Estimated reading time: 11 minutes
Table of contents
- यांत्रिक या भौतिक अपक्षय (Mechanical or Physical Weathering)
- ताप के कारण चट्टानों का बड़े-बड़े टुकड़ों में विघटन (block disintegration due to temperature change)
- ताप के कारण चट्टानों का छोटे-छोटे कणों में विघटन (granular disintegration of rocks due to temperature )
- वर्षा के जल द्वारा चट्टानों का टूट-टूट कर बिखरना (shattering of rocks due to rainwater and heat)
- तुषार कणों द्वारा चट्टानों का बड़े-बड़े टुकड़ों में विघटन (block disintegration of rocks due to frost)
- वायु तथा ताप द्वारा चट्टानों का अपदलन (exfoliation of rocks due to temperature and wind )
- दाबमुक्ति द्वारा चट्टानों का विघटन तथा अपदलन (disintegration and exfoliation of rocks due to pressure release )
- FAQs
- You May Also Like
हम पिछले लेख ‘अपक्षय: अर्थ एवं प्रभावित करने वाले कारक’ में जान चुके हैं कि अपक्षय मुख्य रूप से विघटन (यांत्रिक परिवर्तन) तथा वियोजन (रासायनिक परिवर्तन) की क्रियाओं का परिणाम होता है। इन दोनों के अलावा जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों के द्वारा भी अपक्षय होता है तथा इनके कार्य भी यांत्रिक तथा रासायनिक दोनों रूपों में सम्पन्न होते हैं। इस प्रकार हम अपक्षय में भाग लेने वाले कारकों के आधार पर अपक्षय को निम्नलिखित चार रूपों में विभाजित कर सकते हैं
1. भौतिक या यांत्रिक अपक्षय
2. रासायनिक अपक्षय
3. प्राणिवर्गीय अपक्षय
4. जैव रासायनिक अपक्षय
इस लेख में हम केवल भौतिक या यांत्रिक अपक्षय की ही बात करेंगे:
यांत्रिक या भौतिक अपक्षय (Mechanical or Physical Weathering)
इस प्रकार के अपक्षय में चट्टानों का विघटन उनमें होने वाले भौतिक या यांत्रिक परिवर्तन का परिणाम होता हैं। सूर्यताप, तुषार तथा वायु द्वारा चट्टानों में विघटन होने की क्रिया को ‘यांत्रिक अपक्षय’ कहा जाता है। वैसे तो भौतिक अपक्षय (Physical Weathering) के कारकों में ताप में होने वाला परिवर्तन सबसे अधिक प्रभावशाली होता है फिर भी इसके अन्तर्गत दाब मुक्ति (pressure release), जल का जमना-पिघलना तथा गुरुत्व का भी कहीं ना कहीं योगदान रहता है। भौतिक अपक्षय (Physical Weathering) का निम्न रूपों में उल्लेख किया जा सकता है-जिसके निम्नलिखित कारण होते हैं:
(i) ताप के कारण चट्टानों का बड़े-बड़े टुकड़ों में विघटन
(ii) ताप के कारण चट्टानों का छोटे-छोटे कणों में विघटन
(iii) तुषार के कारण चट्टानों का बड़े-बड़े टुकड़ों में विघटन
(iv) ताप तथा वायु के कारण चट्टानों का अपदलन
(v) दाबमुक्ति के कारण चट्टान का टूटना
ताप के कारण चट्टानों का बड़े-बड़े टुकड़ों में विघटन (block disintegration due to temperature change)
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि तापमान में होने वाला परिवर्तन चट्टानों पर सर्वाधिक प्रभाव डालता है। हालांकि कुछ ऐसी भी चट्टानें होती हैं जिन पर ताप परिवर्तन का प्रभाव नहीं होता जैसे चट्टान-चूर्ण से बनी चट्टानों (clastic rocks) खासकर शेल (shale) तथा बालुका पत्थर पर तापीय अन्तर का प्रभाव न के बराबर होता है।
रवेदार चट्टानों के कण एक दूसरे से संगठित होते हैं तथा ताप के बढ़ने से प्रत्येक कण फैलता है तथा ताप में कमी होने के साथ उनमें सिकुड़न हो जाती है। उदाहरण के लिए यदि ग्रेनाइट चट्टान की परत का ताप 65.5° सेण्टीग्रेड बढ़ा दिया जाय तो प्रति 30-48 मीटर की दूरी पर 2.54 सेण्टीमीटर का ग्रेनाइट की परत में क्षैतिज विस्तार हो जाता है। अगर उतना ही ताप घटा दिया जाय तो 2.54 सेंमी० दूरी का ह्रास हो जाता है।
चट्टानों में होने वाला यह विघटन उष्ण मरुस्थलीय प्रदेशों में अधिक देखा जाता है । ऐसे स्थानों में रेतकणों (sands) की अधिकता के कारण दैनिक तापान्तर अधिक होता है, जिस कारण चट्टानों का खुला हुआ भागदिन में अधिक ताप के कारण गर्म हो जाता है, जिस कारण उसकी बाह्य परत में फैलाव होने लगता है। रात के समय इसके विपरीत दशा होती है,क्योंकि ताप में भारी कमी आ जाती है, जिस कारण चट्टानें ठंडी होने लगती हैं, जिससे उनकी बाहरी परत में संकुचन होने लगता है ।
इस प्रकार चट्टानों के बार-2 गर्म तथा ठंडा होने से चट्टानों में बराबर फैलाव तथा संकुचन होता रहता है, जिस कारण उनमें तनाव या खिंचाव की स्थिति पैदा हो जाती है। इस क्रमिक फैलाव एवं संकुचन के कारण चट्टानों में समानान्तर जोड़ या संधियों का विकास हो जाता है। और इन संधियों के सहारे चट्टानें बड़े-बड़े टुकड़ों में टूटने लगती हैं।
ताप के कारण चट्टानों का छोटे-छोटे कणों में विघटन (granular disintegration of rocks due to temperature )
ऐसे शुष्क मरुस्थलीय भाग, जहाँ पर दैनिक तापान्तर (दिन व रात के तापमान में अंतर) अधिक होता है, में बड़े-बड़े कणों वाली चट्टानें टूट-टूटकर बिखरने (shattering) लगती हैं। कई ऐसी परतदार तथा आग्नेय चट्टानें होती हैं जो बड़े-बड़े कणों वाली होती हैं तथा उनके खनिजों एवं रंगों में पर्याप्त अंतर होता है । जहाँ पर किसी चट्टान विशेष की संरचना विभिन्न रंगों द्वारा हुई होती है, वहाँ उनके विभिन्न भागों में ताप ग्रहण करने की क्षमता अलग-अलग होती है।
इस प्रकार एक ही चट्टान विशेष के विभिन्न भागों में ताप की विभिन्न मात्रा का शोषण होता है। जिससे उनका फैलाव भी अलग-अलग होता है। इसी तरह रात के समय ताप में कमी के कारण उस चट्टान के विभिन्न भागों में संकुचन की मात्रा भी भिन्न-भिन्न होती है। परिणाम यह होता है कि चट्टान के विभिन्न भागों में तनाव की स्थिति पैदा हो जाती है, जिस कारण चट्टानों का छोटे-छोटे टुकड़ों में विघटन प्रारम्भ हो जाता है।
वर्षा के जल द्वारा चट्टानों का टूट-टूट कर बिखरना (shattering of rocks due to rainwater and heat)
गर्म प्रदेशों में जहाँ पर तापमान अधिक रहता है, वहां वर्षा के जल द्वारा चट्टानें टूट-टूट कर बिखरने लगती हैं। इस क्रिया को समझाने के लिए ग्रिग्स महोदय ने अपने प्रयोगों के आधार पर यह बताया है कि जब बहुत गर्म चट्टानों के ऊपर अचानक जल की छींटें पड़ती हैं तो उनमें चटकने आ जाती हैं।
चट्टानों पर इस प्रकार के तापीय अन्तर के परिणाम को जानने के लिए ग्रिग्स महोदय ने विद्युत हीटर तथा ठण्डी पवन का सहारा लिया। सबसे पहले उन्होंने ग्रेनाइट चट्टान का तापमान 110° सेण्टीग्रेड तक बढ़ाया तथा बाद में इसे कम किया। तापमान के बढ़ाने तथा घटाने की प्रक्रिया को ग्रिग्स ने इतनी बार दुहराया, जितना 224 वर्षों में प्राकृतिक ढंग से सम्भव हो सकता था। परन्तु इस तापीय अन्तर का ग्रेनाइट चट्टान के ऊपर कोई प्रभाव दिखाई नहीं दिया।
लेकिन दोबारा से ग्रिग्स ने इसे ढाई वर्ष के लिए दुहराया तथा चट्टान को शीतल करने के लिए ताप को घटाने की अपेक्षा (ठंडी वायु) ठंडे पानी के छींटों का प्रयोग किया। जिसके परिणामस्वरूप चट्टानों में चटकनें पैदा हो गई। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि चट्टानों की ये चटकनें जल के साथ मिली आक्सीजन तथा कार्बन डाई आक्साइड गैसों के रासायनिक प्रभाव के कारण हुई हैं।
अत: निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि गर्म चट्टानों के ऊपर जब अचानक वर्षा की फुहारें पड़ती हैं तो उनमें शीघ्रता से चटकनें पड़ जाती हैं तथा चट्टानें छोटे-छोटे कणों में टूट कर बिखरने लगती हैं। इस क्रिया को एक और उदाहरण से समझाया जा सकता है। यदि शीशे की तप्त चिमनी पर जल की छीटें मारी जाएं तो शीशा जोरों से चटककर टूट जाता है। रेगिस्तानी भागों में अचानक वृष्टि के कारण यह क्रिया अधिक रूप में सम्पादित होती है।
तुषार कणों द्वारा चट्टानों का बड़े-बड़े टुकड़ों में विघटन (block disintegration of rocks due to frost)
तुषार के कारण होने वाले यांत्रिक अपक्षय में चट्टानों के बड़े-बड़े टुकड़ों के विघटन को शामिल किया जाता है, जो अधिकतर शीतोष्ण एवं शीत कटिबन्धीय भागों में होता है,। इन क्षेत्रों के अलावा ऊँचे पर्वतों की चोटी पर भी यह क्रिया अधिक सक्रिय होती है।
चट्टान के संगठन का प्रभाव इस प्रकार के भौतिक अपक्षय (Physical Weathering) पर अधिक होता है। यही कारण है कि अधिक सशक्त तथा संगठित रवेदार ग्रेनाइट चट्टानों में रिक्त स्थानों की कमी के कारण जल के इकट्ठा होने की संभावना कम रहती है। अत: ग्रेनाइट चट्टान तुषार की क्रिया द्वारा कम प्रभावित होती है। इसके विपरीत प्रथम इसके विपरीत दूसरी परतदार शैल, जो रंध्रयुक्त (छिद्रयुक्त) होती है, जल के जमने तथा पिघलने से सर्वाधिक प्रभावित होती है। बालुका पत्थर तथा शेल आदि चट्टानें इस क्रिया के कारण शीघ्रता से छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट जाती हैं।
देखा जाए तो यह क्रिया उन स्थानों में अधिक क्रियाशील होती है, जहाँ पर जल का जमना तथा पिघलना दोनों क्रम से एक दूसरे के बाद घटित होता रहता हो। तुषारपात की क्रिया दो रूपों में सम्पन्न होती है। पहली क्रिया में तो चट्टानों के कणों के अन्दर स्थित जल के जमने तथा पिघलने से होती है। इस प्रकार के विघटन में चट्टानों के कणों के अन्दर जल समाविष्ट होता है ।
रात के समय यह जल जमकर बर्फ बन जाता है तथा दिन में पिघलकर तरल हो जाता है। इस क्रिया की बार-2 होने से चट्टान के कणों में दबाव तथा तनाव होने से चट्टान का छोटे-छोटे कणों में विघटन प्रारम्भ हो जाता है। यह क्रिया बहुत धीमी गति से होती है तथा इसका प्रभाव नगण्य होता है।
दूसरा, चट्टानों की दरारों में स्थित जल के द्वारा। इस क्रिया में चट्टानों के अन्दर छोटे-छोटे छिद्र तथा दरार होते हैं, जिनमें जल एकत्र हो जाता है। दिन के समय जल का समावेश इन रिक्त स्थानों में हो जाता है तथा रात के समय ताप में कमी होने तथा उसके हिमांक बिन्दु के प्राप्त हो जाने के बाद रिक्त स्थानों में स्थित जल जमकर बर्फ के रूप में ठोस हो जाता है।
परिणामस्वरुप आयतन अधिक हो जाता है, क्योंकि साधारण नियम के अनुसार जब जल जमकर ठोस हो जाता है तो उसके आयतन में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो जाती है। आयतन में होने वाली इस बढ़ोतरी के कारण चट्टान पर प्रति वर्ग फुट पर 150 टन का दबाव पड़ता है, जिस कारण में चट्टानों में खासकर दरारें चौड़ी होने लगती हैं।
दिन के समय तापमान बढने के कारण बर्फ पिघलकर जल का रूप धारण कर लेती है, जिससे उसके आयतन में कमी हो जाती है। फलस्वरूप दरारों में संकुचन होने लगता है, इसी क्रिया की क्रम से पुनरावृत्ति के कारण चट्टानों की दरारों में फैलाव तथा संकुचन होता रहता है, जिस कारण चट्टान निहायत कमजोर हो जाती है।
उसमें विघटन प्रारम्भ हो जाता है, जिससे चट्टानों के बड़े-बड़े टुकड़े टूटकर अलग होने लगते हैं। जब यह क्रिया उच्च पर्वतीय भाग में घटित होती है, तो चट्टानों के टुकड़े गुरुत्व शक्ति के कारण निचले ढाल की ओर सरकने लगते हैं, जिसे भूमिसर्पण (solifluction) कहते हैं तथा पर्वतों के निचले भाग पर जब इनका ढेर के रूप में संचयन हो जाता है तो उसे टालस कहते हैं।
वायु तथा ताप द्वारा चट्टानों का अपदलन (exfoliation of rocks due to temperature and wind )
रेगिस्तानी, अर्द्ध-रेगिस्तानी तथा मानसूनी प्रदेशों में ताप तथा वायु के संयुक्त कार्य के द्वारा चट्टानों की परतों से सकेन्द्रीय परत अथवा क्षैतिज परतों का विलगाव होता रहता है। इसे अपदलन या परतों का उखड़ना कहते हैं । यह क्रिया प्रायः रवेदार चट्टानों में अधिक घटित होती है ।
उष्ण रेगिस्तानी भागों में रात में कम ताप के कारण चट्टानों में संकुचन तथा दिन में अधिक ताप के कारण फैलाव होने से चट्टानों की ऊपरी परतें ढीली पड़ जाती हैं। किसी भी क्षेत्र में चट्टान के ऊपरी भाग तथा उसके नीचे वाले भाग जब विभिन्न दर से गरम होते हैं तो फ्लेकिंग की क्रिया होती है। जिन चट्टानों में तापीय चालकता (thermal conductivity) कम होती है, उनमें दिन में सौर विकिरण का प्रवेश कुछ सेण्टीमीटर तक ही हो पाता है।
इस तरह शैल के ऊपरी आवरण (जो कि गर्म होने के कारण अधिक फैलती है) तथा उसके नीचे स्थित शैल (जो सौर विकिरण तरंगों के प्रवेश न होने से प्रभावित नहीं होती है) के प्रसार की विभिन्नता के कारण ऊपरी आवरण में फ्लेकिंग प्रारम्भ हो जाती है तथा शैल चादर अलग हो जाती है। तज वायु के सम्पर्क में आने से ये ढीली परतें चट्टानों से अलग होती रहती हैं। इस प्रकार चट्टान क्रमश: धीरे-धीरे नग्न होती जाती है।
यह क्रिया उसी प्रकार घटित होती है, जैसे कि फल से या प्याज से छिलका उतारा जाता है । यह प्रक्रिया इतनी मंद गति से होती है कि इसका अवलोकन करना संभव नहीं है। परतों के इस प्रकार उधड़ने का कार्य ऊपर उठी चट्टानों, छोटी-छोटी पहाड़ियों तथा चोटियों पर अधिक होता है। रांची शहर के पास काके गुम्बद अपदलन अपक्षय का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करता है। इसे ओनियन अपक्षय ( onion weathering) भी कहते हैं।
दाबमुक्ति द्वारा चट्टानों का विघटन तथा अपदलन (disintegration and exfoliation of rocks due to pressure release )
कई आग्नेय तथा रूपान्तरित चट्टानें पृथ्वी के अन्दर अन्य चट्टानों के नीचे दबी रहती हैं, जिस कारण उच्च दबाव एवं ताप के कारण उनमें कणों की संरचना होती है। परन्तु ऊपर की चट्टानों का जब अपरदन द्वारा हटा दी जाती है तो ये दबी चट्टानें ऊपर दिखने लगती हैं। फलस्वरूप उनमें से दबाव हट जाता है। इस कारण चट्टानों में दरारें पड़ जाती हैं तथा विघटन एवं अपदलन प्रारम्भ हो जाता है। चट्टान के ऊपरी भाग में चटकन लम्बवत होती है । इसे चादरी विभाजन (sheeting) कहते हैं।
References
- भौतिक भूगोल, डॉ. सविन्द्र सिंह
FAQs
भौतिक या यांत्रिक अपक्षय वह प्रक्रिया है जिसमें चट्टानों का विघटन भौतिक या यांत्रिक परिवर्तन के कारण होता है, जैसे ताप, तुषार, वायु आदि।
यह वह प्रक्रिया है जिसमें चट्टानों की ऊपरी परतें ताप और वायु में बार-2 होने वाले परिवर्तनों के कारण ढीली पड़ जाती हैं और अलग हो जाती हैं, इसे अपदलन कहते हैं।
भौतिक अपक्षय शुष्क मरुस्थलीय, उच्च पर्वतीय और शीतोष्ण क्षेत्रों में अधिक प्रभावी होती है, जहाँ तापमान में तेजी से बदलाव होता है।
2 Responses