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भारत के प्रमुख पारिस्थितिक तंत्र (Major Ecosystems of India)
भारत भौगोलिक दृष्टि से विविधतापूर्ण विशाल देश है। यहाँ अनेक पारिस्थितिक तंत्र विकसित हुए हैं। इन तंत्रों की भिन्नता पर्यावरण के अनुसार होती है। जीवों का विकास भौगोलिक स्थिति, जलवायु, धरातल, मिट्टी, जल स्रोतों के आधार पर हुआ है। भारत में पाये जाने वाले प्रमुख पारिस्थितिक तंत्र इस प्रकार हैं –
(1) पठारी पारिस्थितिक तंत्र
(2) मैदानी-पठार सीमान्त पारिस्थितिक तंत्र
(3) जलौढ़ मैदानी पारिस्थितिक तंत्र
(4) उषण मरूस्थलीय पारिस्थितिक तंत्र
(5) उत्तर-पूर्वी पहाड़ी-पठारी पारिस्थितिक तंत्र
(6) समुद्र तटीय पारिस्थितिक तंत्र
(7) हिमालयीय पारिस्थितिक तंत्र
पठारी पारिस्थितिक तंत्र
भारत के प्रायद्वीपीय पठार का विस्तार लगभग 16 लाख वर्ग कि. मी. क्षेत्र में हैं। यह पूर्व में पूर्वी घाट से पश्चिम में पश्चिमी घाट तक फैला है। उत्तर में विंध्याचल से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक इसका विस्तार है। पठार के अधिकांश क्षेत्र में लावा का स्तर है। इसका धरातल मपाट, उबड़-खाबड़ से लेकर तरंगित है। कटीली वनस्पति के साथ सघन वन भी है। छोटे प्राणी से लेकर गेर हाथी भी पाये जाते हैं। खनिज भण्डार, उपजाऊ मिट्टी जल स्रोत आदि की उपलब्धता के अनुसार जनसंख्या का संकेन्द्रण हुआ है। क्षेत्र में आदिवासी जनसंख्या प्रधान है।
मैदानी पठार-सीमान्त पारिस्थितिक तंत्र
अरावली प्रखण्ड पश्चिम एवं पूर्वी घाट, प्रायद्वीपीय पठार तथा विंध्य-सतपुड़ा प्रखण्ड के भाग इसके अंतर्गत आते हैं। यहाँ मैदान एवं पठार की संक्रमण दिशाएँ विद्यमान है। इसी कारण जैवीय व्यवस्था में भी संक्रमण पाया जाता है। पठारों एवं मैदान के जीवों का परस्पर झुकाव पाया जाता है। नाले, झरने एवं उच्च भागों से आने वाली नदियाँ जीवन का आधार है।
जलौढ-मैदानी पारिस्थितिक तंत्र
इसका विस्तार लगभग 7 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र में हैं। यह नदियों द्वारा निर्मित है तथा उपजाऊ मिट्टी से बना है। इसके उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में पठार हैं। इसे पूर्वी, पश्चिमी तथा मध्यवर्ती तीन भागों में बांटा जा सकता है। इन भागों की जलवायु, वर्षा की मात्रा में परिवर्तन पाया जाता है। पूर्वी भाग में सबसे अधिक वर्षा होती है। यहाँ पतझड़ी वन प्रमुख हैं। यहाँ रोपड़ बाले पौधों एवं फसलों की प्रधानता है।
लगभग 5000 वर्षों से मानव सभ्यता का केन्द्र रहा है। जनसंख्या का प्रभाव विशेष रूप से हुआ है। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन अधिक होने से अनेक पर्यावरणीय समस्यायें जन्म लेने लगी है तथा पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ रहा है। अनेक जीव लुप्त हो गये हैं जल प्रदूषण बढ़ा है, मिट्टी की गुणवत्ता प्रभावित हुई है।
उष्ण मरूस्थलीय पारिस्थितिक तंत्र
इसका विस्तार लगभग एक लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र में हुआ है। थार का मरूस्थल इसके अंतर्गत आता है। यहाँ तापमान उच्च है तथा अल्प वर्षा होती है। जल के अभाव के कारण छोटे पौधों का विकास हुआ है। इन पौधों को भी मनुष्यों द्वारा उपयोग में लाया जाता है, जिससे यह क्षेत्र लगभग वनस्पति विहीन हो गया है। यहाँ रेतीली टीलों एवं चट्टानों की प्रधानता है।
वनस्पति के अभाव के कारण केवल ऊंट ही मुख्य प्राणी है। इसकी शारीरिक रचना मरूस्थलीय जीवन के अनुकूल है। पानी की कमी ने जीवन को प्रभावित किया है। बालू में छोटे प्राणी एवं मरूद्भिद पौधे मिलते हैं। पालतू पशुओं में गाय, भैंस आदि प्रधान है। जल प्रमुख स्रोत नहरें एवं भूमिगत जल हैं। यहाँ प्राकृतिक दशाएँ अनुकूल नहीं कही जा सकती।
उत्तर-पूर्वी पहाड़ी-पठारी पारिस्थितिक तंत्र
इसके अन्तर्गत हिमालय के अंतिम पूर्वी भाग आता है। यहाँ विभिन्न ऊँचाई की पहाड़ियाँ एवं पठार हैं। जलवायु ऊष्ण-आर्द्र है। वर्षा की अवधि अधिक (8 माह) है। भारत के सर्वाधिक वर्षा वाले क्षेत्र (चेरापूँजी आदि) इसी के अंतर्गत आते हैं। वर्षा की अधिकता का प्रभाव वनस्पतियों पर पड़ा है। अत: यह क्षेत्र सदाबहार वनों ढका है। यहाँ वन्य प्राणियों के अभ्यारण हैं।
हाथी, शेर, गेंडा आदि वन्य प्राणी प्रमुख हैं। आदिवासी समाज से लेकर आधुनिक सभ्यता से प्रभावित मानव समाज यहाँ विकास करते हैं। यहाँ पारिस्थितिक तंत्र संतुलित है। कहीं-कहीं मानवों ने पारिस्थितिक तंत्र को असंतुलित किया है।
समुद्रतटीय पारिस्थितिक तंत्र
भारत के पूर्वी एवं पश्चिमी तट के मैदान इसके अंतर्गत आते हैं। यह पारिस्थितिक तंत्र समुद्र से प्रभावित है। अन्य मैदानी भागों से अलग जीवोम मिलते हैं। जलवायु नम है, समुद्री नमक का विभिन्न रूपों में विस्तार है। नमक की अधिकता के अनुकूल जीव एवं वनस्पतियों का विकास हुआ है। कृषि विस्तृत क्षेत्र में की जाती है। मछुवारे मछलियाँ एवं समुद्री जीवों का शिकार करते हैं। वे जल एवं थल दोनों से सम्बद्ध हैं। इस तंत्र को मानव ने प्रभावित किया है । प्राकृतिक वनस्पति मानव हस्तक्षेप से नष्ट हुई है।
हिमालयीय पारिस्थितिक तंत्र
हिमालय को पर्यावरण विशेषताओं के आधार पर अनेक उप-विभागों में बाँटा जा सकता है। पूर्वी हिमालय में वर्षा अधिक होती है। यहाँ पर्वतों की ऊंचाई कम है सघन वनों का विस्तार है। चौड़ी पत्ती के सदाबहार वृक्ष, बांस, लताओं आदि की प्रधानता है। वनों में हाथी आदि बड़े जानवर पायें जाते हैं साथ ही छोटे जानवरों की प्रधानता है। जैव भार अधिक होता है। यहाँ की जलवायु उष्ण आई है। आदिवासी बहुल क्षेत्र है। ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ जीव भार में कमी आती है।
पश्चिमी हिमालय में तलुनात्मक रूप से वर्षा कम होती है। अतः वनों की सघनता भी कम है। 4000 मीटर पर ऊँचाई में मिश्रित वन पाये जाते हैं यहाँ जीव भार अधिक है। अन्य ऊँचाईयों पर जीव भार सामान्य है। 1500 मीटर की ऊँचाई पर पतझड़ वाले वन तथा 4000-5000 मीटर की ऊँचाई पर समशीतोष्ण वनों का विस्तार है। हिमालय क्षेत्र में वनों का विनाश बहुत अधिक हुआ है। इससे अनेक पर्यावरणीय समस्याओं ने जन्म लिया।
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