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मानव-पर्यावरण संबंधों के अध्ययन से संबंधित विचारधाराएँ (Ideologies Related to the Study of Human-Environment Relationships)

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मानव व पर्यावरण में क्या सम्बन्ध है ? इनमें कौन अधिक प्रभावशाली तथा नियन्त्रक है ? क्या प्रकृति सर्वोपरि एवं निर्णायक है ? क्या मानव मात्र प्रकृति के हाथ का खिलौना है अथवा वह बराबर का भागीदार है ? क्या तकनीकी और वैज्ञानिक विकास ने प्रकृति के महत्त्व को समाप्त कर मानव को सार्वभौम शक्तिशाली बना दिया है ? आदि अनेक प्रश्न भौगोलिक अध्ययन में उभरते रहे हैं और विषय के विकास के साथ कुछ विचारधाराओं का भी विकास हुआ जो मानव-पर्यावरण सम्बन्धों को व्यक्त करने हेतु विकसित हुईं, जैसे नियतिवाद, सम्भववाद, नव-नियतिवाद, आदि। इन विचारधाराओं का विवेचन हम संबंधित लेखों में कर चुके हैं। 

मानव- पर्यावरण के भौगोलिक स्वरूप को समझने के लिए उपर्युक्त विचारों के अतिरिक्त भी यदा कदा अन्य विचार उभरते रहे, जिन सभी का उद्देश्य कतिपय भिन्नता के साथ इन सम्बन्धों की व्याख्या करना रहा और आज भी अनेक विद्वान इन सम्बन्धों की बदलते परिवेश में व्याख्या कर रहे हैं, किन्तु यह सभी स्वीकार करते हैं कि प्रकृति और मानव दोनों का महत्त्व है। इस सम्बन्ध में विकसित कतिपय विचारों का संक्षिप्त वर्णन नीचे किया जा रहा है:  

कृतिवाद (Voluntarism)

इसमें मानव की क्षमता एवं शक्ति को महत्ता प्रदान करते हुए यह व्यक्त किया गया है कि वह पर्यावरण को एक सम्भावित स्थिति तक परिवर्तित कर सकता है। जैसे सिंचाई सुविधा द्वारा मरुस्थल में कृषि कर सकता है, विशेष प्रकार के बीजों से साइबेरिया के क्षेत्रों में खेती करता है, सूर्य शक्ति से ऊर्जा प्राप्त करता है, जलवायु के विपरीत होने पर भी ‘ग्रीन हाउस’ में सीमित पदार्थ उत्पादित करता है या वातानुकूलन द्वारा जलवायु के प्रभाव से कुछ समय अपने को मुक्त कर लेता है, आदि-आदि। 

पर्यावरण का उपयोग करके ही मानव प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा है, यह अवश्य है कि इसमें वह पर्यावरण को हानि पहुँचा रहा है, उसे विकृत एवं प्रदूषित कर रहा है किन्तु साथ में वह उसको संरक्षित भी करने का उपाय करता रहता है। प्राकृतिक पर्यावरण से समानुकूलन कर विभिन्न प्रकार से जीविकोपार्जन कर मानव प्रगति करता है। साथ ही वह पर्यावरण का शोषक एवं विनाशक भी है। 

यह क्रम मानवीय कृत्यों के साथ जुड़ा हुआ है। इसे सही दिशा देकर ही भावी प्रगति की जा सकती है तथा पर्यावरण का संरक्षण भी किया जा सकता है। यह वास्तव में एक दार्शनिक विचारधारा है जिसमें संकल्प या इच्छा को सर्वोच्च मान कर व्यक्त किया गया है। 

मानकी दृष्टिकोण (Normative Approach)

प्राकृतिक विज्ञानों के आधार पर 20वीं शताब्दी के मध्य मानव व्यवहार एवं स्थान विशेष के भौगोलिक सम्बन्धों को ‘मानकी’ दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। इसमें मानव का स्थान से अन्तः सम्बन्धों को ‘आदर्श’ या ‘सर्वोत्तम’ स्थिति (Optimum location) के रूप में प्रतिपादित किया गया। 

किसी भी क्रिया एवं वस्तु की उत्तम स्थिति क्या है, चाहे वह नगर हो, बाजार हो, उद्योग हो, परिवहन हो या कोई अन्य मानवीय प्रतिष्ठान। उत्तम स्थिति का एक मापदण्ड या मानक होता है तथा उत्तम स्थिति पर्यावरण के सामन्जस्य, समानुकूलन तथा उसमें कतिपय परिवर्तन द्वारा ही सम्भव होती है। इनके चुनाव हेतु अनेक मॉडल एवं विधियाँ वर्णित की गई हैं,जिनका वर्णन यहाँ प्रासंगिक नहीं, किन्तु यह स्पष्ट है कि पर्यावरण की भूमिका उत्तम स्थिति चुनने में महत्त्वपूर्ण होती है। 

उपक्रमवादिता (Phenomenology)

यह एक दार्शनिक सिद्धांत है कि मनुष्य की आन्तरिक इच्छा या कार्य करने की प्रवृत्ति एक निर्धारक भूमिका निभाती है। इसके सम्बन्ध में हेगेट ने लिखा है “Phenomenology is an existential philosophical school which admits that introspective or intuitive attempts to gain geographic knowledge are valid.” यह कृतिवाद का ही एक स्वरूप है। 

निश्चित है मानव की इच्छा एवं संकल्प, कार्य करने की प्रवृत्ति महत्त्वपूर्ण है किन्तु उसकी आवश्यक परिस्थितियाँ एक ओर पर्यावरण से तथा दूसरी ओर विज्ञान एवं तकनीक से प्राप्त की जाती हैं। 

पारिस्थितिकी दृष्टिकोण (Ecological Approach)

मानव पर्यावरण के सम्बन्धों की आधुनिक अभिव्यक्ति पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण में परिलक्षित होती है, जिसमें मानव को पारिस्थितिक तन्त्र का एक घटक माना जाता है। यह दृष्टिकोण प्राकृतिक पर्यावरण- मानव तथा तकनीकी विकास में समन्वय एवं संयोजकता का द्योतक है। पर्यावरण तथा मानव पृथक् न होकर एक ही तन्त्र के अंग हैं तथा एक दूसरे के पूरक हैं। पर्यावरण मानवीय कृत्यों का प्रेरक है तथा मानव अनेक कृत्यों से पर्यावरण को प्रभावित करता है। इसके फलस्वरूप पर्यावरण में परिवर्तन होता है जो पुनः मानव को प्रभावित करता है। अर्थात् पर्यावरण मानव एवं तकनीकी-विकास में अन्तर्सम्बन्ध है। 

वायु, जल, भूमि का अत्यधिक उपयोग विनाश का कारण होता है। यही नहीं अपितु नगरीकरण, औद्योगीकरण, परिवहन का विकास, हरित क्रान्ति, आदि मानवीय प्रगति के प्रतीक कार्यों ने पर्यावरण को प्रदूषित किया है और यह अधिक होता जा रहा है। पर्यावरण प्रदूषण कोई पृथक् तथ्य नहीं अपितु यह मानव को विपरीत रूप में प्रभावित कर रहा है। वास्तव में मानव पर्यावरण का सम्बन्ध आपसी क्रिया-प्रतिक्रिया और आपसी परिवर्तन (Mutual interaction and mutual transformation) पर निर्भर है। 

पर्यावरण का मानवीकरण हो तथा मानव उसके महत्त्व को समझे तभी सही अर्थों में विकास हो सकता है जैसा कि प्रो. मूनिस रजा ने लिखा है, “We cannot think of a non-humanised nature and ‘non-naturalised man’. He (the man) alone among the known species of planet, just does not adapt himself to nature but actually interacts with it, who is not only a passive element but is an active factor in the ecosystem.”

स्पष्ट है कि मानव पारिस्थितिक-तन्त्र का अभिन्न अंग है, साथ ही वह क्रियाशील है जो पर्यावरण में निरन्तर परिवर्तन करता रहता है। यह परिवर्तन समय तथा स्थान के साथ परिवर्तित होते रहते हैं जो भौगोलिक अध्ययन का प्रमुख क्षेत्र है।

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