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Table of contents
- संथाल जनजाति का परिचय (Introduction to Santhal Tribe)
- संथाल जनजाति का निवास क्षेत्र (Habitat of Santhal Tribe)
- भौगोलिक दशाएँ (Geographical Conditions)
- संथाल जनजाति के शारीरिक लक्षण (Physical Traits of Santhal Tribe)
- संथाल जनजाति की भाषा (Language of Santhal Tribe)
- संथाल जनजाति का व्यवसाय (Occupation of Santhal Tribe)
- संथाल जनजाति का भोजन (Food of Santhal Tribe)
- संथाल जनजाति के वस्त्र एवं आभूषण (Clothes and Ornaments of Santhal Tribe)
- संथाल जनजाति की बस्तियाँ और घर (Settlements and House of Santhal Tribe)
- संथाल जनजाति का सामाजिक संगठन (Social Organization of Santhal Tribe)
- संथाल जनजाति के उत्सव तथा संस्कार (Festivals and Ceremonies of Santhal Tribe)
- संथाल जनजाति का धर्म (Religion of Santhal Tribe)
- FAQs
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संथाल जनजाति का परिचय (Introduction to Santhal Tribe)
संथाल जनजाति मध्य-पूर्वी भारत की सबसे बड़ी, समन्वित व सम्भवतः सबसे लचीली (Resilient) जनजाति है। भारत में इनसे अधिक गतिशील, लड़ाकू (Militant) व सामाजिक मुद्दों के प्रति संवेदनशील और कोई जनजाति नहीं है। शायद इन्हीं कारणों से ये लोग पूरे विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर पाए। संथालों के लिए पूरा विश्व दो भागों में बँटा हुआ है-
होर (Hor) और डिकू (Diku) जहां होर का अर्थ है ‘मानव’ और डिकू का अर्थ है गैर-मानव। संथाल स्वयं को होर मानते हैं। भारत में वर्तमान में 60 लाख संथाल से अधिक हैं जो मोटे तौर पर दो वर्गों में बँटे हुए हैं- (i) देसवाली संथाल, (ii) खरवाड़ी संथाल।
खरवाड़ी सुधारवादी प्रवृत्ति (Reformist Cult) के संथाल हैं। कबीलियाई भारत (Tribal India) में अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध सबसे पहले संथालों ने ही झण्डा उठाया था। देश में महाजनों, सूदखोरों व बिचौलियों (Middle Men) के खिलाफ संथालों ने पहला किसान आन्दोलन (Peasant Movement) चलाया। सन् 1855-56 का यह विद्रोह भारत के इतिहास में (Santhal uprising) या हुल (Hul) के नाम से स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है।
बाद में सन् 1870 में समाज-सुधार का खरवाड़ आन्दोलन चलाने वाले संथालों ने भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया व कुर्बानियाँ दीं। सन् 1940 के बाद देश में आरम्भ हुए अलग झारखण्ड आन्दोलन में भी संथालों की सक्रियता जग-जाहिर है। आज भी संथाल अपने निकटवर्ती क्षेत्रों के लोगों के साथ संघर्ष का जीवन जीते हैं।
संथाल जनजाति का निवास क्षेत्र (Habitat of Santhal Tribe)
संथालों का परम्परागत निवास क्षेत्र झारखण्ड राज्य का छोटा नागपुर पठार तथा दामोदर नदी के दक्षिण में स्थित मैदानी भाग है। यहाँ पलामु, राँची और हज़ारीबाग ज़िले संथालों के मूल निवास क्षेत्र हैं। संथाल परगना में ये लोग सन् 1770 के अकाल के बाद आ बसे। इनका सबसे बड़ा सान्द्रण राजमहल पहाड़ियों में पाया जाता है। पश्चिम बंगाल में संथालों का जमाव वीरभूम, बाँकुड़ा, मालदा, मिदनापुर तथा 24 परगना जिलों में पाया जाता है। ओडिशा में इनका निवास बालासोर, क्योंझर व मयूरभंज जिलों में पाया जाता है। त्रिपुरा में संथालों का आगमन अपेक्षाकृत बाद में चाय बागानों, ईंट भट्ठों व उद्योगों में मजदूरों के रूप में हुआ। असम में रहने वाले संथाल अनुसूचित जनजाति में शामिल नहीं हैं।
भौगोलिक दशाएँ (Geographical Conditions)
छोटा नागपुर पठार पर स्थित संथाल क्षेत्र समुद्र तल से 350-630 मीटर ऊँचा है। नदियों और नालों द्वारा विच्छेदित (Dissected) यह सम्पूर्ण प्रदेश पहाड़ियों और सघन वनों से ढका हुआ है। संथाल क्षेत्र की जलवायु उष्ण कटिबन्धीय मानसूनी है। ग्रीष्म ऋतु में यहाँ अधिक गर्मी पड़ती है तथा दिन का तापमान 40°-45° सेल्सियस पहुँच जाता है। सर्दियों में तापमान सामान्यतः 10° सेल्सियस से नीचे नहीं जाता।
अधिकांश वर्षा ग्रीष्मकाल में जून से सितम्बर के मध्य होती है। सर्दियों में भी लगभग 10 सें०मी० वर्षा हो जाती है । यहाँ की औसत वार्षिक वर्षा 170-180 सें०मी० है। यहाँ के मानसूनी वनों में साल, सागवान, महुआ, पलास, पीपल, कुसुम आदि वृक्ष मिलते हैं। जंगलों में विविध प्रकार के वन्य प्राणी पाए जाते हैं।
संथाल जनजाति के शारीरिक लक्षण (Physical Traits of Santhal Tribe)
संथाल लोगों में अनेक प्रजातियों के लक्षण पाए जाते हैं। भारत सरकार इन्हें वेद्दा प्रजाति से सम्बन्धित मानती है जबकि गुहा के अनुसार ये प्रोटो-ऑस्ट्रेलॉयड हैं। हैडन इन्हें प्रि-द्राविड़ियन मानते हैं। संथालों की त्वचा का रंग काला तथा गहरा भूरा होता है। ये छोटे से मध्यम कद के होते हैं। इन लोगों का ललाट चौड़ा, बाल काले, घने, सीधे व कभी-कभी घुँघराले, सिर लम्बा, नाक बैठी हुई, चेहरा बड़ा और होंठ मोटे होते हैं।
संथाल जनजाति की भाषा (Language of Santhal Tribe)
घर पर ये लोग संथाली बोली बोलते हैं। संथाली ऑस्ट्रो-एशियाई परिवार की बोली है। औरों के साथ ये लोग हिन्दी, बंगाली, असमी, बिहारी व ओडिया भाषाएँ बोल लेते हैं। संथाली बोली की अपनी कोई लिपि नहीं है। अतः ये लोग बंगाली, देवनागरी तथा ओलचिकी (Olchiki) लिपियों का प्रयोग करते हैं। ओलचिकी एक नई लिपि है जिसे पश्चिम बंगाल ने मान्यता दी हुई है। संथाल जनजाति का अधिकतर साहित्य रोमन लिपि में ईसाई मिशनरियों द्वारा प्रकाशित करवाया गया है।
संथाल जनजाति का व्यवसाय (Occupation of Santhal Tribe)
संथाल मूलतः संग्राहक व आखेटक थे लेकिन वर्तमान में इनका प्रमुख व्यवसाय कृषि है। कृषि पूर्णतः वर्षा पर आधारित है। खेत स्थायी हैं जिन्हें जंगलों को काटकर बनाया गया है। हर वर्ष उसी खेत में खेती होती है। परिणामस्वरूप भूमि कम उपजाऊ है। खेती करने के ढंग भी आदिम प्रकार के हैं। सिंचाई, रासायनिक खाद और शस्यावर्तन (Crop Rotations) पर ध्यान नहीं दिया जाता।
कृषि उत्पादन कम होता है जो वर्ष-भर जीवन निर्वाह के लिए अपर्याप्त है। फसल बोने के तरीके अलग-अलग हैं। धान को रोपाई (Transplant) के द्वारा उगाया जाता है जबकि ज्वार और बाजरे को बिखेरकर (Broadcasting) बोया जाता है। कृषि उत्पादन की कमी को पूरा करने के लिए संथाल आखेट, पशुपालन, मछली पकड़ना तथा वनों से भोजन, कन्दमूल और फल-फूल आदि एकत्रित करने जैसे कार्य करते हैं। ये लोग बैल, मुर्गे, सूअर, बकरियाँ, गाय और कबूतर भी पालते हैं। इन्हीं जन्तुओं से इन्हें दूध और माँस प्राप्त होता है।
महुआ के फल से शराब बनाई जाती है। राँची और छोटा नागपुर पठार की कोयले, लोहे और अभ्रक की खदानों में बड़ी संख्या में संथाल मजदूरी करते हैं। असम और दार्जिलिंग के चाय बागानों के साथ-साथ संथाल मैदानी भागों में भी मजदूरी करने जाते हैं। अब तो ये लोग अध्यापक, नर्स व डॉक्टर बनने के अतिरिक्त सरकारी नौकरिय में आने लगे हैं। संथालों की आर्थिक स्थिति कमजोर है।
संथाल जनजाति का भोजन (Food of Santhal Tribe)
संथाल लोगों का मुख्य भोजन उबल हुआ चावल है जिसे वे दाहा (Daha) कहते हैं। चावल से अन्य अनेक प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन भी बनाए जाते हैं। ये लोग मक्का, ज्वार और बाजरे की रोटी भी खाते हैं और गाय, बकरी का दूध भी पीते हैं। मोटे अनाजों की कमी होने पर मांस औ मछली भी खाते हैं। ये लोग धूप में सुखाए गए चावलों से हांडी तथा महुआ के फूलों से पौद्रा नामक शराब बनाकर पीते हैं तम्बाकू खाने और हुक्का पीने के ये लोग शौकीन होते हैं।
संथाल जनजाति के वस्त्र एवं आभूषण (Clothes and Ornaments of Santhal Tribe)
संथाल पुरुष कम कपड़े पहनते हैं। ये केवल छोटी-सी लंगोटी का उपयोग करते हैं जिसे कोपनी (Kopni) कहा जाता है। अब अधिकतर पुरुष ऊँची धोती पहनने लगे हैं। स्त्रियाँ साड़ी पहनती हैं और उसी के आँचल से वक्षस्थल को ढक लेती हैं। बाहरी सम्पर्क के प्रभाव से पुरुष कुर्ता और स्त्रियाँ ब्लाऊज भी पहनने लगी हैं। उत्सव तथा विशेष अवसरों पर पुरुष सिर पर पगड़ी बाँधते हैं और स्त्रियाँ अनेक प्रकार से शृंगार करती हैं।
शृंगार में पीतल व चाँदी की हंसली, पैंजनिया, बाजूबन्द, झुमके, अंगूठियाँ, सिर पर झिपी-झिपी आभूषण और कमर में करघनी का उपयोग किया जाता है। शरीर को सजाने-सँवारने के लिए पुरुष और स्त्री दोनों फूल, पत्तियों, पक्षियों के पंखों व गाय की पूँछ के बालों का उपयोग करते हैं। शरीर पर आकृतियों को गुदवाने (Tattooing) का रिवाज यहाँ बहुत पुराना है।
खेती के लिए तीन प्रकार की भूमि (i) बार्ज (Barge)- यह घर या झोपड़ी का पिछवाड़ा होता है जहाँ मोटे अनाज, मक्का, तिल, फलियाँ, चारा व सब्जियाँ पैदा की जाती हैं। (ii) गोडा (Goda)- यह घर से थोड़ी दूरी पर स्थित ऊँची भूमि होती है जहाँ मोटे अनाज, कपास और दालों की खेती की जाती है। (iii) खेत (Khet)- यह पहाड़ी ढालों वाली भूमि होती है जहाँ मुख्यतः धान उगाया जाता है। |
संथाल जनजाति की बस्तियाँ और घर (Settlements and House of Santhal Tribe)
संथालों के गाँव ऐसे सुरक्षित स्थल पर बनाए जाते हैं जहाँ कोई स्थायी जल स्रोत और विस्तृत कृषि भूमि हो। गाँव में एक ही गोत्र या वंश के 100 से 200 तक घर पाए जाते हैं। घर प्रायः दो प्रकार के होते हैं। एक आयताकार घर जिन्हें स्थानीय भाषा में बंगाल ओराक कहा जाता है और दूसरा गोल छत वाले घर जिन्हें कातोम ओराक कहा जाता है। ये घर पत्थर, मिट्टी, लकड़ी, बांस, घास और पत्ती आदि से बनाए जाते हैं। दीवारों पर मिट्टी का लेप चढ़ाया जाता है। पक्की दीवारों वाले घर की छतें खपरैल से बनाई जाती हैं, या वे घास-फूस के छप्पर के रूप में होती हैं।
घर में केवल एक दरवाजा होता है, खिड़कियाँ बिल्कुल नहीं होतीं। प्रत्येक घर में एक पूजा-स्थल होता है जिसे भीतर (Bhitter) कहा जाता है। यहाँ केवल पुरुष ही प्रवेश कर सकते हैं; स्त्रियों का प्रवेश निषेध होता है। प्रत्येक गाँव में मुखिया के घर के सामने गाँव के संस्थापक का स्थान होता है जिसे माँझीथान (Manjhithan) कहते हैं। गाँव में पूजा का दूसरा स्थान ज़हेरथान (Zaherthan) होता है। यह साल के वृक्षों का एक झुण्ड होता है जिसमें देवी-देवताओं का निवास माना जाता है।
संथाल जनजाति का सामाजिक संगठन (Social Organization of Santhal Tribe)
(i) गोत्र: संथाल 12 टोटमी वंशों में बँटे हुए हैं। वंशों के नाम नदियों, पशुओं और वृक्षों आदि के नाम पर रखे गए हैं। प्रत्येक संथाल अपने वंश को उपनाम के रूप में प्रयुक्त करता है। रिसले के अनुसार, संथाल 17 वंशों व अनेक उपवंशों में बँटे हुए हैं।
(ii) समुदाय: संथालों की तीन स्तरीय सभा (Community Council) होती है-
- ग्राम परिषद्: इसका मुखिया माझी (Majhi) कहलाता है। बड़े गाँवों में पंचायत होती है।
- परगना: दस-पन्द्रह गाँव मिलकर परगना बनाते हैं। इसका मुखिया परगनैत (Parganait) कहलाता है। ये दोनों पद वंश से प्राप्त होते हैं।
- लोबिर: यह संथालों की उच्चतम राजनीतिक सत्ता होती है जिसका मुखिया देहरी (Dehri) कहलाता है। पंचायत के हाथ में गाँव की सत्ता व विवादों को निपटाने का अधिकार प्राप्त होता है। शिकार, गृह-निर्माण, उत्सव व सामाजिक कार्यों में सभी ग्रामवासी सामूहिक रूप से भाग लेते हैं।
(iii) परिवार
संथाल लोगों में संयुक्त परिवार प्रणाली प्रचलित है। परिवार पितृसत्तात्मक (Patrilineal) होते हैं। परिवार का सबसे वयोवृद्ध व्यक्ति परिवार का मुखिया होता है। परिवार के पालन-पोषण का काम घर का मुखिया करता है। स्त्रियों को सम्मान व सभी प्रकार के अधिकार दिए जाते हैं।
(iv) विवाह और उसकी प्रथाएँ
संथालों के सभी गोत्र बहिर्विवाही (Exogamous) हैं।विवाह, जिसे संथालों में बापला (Bapla) कहा जाता है, की अनेक प्रथाएँ प्रचलित हैं, जो निम्नलिखित हैं-
- किरिंग बेहु बपला– इसमें लड़के का पिता या कोई बिचौलिया (रैबर) उपयुक्त लड़की की तलाश करता है और लड़की के पिता को उपहारस्वरूप कुछ धन, वस्त्र देकर विवाह पक्का कर लेता है। विवाह में दूल्हा दुल्हन की माँग में सिन्दूर भरता है।
- घर्दी जवाई बपला– इस प्रकार के विवाह में दूल्हा घर जमाई बनकर रहता है। यह विवाह तब होता है जब लड़की कुरूप हो व कोई और व्यक्ति उससे विवाह करने को तैयार न हो। ऐसा दूल्हा लड़की के पिता को कोई रकम व उपहार नहीं देता; केवल 5 साल अपने ससुर के यहाँ बिना पैसे लिए काम करता है।
- तुंकी दिपिल बपला– गरीब संथालों में जब कोई लड़का अपने विवाह का खर्च नहीं उठा सकता तो लड़के के मित्र लड़की को लड़के के घर ले आते हैं व विवाह करा देते हैं। लड़की एक टोकरी में अपना सामान लेकर आती है।
- इतुत बपला– जब यह विश्वास हो जाए कि लड़की के माता-पिता विवाह की इजाजत नहीं देंगे या कोई मनचाही लड़की उसे पसन्द नहीं करेगी, तो लड़का किसी मेले या सार्वजनिक स्थान पर अचानक लड़की के माथे पर सिन्दूर, गेरू या लाल लगाकर भाग जाता है। ऐसा करने से वे पति-पत्नी हो जाते हैं। बाद में लड़के का पिता कन्या का सामान्य से दुगुना मूल्य देता है।
- निरबोलोक बपला- उपयुक्त वर पाने में असमर्थ लड़की अपने मनपसन्द लड़के के घर चावल की शराब (हाण्डी) ले जाकर बैठ जाती है। लड़के के घर वाले तम्बाकू व मिर्ची जलाकर, धुआँ उत्पन्न करके, प्रताड़ित करके व गाली इत्यादि देकर लड़की को भगाने का भरसक प्रयास करते हैं। यदि लड़की ये सारे जुल्म सह जाए और अपने इरादे से टस-से-मस न हो तो उसे वधू के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। संगला-बपला- इसमें विधवा अथवा तलाकशुदा स्त्रियों और पुरुषों में आपसी रिश्ते तय होते हैं। इसमें कन्या का मूल्य सामान्य से आधा होता है।
- राजा-राजी बपला- इसमें लड़का-लड़की प्रेम-विवाह कर लेते हैं। लड़का-लड़की दोनों मुखिया के पास जाते हैं। मुखिया उन्हें लड़की के घर ले जाकर गाँव के बड़े-बूढ़ों के सामने लड़की को दुल्हन बनाने की स्वीकृति देता है।
इन प्रथाओं के अतिरिक्त संथालों में अपहरण विवाह की भी प्रथा है जिसके अनुसार लड़का अपने साथियों की मदद से लड़की का उसके घर से अपहरण करके उसे अपने घर ले जाता है और लड़के का पिता लड़की के परिवार वालों से विवाह का प्रस्ताव रखता है। उपयुक्त समय निर्धारित करके विवाह सम्पन्न हो जाता है। अब धनी संथाल दहेज देने लगे हैं। औरतों को उत्तराधिकार नहीं है। शेष कोई भेदभाव भी नहीं है।
संथाल जनजाति के उत्सव तथा संस्कार (Festivals and Ceremonies of Santhal Tribe)
संथालों में एक वर्ष में मनाए जाने वाले प्रमुख उत्सव निम्नलिखित हैं-
- दशहरा जो दुर्गा पूजा के दौरान या उससे पहले मनाया जाता है;
- जन्थर (Janthar) जो फसल कटने के बाद मनाया जाता हैं;
- सोहराई, इनका सबसे बड़ा व महत्त्वपूर्ण त्योहार होता है,
- पौष (दिसम्बर-जनवरी) महीने के अन्तिम दिन मनाया जाता है;
- बाहा एक बसन्तोत्सव है तथा इरोक (Erok) जो फसल बोने के दौरान मनाया जाता है।
संथाल हिन्दुओं की भाँति मृतकों को जलाते हैं और कर्मकाण्ड भी करते हैं। भस्म का विसर्जन दामोदर नदी में करना पुण्य माना जाता है।
संथाल जनजाति का धर्म (Religion of Santhal Tribe)
आरम्भिक संथाल प्रकृति पूजक थे और किसी भी धर्म-विशेष को नहीं मानते थे। वर्तमान में 82.6 प्रतिशत संथाल हिन्दू हैं व शेष ईसाई, मुस्लिम, सिक्ख, बौद्ध व जैन धर्मावलम्बी हैं। हिन्दू संथाल ठाकुर जिऊ (Thakur Jiu) को भगवान् व मारन वारू को पथ-प्रदर्शक आत्मा मानते हैं। इन देवताओं की मूर्तियाँ बनाकर ये लोग उन्हें गाँव के माँझीथान (देव स्थान) में वृक्षों के नीचे स्थापित करते हैं।
संथाल गाय, शिव और दुर्गा सहित अनेक देवी-देवताओं को भी मानते हैं। आत्माओं (Bonga) को प्रसन्न करने के लिए ये लोग पशुओं को बलि भी चढ़ाते हैं। इस आदिम जाति का भूत-प्रेम, चुड़ैल, आत्मा और ऊपरी हवा पर भारी अन्धविश्वास होता है। जादू-टोने के लिए ओझा (Exorcist) का उपयोग किया जाता है। ओझा झाड़-फूंक व मन्त्रों के द्वारा इलाज का दावा करते हैं। स्त्री जादूगरनियों को अनेक शारीरिक यातनाएँ दी जाती हैं व उन्हें कई बार डायन कहकर मार दिया जाता है।
FAQs
संथाल जनजाति का प्रमुख निवास क्षेत्र झारखंड राज्य का छोटा नागपुर पठार और दामोदर नदी के दक्षिण का मैदानी भाग है।
संथाल जनजाति को ‘होरो’ भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है ‘मानव’।
‘होर’ का अर्थ है ‘मानव’ और ‘डिकू’ का अर्थ है ‘गैर-मानव’।
संथाल जनजाति के लोग काले या गहरे भूरे रंग के होते हैं, छोटे से मध्यम कद के, चौड़ा ललाट, घने काले बाल, बैठी हुई नाक, बड़ा चेहरा और मोटे होंठ होते हैं।
संथाल जनजाति का प्रमुख व्यवसाय कृषि है।
संथाल जनजाति का मुख्य भोजन उबला हुआ चावल है, जिसे वे ‘दाहा’ कहते हैं।
संथाल जनजाति में शादी की एक प्रथा है ‘किरिंग बेहु बपला’, जिसमें लड़के का पिता उपयुक्त लड़की की तलाश करता है।