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भारतीय मानसून एवं संबंधित सिद्धांत (Indian Monsoon and Related Theories)

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मानसून शब्द का अर्थ (Meaning of the Word Monsoon)

‘मानसून’ शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के शब्द ‘मौसिम’ से हुई है जिसका अर्थ है ‘मौसम’ या ‘ऋतु’। इस शब्द का प्रयोग अरब के नाविकों द्वारा अरब सागर क्षेत्र में चलने वाली उन हवाओं के लिए किया गया था, जिनकी दिशा मौसम या ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ बदल जाती थी, अर्थात् जाड़े में हवाएं उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम को और गर्मी में दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व दिशा में बहने लग जाती थी।

इस प्रकार मानसून पवनें ग्रीष्म ऋतु में 6 महीने समुद्र से स्थल की ओर तथा शीत ऋतु के 6 महीने स्थल से समुद्र की ओर चलती हैं। अत: पवनों की दिशा में ॠतुवत परिवर्तन भारतीय मानसून की प्रमुख विशेषता मानी जाती है।

मानसून की परिभाषाएं (Definitions of Monsoon)

डॉ० रामा शास्त्री के अनुसार, “मानसून बड़े पैमाने पर विस्तृत क्षेत्र में चलने वाली मौसमी पवनें है जिनकी दिशा का मौसम में परिवर्तन के साथ उत्क्रमण हो जाता है।”

डॉ० एच० जी० डोबी (H.G. Dobby) के अनुसार, “पवनों का उत्क्रमण मानसून का मूल सिद्धान्त है।” (Reversal of wind system is the keynote of monsoonal climate) मानसून पवनों का यह उत्क्रमण निश्चित मौसम में, निश्चित दिशा में, निश्चित गति से होता है। 

डॉ० आर० एल० सिंह के अनुसार, “मानसून जलवायु की प्रमुख विशेषता मौसमों का आवर्तन है।” (Rhythm is the keynote of the monsoonal climate) 

कोपेन (1906 और 1923), हान्न (1932) तथा एनगॉट (1943) के अनुसार, “मानसून पवनें जलीय एवं स्थलीय समीरों के वृहद रूप हैं और मानसून की वार्षिक अवधि की तुलना समीरों की दैनिक अवधि से की जा सकती है।” (That the monsoon represents simply a land and sea breeze on a large scale, and that the annual period of monsoon corresponds to the diurnal period of the breezes – Angot, Hann and Koppen).

तापीय संकल्पना (Thermal Concept)

  • इसे ‘क्लासिक सिद्धांत’ (classical theory) भी कहा जाता है। 
  • तापीय संकल्पना को एडमण्ड हैली ने सन् 1686 में एशियाई मानसून की उत्पत्ति की व्याख्या हेतु प्रस्तुत किया था। 
  • इस संकल्पना के अनुसार मानसून स्थल भाग एवं महासागरीय क्षेत्रों के तापमान में मौसम के अनुसार होने वाले परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली बड़े स्तर की स्थल एवं जलीय समीरें हैं। 
  • एडमण्ड हैली ने बताया कि शीत अयनांत के समय जब सूर्य की किरणें मकर रेखा पर लम्बवत् या सीधी पड़ती हैं, तब एशिया का विशाल भूखण्ड साथ लगते महासागरों की तुलना में तेजी से ठंडा होने लगता है जिससे इसके मध्यभाग (लेक बैकाल एवं पेशावर) में एक प्रबल उच्च दाब का क्षेत्र बन जाता है। 
  • इसके विपरीत दक्षिणी हिन्द महासागर के क्षेत्र में निम्न दाब विकसित हो जाता है। 
  • अत: हवाएं  स्थलीय भाग के उच्च दाब से महासागरीय निम्न दाब की तरफ चलने लगती हैं, जिन्हें उत्तर- -पूर्व मानसून कहते हैं। 
  • स्थल भाग से आने के कारण यह मानसून शुष्क, आर्द्रता विहीन और वर्षा करने में अक्षम होता है।
  • ग्रीष्म अयनांत के समय जब सूर्य की सीधी किरणें कर्क रेखा पर पड़ती हैं, तब एशिया का भूखण्ड गर्म हो जाता है और बैकाल झील एवं उत्तर- पश्चिम भारत के क्षेत्रों में निम्न दाब केन्द्रों का निर्माण हो जाता है 
  • इस समय तापमान और दाब सम्बंधी दशायें शीत ऋतु की अपेक्षा बिल्कुल उल्ट हो जाती हैं। 
  • हिन्द महासागर के दक्षिणी भाग में वायुदाब उच्च रहता है। परिणाम स्वरूप दक्षिण-पूर्व व्यापारिक हवायें निम्न दाब केन्द्रों की ओर खिंची चली आती हैं। जब ये हवायें भूमध्य रेखा को पार करती हैं तो विक्षेप बल (फेरल नियम) के कारण इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिम हो जाती है। 
  • सागर से आने के कारण ये हवायें आर्द्रता से भरी होती हैं और जहाँ कहीं भी स्थलाकृतियों द्वारा इनके मार्ग में अवरोध उत्पन्न की जाती है वर्षा प्राप्त होती है।
  • इस संकल्पना को जहाँ अंगेट, हान, कोपेन, मिलर एवं बायर्स जैसे तत्कालीन मूर्धन्य जलवायु विज्ञानियों का समर्थन मिला वहीं आधुनिक मौसम विज्ञानी तापीय आधार को ही चुनौती देते हैं।

आधुनिक विचारधारा (Modern Concept)

एडमण्ड हैली का विचार सामान्तया तर्कसंगत दिखाई देता है। परन्तु यह मानसून पवनों की बारीकियों को समझाने में असमर्थ रहा है। हालांकि विद्वानों ने हैली के तापीय सिद्धान्त को पूर्ण रूप से अस्वीकार नहीं किया फिर भी  जलवायु वैज्ञानिक मानसून पवनों की उत्पत्ति, विशेष रूप से  भारत की दक्षिण-पश्चिमी मानसून की उत्पत्ति के सम्बन्ध में गहन अध्ययन कर रहे हैं।

पिछले कुछ दशकों में विदेशी वैज्ञानिक फ्लोन (Flohn), थाम्पसन (Thompson), फ्रॉस्ट (Frost), एम०टी० यीन (M.T. Yin), हांग (Hwang), ताकाहाशी (Takahashi), ई० पालमेन (E. Palmen) एवं सी० न्यूटन (C. Newton) तथा भारतीय जलवायु वैज्ञानिक पी० कोटेश्वरम् (P. Koteshwaram), कृष्णन, कृष्णामूर्ति, रामारना, रामास्वामी, अनन्त कृष्णन् आदि ने मानसून पवनों की उत्पत्ति का सही कारण ढूँढने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। 

इन विद्वानों के विचारों को हम दो वर्गों में बाँट सकते हैं।

(क) वायुराशि विचारधारा (Air Mass Theory) 

(ख) जेट-प्रवाह विचारधारा (Jet Stream Theory) 

वायुराशि विचारधारा (Air Mass Theory) 

  • इस विचारधारा के अनुसार मानसून की उत्पत्ति को अन्त: उष्णकटिबंधीय क्षेत्र (Inter Tropical Convergence Zone-ITCZ) से जोड़ा जाता है। 
  • भूमध्य रेखीय निम्न वायुदाब क्षेत्र पर उत्तरी व दक्षिणी व्यापारिक पवनों के मिलन स्थल को (ITCZ) या (ITC) कहते हैं। 
  • अन्त: उष्णकटिबंधीय क्षेत्र (ITC) ऋतु के अनुसार अपनी स्थिति बदलता रहता है। 
  • ग्रीष्म ऋतु में जब सूर्य कर्क रेखा पर लम्बवत् चमकता है तो ITC उत्तर की ओर खिसक जाता है। इस प्रकार दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनें भूमध्य रेखा को पार करने के बाद उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करती हैं और पृथ्वी की घूर्णन शक्ति (Coriolis Force) के प्रभावाधीन अपने दायीं ओर मुड़ जाती हैं तथा दक्षिण-पश्चिम दिशा से उत्तर-पूर्व दिशा में चलने लगती हैं। 
  • सन् 1951 में ब्रिम्स नामक विद्वान् ने अपनी Compendium of Meteorology नामक पुस्तक में इन्हीं विस्थापित व्यापारिक पवनों को दक्षिण-पश्चिम मानसून पवनों का नाम दिया है। 
  • जिस सीमा पर दक्षिण-पश्चिमी मानसून पवने उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवनों से मिलाती हैं, उस सीमा को मानसून सीमान्त (Monsoon Front ) कहते हैं। 
  • दक्षिण-पश्चिमी मानसून ग्रीष्म ऋतु में (ITC) भारत के उत्तरी मैदान में स्थित होता है। इसके परिणामस्वरूप दक्षिण-पश्चिमी मानसून अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी से चलना शुरू कर देती हैं। 
  • ITC को कभी-कभी मानसून गर्त (Monsoon Trough) के नाम से भी पुकारा जाता है।
उत्तरी एवं दक्षिणी अन्तरोष्ण अभिसरण क्षेत्र की स्थिति (NITC and SITC)
उत्तरी एवं दक्षिणी अन्तरोष्ण अभिसरण क्षेत्र की स्थिति (NITC and SITC)

फ्लोन के विचार 

  • जर्मन के मौसम ब्यूरो (German Weather Bureau) में काम करने वाले एच० फ्लोन (H. Flohn) ने तापीय संकल्पना या चिरसम्मत विचारधारा का खण्डन किया और अपने अलग विचार प्रस्तुत किए। 
  • फ्लोन महोदय के अनुसार ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ ITC की स्थिति में भी परिवर्तन होता रहता है। जुलाई में ITC उत्तर की ओर खिसक जाता है और उत्तरी अन्तः उष्णकटिबन्धीय अभिसरण (Northern Inter- Tropical Convergence—NITC) कहलाता है। 
  • यह अभिसरण उत्तर की ओर खिसककर एशिया महाद्वीप के भीतरी भगों तक पहुँच जाता है। 
  • NITC के साथ-साथ भूमध्य रेखीय पश्चिमी पवनें भी उत्तर की ओर खिसक जाती हैं और सागरीय पवनों के रूप में चलने लगती हैं। 
  • भारत तथा अन्य निकटवर्ती देशों में यही दक्षिण-पश्चिम मानसून का रूप धारण करती हैं। (Flohn considers the south- west monsoon of southern Asia to be only one element of equatorial westerlies) 
  • इस प्रकार फ्लोन के अनुसार भारत में प्रवाहित होने वाली दक्षिण पश्चिमी मानसून पवनें भूमध्यरेखीय पछुआ पवनें हैं, न कि दक्षिणी-पूर्वी व्यापारिक पवनें, जैसा कि कुछ अन्य विद्वान मानते हैं।

जेट-प्रवाह विचारधारा (Jet Stream Theory)

  • जेट वायु धारायें की खोज द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हुई थी, 
  • वायुमण्डल में 9 से 12 किमी० की ऊँचाई पर मध्य अक्षांशीय भागों (ग्रीष्म में 35°N – 45°N एवं जाड़े में 20°N – 35°N) में तेज गति (300-500 किमी०/घं०) से विसर्पिल मार्ग पर बहने वाली हवाएँ हैं, जेट वायु धारायें  कहलाती है। 
  • जेट वायु धारायें की धरातलीय मौसम को प्रभावित करने में प्रमुख भूमिका देखी गयी है। 
  • जाड़े की ऋतु में जेट स्ट्रीम क्षोभमण्डल में लगभग 12 किमी० की ऊँचाई पर 20°N – 35°N अक्षांशों के बीच स्थित होती है 
  • इन्हीं अक्षांशों में हिमालय तथा तिब्बत पठार स्थित हैं, जिससे जेट स्ट्रीम दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है। 
  • उत्तरी शाखा पश्चिम से पूरब को अपने वक्राकार मार्ग पर हिमालय के उत्तर तथा दूसरी शाखा इन पर्वतों के दक्षिण में बहती है। 
  • दक्षिणी शाखा के कारण ही शीत ऋतु में अफगानिस्तान और उत्तर- पश्चिम भारत के क्षेत्र पर एक उच्च दाब केन्द्र का निर्माण हो जाता है, जिससे वायुमण्डल में स्थिरता पैदा हो जाती है।
  • साथ ही जेट स्ट्रीम के ही कारण भूमध्य सागरीय पश्चिमी विक्षोभ उत्तरी-पश्चिमी भारत में आते हैं और और शीतकाल में वर्षा करते हैं।
  • ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की किरणों के कर्क रेखा पर लम्बवत् पड़ने पर ध्रुवीय धरातलीय उच्च दाब कमजोर पड़ने लगता है, जिससे जेटस्ट्रीम खिसक कर हिमालय के पार उत्तर में बहने लगती है। 
  • लगभग 6 से 10 जून तक जेट स्ट्रीम की दक्षिणी शाखा हिमालय के दक्षिण से लुप्त हो जाती है एवं यह उत्तरी शाखा से मिल जाती है। 
  • इससे भूमध्यरेखीय पछुआ हवाओं को दक्षिण एशिया में आने का अवसर मिल जाता है, क्योंकि तब तक एशिया महाद्वीप के आंतरिक भागों (उत्तर-पश्चिम भारत) में निम्न दाब का केन्द्र बन जाता है, जो मानसून प्रस्फोट में मददगार होता है। 
  • दूसरी ओर इन दिनों में दक्षिणी गोलार्द्ध की जेट स्ट्रीम अधिक प्रबल होती है जो अन्तरोष्ण अभिसरण क्षेत्र (ITC) को उत्तर की ओर धकेलने, भूमध्यरेखीय पछुआ हवाओं तथा दक्षिणी पूर्वी व्यापारिक हवाओं के साथ उष्ण कटिबंधीय अवदाबों को दक्षिण एशियाई क्षेत्र पर फैलाने में सहायता करती है।

भारतीय मानसून में तिब्बत पठार की भूमिका (Role of Tibet Plateau in Indian Monsoon)

सन् 1973 में भारत तथा सोवियत के मौसम वैज्ञानिकों ने  “मानसून अभियान” (monsoor expedition) or Monex का आयोजन किया,जिसमें 4 रूसी तथा भारतीय जहाजों ने मई से जुलाई के दौरान हिन्द महासागर और अरब सागर के क्षेत्रों से आधुनिक यंत्रों की सहायता से मौसमी आँकड़ों का संग्रह किया। इन प्राप्त आँकड़ों के विश्लेषण से सोवियत ऋतु वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मानसून की उत्पत्ति में तिब्बत के पठार की प्रमुख भूमिका होती है। इसी प्रकार की बात भारतीय वेध शालाओं के महानिदेशक डॉ० पी० कोटेश्वरम् ने सन् 1958 में एक अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में भाग लेते हुए कही थी।

  • डॉ० कोटेश्वरम् के अनुसार तिब्बत का पठार जिसकी लम्बाई 2000 किमी०, पश्चिम में चौड़ाई 600 किमी०, पूरब ने चौड़ाई 1000 किमी० तथा जो वायुमण्डल में 5 किमी० की ऊँचाई तक ऊपर उठा हुआ है,  साथ लगते मैदानी भागों की अपेक्षा 2-3°C अधिक सूर्यातप प्राप्त करता है।
  • इसके ग्रीष्म ऋतु में गर्म होने के फलस्वरूप ऊपरी वायुमंडल में एक तापीय प्रतिचक्रवात (thermal anticyclone) का निर्माण हो जाता है। 
  • इसके कारण हिमालय के दक्षिण की पश्चिमी उपोष्ण जेट स्ट्रीम कमजोर होने लगती है एवं प्रतिचक्रवात के दक्षिणी भाग में पूर्वी जेट स्ट्रीम का निर्माण होता है। 
  • सबसे पहले पूर्वी जेट स्ट्रीम का आर्विभाव भारत के पूर्वी देशान्तरों में होता है परन्तु बाद में यह पश्चिम की ओर खिसकती हुई भारत, अरब सागर एवं पूर्वी अफ्रीका तक फैल जाती है। 
  • पूर्वी जेट स्ट्रीम जेट स्ट्रीम (कोलकाता- बंगलौर अक्ष) के सहारे बहने वाली वायु (ऊपरी वायुमंडल में भारी हो जाने के कारण) हिन्द महासागर क्षेत्र में नीचे उतरने लगती है जिससे यहाँ के उच्च दाब को बल मिलता है और दक्षिण-पश्चिम मानसून की उत्पत्ति होती है।
  • अक्टूबर में वायुमण्डलीय दशाएँ बदल जाती हैं। इसके कारण मध्य एवं ऊपरी क्षोभ मण्डल का प्रतिचक्रवात विघटित होने लगता है और पूर्वी जेट स्ट्रीम लुप्त हो जाती है। 
  • उपोष्ण कटिबंधीय पश्चिमी जेट स्ट्रीम पुनः उत्तरी भारत पर स्थापित हो जाती है। 

FAQs

मानसून शब्द का अर्थ क्या होता है?

‘मानसून’ शब्द अरबी भाषा के शब्द ‘मौसिम’ से हुई है जिसका अर्थ है होता है ‘मौसम’ या ‘ऋतु’। अत: मानसून शाद का प्रयोग उन पवनों के लिए किया जाता है, जिनकी दिशा एक मौसम से दूसरे मौसम में उल्ट(विपरीत दिशा) हो जाती है।

मानसून का नाम कैसे पड़ा?

मानसून शब्द का प्रयोग अरब के नाविकों द्वारा अरब सागर क्षेत्र में चलने वाली उन हवाओं के लिए किया गया था, जिनकी दिशा मौसम या ऋतु परिवर्तन अनुसार बदल जाती थी। जैसे भारत में जाड़े के दिनों में हवाएं उत्तर-पूर्व से दक्षिण- पश्चिम को और गर्मी में दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व दिशा में बहने लग जाती हैं। जिन्हेंक्रमश: उत्तरी-पूर्वी एवं दक्षिणी-पश्चिमी मानसून कहा जाता है।

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