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वायुमण्डल का संघटन (Composition of Atmosphere)

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इस लेख में आप वायुमण्डल के संघटन (Composition of Atmosphere) के बारे में विस्तार से जानेंगे।

वायुमण्डल का संघटन (Composition of Atmosphere)

वायु अनेकों गैसों का मिश्रण है। समुद्र तल पर शुद्ध और शुष्क वायु में मुख्य रूप से  9 प्रकार की गैसें देखने को मिलती हैं : ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, आर्गन, कार्बन डाइआक्साइड, हाइड्रोजन, नियॉन, हेलियम, क्रिप्टॉन तथा जेनान। इस सभी गैसों में भी नाइट्रोजन तथा ऑक्सीजन का अनुपात सर्वाधिक है। ये दोनों गैसें सम्मिलित रूप से पूरे वायुमण्डल के 98 प्रतिशत भाग का (आयतन की दृष्टि से ) निर्माण करती हैं। उपरोक्त गैसों में ऑक्सीजन, नाइट्रोजन तथा कार्बन डाइआक्साइड को छोड़कर अन्य गैसें अक्रिय (inert) मानी जाती हैं। 

इनके अतिरिक्त वायुमण्डल में ओजोन तथा रेडॉन आदि गैसें भी न्यून मात्रा में विद्यमान हैं। वायुमण्डल में गैसों के अतिरिक्त जल वाष्प तथा धूल कण भी भारी मात्रा में देखने को मिलते हैं। इनका मौसम अथवा जलवायु की दृष्टि से बड़ा महत्व है। वायुमण्डल के इन विभिन्न तत्वों की अपनी अलग-अलग विशेषताएँ हैं, जिनका वर्णन नीचे किया जा रहा है। 

Composition of the Atmosphere
वायुमण्डल का संघटन (Composition of the Atmosphere)

वायुमण्डल के विभिन्न तत्व (Elements in the Atmosphere)

गैसें (Gases)

आक्सीजन (Oxygen)

  • वायुमंडल में उपस्थित सभी गैसों में महत्वपूर्ण एवं मानव जीवन के लिए अनिवार्य गैस आक्सीजन है। हम सभी साँस लेते समय वायुमण्डल से ऑक्सीजन अपने भीतर खींचते हैं। इसके अभाव में कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता। 
  • ऑक्सीजन अन्य रासायनिक तत्वों के साथ सुगमता से मिलकर अनेक प्रकार के यौगिकों (compounds) की रचना करता है। प्रज्वलन के लिए भी यह गैस अनिवार्य है। अतः जब कोई वस्तु जलती है तो ऑक्सीजन का व्यय होता है। 
  • शुष्क हवा की मात्रा में ऑक्सीजन की मात्रा लगभग 21 प्रतिशत होती है। 

नाइट्रोजन (Nitrogen)

  • वायुमंडल में यह दूसरी महत्वपूर्ण गैस है जो वायुमण्डल का 78 प्रतिशत भाग (आयतन की दृष्टि से) घेरे हुए हैं। 
  • यह गैस अन्य रासायनिक तत्वों से आसानी से नहीं मिलती। वायुमण्डल में इसका मुख्य कार्य आक्सीजन को तनु (Dilute) करके प्रज्वलन का नियमन करना है। 
  • नाइट्रोजन अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न प्रकार के ऑक्सीकरण (oxidation) में सहायता पहुँचाता है। 
गैस का नामप्रतीक वायुमंडल के कुल आयतन का प्रतिशत
नाइट्रोजनN278.088
ऑक्सीजनO220.949
आर्गनAr0.93
कार्बन डाइ ऑक्साइडCO20.03
निओनNe0.0018
हीलियमHe0.0005
ओज़ोनO30.00006
हाइड्रोजनH0.00005
धरातल से 25 किलोमीटर की ऊंचाई तक शुष्क वायु का संघटन

कार्बन डाइआक्साइड (Carbon dioxide)

  • वायुमंडल में यह तीसरी महत्वपूर्ण गैस है, जो वस्तुओं के जलने से पैदा होती है। 
  • वनस्पतियों द्वारा प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में वायुमण्डल से इस गैस को अवशोषित किया जाता है।
  • वायुमण्डल की ऊपरी परतों तथा पृथ्वी के निकट ऊष्मा के अवशोषण में इस गैस का विशेष महत्व है। अतः जलवायु की दृष्टि से यह गैस अत्यधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है। 
  • इस गैस के द्वारा अवशोषित की जाने वाली ऊष्मा का लगभग पचास प्रतिशत भाग पृथ्वी को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार वायुमण्डल में होने वाले ऊर्जा प्रवाह में कार्बन डाइ आक्साइड गैस का महत्वपूर्ण योगदान होता है। 
  • वैसे तो वायुमण्डल में इस गैस की मात्रा निश्चित होती है, फिर भी पिछले सौ वर्षों के दौरान इसकी मात्रा में धीरे-धीरे वृद्धि दर्ज की जा रही है। 
  • औद्योगीकरण के वर्तमान युग में कोयले तथा खनिज तेल अथवा प्राकृतिक गैसों के उपयोग में निरन्तर वृद्धि के फलस्वरूप मानव जाति वायुमण्डल में इस गैस की मात्रा में वृद्धि करती जा रही है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सन् 1890 से सन् 1970 के बीच वायुमण्डल में इस गैस की मात्रा में लगभग दस गुनी वृद्धि हुई है।
  • इस गैस की बढ़ी हुई मात्रा का लगभग आधा भाग समुद्रों के द्वारा अवशोषित हो जाता अथवा वनस्पतियों द्वारा उपयोग में लाया जाता है, फिर भी शेष आधा भाग वायुमण्डल में ही उपस्थित रहता है। 
  • वैज्ञानिकों के मतानुसार इस गैस में होने वाली निरन्तर वृद्धि से वायुमण्डलीय तापमान में वृद्धि सम्भव है जिसके फलस्वरूप जलवायु में परिवर्तन की सम्भावना पाई जाती है। 
  • कार्बन डाइ आक्साइड के बढ़ते दुष्प्रभाव के फलस्वरूप होने वाली ‘ग्लोबल वार्मिंग’ अर्थात् पृथ्वी के बढ़ते तापमान से महासागरों पर भी खतरा उत्पन्न हो गया है। 
  • ब्रिटेन की रायल सोसायटी की रिपोर्ट के आकलन के अनुसार समुद्र प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति एक टन कार्बन डाईआक्साइड का अवशोषण करता है जो इस गैस को अवशोषित करने की उसकी क्षमता से बहुत अधिक है। 
  • जीवाश्म ईंधन (fossil fuels) जलाने वाले बिजली उत्पन्न करने वाले केन्द्रों तथा अन्य स्रोतों से उत्पन्न इस गैस की मात्रा में निरन्तर वृद्धि होने से समुद्रों के अम्लीकरण की गति में तीव्रता आ गई है। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) खतरे में पड़ गया है। 
  • अतः ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों यथा सौर ऊर्जा, पारमाणविक ऊर्जा तथा ज्वारीय ऊर्जा आदि, का अनुसंधान एवं उपयोग करके कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा में अधिक से अधिक कमी की जानी चाहिए, जिससे विश्व को भावी संकट से बचाया जा सके।

ओज़ोन (Ozone)

  • ओज़ोन एक अक्रिय गैस है जो वायुमण्डल में बहुत ऊँचाई पर कम मात्रा में पाई जाती है। किन्तु जलवायु की दृष्टि से इसका महत्वपूर्ण योगदान है। 
  • वायुमण्डल में स्थित ओजोन मण्डल (ozonosphere) सूर्य से निकलने वाली पराबैंगनी किरणों (ultraviolet rays) को आंशिक रूप से सोख लेता है और इस प्रकार विकिरण का केवल उतना ही भाग धरातल पर पहुँचने दिया जाता है जितना अत्यन्त आवश्यक है। इस प्रकार इस गैस के कारण पृथ्वी सूर्य की झुलसने वाली गर्मी से बच जाती है। 
  • ओज़ोन गैस का निर्माण, जो वास्तव में आक्सीजन का ही एक रूप है, आक्सीजन के तीन परमाणुओं के मिलने से होता है। इस गैस का वितरण वायुमण्डल में असमान रूप में पाया जाता है। इसकी सबसे अधिक मात्रा वायुमण्डल में 20 से 25 किलोमीटर ऊँचाई के मध्य पाई जाती है। 
  • इस गैस के द्वारा सूर्य से निकलने वाली पराबैगनी विकिरण का कुछ भाग अवशोषित कर लिया जाता है। यदि ऐसा नहीं होता तो सम्पूर्ण पराबैगनी विकिरण धरातल पर पहुँचकर विनाश का ताण्डव प्रस्तुत कर देता। सम्पूर्ण प्राणिजगत एवं वनस्पति जगत नष्ट हो जाता। 
  • आज के वैज्ञानिक युग में कुछ विशेष प्रकार की विषैली गैसों के प्रयोग द्वारा हम ओज़ोन की इस उपयोगी परत को क्रमशः क्षीण करते जा रहे हैं। इस परत को सबसे अधिक खतरा वायुमण्डल में छोड़े जाने वाली क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFC) नामक एक कृत्रिम औद्योगिक रासायनिक यौगिक से है जिसमें क्लोरीन, फ्लोरीन तथा कार्बन के परमाणु पाए जाते हैं। इन रसायनों पर पराबैगनी विकिरण की प्रतिक्रिया इन्हें ऐसे यौगिकों में परिवर्तित कर देती है जो वायुमण्डलीय ओज़ोन को नष्ट करने में सक्षम होते हैं। 

जल वाष्प (Water vapors)

  • धरातल के निकट की वायु में सदा और सर्वत्र जल वाष्प न्यूनाधिक मात्रा में पाए जाते हैं। आर्द्रता तथा तापक्रम के अनुसार जल वाष्प की मात्रा में परिवर्तन होता रहता है। 
  • ध्रुवीय क्षेत्रों के शुष्क वायुमण्डल में जल वाष्प की मात्रा बहुत कम (.02%) होती है, तथा इसके विपरीत, भूमध्यरेखीय प्रदेशों के उष्णार्द्र वायुमण्डल में (आयतन की दृष्टि से ) 4% तक होती है। 
  • अपेक्षाकृत भारी होने के कारण जल वाष्प अधिकांशतः वायुमण्डल की निचली परतों तक सीमित रहते हैं। ज्यों-ज्यों ऊँचाई बढ़ती जाती है, इसकी मात्रा कम होती जाती है। 
  • वायुमण्डल के सम्पूर्ण जल वाष्प का 90 प्रतिशत भाग 8 कि०मी० ऊँचाई तक सीमित है। 8 कि०मी० की ऊंचाई पर वायुमण्डल में जल वाष्प की मात्रा बिल्कुल कम हो जाती है। 
  • वायुमण्डल की सम्पूर्ण आर्द्रता का केवल 1 प्रतिशत 10 कि०मी० के ऊपर पाया जाता है।
  • जल वाष्प सौर विकिरण तथा पार्थिक विकिरण (terrestrial radiation) को अशतः सोख लेता है। जल वाष्प सौर विकिरण के लिए अधिक पारदर्शक होने के कारण धरातल के तापक्रम को सम रखने में सहायक होती है। 
  • यह घनीभूत आर्द्रता (condensed moisture) के विविध रूपों, जैसे, बादल, वर्षा, कुहरा, ओस, तुषार, पाला और हिम आदि का मूल स्रोत जल-वाष्प ही है। 
  • वायुमण्डलीय जल वाष्प से ही विभिन्न प्रकार के तूफानों तथा तड़ित झंझाओं (thunderstorms) को शक्ति प्राप्त होती है। वायुमण्डल की स्थिरता पर भी इसका बहुत प्रभाव पड़ता है। 
  • वस्तुतः अंग्रेजी भाषा का शब्द Atmosphere’ ग्रीक भाषा के atmos शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है “वाष्प”। इस प्रकार वायुमण्डल को यदि “वाष्प प्रदेश” (region of vapour) कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। 
  • वैज्ञानिकों के एक अनुमान के अनुसार धरातल से प्रति सेकण्ड 1.6 करोड़ टन जल वाष्प वायुमण्डल को प्राप्त होता है। 
  • यदि वायुमण्डल की सम्पूर्ण आर्द्रता घनीभूत होकर वर्षा के रूप में धरातल पर गिर जाए तो समस्त भू-तल पर 2.5 से०मी० वर्षा के बराबर होगी। 

धूलकण (Dust particles)

  • वायुमण्डल में गैस अथवा जल-वाष्प के अतिरिक्त जितने भी ठोस पदार्थ कण रूप में उपस्थित रहते हैं उन सभी को धूल कणों की संज्ञा दी जाती है। 
  • ये ठोस कण चाहे पुष्प-पराग हों, अथवा दावाग्नि के धुएं से निकले महीन कण, या मरुप्रदेश की वायु द्वारा उड़ाए गए रेत के कण, इन सब को धूलकण (dust particles) कहते हैं। अपने कमरे में बैठे हुए हमें सामान्यतया उसकी हवा में धूल कण दिखाई नहीं देते, किन्तु यदि रोशनदान से सूर्य किरण की एक बिम्ब फर्श पर पड़ रही हो तो उसमें हमें असंख्य सूक्ष्मातिसूक्ष्म धूलि के कण तैरते हुए दिखाई पड़ते हैं। 
  • वायुमण्डल को पार करके आने वाले सौर विकिरण का कुछ भाग इन धूल कणों के द्वारा सोख लिया जाता है। इनके द्वारा सूर्य विकिरण का परावर्तन (reflection) तथा प्रकीर्णन (scattering) भी होता है। 
  • धूल कणों के द्वारा ही उषा काल एवं गोधूलि की तीव्रता तथा उनकी अवधि निर्धारित होती है।
  • वायुमण्डलीय गैसों तथा धूल कणों के द्वारा जो “वरणात्मक प्रकीर्णन” (selective scattering) होता है उसी से आकाश नीले रंग का दिखाई पड़ता है तथा उसी कारण सूर्योदय व सूर्यास्त के समय आकाश का रंग लाल हो जाता है।
  • वायुमण्डल में संघनन की क्रिया के लिए जलग्राही नाभिकों (hygroscopic nuclei) का होना आवश्यक है। कुछ विशेष प्रकार के धूल कण ऐसे नाभिकों का काम करते हैं जिन पर जल वाष्प का घनी भवन होता है। 
  • औद्योगिक नगरियों तथा शुष्क प्रदेशों में आर्द्र प्रदेशों की अपेक्षा वायु में धूल कणों की संख्या अधिक होती है।

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