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Table of contents
- वाताग्र (Fronts) क्या है?
- वाताग्र की परिभाषाएँ (Definitions of Fronts)
- वाताग्र के प्रमुख लक्षण (Main Characteristics of Fronts)
- वाताग्र उत्पत्ति (Frontogenesis)
- वाताग्र उत्पत्ति क्षेत्र एवं वाताग्र क्षय क्षेत्र (Areas of Frontogenesis and Frontolysis)
- वाताग्र उत्पत्ति के लिए आवश्यक दशाएँ (Essential Conditions for the Frontogenesis)
- वाताग्रा के प्रकार (Types of Fronts)
- वाताग्रों में मौसमी दशाएँ (Weather Conditions in a Front)
- प्रमुख वाताग्र प्रदेश (Major Frontal Zones)
- FAQs
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वाताग्र (Fronts) क्या है?
जब कभी दो भिन्न तापमान, आर्द्रता और अन्य भौतिक गुणों वाली वायुराशियाँ एक-दूसरे के नजदीक आ जाती हैं तो वे एक-दूसरे में आसानी से विलीन नहीं हो पाती बल्कि अपनी अलग पहचान बनाए रखने की कोशिश करती हैं। इस प्रकार दो विपरीत स्वभाव वाली वयुराशियाँ जैसे उष्ण एवं शीतल वायुराशियाँ एक-दूसरे से एक संक्रमण क्षेत्र द्वारा अलग होती हैं जिसे वाताग्र (Fronts) कहा जाता है। अन्य शब्दों में, दो परस्पर विरोधी वायुराशियों के मध्य बनी ढलवा सीमा सतह वाताग्र कहलाती है। वायुराशियों को ऊर्ध्वाधर तल (vertical surface) द्वारा अलग करने वाली सतह वाताग्र सतह (Frontal Surface) कहलाती है।
वाताग्र की परिभाषाएँ (Definitions of Fronts)
स्ट्राहलर के अनुसार, “दो विपरीत वायुराशियों के मिलन स्थल को वाताग्र कहते हैं।”
फिंच व ट्रिवार्था के अनुसार, “वे ढलुआ सीमा पृष्ठ जो भिन्न वायुराशियों को अलग करते हैं, असांतत्य पृष्ठ अथवा वाताग्र कहलाते हैं।”
ब्लेयर व फीट के शब्दों में, “एक वाताग्र एक सीमान्त सतह वाला या और अधिक शब्दों में एक ऐसा संक्रमण क्षेत्र है जो दो विभिन्न गुणों वाली वायुराशियों को अलग करता है।”
हॉवर्ड जे० क्रिचफ़ील्ड के अनुसार, “दो वायुराशियों के मिलन क्षेत्र को वाताग्र कहते हैं।”
वाताग्र के प्रमुख लक्षण (Main Characteristics of Fronts)
- वायुराशियों के गतिशील होने के कारण वाताग्र प्रायः टेढ़े-मेढ़े तथा लहरदार होते हैं।
- ट्रिवार्था के अनुसार वाताग्र कोई रेखा नहीं होती बल्कि वे क्षेत्र होते हैं जिनकी चौड़ाई 5 से 80 कि०मी० होती है।
- वाताग्रों की गति 50 से 80 कि०मी० प्रति घण्टा तक पाई जाती है।
- वाताग्र ऊर्ध्वाधर (Vertical) रूप से भी प्रगतिशील होते हैं।
- प्रायः धरातल से 3,000 मीटर से अधिक ऊँचाई पर वाताग्र नहीं बनते।
- वाताग्र न तो धरातल के समानान्तर होते हैं और न ही उस पर लम्बवत् होते हैं, बल्कि कुछ कोण पर झुके होते हैं।
- वाताग्र का ढाल पृथ्वी के सभी स्थानों पर एक समान नहीं होता।
- भूमध्य रेखा पर वाताग्र का ढाल लगभग नगण्य या शून्य होता है तथा ध्रुवों की ओर जाते-जाते ढाल बढ़ता जाता है।
- मध्य अक्षांशीय क्षेत्रों में वाताग्र का ढाल 1/30 से 1/200 तक पाया जाता है।
वाताग्र उत्पत्ति (Frontogenesis)
वाताग्रों के बनने की क्रिया को वाताग्र उत्पत्ति या वाताग्र जनन या फ्रण्टोजेनिसिस कहा जाता है। वाताग्र उत्पत्ति दो कारणों पर निर्भर करती है-
वाताग्र उत्पत्ति का भौगोलिक कारण
यह तब उत्पन्न होता है जब दो विपरीत गुणों वाली वायुराशियाँ एक-दूसरे के समीप आती हैं।
वाताग्र उत्पत्ति का गतिक कारण
वाताग्र की उत्पत्ति के लिए वायुराशियों में गति का क्षेत्र होना अति आवश्यक है। बर्गरान तथा पीटरसन ने सिद्ध किया है कि वायुराशियों की गति वाताग्र बनने की क्रिया में तेजी लाती है।
कुछ विद्वान वाताग्र उत्पत्ति में नए वाताग्रों के निर्माण के साथ-साथ कमज़ोर हुए वाताग्रों के पुनः ताकतवर हो जाने को भी शामिल करते हैं। टी० ए० ब्लेयर के अनुसार, “नवीन वातग्रों का निर्माण या कमज़ोर या विघटित होते वाताग्रों का पुनर्जनन तथा बलशाली होना वाताग्र-जनन कहलाता है।”
वाताग्र उत्पत्ति क्षेत्र एवं वाताग्र क्षय क्षेत्र (Areas of Frontogenesis and Frontolysis)
ट्रिवार्था के अनुसार जब कभी आमने-सामने दो विविध भौतिक लक्षणों वाली वायुराशियों का अभिसरण (Convergence) होता है तो ऐसे क्षेत्र को वाताग्र उत्पत्ति क्षेत्र कहा जाता है। शीत ऋतु में ग्रीनलैण्ड, उत्तरी अमेरिका का पूर्वी तट तथा पूर्वी एशिया वाताग्र उत्पत्ति क्षेत्र होते हैं। इसके विपरीत जिन स्थानों पर दो विविध वायुराशियाँ एक-दूसरे से दूर रहती हैं तो वहाँ वाताग्र या तो कमज़ोर पड़ता है या विघटित हो जाता है।
वाताग्र के कमज़ोर, विघटित या क्षय होने की प्रक्रिया वाताग्र-क्षय (Frontolysis) कहलाती है। उत्तरी कनाडा, साइबेरिया और दक्षिण अफ्रीका वाताग्र क्षय क्षेत्र के अच्छे उदाहरण माने जाते हैं।
वाताग्र उत्पत्ति के लिए आवश्यक दशाएँ (Essential Conditions for the Frontogenesis)
भिन्न तापक्रम एवं घनत्व वाली वायुराशियाँ
वाताग्र-जनन के लिए ज़रूरी है कि प्रचलित हवाओं द्वारा दो भिन्न तापमान और घनत्व वाली वायुराशियाँ एक-दूसरे के समीप आएँ। उदाहरण के लिए यदि एक वायुराशि भारी, ठण्डी और शुष्क है तो दूसरी वायुराशि हल्की, गर्म और आर्द्र होनी चाहिए। समान तापमान वाली वायुराशियों के मिलन से वाताग्र नहीं बना करते।
विपरीत दिशा से आकर मिलने वाली वायुराशियाँ
दो भिन्न दिशाओं से आकर मिलने वाली वायुराशियों के अभिसरण से ही वाताग्रों की उत्पत्ति सम्भव है। इसके विपरीत अपसरण (Divergence) करने वाली वायुराशियों से वाताग्र नहीं बन सकते।
वाताग्रा के प्रकार (Types of Fronts)
तापमान और आर्द्रता की भिन्नता के आधार पर वाताग्रों के चार मुख्य प्रकार होते हैं
उष्ण वाताग्र (Warm Front)
इस वाताग्र में उष्ण और हल्की वायुराशि अधिक आक्रामक होती है। यह शीघ्र धरातल को छोड़कर ठण्डी एवं भारी वायुराशि पर तेज़ी से चढ़ने लगती है। उष्ण वाताग्र का झुकाव न्यून कोण पर होता है। यह सदैव दाएँ से बाएँ की ओर बढ़ता है। मध्य अक्षांशों में इनका ढाल 1 : 100 से 1 : 400 तक पाया जाता है।
शीत वाताग्र (Cold Front)
जब ठण्डी तथा भारी वायुराशि आक्रामक होती है तो वह गर्म एवं हल्की वायुराशि को ऊपर उठा देती है। इससे शीत वाताग्र का निर्माण होता है। शीत वाताग्र का ढाल उष्ण वाताग्र के ढाल से लगभग चार गुना अधिक तीव्र होता है। अन्य शब्दों में, मध्य अक्षांशों में शीत वाताग्र का ढाल 1 : 25 से 1 : 100 तक होता है।
अधिविष्ट वाताग्र (Occluded Front)
प्रायः शीत वाताग्र उष्ण वाताग्र की अपेक्षा तीव्र गति से चलता है। जब कभी शीत वाताग्र तीव्र गति से चलकर उष्ण वाताग्र से मिल जाता है और गर्म वायु का धरातल से सम्पर्क समाप्त हो जाता है तब अधिविष्ट वाताग्र का निर्माण होता है।
स्थायी वाताग्र (Stationary Front)
जब आमने-सामने बहने वाली दो विपरीत लक्षणों वाली वायुराशियाँ एक-दूसरे के समानान्तर बहती हैं तो उनके बीच का वाताग्र स्थिर स्थिति में आ जाता है। इसमें कोई भी वायु ऊपर नहीं उठती।
वाताग्रों में मौसमी दशाएँ (Weather Conditions in a Front)
वाताग्रों के सहारे वायु में तापमान, दिशा और आर्द्रता सम्बन्धी अनेक अन्तर देखने को मिलते हैं-
उष्ण वाताग्र में मौसम (Weather in Warm Front)
जैसा की हम ऊपर जन चुके हैं कि उष्ण वाताग्र की रचना गर्म वायु के आक्रामक होने व उसके ऊपर उठने से होती है। यह गर्म वायु नीचे से ठण्डी होती है जो संघनन के बाद बादलों का निर्माण तथा वर्षा करती है। उष्ण वाताग्र में बादलों में कई बार परिवर्तन होता है। उष्ण वाताग्र में सबसे पहले पक्षाभ (Cirrus) मेघ दिखाई पड़ते हैं।
इसके बाद दूसरे दिन क्रमशः ऊपर से नीचे पक्षाभस्तरी मेघ (Cirrostratus), उच्चस्तरीय मेघ (Altostratus) तथा वर्षा-स्तरी मेघ (Nimbostratus) दिखाई पड़ते हैं। तीसरे दिन वर्षा शुरू हो जाती है जो एक या दो दिन तक होती रहती है। जब पवन दक्षिण-पश्चिम की ओर घूमती है तो आकाश साफ और मौसम गर्म व आर्द्र हो जाता है।
शीत वाताग्र में मौसम (Weather in Cold Front)
ठण्डी वायु के आक्रमक होने पर शीत वाताग्र उत्पन्न होता है। यदि यह वाताग्र तेजी से आगे बढ़ता है तो मौसम शीघ्र ही साफ हो जाता है और यदि उष्ण-आर्द्र वायु को ऊपर धकेल कर यह वाताग्र रुक जाता है तो कपासी वर्षा मेघ (Cumulonimbus) छा जाते हैं तथा तड़ित झंझा (Thunder storm) उत्पन्न होते हैं। वर्षा तेज़ी से आती है लेकिन थोड़े समय के लिए होती है। कभी-कभी बिजली की चमक और बादलों की गड़गड़ाहट के बाद वर्षा रुक जाती है, बादल छंट जाते हैं तथा उत्तरी-पश्चिमी ठण्डी हवा चलने लगती है।
नोट: वाताग्रों के सम्पूर्ण तन्त्र की व्यवस्थित व्याख्या सर्वप्रथम प्रथम विश्व युद्ध के दौरान नार्वे के मौसम वैज्ञानिकों ने की थी। इनमें जर्कनीस बन्धु (B. & J. Jerknese), सोलबर्ग (H. Soleberg) तथा बर्गरान (T. Bergeron) के नाम प्रमुख हैं। बाद में जर्कनीस बन्धुओं के ध्रुवीय वाताम्र सिद्धान्त (Polar Front Theory) से भी अधिक मान्य तरंग सिद्धान्त (Wave Theory) को वीयर केन्स नामक मौसम विज्ञानी ने प्रस्तुत किया था। |
प्रमुख वाताग्र प्रदेश (Major Frontal Zones)
विश्व में वाताग्रों के तीन प्रमुख प्रदेश पाए जाते हैं-
आर्कटिक वाताग्र प्रदेश (Arctic Frontal Zone)
आर्कटिक क्षेत्रों में महासागरीय ध्रुवीय (cP) वायुराशियों के मिलने से इस वाताग्र की रचना होती है। ये वाताग्र अधिक सक्रिय नहीं हैं क्योंकि दोनों वायुराशियों के तापमानों में विशेष अन्तर नहीं होता। इसका विस्तार यूरेशिया तथा उत्तरी अमेरिका के उत्तरी भाग पर होता है।
ध्रुवीय वाताग्र प्रदेश (Polar Frontal Zone)
30° से 45° अक्षांशों के मध्य ध्रुवीय ठण्डी एवं उष्णकटिबन्धीय गर्म वायुराशियों के मिलने से यह वाताग्र उत्पन्न होता है। इसका विस्तार उत्तरी अटलांटिक एवं उत्तरी प्रशान्त महासागरों पर अधिक होता है। ये शीतऋतु में अधिक सक्रिय होते हैं।
अन्तः उष्णकटिबन्धीय वाताग्र प्रदेश (Intra-tropical Frontal Zone)
इस वाताग्र का निर्माण विषुवत्त-रेखीय न्यून दाब क्षेत्र में उत्तरी पूर्वी एवं दक्षिणी पूर्वी पवनों के मिलने से होता है। सन्मार्गी पवनें अभिसरण करके ऊपर उठती हैं तथा वर्षा कराती हैं। यह प्रदेश ग्रीष्म काल में उत्तर एवं शीतकाल में दक्षिण की ओर खिसक जाता है।
FAQs
वाताग्र वह संक्रमण क्षेत्र होता है जहाँ दो भिन्न तापमान, आर्द्रता और अन्य भौतिक गुणों वाली वायुराशियाँ मिलती हैं। इन वायुराशियों के मिलन स्थल पर एक ढलवा सीमा सतह होती है, जो वाताग्र कहलाती है। यह क्षेत्र वायुराशियों को ऊर्ध्वाधर तल (vertical surface) द्वारा अलग करता है, जिसे वाताग्र सतह (Frontal Surface) कहा जाता है।
वाताग्रों के बनने की प्रक्रिया को वाताग्र उत्पत्ति या फ्रण्टोजेनिसिस कहा जाता है। यह प्रक्रिया तब होती है जब दो भिन्न गुणों वाली वायुराशियाँ एक-दूसरे के समीप आती हैं। वायुराशियों में गति का क्षेत्र होना भी आवश्यक है। इस प्रक्रिया में नए वाताग्रों का निर्माण होता है और कमज़ोर हुए वाताग्र पुनः ताकतवर हो सकते हैं।
उष्ण वाताग्र: इसमें पहले पक्षाभ (Cirrus) मेघ, फिर क्रमशः पक्षाभस्तरी (Cirrostratus), उच्चस्तरीय (Altostratus) और वर्षा-स्तरी (Nimbostratus) मेघ बनते हैं। यह वर्षा की स्थिति उत्पन्न करता है।
शीत वाताग्र: इसमें कपासी वर्षा मेघ (Cumulonimbus) बनते हैं और तड़ित झंझा (Thunder storm) उत्पन्न होती है।
1. आर्कटिक वाताग्र प्रदेश: यूरेशिया और उत्तरी अमेरिका के उत्तरी भाग पर स्थित।
2. ध्रुवीय वाताग्र प्रदेश: उत्तरी अटलांटिक और उत्तरी प्रशांत महासागरों पर स्थित।
3. अन्तः उष्णकटिबन्धीय वाताग्र प्रदेश: विषुवत्त-रेखीय न्यून दाब क्षेत्र में स्थित।