठिनाइयों के कारण कार्यान्वयन आसानी से सम्भव नहीं हो पायेगा क्योंकि गरीब किसान अवनलिका अपरदन से प्रभावित खेतों को कृषि से स्वेच्छया रिटायर करने के लिए तैयार नहीं होंगे क्योंकि उनके पास रोजी- रोटी के लिए अन्य वैकल्पिक स्रोत नहीं हैं। 

यह योजना तभी सफल हो सकती है जबकि सरकार की ओर से किसानों को तब तक आर्थिक मुआवजा (economic compensation) दिया जाना चाहिए जब तक उनकी जमीन भूमि संरक्षण एवं सुधार की योजनाओं के अन्तर्गत रहती है। सवाल उठता है कि क्या विकासशील देशों में सरकार इतने बड़े अतिरिक्त आर्थिक बोझ का वहन कर सकेगी? 

क्या किसान मृदा अपरदन से पीड़ित अपने खेतों को सक्रिय कृषि से रिटायर करने के लिए स्वेच्छा से राजी होंगे। इन तथा ऐसे अन्य प्रश्नों का आर्थिक कारणों से उत्तर देना सम्भव नहीं है। पुनश्च, विकासशील देशों में अधिकांश किसान रूढ़िवादी होते हैं तथा किसी भी नयी योजना को कार्यान्वित करने के लिए जल्दी तैयार नहीं होते हैं। 

वनरोपण (forestation) द्वारा

विस्तृत पहाड़ी ढालों पर, जिन्हें वन विनाश द्वारा साफ कर दिया गया है, वनरोपण (forestation) द्वारा मृदा अपरदन को सफलता के साथ रोका जा सकता है। वनरोपण की योजना तभी सफल हो सकती है जबकि सरकारी एवं जनसाधारण दोनों का भरपूर सहयोग प्राप्त हो। सामाजिक वानिकी (social forestry) द्वारा भी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से मृदा के अपरदन को रोकने में सहायता मिलती है क्योंकि इस योजना के सफल होने पर वनों को बचाया जा सकता है क्योंकि जलावन के लिए वांछित लकड़ियाँ (firewood) सामाजिक वनों से प्राप्त हो जायेंगी, साथ ही साथ इनमें चराई भी की जा सकती है। 

यांत्रिक उपाय

मृदा अपरदन की रोकथाम के यांत्रिक उपायों एवं तरीकों के अन्तर्गत जुताई, निराई, गुड़ाई, कृषि आदि की विभिन्न तकनीकों को शामिल किया जाता है। इन तकनीकों का प्रयोग मुख्य रूप से ढ़लुआ भूमियों एवं पहाड़ी ढलानों पर धरातलीय प्रवाह की मात्रा, वेग तथा परिवहन क्षमता को कम करने एवं जल के मिट्टियों में अन्त: संचरण (infiltration) को बढ़ाने के लिए किया जाता है।

समोच्च कृषि (contour farming)

‘ढ़लुआ धरातल पर प्राकृतिक समोच्च रेखाओं के सहारे जुताई, रोपण, कर्षण (cultivation), झिराई (नालीदार जुताई- furrowing) आदि को सम्मिलित रूप से समोच्च कृषि कहते हैं’ (A. N Strahler and A. H. Strahler, 1976)। 

ढालों के समानान्तर हल चलाकर जुताई करने से लम्बी-लम्बी कूड़ों (furrows) वाली नालियाँ बन जाती हैं जिनसे होकर वर्षा का जल आसानी से निचले ढाल की ओर प्रवाहित होने लगता है। इस तरह के मृदा अपरदन को रोकने के लिए ढलुआ खेतों की ढाल की अनुप्रस्थ या लम्बवतदिशा में जुताई की जानी चाहिए। 

इस तरह की जुताई (ploughing) के कारण धरातलीय प्रवाह का वेग कम हो जाता है क्योंकि प्रत्येक कूँड़ (furrow) में जल अवरूद्ध हो जाता है। वास्तव में ढालों की अनुप्रस्थ दिशा में जुताई के कारण ऊपरी ढाल से निचले ढाल तक कूँड़ों द्वारा कई छोटे-छोटे बांध बन जाते हैं जिस कारण वाही जल अवरूद्ध हो जाता है, खेतों में जलवर्षा का अधिकतम अन्तः संचरण होता है, धरातलीय प्रवाह में कमी हो जाती है, जलधारों एवं नलिकाओं (rills) का निर्माण कम हो जाता है, परिणामस्वरूप नलिका अपरदन (rill erosion) द्वारा होने वाला मृदा क्षय निहायत कम हो जाता है। 

इस तरह की समोच्च कृषि की तकनीक उन्हीं क्षेत्रों में सफल हो सकती है जहाँ पर पहाड़ी ढाल तथा नदी के पार्श्व ढाल अधिक नहीं हैं तथा वर्षा सामान्य होती है। परन्तु यदि वर्षा अचानक तेज होती है तो कूँड़ों वाले अस्थायी बांध अचानक टूट कर बह जाते हैं तथा धरातलीय जल प्रवाह तेज गति से होने लगता है, परिणामस्वरूप मृदा अपरदन में पहले से भी अधिक वृद्धि हो जाती है।

contour farming and terraced farming
समोच्च कृषि (contour farming) और सीढ़ीदार कृषि (terraced farming)

सहबद्ध मेड़ निर्माण (tied-ridging)

सहबद्ध मेड़ निर्माण मिट्टियों के अपरदन को रोकने के लिए एक कारगर यांत्रिक रक्षात्मक उपाय (mechanical protective device) है। इस विधि के तहत पहाड़ी ढालों की जुताई ढाल की दिशा में आर-पार (अनुप्रस्थ दिशा में) की जाती है जबकि मेड़ों का निर्माण ढाल की दिशा में तथा जुताई से निर्मित कूँड़ों (furrows) के आर- पार किया जाता है। 

इस क्रिया के फलस्वरूप पहाड़ी ढालों पर स्थित खेत कई छोटी-छोटी बेसिनों में बँट जाते हैं जिस कारण वर्षा का जल इन बेसिनों में अवरुद्ध हो जाता है। परिणामस्वरूप वाहीजल का वेग निहायत कम हो जाता है और मृदा का अपरदन रूक जाता है या कम से कम घट तो अवश्य जाता है। इस तरह की तकनीक को संयुक्त राज्य अमेरिका में बेसिन लिस्टिंग कहते हैं। 

क्रिसकास जुताई

जलोढ़ मैदानी क्षेत्रों की नदियों के किनारे वाले भागों की यदि क्रिस-क्रास ढंग से जुताई की जाए तो घाटी के  पार्श्व ढालों पर होने वाले तीव्र मृदा अपरदन को काफी हद तक रोका जा सकता है। क्रिस-क्रास जुताई के अन्तर्गत पहले खेतों को ढाल की दिशा में (नदी के किनारे से जलधारा के लम्ब रूप में) जोता जाता है और बाद में ढाल के आर-पार जोता जाता है। इस क्रिया के कारण जुताई से बनने वाले लम्बे-लम्बे कूड़ नष्ट हो जाते हैं जिस कारण कूँड़ों से होकर बहने वाली नलिकाओं (rills) का निर्माण नहीं हो पाता है। परिणामस्वरूप मृदा अपरदन में कमी हो जाती है। 

सीढ़ीदार खेत निर्माण (terracing) या समोच्च पेंड़ निर्माण (contour bunding)

इस विधि के अन्तर्गत पहाड़ी ढालों की सामान्य प्रवणता दिशा के आर-पार समान तल वाली सीढ़ियाँ बनायी जाती हैं तथा इन सीढ़ियों या क्यारियों को चारों तरफ से मेड़ों से घेर दिया जाता है। इन मेंड़ों के कारण वर्षा का जल छोटे- छोटे खेतों या क्यारियों में रुक जाता है तथा उनका मिट्टियों में अधिकतम अवशोषण होता है। 

इस तरह की सीढ़ीदार कृषि (terraced farming) या समोच्च कृषि (contour farming) के दो प्रमुख उद्देश्य होते हैं 

  • खेतों में वर्षा के जल को अधिक समय तक रोकना, तथा 
  • मृदा के अपरदन को रोकना। 

इस तरह की विधि उन क्षेत्रों में अधिक कारगर होती है जहाँ पर तीव्र ढाल एवं अधिक जलवर्षा के कारण तेज गति से अपरदन होता है, यथा- दक्षिणी-पूर्वी एवं दक्षिणी एशिया के पहाड़ी ढालरूमसागरीय भागों में भी इस तकनीक को अपनाया जाता है। यहाँ पर सीढ़ीदार खेतों में जैतून एवं अंगूर की कृषि की जाती है। भारत के पहाड़ी प्रदेशों (हिमालय क्षेत्र, उ० पूर्वी पहाड़ी क्षेत्र, पश्चिमी घाट आदि) में सीढ़ीदार कृषि एक आम बात है। 

भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में सीढ़ीदार खेतों को ऊपरी ढाल से आने वाले जल की अधिक मात्रा के कारण अपार क्षति हो रही है। मेड़ों का तेजी से कटाव को रहा है। वास्तव में ढालों के ऊपरी भागों पर वन विनाश के कारण धरातलीय वाही जल (surface runoff) में तेजी से वृद्धि हुई है जिस कारण निचले ढालों पर जल के आयतन एवं वेग में वृद्धि होने के कारण सीढ़ीदार खेतों को काफी नुकसान हो रहा है।

सीढ़ीदार खेतों को बनाते समय ढाल की प्रवणता एवं धरातलीय प्रवाह (overland flow) की जलीय विशेषताओं को ध्यान में रखना परमावश्यक है। सीढ़ियों को काफी पास-पास बनाना चाहिए ताकि धरातलीय जल प्रवाह के वेग को कम किया जा सके। तीव्र वर्षा के समय प्राप्त होने वाले जल के निष्कासन के लिए नालियों (diversion drains) का निर्माण किया जाना चाहिए ताकि अतिरिक्त जल को खेतों से बाहर निकाला जा सके एवं अत्यधिक वेगवान धरातलीय जल प्रवाह के प्रकोप से मृदा को बचाया जा सके एवं खेतों की मेड़ों को टूटने से रोका जा सके। 

अवनलिका अपरदन का नियंत्रण (control of gully erosion)

वृष्टि आस्फालन अपरदन (rainsplash erosion), वृष्टि घुलन (rainwash) तथा चादरी अपरदन (sheetwash) द्वारा वृहद् क्षेत्रों में मिट्टियों का क्षरण इस तरह मन्द गति से होता है कि यद्यपि प्रति वर्ष लाखों टन उपजाऊ मिट्टियों का क्षय होता है परन्तु भूमिसतह का विच्छेदन एवं घर्षण (dissection) न्यूनतम या नगण्य होता है जिस कारण खेतों में सदा कृषि के उपकरणों का प्रयोग हो सकता है तथा कृषि की प्रक्रिया जारी रहती है। 

इसके विपरीत अवनलिका अपरदन द्वारा यद्यपि कम मृदा का क्षय होता है परन्तु अत्यधिक विच्छेदन के कारण भूमि कई टुकड़ों में विभक्त हो जाती है जिस कारण कृषि के उपकरणों का प्रयोग नहीं हो पाता है तथा कृषि कार्य भी रुक जाता है। वास्तव में यदि नलिका एवं अवनलिका अपरदन (rill and gully erosion) को रोका न जाय तो इस प्रक्रिया के कारण विस्तृत भूभाग बंजर भूमि (wasteland) तथा उत्खात धरातल (badland topography – ऊबड खाबड़ धरातल) में बदल जाता है। 

अवनलिका अपरदन की रोकथाम एवं अवनलिका अपरदन से उत्पन्न बीहड़ क्षेत्रों (ravine lands) के सुधार के लिए निम्न उपाय कारगर होते हैं: 

  • मिट्टियों से निर्मित अवरोधक बांधों (check dams) द्वारा अवनलिकाओं (gullies) में जल के प्रवाह वेग को कम करना
  • अवरोधक बाधों के पीछे अवसादों को रोकना
  • अवनलिका की घाटी के किनारे वाले भागों (घाटी पार्श्व) तथा अवनलिका के शीर्ष भाग के ढाल को कम करना
  • अवनलिका की घाटी की दीवालों को घासों, झाड़ियों एवं वृक्षों के रोपण द्वारा स्थायी करना
  • लोहे की जालियों में पत्थर के छोटे-बड़े टुकड़ों को डालकर अवनलिका के शीर्ष भाग पर इन जालियों को जमाना ताकि अवनलिका द्वारा होने वाले शीर्षवर्ती अपरदन headward erosion) को रोका जा सके
  • दो अवनलिकाओं के मध्य स्थित भागों को कृषि से रिटायर करना (कृषि कार्य का स्थगन करना) तथा शेष क्षेत्रों पर झाड़ियों एवं वृक्षों तथा घासों का रोपण करना आदि।

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