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ज्वालामुखी क्रिया से बनने वाले आंतरिक स्थलरूप (Intrusive Volcanic Landforms)

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इस लेख के माध्यम से हम ज्वालामुखी क्रिया से बनने वाले आंतरिक स्थलरूपों को समझने का प्रयास करेंगे।

ज्वालामुखी क्रिया में बनने वाली स्थलाकृतियाँ ज्वालामुखी विस्फोट या उद्गार के समय निकलने वाले लावा तथा विखण्डित पदार्थों के अनुपात तथा उनकी मात्रा तथा गुणों पर आधारित होती हैं। जब ज्वालामुखी में उद्गार विस्फोट के साथ होता है तो विखण्डित पदार्थ तथा ज्वालामुखी धूल अधिक होती है और जब ज्वालामुखी में उद्गार शान्त रूप में होता है तो लावा की अधिक निकलता है, जिसके कारण विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। 

क्योंकि ज्वालामुखी क्रिया का सम्बन्ध धरातल के नीचे तथा बाहर दोनों ज़गहों से होता है, अतः ज्वालामुखी क्रिया में बनने वाले स्थलरूपों को भी दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है

  1. आंतरिक स्थलरूप (धरातल के नीचे बनने वाली स्थलाकृतियां) 
  2. बाह्य स्थलरूप (धरातल के ऊपर बनने वाली स्थलाकृतियां) 

ज्वालामुखी क्रिया से बनने वाले आंतरिक स्थलरूप (Intrusive Volcanic Landforms)

जब ज्वालामुखी के उद्गार के समय गैस एवं वाष्प की तीव्रता में कमी होती है, तो मैगमा धरातल के ऊपर न आकर धरातल के नीचे ही दरारों या खाली स्थानों में ही जमकर ठोस रूप प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार धरातल के नीचे बने स्थलरूप को आन्तरिक अथवा आभ्यान्तरिक स्थलरूप कहा जाता है। ज्वालामुखी क्रिया से बनने वाले प्रमुख आंतरिक स्थलरूप का वर्णन नीचे किया जा रहा है:

इनको भी पढ़ें
1. रिफ्ट घाटी का निर्माण
2. भ्रंश के प्रकार
3. पृथ्वी का भूगर्भिक इतिहास
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Intrusive volcanic Landforms
ज्वालामुखी क्रिया से बनने वाले आंतरिक स्थलरूप

बैथोलिथ (batholith)

धरातल के नीचे किसी भी प्रकार की चट्टानों में मैग्मा के गुम्बदनुमा जमाव को बैथोलिथ कहा जाता है। इसका निर्माण लावा की धीरे-धीरे ठंडा होने से होता है, जिसके कारण इसके रवे बड़े आकार के होते हैं तथा यह ग्रेनाइट प्रकार का होता है। बैथोलिथ अपेक्षाकृत अधिक गहराई में मिलता है। कभी-कभी धरातल के ऊपर अधिक अपरदन होने के बाद इसका ऊपरी भाग दिखाई देने लगता है, लेकिन इसका आधार हमें कभी भी दिखाई नहीं देता। रांची पठार पर  इस तरह के बैथोलिथ मिलते हैं।

लैकोलिथ (laccolith)

लैकोलिथ का निर्माण मैग्मा के धरातल के नीचे उत्तल आकार में जमा होने होता है। लैकोलिथ खासकर परतदार चट्टानों के बीच में पाए जाते हैं। जब कभी लावा का उद्धार होता है तथा गैसें  ऊपर की ओर जोर लगाकर परतदार शैलों की ऊपरी परतों को उत्तल चाप के आकार में ऊपर की उठा देती हैं जिसके कारण ऊपर वाली मुड़ी हुई परतों तथा निचली सीधी परत के बीच खाली जगह बन जाती है जिसमें ज्वालामुखी राख गैस के अलावा आदि भर जाते हैं, जिससे लैकोलिथ का निर्माण होता है।

बैथोलिथ तथा लैकोलिथ अंतर यह होता है कि थोलिथ किसी भी चट्टान में बन सकता है परंतु लैकोलिथ केवल परतदार चट्टान में ही बनता है।  छोटा नागपुर में लैकोलिथ के अनेकों उदाहरण देखें जा सकते हैं।

फैकोलिथ (phacolith) 

ज्वालामुखी उद्गार के समय मैग्मा का जमाव नवीन मोड़दार पर्वतों की अपनति (anticline) तथा अभिनति (syncline) में होता है, तब इस प्रकार बनी आग्नेय शैल को ‘फैकोलिथ’ कहते हैं।

लोपोलिथ (lopolith) 

लोपोलिथ जर्मन भाषा के लोपास (lopas) से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है एक छिछली बेसिन । जब मैग्मा का जमाव धरातल के नीचे अवतल आकार वाली छिछली बेसिन में होता है तो तस्तरीनुमा आकार का निर्माण होता है। इस आकार को ‘लोपोलिथ’ कहते हैं। ट्रान्सवाल में 480 किमी० लम्बा लोपोलिथ पाया गया है । 

सिल (sill) 

ज्वालामुखी उद्गार के समय जब मैग्मा का जमाव परतदार अथवा रूपान्तरित शैलों की परतों के बीच उन्हीं परतों के समानांतर होता है, तब वह आग्नेय परत सिल कहलाती है।

जब इस जमाव की मोटाई अधिक होती है तो ‘सिल’ कहलती है, परन्तु पतली सिल को ‘शीट’ (sheet) कहा जाता है। सिल (sill) की मोटाई कुछ सेन्टीमीटर से लेकर कई मीटर तक होती है। सिल की आग्नेय शैल आसपास की चट्टानों से काफी कठोर होती है। 

डाइक (dike)

डाइक भी सामन्यतया सिल की तरह होती है ।लेकिन यह अपेक्षाकृत लम्बी तथा पतली होती है। सिल एवं शीट के विपरीत डाइक परतों से लम्ब के रूप में पाई जाती है। वास्तव में डाइक एक दीवार की तरह आग्नेय शैल का आन्तरिक रूप ही होती है। मोटाई में डाइक कुछ सेण्टीमीटर से सैकडों मीटर तक पायी जाती हैं परन्तु उसकी लम्बाई कुछ मीटर से लेकर कई किलोमीटर तक होती है।

 कुछ आग्नेय शैल अपने समीपवर्ती शैलों से ज्यादा कठोर होती हैं तथा अपरदन का प्रभाव उन पर कम पाया जाता है। इसके विपरीत कुछ डाइक मुलायम भी होती हैं। इस प्रकार स्थलरूपों के निर्माण में इनका गहरा हाथ होता है। डाइक के तीन रूप हो सकते हैं।

  1. जब डाइक की शैल समीपवर्ती शैल से कमजोर होती है तो डाइक का ऊपरी भाग अपरदन से कट जाता है तथा गर्त बन जाता है। 
  2. जब डाइक की चट्टान समीपवर्ती शैल से कठोर होती है तो अपरदन के कारण समीपवर्ती चट्टान कट जाती है, परन्तु डाइक ऊपर की तरफ निकली रहती है। 
  3. जब डाइक आसपास की चट्टान के बराबर ही कठोर अथवा मुलायम हो तो ऐसी अवस्था में डाइक का कटाव समीपवर्ती शैलों के अनुरूप ही होता है

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