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सूर्यातप: अर्थ व प्रभावित करने वाले कारक(Insolation: Meaning & Affecting Factors)

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सूर्यातप (Insolation) व उसको प्रभावित करने वाले कारक 

जैसा कि हम जान चुके हैं वायुमंडल विभिन्न गैसों जलवाष्प तथा धूल कणों का मिश्रण है और यह जीवमंडल के लिए अति आवश्यक भी है। हमें अपने आप को गर्म रखने तथा बढ़ने के लिए अनुकूल तापमान की आवश्यकता होती है। क्या कभी हमने सोचा है कि पृथ्वी पर यह ताप और ऊर्जा हमें कहां से मिलती है। आज के इस विषय के अंदर हम इसी प्रश्न का उत्तर जानने की कोशिश करेंगे।

पृथ्वी पर ऊर्जा का प्रमुख स्रोत सूर्य ही है। सूरज अपनी ऊर्जा को अंतरिक्ष में चारों ओर लघु तरंगों के रूप में विकरित करता रहता है। इस विकरित ऊर्जा को ही सौर विकिरण कहा जाता है। सूरज की कुल सौर विकिरण का केवल 2 अरबवां हिस्सा ही पृथ्वी पर पहुंच पाता है। लेकिन इतनी कम मात्रा होने के बावजूद भी पृथ्वी के ऊपर जितनी भी भौतिक एवं जैविक घटनाएं हैं, उनके लिए ऊर्जा का एकमात्र स्रोत यही है।

पृथ्वी की ओर लघु तरंगों के रूप में आने वाले सौर विकिरण को ही सूर्यातप (Insolation) कहते हैं। पृथ्वी की सतह पर पहुंचने वाली सूर्यातप की मात्रा सूर्य से विकरित ताप या ऊर्जा की मात्रा से बहुत ही कम होती है, क्योंकि एक तो पृथ्वी सूर्य से बहुत छोटी है और दूसरा यह सूर्य से बहुत दूर है। इसके अलावा वायुमंडल में उपस्थित जलवाष्प धूल के कण, ओजोन तथा अन्य गैंसें सूर्यातप की कुछ मात्रा को अवशोषित कर लेती हैं या परावर्तित कर देती हैं, या अपवर्तित कर देती है।

सूर्य  से यह ऊर्जा लघु तरंगों के रूप में 3 लाख किलोमीटर प्रति सेकंड की गति से पृथ्वी पर पहुंचती हैं। वायुमंडल की बाहरी सीमा पर सूर्य से प्रति मिनट प्रति वर्ग सेंटीमीटर 1.94 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है और ऊर्जा की यह मात्रा बदलती नहीं बल्कि स्थिर रहती है, जिस कारण इसे सौर स्थिरांक कहा जाता है।

सूर्यातप को प्रभावित करने वाले कारक 

सूर्यातप (Insolation) की मात्रा पृथ्वी की सतह पर सब जगह एक समान नहीं है। इसकी मात्रा स्थान और समय के अनुसार बदलती रहती है। उष्ण कटिबंध में मिलने वाला वार्षिक सूर्यातप सबसे अधिक होता है और ध्रुवों की ओर बढ़ने पर यह धीरे-धीरे कम होता जाता है। इसी.प्रकार ग्रीष्म ऋतु में सूर्यातप अधिक होता है और शीत ऋतु में कम। धरातल पर प्राप्त सूर्यातप (Insolation) की मात्रा को निम्नलिखित कारक प्रभावित करते हैं

सूर्य की किरणों का आपतन कोण या झुकावः 

हम सभी जानते हैं कि पृथ्वी गोलाकार होने की कारण सूर्य की किरणें इसके धरातल के साथ विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग कोण बनाती है। आपतन कोण, सूर्यातप को दो प्रकार से प्रभावित करता है 

  1. पहला जब सूर्य की स्थिति ठीक सिर के ऊपर होती है, उस समय सूर्य की किरणें लंबवत या बिल्कुल सीधी पड़ती हैं जिसके कारण सूर्य की किरणें छोटे से क्षेत्र पर सकेंद्रित हो जाती हैं। अतः वहां अधिक ऊष्मा प्राप्त होती है। यदि सूर्य की किरणें तिरछी पढ़ती हैं तो सूर्य की किरणें बड़े क्षेत्र पर फैल जाती हैं और उनसे वहां कम ऊष्मा या सूर्यातप प्राप्त होता है। 
  2. दूसरे, तिरछी किरणों को सीधी किरणों की अपेक्षा वायुमंडल में अधिक दूरी तय करनी पड़ती है। सूर्य की किरणें जितना अधिक लंबा मार्ग पार करेंगी उतनी ही अधिक ऊष्मा वायुमंडल के द्वारा या तो सोख ली जाएगी या परावर्तित कर दी जाएगी। इसी कारण एक स्थान पर तिरछी किरणों से सीधी किरणों की अपेक्षा कम ऊष्मा  या सूर्यातप प्राप्त होता है। 
दिन की अवधिः 

दिन की अवधि स्थान-स्थान और ऋतुओं के अनुसार बदलती रहती है। पृथ्वी की सतह पर मिलने वाली सूर्यातप (Insolation) की मात्रा का दिन की अवधि से सीधा संबंध होता है। दिन जितना लंबा होगा सूर्यातप की मात्रा उतनी ही अधिक होगी। इसके विपरीत दिन जितना छोटा होगा सूर्यातप या ऊष्मा कम मात्रा में मिलेगी। 

वायुमंडल की पारदर्शिता: 

वायुमंडल की पारदर्शिता भी धरातल को मिलने वाले सूर्यातप की मात्रा को प्रभावित करती है। वायुमंडल की पारदर्शिता बादलों की उपस्थिति, उनकी गहनता, धूलकण तथा जलवाष्प पर निर्भर करती है। क्योंकि ये ही वो कारक हैं जो सूर्यातप को परावर्तित, अवशोषित या अपवर्तित करते हैं।

घने बादल सूर्यातप (Insolation) को धरातल पर पहुंचने में बाधा डालते हैं, जबकि साफ आसमान सूर्यातप (Insolation) को धरातल पर पहुंचने में बाधा नहीं डालता। इसी कारण साफ आसमान की अपेक्षा बादलों से घिरे आकाश के समय सूर्यातप कम मिलता है। जलवाष्प भी सूर्यातप (Insolation) को अवशोषित कर धरातल पर उसकी प्राप्ति की मात्रा को कम करते हैं।

Insolation
जल तथा स्थल का प्रभाव: 

यदि भू पृष्ठ पर सर्वत्र जल अथवा स्थल होता तो एक ही अक्षांश पर सूर्यातप (Insolation) लगभग एक समान होता, परंतु पृथ्वी के विभिन्न भागों पर जल तथा स्थल का असमान वितरण है, जिस कारण ऊष्मा की प्राप्ति में भिन्नता जाती है। जल, स्थल के अपेक्षा धीरे-धीरे गर्म होता है और धीरे-धीरे ही ठंडा होता है। परिणाम स्वरूप जल पर सूर्यातप का प्रभाव बहुत कम पड़ता है। इसके निम्नलिखित कारण है

  • जल तरल होने के कारण निरंतर गतिशील रहता है, इसके परिणामस्वरूप जल के द्वारा अवशोषित ऊष्मा  दूर-दूर तक फैल जाती है और जल की कोई भी परत अधिक गर्म नहीं हो पाती। इसके ठीक विपरीत स्थल भाग द्वारा अवशोषित ऊष्मा उसी भाग में संचित हो जाती है, जिस कारण वह जल की अपेक्षा अधिक गर्म हो जाता है। 
  • जल पारदर्शक होता है जिस कारण सूर्य की किरणें उसमें काफी गहराई तक चली जाती है। इस प्रकार सूर्य की किरणों को अधिक गहराई तक के जल को गर्म करना पड़ता है जिससे जल का तापमान कम बढ़ता है। इसके विपरीत स्थल पर सूर्य की किरणें केवल ऊपर ही भाग में ही रहती हैं और इसका केवल ऊपरी भाग ही गर्म हो पाता है। इससे स्थलीय भाग अधिक गर्म हो जाता है। सूर्यास्त होने पर स्थलीय भाग सूर्यातप को विकिरण के द्वारा खोकर शीघ्र ही ठंडा हो जाता है जबकि जलीय भाग देर से ठंडा होता है। 
  • जल द्वारा अवशोषित ऊष्मा का कुछ भाग जल को वाष्प में बदलने में खर्च हो जाता है, जबकि स्थल के द्वारा प्राप्त किया गया सारा सूर्यातप उसे गर्म करने में ही प्रयुक्त होता है। 
  • जल की विशिष्ट ऊष्मा स्थल की विशिष्ट ऊष्मा की अपेक्षा बहुत अधिक होती है। उदाहरण के लिए यदि 1 किलोग्राम जल और 1 किलोग्राम चट्टान को 1 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ाने के लिए उन्हें गर्म किया जाए तो जल को चट्टान के अपेक्षा 5 गुना ऊष्मा की अवाश्यकता होगी। 
भूमि का ढालः 

पर्वतों के जो ढाल सूरज के सामने पड़ते हैं उन पर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती है। जिससे वहां अधिक उस ऊष्मा या सूर्यातप की प्राप्ति होती है और जो ढाल सूर्य से विमुख होते हैं वहां पड़ने वाली सूर्य की किरणें कम ऊष्मा या सूर्यताप दे पाती हैं। 

सौर कंलकों की संख्याः 

सूर्य के तल पर काले व गहरे रंग  अनेक धब्बे बनते और बिगड़ते रहते हैं। इन्हें सौर कलंक कहा जाता है। सौर विकिरण और सौर कंलकों की संख्या में गहरा संबंध होता है। इन कंलकों की संख्या के बढ़ने और घटने पर पृथ्वी पर सूर्यातप की मात्रा बढ़ती और घटती है। 

पृथ्वी की सूर्य से दूरीः 

सूर्य के चारों ओर अंड़ाकार पथ पर परिभ्रमण करती हुई पृथ्वी सूर्य से कभी दूर तथा कभी पास आ जाती है। 4 जुलाई को अपसौरिका(Aphelion) की स्थिति में पृथ्वी सूर्य से 15.20 करोड़ किलोमीटर. की अधिकतम दूरी पर होती है और 3 जनवरी को उपसौरिका(Perihelion) की स्थिति में 14.70 करोड़ किलोमीटर निम्नतम दूरी पर होती है। इस प्रकार दिसंबर में जून की अपेक्षा अधिक सूर्यातप प्राप्त होता है।

Aphelion and Perihelion
धरातल की प्रकृतिः 

धरातल पर कुछ वस्तुएं सूर्यातप का अधिक अवशोषण करती हैं व अन्य कुछ कम। जहां सूर्यातप (Insolation) का अवशोषण अधिक होता है वहां सूर्यातप की मात्रा अधिक पाई जाती है जैसे काली व गहरे रंग की मिट्टियों के क्षेत्र। बर्फीले व पथरीले प्रदेश सूर्यातप की अधिकांश मात्रा को परावर्तित कर देते हैं। अतः ऐसे क्षेत्रों में कम सूर्यताप प्राप्त होता है।

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