Search
Close this search box.

Share

पर्यावरण का अर्थ एवं इसके तत्त्व (Meaning of Environment and its Elements)

Estimated reading time: 18 minutes

पर्यावरण का अर्थ (Meaning of Environment)

पर्यावरण (Environment), वह वातावरण है जिससे सम्पूर्ण जगत् या ब्रह्माण्ड या जीव जगत् घिरा हुआ है। दूसरे शब्दों में सम्पूर्ण पृथ्वी का जीवन एक आवरण से घिरा है जो इसे परिचालित भी करता है और स्वयं भी प्रभावित होता है। पर्यावरण अंग्रेजी के शब्द ‘Environment’ का अनुवाद है जो दो शब्दों अर्थात् ‘Environ’ और ‘Ment’ के मेल से बना है, जिसका अर्थ है क्रमश: ‘encircle’ या ‘all round’ अर्थात् जो चारों ओर से घेरे हुए है वह पर्यावरण है । 

शाब्दिक दृष्टि से इसका अर्थ ‘Surroundings’ है जिसका तात्पर्य है चारों ओर से घेरे हुए । लेकिन यहाँ प्रश्न उठता  है कि किसे घेर हुए तथा किस चीज द्वारा घेरे हुए ? सम्पूर्ण पृथ्वी वायु मण्डल से घिरी है, इसी प्रकार धरातलीय जीव भी स्थल, जल, वायु एवं इनके विभिन्न घटकों द्वारा आवृत हैं । सम्पूर्ण जीव मण्डल जैविक एवं अजैविक घटकों द्वारा घिरा हुआ है । सम्पूर्ण जीव मण्डल वृहत् रूप में स्थल मण्डल, जल मण्डल और वायु मण्डल से सम्बन्धित है और यही भौगोलिक पर्यावरण का मूल है जो निम्न आरेख में प्रदर्शित है-

इस प्रकार हम देखते हैं कि पर्यावरण (Environment) किसी एक तत्त्व का नाम नहीं अपितु अनेक तत्त्वों का मिश्रण है जो सम्पूर्ण जीव जगत् को नियंत्रित करते हैं, जो एक दूसरे से अन्तर्सम्बन्धित हैं और जिनका प्रभाव एकाकी न होकर सम्मिलित रूप में होता है। इसी कारण कुछ विद्वानों ने इसे अंग्रेजी के ‘Milieu’ (म्लूय ) शब्द से सम्बोधित किया है जिससे तात्पर्य है ‘अनेक तत्त्वों का समूह जो आवृत किये हुए हैं’ (Total set of surroundings)। इसी प्रकार कुछ विद्वानों ने भौगोलिक परिवेश में पर्यावरण हेतु अंग्रेजी में ‘Habitat’ शब्द का पर्याप्त प्रयोग किया है, इससे तात्पर्य है ‘आवास’। किन्तु पर्यावरण सर्वमान्य एवं प्रचलित शब्द है । 

विश्व शब्दकोश के अनुसार “पर्यावरण (Environment) उन सभी दशाओं, प्रणालियों एवं प्रभावों का योग है जो जीवों, स्पेशीज या जातियों के विकास, जीवन एवं मृत्यु को प्रभावित करता है। अर्थात् “जीवों को प्रभावित करने वाले बाह्य प्रभावों का योग पर्यावरण है जिसमें प्रकृति की भौतिक एवं जैविक शक्तियाँ सम्मिलित होती हैं जिनसे जीव सदैव आवृत्त होता है।”

निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि पर्यावरण अनेक तत्त्वों प्रमुख रूप से प्राकृतिक या भौतिक तत्त्वों का समूह है जो एक दूसरे के साथ सदैव क्रियाशील रहते हैं। जल, वायु, मृदा, वनस्पति के अतिरिक्त सम्पूर्ण जीव-जन्तु उसके अभिन्न अंग हैं। मानव स्वयं एक जीव है अतः पर्यावरण का अंग है। यही नहीं अपितु मानव सबसे सक्रिय जीव है जो एक ओर पर्यावरण के अनुरूप चलता है तो दूसरी ओर अपने ज्ञान-विज्ञान से पर्यावरण को अपने अनुरूप बनाने हेतु इस प्रकार की क्रिया-प्रतिक्रिया करता है कि सम्पूर्ण तन्त्र असन्तुलित होने लगता है । 

प्रदूषण, तापमान में वृद्धि, ओजोन परत का विरल होना, सूखा, बाद, भूस्खलन और न जाने कितनी वर्तमान समस्याओं का कारण मानव स्वयं है । वास्तविकता यह है कि मानव हो या अन्य जीव सभी पर्यावरण (Environment) की उपज हैं। उनकी उत्पत्ति, विकास एवं वर्तमान स्वरूप ही नहीं अपितु भावी अस्तित्व भी पर्यावरण की परिस्थिति पर ही निर्भर है। 

पर्यावरण (Environment) शब्द को प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञानों में विविध रूपों में प्रयुक्त किया गया है जैसे प्राकृतिक पर्यावरण (Physical or Natural Environment), आर्थिक (Economic), सामाजिक (Social), सांस्कृतिक (Cultural), राजनीतिक (Political) पर्यावरण आदि । इसी प्रकार जैविक (Biotic) एवं अजैविक (Abiotic) पर्यावरण तथा भौगोलिक पर्यावरण (Geographical Environment) का भी प्रयोग होता है । 

उपर्युक्त विविध स्वरूपों के विश्लेषण में न जाकर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि मौलिक रूप से पर्यावरण का स्वरूप प्राकृतिक है अर्थात् प्राकृतिक तत्त्वों के प्रभाव एवं उपयोग से ही आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक पर्यावरण का जन्म होता है और उसी से ये नियन्त्रित एवं परिचालित होते हैं । अतः वर्तमान अध्ययन में प्राकृतिक पर्यावरण को आधार माना गया है जिसमें अनेक तत्त्वों के साथ-साथ मानव स्वयं भी एक कारक के रूप में कार्य करता है, इसे दूसरे शब्दों में भौगोलिक पर्यावरण भी कह सकते हैं ।

पर्यावरण के मूल घटक

पर्यावरण के तत्व या कारक (Elements or Factors of Environment)

पर्यावरण (Environment) अनेक तत्त्वों के समूह है तथा प्रत्येक तत्व का इसमें महत्त्वपूर्ण स्थान है। अनेक विद्वानों ने पर्यावरण के तत्त्वों या कारकों का समूहीकरण अपने-अपने अध्ययन के अनुसार किया है, यद्यपि मूल तत्त्व उच्चावच, जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति, मृदा एवं जल राशियाँ है, जीव अर्थात् मानव एवं अन्य जीव-जन्तु भी इसका एक अंग है। कुछ विद्वानों ने पर्यावरण के तत्त्वों को जिन समूहों में विभक्त किया है, वे है- 

1. प्रत्यक्ष कारक (Direct Factors) – जैसे तापक्रम, आर्द्रता, मृदा, भूमिगत जल, भूमि की पोषकता आदि। 

2. अप्रत्यक्ष कारक (Indirect Factors)- जैसे भूमि की संरचना, जीवाणु, ऊँचाई, हवा, ढाल आदि। 

वनस्पतिवेता ओस्टिंग (Osting 1948) ने पर्यावरण के निम्न कारक व्यक्त किये हैं- 

इसी प्रकार डोबेनमीर (Daubenmire 1959) ने पर्यावरण के सात तत्त्व क्रमशः मृदा, जल, तापक्रम, प्रकाश, वायुमण्डल, अग्नि एवं जैविक तत्त्व वर्णित किए हैं। 

कुछ अन्य विद्वान इन्हें चार समूहों अर्थात् जलवायु सम्बन्धी कारक (Climatic Factors), भूयकारिक कारक (Physiographic Factors), मृदा -सम्बन्धी कारक (Edaphic Factors) एवं जैविक कारक (Biotic Factors) में विभक्त करते हैं। 

भौगोलिक अध्ययन में भी पर्यावरण के उपर्युक्त तत्त्वों का ही विवेचन मिलता है, इनका संक्षिप्त विवेचन अपेक्षित है। पर्यावरण के प्रमुख तत्त्व / कारक निम्नलिखित हैं- 1. स्थिति (Location) 2. उच्चावच (Relief) 3. जलवायु (Climate) (अ) तापमान (Temperature) (ब) वर्षा (Rainfall) (स) आर्द्रता (Humidity) (द) वायु (Winds) 4. प्राकृतिक वनस्पति (Natural Vegetation) 5. मृदा (Soils) 6. जल राशियाँ (Water Bodies) मानव एवं अन्य जीव जन्तुओं को भी पर्यावरण का एक कारक स्वीकार किया जाता है । 

1. स्थिति (Location)

स्थिति एक ऐसा कारक है जिसका सामान्यतया वर्णन नहीं किया जाता किन्तु यह भौगोलिक अध्ययन में अति महत्त्वपूर्ण तथ्य माना जाता है और वास्तविकता यह है कि स्थिति एक क्षेत्र के पर्यावरण की द्योतक है । भूगोल में स्थिति को ज्यामितीय (Geometrical) एवं निकटवर्ती क्षेत्रों के सन्दर्भ में स्थिति (Vicinal) के रूप में व्यक्त करते हैं। 

ज्यामितीय स्थिति से तात्पर्य है अक्षांश एवं देशान्तर के सन्दर्भ में स्थिति, जिसके द्वारा सम्पूर्ण पृथ्वी के सन्दर्भ में स्थान विशेष का ज्ञान हो जाता है। इसमें अक्षांश के सन्दर्भ में स्थिति महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि इनका सूर्य की गति के साथ समन्वय होता है और ये जलवायु के द्योतक होते हैं। जैसे उष्ण, शीतोष्ण एवं शीत कटिबन्धीय जलवायु का ज्ञान क्रमशः 23.5° उत्तरी एवं 23.5° दक्षिण, 23.5° उत्तरी एवं दक्षिण से 66.5° उत्तरी एवं दक्षिण तथा 66.5° से 90° उत्तर एवं दक्षिण में अक्षांशीय विस्तार से ज्ञात हो जाता है। 

जैसे ही यह ज्ञात होता है कि एक प्रदेश 5° उ. एवं 5° द. अक्षांश के मध्य स्थितं है तो वहाँ भूमध्यरेखीय जलवायु होगी, जहाँ उच्च तापमान, प्रतिदिन संध्या के समय वर्षा होती है । दूसरी ओर शीत कटिबन्ध के क्षेत्रों का आभास तुरन्त इस तथ्य से हो जाता है कि यदि स्थिति 66.5° से 90° के मध्य है तो वहाँ वर्षपर्यन्त शीत ऋतु होगीं। मध्यम अक्षांश शीतोष्ण जलवायु वाले हैं । वृहत् रूप में जलवायु के अनुरूप प्राकृतिक वनस्पति, जीवजन्तु एवं मानव व्यवसायों का भी जन्म होता है । यद्यपि अन्य तत्त्व इसे परिवर्तित करते रहते हैं । फिर भी अक्षांशीय स्थिति एक जलवायु संकेतांक के रूप में कार्य करती है। 

 स्थिति का दूसरा आयाम है – निकटवर्ती क्षेत्र के सन्दर्भ में स्थिति – अर्थात् क्षेत्र अथवा प्रदेश चारों ओर से समुद्र से आवृत है या उसकी तीन, दो अथवा एक सीमा सागरीय है, दूसरी अवस्था में पूर्णतया स्थल आवृत या महाद्वीपीय (Continental) स्थिति हो सकती है। चारों ओर से समुद्र से आवृत अवस्थिति द्वीपीय (Insular) कही जाती है । जैसे श्रीलंका, ग्रेट ब्रिटेन, जापान, न्यूजीलैण्ड, इण्डोनेशिया आदि । इन क्षेत्रों की जलवायु पर समुद्र का समकारी प्रभाव पड़ता है जिसका विस्तार उच्चावच पर निर्भर करता है। 

तीन ओर समुद्र से सीमांकित स्थिति को प्रायद्वीपीय (Peninsular) स्थिति कहते हैं जैसे भारत, टर्की, सोमालिया, इटली आदि । इनके वे प्रदेश जो सामुद्रिक सीमा से लगे होते हैं वहाँ अपेक्षाकृत सम जलवायु होती है तथा आन्तरिक प्रदेशों में तापमान भिन्न होता है । पूर्ण महाद्वीपीय स्थिति में समुद्र का समकारी प्रभाव नहीं होता जैसे ईरान,अफगानिस्तान, पराग्वे, कांगो, जाम्बिया, मंगोलिया, इथोपिया, नेपाल आदि । 

पर्यावरण (Environment) के दृष्टिकोण से स्थानीय अवस्थिति भी महत्त्वपूर्ण होती है जिसे ‘साइट’ (Site) नाम दिया जाता है। नदियों के तटों पर स्थिति, झीलों के तटों पर स्थिति, वन क्षेत्रों में स्थिति, कृषि आवृत प्रदेश में स्थिति, पर्वत पदीय स्थिति, पर्वत ढाल पर स्थिति, पठारी प्रदेश पर स्थिति आदि । ये सभी तथ्य स्थानीय अथवा क्षेत्रीय पर्यावरण को अत्यधिक प्रभावित करते हैं । 

वायु की दिशा के आधार पर औद्योगिक क्षेत्रों की स्थिति का निर्धारण कर वायु प्रदूषण को एक सीमा तक नियन्त्रित किया जा सकता है । अनेक नदियों का जल जिनमें गंगा नदी भी सम्मिलित है इसी कारण प्रदूषित होता जा रहा है कि उनके किनारे विशाल नगर एवं औद्योगिक क्षेत्र स्थित है। स्थिति एक ऐसा तत्त्व है जिसे भूगोलवेत्ता अपने अध्ययन में पर्याप्त महत्त्व देते हैं क्योंकि इसका प्रभाव पर्यावरण के अन्य तत्त्वों को समझने एवं विश्लेषण करने में सहायक होता है । 

2. उच्चावच (Relief)

भू-आकार या उच्चावच पर्यावरण (Environment) का एक अति महत्त्वपूर्ण तत्त्व है । जैसा कि ज्ञात है सम्पूर्ण पृथ्वी का धरातल उच्चावच विविधता से युक्त है । यह विविधता महाद्वीपीय स्तर से लेकर स्थानीय स्तर तक देखी जा सकती है । सामान्यतया उच्चावच के तीन स्वरूप पर्वत, पठार एवं मैदान हैं। इनमें भी विस्तार, ऊँचाई, संरचना, आदि की क्षेत्रीय विविधता होती है तथा अपरदन एवं अपक्षय क्रियाओं से अनेक भू-रूपों या स्थलाकृतियों का जन्म हो जाता है जैसे कहीं मरुस्थली स्थलाकृति है तो कहीं चूना प्रदेश की तो कहीं हिमानीकृत हैं तो दूसरी ओर नदियों द्वारा निर्मित मैदानी और डेल्टाई प्रदेश । 

ये सभी तथ्य सम्पूर्ण जीव मण्डल अथवा वृहत् प्रदेशों के पर्यावरण को ही नहीं अपितु प्रादेशिक एवं स्थानीय पर्यावरण को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। जम्मू-कश्मीर की पर्वतीय वादियाँ हों अथवा हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय अंचल, अपनी- प्राकृतिक सुरम्यता से पर्यटन स्थल बन गए हैं। भारत का उत्तर-पूर्वी अंचल अपने पर्वतीय उच्चावच से एक विशिष्ट अर्थ-व्यवस्था को जन्म देता है, तो राजस्थान का मरुस्थल पशुपालन और केरल का तट मछली व्यवसाय को प्रश्रय दे रहा है ।

उच्चावच एक ऐसा तत्त्व है, जिसका प्रभाव पर्यावरण के अन्य कारकों जैसे जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति , मृदा पर प्रत्यक्ष दृष्टिगत होता है और सामूहिक रूप से मानव के सांस्कृतिक और आर्थिक स्वरूप को निर्धारित करता है। यही कारण है कि मैदानी प्रदेश विशेषकर नदियों के मैदान प्राचीन सभ्यताओं के पोषक रहे हैं। चाहे वह सिन्धुघाटी की सभ्यता हो या चीन की या नील नदी की घाटी में विकसित मिस्र की या दजला-फरात की नदियों के क्षेत्र में मैसापोटामिया की सभ्यता हो। 

अनेक प्रदेश विकास की गति में मात्र इसलिये पिछड़ जाते हैं कि वहाँ असमतल पर्वतीय धरातल होता है जैसा कि भारत के उत्तरी-पूर्वी राज्य अरुणाचल प्रदेश, नागालैण्ड,त्रिपुरा, मेघालय, असम, मणिपुर शेष प्रदेशों से विकास के क्रम में पिछड़े हुए हैं। उच्चावच का प्रभाव क्षेत्रीय जलवायु एवं प्राकृतिक वनस्पति पर सर्वाधिक होता है । पर्वतीय श्रेणियों की ऊँचाई ढाल, विस्तार एवं दिशा का जलवायु पर एवं प्राकृतिक वनस्पति पर प्रत्यक्ष प्रभाव होता है। 

यह एक सामान्य नियम है कि ऊँचाई के साथ-साथ तापमान में कमी होती जाती है और तापमान में कमी से जलवायु में परिवर्तन होता है और जलवायु में परिवर्तन से प्राकृतिक वनस्पति में परिवर्तन होता है। सामान्यतया प्रति 1000 मीटर की ऊँचाई पर 6° से 7° से. तापमान कम हो जाता है। अतः सामान्य दशा में पर्वतों के निचले ढालों पर उष्ण, मध्यम ऊँचाई पर शीतोष्ण और अधिक ऊँचाई पर शीत जलवायु होती है। हिम रेखा के पश्चात् वर्ष पर्यन्त हिम का जमाव होने से ध्रुव प्रदेशों जैसी स्थिति होती है । 

जलवायु का यह परिवर्तन अक्षांशीय स्थिति से प्रभावित होता है। जैसे विषुवत् रेखीय प्रदेशों में हिम रेखा अधिक ऊँचाई पर होती है जबकि शीतोष्ण में कम और ध्रुवीय प्रदेशों में अत्यधिक कम या सर्वत्र हिम का जमाव होता है। जलवायु में हुए इस परिवर्तन के कारण उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों के पर्वतीय भागों जैसे हिमालय आदि में निचले भागों में उष्ण कटिबन्धीय वनस्पति, मध्यम ऊँचाई पर शीतोष्ण, इसके पश्चात् कोणधारी वन और तत्पश्चात् छोटे पौधे और फिर हिम मण्डित प्रदेश, वनस्पति रहित प्रदेश होता है। 

पर्वत श्रेणियों का वर्षा पर सीधा प्रभाव होता है, यह उनके विस्तार की दिशा एवं वायु प्रवाह के मार्ग पर निर्भर करता है। यदि पर्वतों का विस्तार वायु मार्ग में अवरोधक का है तो उसके कारण वायु ऊपर होगी, उसका तापमान कम होगा तथा आर्द्रता धारण करने की क्षमता कम होने से वर्षा होगी। यह वर्षा पर्वत श्रेणी के वायु अभिमुख ढाल पर ही होती है, दूसरा अर्थात् वायु विमुख ढाल ‘दृष्टि छाया प्रदेश में रह कर शुष्क या अति अल्प वर्षा प्राप्त करता है।

वर्षा की इस मात्रा में परिवर्तन के कारण पर्वत के दोनों ढालों पर वनस्पति में भी अन्तर होता है । किन्तु यदि पर्वत का विस्तार वायु की दिशा में होगा तो उसका प्रभाव वर्षा पर नगण्य होता है जैसा कि राजस्थान की अरावली पर्वत माला का है। 

पर्वतीय धरातल स्थानीय रूप से जलवायु एवं वनस्पति को अत्यधिक  प्रभावित करता है। अनेक बार ये शीत या गर्म हवाओं को रोककर स्थानीय मौसम में परिवर्तन का कारण बनते हैं। पर्वतीय ढाल की प्रकृति अर्थात् तीव्र, मध्यम एवं मंद का सूर्य ताप की मात्रा, जल प्रवाह की गति, मृदा अपरदन एवं वनस्पति पर प्रभाव होता है। उत्तरी गोलार्द्ध के उच्च क्षेत्रों में जहाँ तीव्र ढाल होता है वहाँ दक्षिणी ढाल पर अधिक सूर्य ताप तथा उत्तरी दाल उपड़े होते हैं जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में इससे विपरीत होता है। इस सूर्य ताप की मात्रा से तापमान एवं तदनुसार प्राकृतिक वनस्पति में अन्तर आ जाता है । 

मृदा की बनावट पर ढाल की तीव्रता का प्रभाव होता है, यहाँ तक कि बहते जल के साथ अधिकांश मृदा बह जाती है और वहाँ केवल चट्टानें रह जाती संक्षेप में, हम कह सकते है कि उच्चावच का जहाँ पर्यावरण पर प्रभाव पड़ता है, वहीं जनसंख्या निवास, कृषि, परिवहन, उद्योग आदि आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों पर भी प्रभाव पड़ता है। पर्वतीय क्षेत्र आज भी वनों के संरक्षक हैं। यद्यपि इन पर संकट आया हुआ है कुछ क्षेत्रों में खनन हेतु भी पर्वतों को नष्ट किया जा रहा है। वास्तव में उच्चावच प्रादेशिक एवं क्षेत्रीय पारिस्थितिक-तन्त्र को सन्तुलित रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। 

3. जलवायु (Climate)

जलवायु पर्यावरण का नियन्त्रक तत्त्व है क्योंकि इसका प्रभाव अन्य पर्यावरण के कारकों जैसे प्राकृतिक वनस्पति, मृदा, जल राशियों, जीव-जन्तुओं आदि पर सर्वाधिक होता है। यही नहीं मानव स्वयं भी जलवायु से अत्यधिक प्रभावित होता है, उसका भोजन, वस्त्र, आवास, व्यवसाय ही नहीं अपितु कृषि उत्पादन, जनसंख्या बसाव आदि भी इससे प्रभावित होते हैं। 

जलवायु मूलतः सूर्य ताप ( प्रकाश एवं तापमान), वर्षा, आर्द्रता एवं हवाओं का सम्मिलित स्वरूप है, जो विश्व के विभिन्न भागों में ही नहीं अपितु एक देश में भी परिवर्तित होती रहती है, तदनुसार पर्यावरण की दशाओं एवं पारिस्थितिक तन्त्र में भी परिवर्तन दृष्टिगत होता है। प्रकाश का स्रोत सूर्य है जो वनस्पति को अत्यधिक प्रभावित करता है । वनस्पति की अनेक क्रियाएँ, जैसे-फोटोसिन्थेसिस, क्लोरोफिल बनना, श्वसन, गर्मी प्राप्त करना, बीजों का अंकुरण, विकास एवं वितरण प्रभावित होती हैं। प्रकाश की प्राप्ति पर वायु मण्डल में उपस्थित गैस, बादलों की सघनता, वायु मण्डल में विस्तीर्ण धूल के कण, वनस्पति, जल एवं स्थल की प्रकृति का प्रभाव होता है। 

केवल वनस्पति ही नहीं अपितु जीव-जन्तु और स्वयं मनुष्य पर भी इसका विविध प्रकार से प्रभाव पड़ता है। तापक्रम का सीधा प्रभाव वायु मण्डल के अतिरिक्त वनस्पति, पशुओं एवं मनुष्य पर होता है। तापक्रम जीवन के लिएआवश्यक है चाहे वह धरातल पर वनस्पति, पशु, पक्षी या अन्य जीवाणु हो या समुद्री जीवन हो। मनुष्य के सभी क्रिया-कलापों का सीधा सम्बन्ध तापक्रम से होता है । 

एक सामान्य नियम है कि अत्यधिक तापमान या अत्यधिक न्यून तापमान जीवन के लिए हानिकारक होता है। वनस्पति का सीधा तापमान से सम्बन्ध होता है जो अक्षांशीय स्थिति एवं ऊँचाई के साथ परिवर्तित होता जाता है। विषुवत् रेखीय प्रदेशों में उच्च तापमान एवं वर्षा अति सघन वनों का कारण है, सम्पूर्ण उष्ण कटिबन्ध में उष्ण वर्षा वाले वन (Tropical Rainforest) मिलते हैं, जबकि मध्यम अक्षांशों में घास के मैदान पतझड़ वाले वन- (Deciduous Forests) और शीत प्रदेशों के सीमावर्ती भाग में कोणधारी वन (Coniferous Forests), उसके पश्चात् टुण्ड्रा प्रदेश की वनस्पति और फिर हिम मण्डित प्रदेश। 

यही क्रम ऊँचाई की वृद्धि के साथ भी देखा जा सकता है जिसका उल्लेख उच्चावच के साथ किया जा चुका है। जलवायु का अन्य प्रमुख तत्त्व वर्षा (Rainfall or Precipitation) हैं। यह भी जीवन का स्रोत है चाहे वह मानव हो, वनस्पति हो अथवा अन्य जीव-जन्तु। पृथ्वी के विशाल क्षेत्र पर जल का विस्तार है, जिससे निरन्तर वाष्पीकरण के माध्यम से जल वाष्प वायु मण्डल में प्रवेश करती है तथा संघनन की क्रिया द्वारा पुनः वर्षा एवं अन्य रूपों में धरातल पर आ जाती है। 

जल का वायु मण्डल में प्रवेश एवं पुनः वर्षा के रूप में आना एक चक्र के रूप में चलता रहता है इसे ‘जल चक्र’ (Hydrological Cycle) कहते हैं। पृथ्वी तल पर वर्षा का वितरण अत्यधिक असमान है। एक ओर वर्ष पर्यन्त अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्र हैं तो दूसरी ओर शुष्क मरुस्थली क्षेत्र और कहीं मध्यम या सामान्य वर्षा के प्रदेश हैं। इसी के अनुसार वहाँ का पर्यावरण होता है । एक ओर विषुवत् रेखा के प्रदेशों के सघन वन हैं जहाँ प्रकाश भी धरातल तक नहीं पहुँच पाता, दूसरी ओर सवाना के घास के मैदान और कहीं शुष्क मरुस्थली कंटीली झाड़ियाँ हैं । 

वर्षा के द्वारा कृषि की विभिन्न उपजों के उत्पादन का निर्धारण होता है। अति वर्षा बाढ़ का कारण बन जाती है तो वर्षा के अभाव में सूखा और अकाल पड़ जाता है । जलवायु का अन्य तत्त्व आर्द्रता है जो वायु में उपस्थित रहती है। तापक्रम के अनुरूप वायु में आर्द्रता धारण करने की क्षमता होती है और यही नमी तापक्रम के गिरने पर वर्षा, कोहरा, धुन्ध, हिम आदि के रूप में प्रगट होती है। हवाओं का सम्बन्ध वायुभार एवं तापमान से होता है । हवायें उच्च वायु भार से निम्न वायुभार की ओर चलती हैं । 

विश्व में एक ओर वर्ष पर्यन्त चलने वाली व्यापारिक, पछुआ और धुवीय हवायें हैं, तो दूसरी ओर मौसम के साथ परिवर्तित होने वाली मानसूनी हवायें हैं । इनके अतिरिक्त स्थानीय हवायें एवं चक्रवात भी चलते हैं। ये सभी हवायें जलवायु अर्थात् तापक्रम, वर्षा आदि को प्रभावित करती हैं तथा इनका प्रभाव वनस्पति एवं मानव पर भी होता है। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि जलवायु पारिस्थितिक तन्त्र का नियन्त्रक है। विश्व के वृहत् जलवायु विभाग जहाँ विश्वव्यापी पर्यावरण की दशाओं को नियन्त्रित करते हैं तो प्रादेशिक एवं स्थानीय जलवायु की दशा क्षेत्रीय पर्यावरण की नियन्त्रक है। 

4. प्राकृतिक वनस्पति (Natural Vegetation)

प्राकृतिक वनस्पति के अन्तर्गत सघन वनों से लेकर कंटीली झाड़ियाँ, घास एवं छोटे पौधे जो प्राकृतिक परिस्थितियों में पल्लवित हों वे सम्मिलित किए जाते हैं। प्राकृतिक वनस्पति जलवायु, उच्चावच एवं मृदा से अस्तित्व में आती है और इन्हीं में जो परिवर्तन होता है उसके अनुरूप उसमें भी परिवर्तन होता है। जहाँ प्राकृतिक वनस्पति पर्यावरण की उपज है वहीं वह पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी को अत्यधिक प्रभावित करती है। 

प्राकृतिक वनस्पति का प्रभाव जलवायु, मृदा पर स्पष्ट दृष्टिगत होता है । वनस्पति को जलवायु का नियन्त्रक माना जाता है। यह तापमान को उच्च होने से रोकती है तथा वायु मण्डल की आर्द्रता में वृद्धि करती है जो वर्षा में सहायक होती है। यह वायु मण्डल में विभिन्न गैसों की मात्रा सन्तुलन बनाये रखती है। पेड़-पौधों से निकलने वाली ऑक्सीजन प्राण वायु है साथ ही ये दूषित कार्बन डाई ऑक्साइड को ग्रहण कर उसे प्रदूषित होने से बचाती है।

वायु मण्डल अथवा वायु के प्रदूषण को रोकने में वनस्पति की अत्यधिक भूमिका है। यही कारण है कि वनों के विनाश से वायु प्रदूषण का खतरा अधिक होता जा रहा है। वनों के कटने से मरुस्थलीकरण (Desertification) की प्रक्रिया में वृद्धि होने से मरुस्थलों का विस्तार हो रहा है।

प्राकृतिक वनस्पति मृदा की संरक्षक है क्योंकि वृक्षों की जड़ें भूमि को जकड़े रहती हैं जिससे उसका अपरदन नहीं होता और जहाँ भूमि कटाव हो रहा हो वहाँ वृक्षारोपण द्वारा इसे रोका जा सकता है। यही नहीं अपितु भूमि की उर्वरता के लिये आवश्यक जीवांश (Humus) भी मृदा को इसी से प्राप्त होता है। वन जंगली जानवरों के आवास स्थल एवं सौन्दर्य से युक्त पर्यटन स्थल होते हैं जिन्हें अभयारण्य तथा राष्ट्रीय पार्क के रूप में विकसित किया जाता है। निस्सन्देह वन मानव के विकास में तथा पर्यावरण को स्वच्छता प्रदान करने में महती भूमिका निभाते हैं । 

5. मृदा (Soils or Edaphic Factor)

मृदा धरातल की ऊपरी उथली परत का सामान्य नाम है जिसका निर्माण चट्टानों के निरन्तर अपक्षय एवं अपरदन तथा कार्बनिक पदार्थों के मिश्रण के फलस्वरूप होता है। अतः मृदा में विभिन्न प्रकार के रासायनिक तत्वों का समावेश होता है जिससे यह विभिन्न प्रकार की वनस्पति एवं उपजों को पोषकता प्रदान करती है। मृदा का सर्वाधिक महत्त्व वनस्पति एवं कृषि उपजों हेतु है क्योंकि यही पौधों को आधार प्रदान करती है और पौधों पर प्राणियों का जीवन निर्भर करता है। 

मृदा की बनावट एवं संरचना के विस्तार में न जाकर संक्षेप में कह सकते हैं कि मृदा का निर्माण चार घटकों अर्थात् खनिज पदार्थों, कार्बनिक पदार्थ, मृदा जल और मृदा वायु से होता है। सामान्य रूप से मृदा तीन प्रकार की अर्थात् रेतीली मृदा (Sandy Soil), चिकनी मृदा (Clay Soil) और दुमटी मृदा (Loamy Soil) होती है । मृदा प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से वनस्पति को प्रभावित करती है। 

पौधों के लिए पोषक तत्व तथा जल मृदा से ही प्राप्त होते है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व जीवांश पदार्थ (Humus) है जो वनस्पति से प्राप्त होता है। मृदा का उपजाऊपन उसके महत्त्व में वृद्धि करता है । क्षारीय एवं अम्लीय मृदा सामान्य पौधों की वृद्धि में बाधक होती है। भूमि का जल तथा वायु से कटान अनेक क्षेत्रों में प्रमुख समस्या है, यह समस्या वनों के विनाश से और अधिक होती जा रही है जो पर्यावरण अवकर्षण का एक प्रमुख कारण है। पर्यावरण के तत्त्व के रूप में मृदा वनस्पति को जीवन प्रदान करने वाली तथा कृषि उपजों के उत्पादन में सहायक की भूमिका निभाती है तथा यह नमी संग्रह कर वाष्पीकरण की प्रक्रिया में भी सहयोग देती है। 

6. जल राशियाँ (Water Bodies)

प्राकृकित जल राशियों में महासागर, सागर, झीलें, नदियाँ एवं प्राकृतिक जलाशय सम्मिलित किये जाते हैं। महासागर सम्पूर्ण विश्व के जीव जगत् या जीव मण्डल अथवा विश्व पारिस्थितिक तन्त्र को नियन्त्रित करते हैं। जलवायु पर महासागरों एवं सागरों का अत्यधिक प्रभाव होता है । वायु मण्डल में नमी की वाष्पीकरण, वायु में नमी, तापक्रम में कमी आदि प्रभाव वृहत् जल राि का होता है। समुद्र का जलवायु पर समकारी प्रभाव होता है अर्थात् वहा तापमान न बहुत उच्च न निम्न हो पाता है । समुद्री पवनें हमेशा जल वर्षा प्रदायक होती हैं। 

समुद्र का अपना सागरीय पारिस्थितिक – तन्त्र (Marine Ecosystem) होता है, जिसमें समुद्री जीव-जन्तु, वनस्पति का वहाँ के पर्यावरण के अनुरूप विकास होता है। इसी प्रकार झील पारिस्थितिक- तन्त्र एवं तालाब पारिस्थितिक तन्त्र का विकास होता है। नदियाँ जल प्रदायक, मैदानी भागों को उपजाऊ बनाने का कार्य करती हैं और डेल्टाई प्रदेश में दलदली भाग का विकास करती हैं। सभी प्रकार की जल राशियाँ जल चक्र के संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। 

उपर्युक्त तत्त्वों के अतिरिक्त अनेक जीव-जन्तु एवं सूक्ष्म जीवाणु भी पर्यावरण के अंग होते हैं । खनिजों को भी प्राकृतिक तत्त्वों में कुछ विद्वान सम्मिलित करते हैं, किन्तु खनिज स्वतः उद्भूत न होकर खनन क्रिया से सक्रिय होते हैं अतः मानवीय क्रिया में सम्मिलित किये जाते हैं। वर्णित पर्यावरण के सभी तत्त्व एकाकी रूप में तो प्रभावित करते ही हैं, वस्तुतः इनके सामूहिक प्रभाव ही पर्यावरण एवं पारिस्थितिक-तन्त्र को नियन्त्रित करते हैं।

You Might Also Like

One Response

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Category

Realated Articles