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एकरूपतावाद की संकल्पना (Concept of Uniformitarianism) 

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एकरूपतावाद की भूमिका

एकरूपतावाद भूआकृति विज्ञान की एक प्रमुख संकल्पना है, जो यह बताती है कि पृथ्वी की सतह पर वर्तमान में जो भूगर्भिक प्रक्रियाएँ और नियम काम कर रहे हैं, वे ही पूरे भूगर्भिक इतिहास में भी काम करते रहे हैं, हालांकि उनकी तीव्रता अलग-अलग हो सकती है। यह सिद्धांत आधुनिक भूविज्ञान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

एकरूपतावाद के जनक: जेम्स हटन

स्कॉटिश भूगर्भवेत्ता जेम्स हटन, जिन्हें “भूविज्ञान का पिता” कहा जाता है, ने इस संकल्पना को 1785 में पहली बार प्रस्तुत किया। बाद में प्लेफेयर ने 1802 में इसे और सुधारकर प्रस्तुत किया, और चार्ल्स ल्येल ने अपनी पुस्तक ‘प्रिंसिपुल्स ऑफ ज्यॉलजी’ में इसे विस्तार से समझाया।

हटन की संकल्पना की समीक्षा

हालांकि, हटन की संकल्पना में कुछ मूलभूत त्रुटियाँ थीं, जैसे कि उन्होंने कहा कि सभी भूगर्भिक प्रक्रियाएँ हमेशा समान रूप से सक्रिय रही हैं। हटन का विचार था कि “वर्तमान भूत की कुञ्जी है” अर्थात वर्तमान में जो प्रक्रियाएँ कार्य रही हैं, उन्हीं के आधार पर अतीत को समझा जा सकता है। इसलिए, यह महत्वपूर्ण है कि हटन की संकल्पना का आलोचनात्मक विश्लेषण किया जाए।

हटन के विचार: एकरूपतावाद की संकल्पना पर

हटन का यह विचार कि भूगर्भिक प्रक्रियाएँ या प्रक्रम हमेशा समान रूप से सक्रिय रहे हैं, सही नहीं है। उदाहरण के लिए, कार्बानिफरस और प्लीस्टीसीन युगों में हिमकाल के दौरान हिमनद अन्य समयों की तुलना तथा अन्य प्रक्रमों की तुलना में अधिक सक्रिय थे। इसका कारण जलवायु में बदलाव है। आज जहाँ आर्द्र जलवायु है, वहाँ पहले शुष्क जलवायु हो सकती थी, और इसके विपरीत भी।

जलवायु परिवर्तन के उदाहरण

इंग्लैंड में कोयले के भंडारों में उष्णकटिबंधीय पौधों के अवशेष मिले हैं, जो दिखाते हैं कि वहाँ कभी गर्म और आर्द्र जलवायु रही होगी। इसी तरह, उड़ीसा में तालचीर कोयले की परत के नीचे हिमानी मृत्तिका का जमाव मिला है, जो पहले हिमाच्छादन और फिर उष्णार्द्र जलवायु का संकेत देता है।

ज्वालामुखीय क्रियाओं का अंतर

भूगर्भिक इतिहास के प्रत्येक युग में ज्वालामुखी क्रियाएँ भी एक समान नहीं रही हैं। टशियरी और क्रीटैसियस युगों में ज्वालामुखी गतिविधि अधिक थी। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि भूगर्भिक प्रक्रमों की तीव्रता समय के साथ बदलती रही हैं और हमेशा एक जैसी नहीं रही हैं। हटन का ध्यान संभवतः सरिताओं पर अधिक था, जो हमेशा सक्रिय रही हैं।

भूगर्भिक प्रक्रमों का स्वरूप

समरूपता और परिवर्तन

हालांकि प्रक्रमों की गतिविधियों की मात्रा में अंतर हो सकता है, लेकिन उनके काम करने के तरीके में समरूपता रहती है। उदाहरण के लिए, यह नहीं कहा जा सकता कि भूतकाल में नदियों ने घाटियों का निर्माण नहीं किया था। यदि नील नदी ने ईसा पूर्व डेल्टा का निर्माण किया, तो आज भी नदियाँ डेल्टा बना रही हैं।

हिमनद और भूमिगत जल के उदाहरण

प्लीस्टोसीन हिमकाल के समय, हिमनद ने घाटियों में कई प्रकार के अपरदनात्मक और निक्षेपात्मक स्थलरूप बनाए थे, और आज भी ऊँचे पहाड़ों पर स्थित घाटी हिमनद उसी प्रकार काम कर रहे हैं। भूमिगत जल ने पर्मियन और पेन्सिल्वेनियन युगों में चूना पत्थर वाले क्षेत्रों में घुलन क्रिया (solution) द्वारा सिंक होल, डोलाइन, युवाला और कार्स्ट स्थलाकृति बनाई थी, और आज भी वे संयुक्त राज्य अमेरिका, यूगोस्लाविया, फ्रांस, और भारत के विभिन्न हिस्सों में उसी प्रकार काम कर रहे हैं।

भूगर्भिक प्रक्रमों का चक्रीय रूप

चक्रीय प्रकृति

भूपटल को प्रभावित करने वाले प्रक्रम अक्सर चक्रीय रूप में होते हैं। हटन ने बताया कि ‘प्रकृति का स्वभाव क्रमित’ होता है, यानी प्रकृति का विकास एक सुव्यवस्थित तरीके से होता है। उन्होंने कहा कि प्रकृति अत्यधिक व्यवस्थित, संगठित, और युक्तियुक्त होती है। विध्वंस का परिणाम रचना और रचना का परिणाम विध्वंस होता है।

प्रकृति में संतुलन

प्रकृति में एक अदृश्य संतुलन होता है कि यदि एक स्थान पर परिवर्तन होता है, तो दूसरे स्थान पर इसकी भरपाई होती है। हटन पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया कि पृथ्वी का भूगर्भिक इतिहास चक्रीय रूप में होता है। उदाहरण के लिए, चट्टानों का निर्माण कई चक्रों में होता है। हर भूगर्भिक प्रक्रम ने अपने इतिहास में कई चक्र पूरे किए हैं।

भूगर्भिक उदाहरण

अप्लेशियन पर्वत श्रृंखला इस विचार का उदाहरण है। इसका पहला उत्थान पर्मियन युग में हुआ और फिर अपरदन की प्रक्रिया शुरू हुई। अब यह एक अपरदित अवशिष्ट पर्वत का उदाहरण है, और नदियाँ अपनी प्रौढ़ावस्था में हैं। अप्लेशियन पर्वत में तीन अपरदन सतहें क्रमशः स्कूली पेनीप्लेन, शेननडोह पेनीप्लेन, और हैरिसवर्ग पेनीप्लेन द्वारा चिन्हित की जाती हैं, जो यह दर्शाती हैं कि यहाँ जो प्रक्रम अब सक्रिय हैं, वे पर्मियन से जुरैसिक युगों तक भी सक्रिय थे।

प्रायद्वीपीय भारत के स्थलाकृतिक चक्र

प्रायद्वीपीय भारत ने भी चक्रीय विकास की कई अवस्थाओं का अनुभव किया है, जैसे धारवार, कुडापा-विन्ध्यन, कैम्ब्रियन, गोण्डवाना, और सेनोजोइक स्थलाकृतिक चक्र। पर्वत निर्माण की घटनाएँ भी चक्रीय रूप में हुई हैं, जैसे प्रीकैम्ब्रियन, कैलिडोनियन, हर्मोनियन और टर्शियरी पर्वत निर्माण काल।

FAQs

एकरूपतावाद की संकल्पना क्या है?

एकरूपतावाद (Uniformitarianism) भूआकृति विज्ञान की एक प्रमुख संकल्पना है, जो यह बताती है कि वर्तमान में पृथ्वी की सतह पर होने वाली भूगर्भिक प्रक्रियाएँ और नियम पूरे भूगर्भिक इतिहास में समान रूप से कार्यरत रहे हैं। इन प्रक्रियाओं की तीव्रता समय के साथ भिन्न हो सकती है, लेकिन उनके कार्य करने के तरीके समान रहते हैं।

एकरूपतावाद के जनक कौन थे?

स्कॉटिश भूगर्भवेत्ता जेम्स हटन (James Hutton) को एकरूपतावाद के जनक माना जाता है। उन्होंने इस संकल्पना को 1785 में पहली बार प्रस्तुत किया। बाद में, जॉन प्लेफेयर और चार्ल्स ल्येल ने इस सिद्धांत को और अधिक विस्तार से समझाया।

भूगर्भिक चक्र के उदाहरण क्या हैं?

भूगर्भिक चक्र के उदाहरणों में अप्लेशियन पर्वत श्रृंखला और प्रायद्वीपीय भारत की स्थलाकृतिक चक्र शामिल हैं। अप्लेशियन पर्वत श्रृंखला ने पर्मियन युग में उत्थान और अपरदन की प्रक्रियाएँ देखी हैं, जबकि प्रायद्वीपीय भारत ने धारवार, कुडापा-विन्ध्यन, और गोण्डवाना जैसी चक्रीय अवस्थाओं का अनुभव किया है।

एकरूपतावाद का भूविज्ञान में क्या महत्व है?

एकरूपतावाद ने भूविज्ञान के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इस सिद्धांत ने वैज्ञानिकों को भूगर्भिक प्रक्रियाओं और पृथ्वी के इतिहास को समझने में मदद की है। इसके माध्यम से हम यह समझ सकते हैं कि वर्तमान में होने वाली प्रक्रियाएँ भूतकाल में भी कैसे काम करती रही होंगी।

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