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इस लेख में आप कृत्रिम वर्षा (Artificial Rain) क्या होती, कैसे होती है तथा इसकी संभावनाओं के बारे में जानेंगे।
कृत्रिम वर्षा (Artificial Rain): परिचय
वर्षा जलवायु का एक ऐसा तत्व है जो मनुष्य की विभिन्न आर्थिक क्रियाओं को सबसे अधिक प्रभावित करता है। यह एक कटु सत्य है कि लंबे समय तक वर्षा न होने से हमारी कृषि को अपार क्षति पहुँचती है। करोड़ों रुपयों की धनराशि लगाकर बनाई गई जलविद्युत् योजनायें उस समय बेकार हो जाती हैं जबकि वर्षा की कमी के कारण कृत्रिम जलाशयों का जल-स्तर नीचा हो जाता है।
आज के इस वैज्ञानिक युग में भी खेती करने वाले लोग आकाश में काले घने बादल देखकर ही वर्षा की आशा करने लग जाते हैं, लेकिन ऐसे बादल बिना वर्ष किए ही वहां से गायब हो जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में कृषक निराश होकर वर्षा के देवता को याद करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। इतिहास ग्वाह है कि उचित समय पर पर्याप्त मात्रा में वृष्टि के लिए लालायित मानव ने सदा से ही अनेक उपायों का सहारा लिया है। विभिन्न जाति और विभिन्न धर्मों में वृष्टि देवता को संतुष्ट करने के अनेक उपाय प्रचलित रहे, और आज भी हैं।
हमारे देश में यज्ञ से निकले धुएं का महत्व वृष्टि के लिए सर्व विदित है। इस दिशा में कितने ही अन्धविश्वासों का सहारा लिया गया है। वर्षा नृत्य करके अथवा मन्त्र बल से वृष्टि प्राप्त करने के प्रयास आज भी किए जाते हैं।
कृत्रिम वर्षा (Artificial Rain) क्या होती है?
कृत्रिम वर्षा (artificial precipitation) का तात्पर्य कृत्रिम मेघों के निर्माण से करायी जाने वाली वृष्टि से लिया जाना सर्वथा भ्रामक है। अभी विज्ञान उन्नति के उस सोपान तक नहीं पहुँच पाया है कि किसी भी समय किसी भी स्थान में कृत्रिम मेघों का निर्माण करा सके। वास्तव में कृत्रिम वर्षा उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसके द्वारा एक विशेष प्रकार के मेघों को कृत्रिम उपायों से संतृप्त करके वर्षा करायी जाती है। इसीलिए कृत्रिम वर्षा (Artificial Rain) को मेघों का कृत्रिम बीजारोपण भी कहा जाता है।
हमें यह ज्ञात ही है कि मेघों का निर्माण जल की नन्हीं बूंदों से होता है जो इतनी छोटी और हल्की होती हैं कि वायु की ऊर्ध्वाधर तरंगों के कारण धरातल पर नहीं गिर सकतीं। जब ये नन्हीं बूँदें विभिन्न प्रक्रियाओं के द्वारा परस्पर मिल कर आकार में बड़ी और भारी हो जाती हैं, तो धरातल पर वृष्टि के रूप में गिरने लगती हैं। अतः कृत्रिम वर्षा के लिए विशेष रूप से इन्हीं छोटी-छोटी बूंदों को मिलाकर बड़ी बूँदें बनाने का कार्य किया जाता है जिससे वे भारी होकर धरातल पर गिर सकें।
कृत्रिम वर्षा (Artificial Rain) कैसे होती है ?
कृत्रिम वर्षा कराने के लिए सामान्य तौर पर निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जाता है:
कृत्रिम वर्षा (Artificial Rain) कराने की पहली विधि
कृत्रिम वर्षा की शुरुआत द्वितीय विश्व युद्ध के ठीक बाद सन् 1946 से होता है, जब विन्सेंट जे० शेफर तथा इरविंग लैंगम्यूर (V.J. Schaefer and E. Langmuir) नामक दो अमेरिकी वैज्ञानिकों ने जनरल एलेक्ट्रिक लैबोरेटरी, न्यूयार्क में प्रयोग द्वारा सिद्ध कर दिखाया कि कुछ विशेष प्रकार के मेघों का परिमार्जन किया जा सकता है। उन्होंने पश्चिमी मसाचुसेट्स के ऊपर 4300 मीटर की ऊंचाई से वायुयान के द्वारा 3 किलोग्राम ठोस कार्बन डाइआक्साइड अर्थात् शुष्क बर्फ (dry ice) के कणों को छिड़क कर अतिशीतलित (supercool) मेघों का कृत्रिम बीजारोपण किया।
उनबादलों से जो हिम वर्षा हुई, वह धरातल तक पहुँचने से पहले ही वाष्पित हो गई जिससे आंशिक सफलता ही मिली। यह सिद्ध हो गया कि इस उपाय से मेघों की अतिशीतल परतों तथा कपासी मेघों को हिम-निर्मित मेघों में बदला जा सकता है। अनेक बार इस उपाय के द्वारा मेघों को बदलना पड़ता है, अतः यह ढंग बड़ा खर्चीला है। इस विधि से बहुत सीमित क्षेत्र में ही कृत्रिम वर्षा करायी जा सकती है।
कृत्रिम वर्षा (Artificial Rain) कराने की दूसरी विधि
सन् 1946 में ही एक अमेरिकी वैज्ञानिक बी० वोंनेगुत (B. Vonnegut) ने कृत्रिम वर्षा की दूसरी महत्वपूर्ण विधि ढूंढ़ निकाली। इनकी महत्वपूर्ण खोज यह थी कि -5° सेल्सियस से नीचे तापमान पर रजत आयोडाइड (silver iodide) के अति सूक्ष्म कण ऐसे नाभिकों का कार्य करते हैं जिन पर हिम का निर्माण होता है। रजत आयोडाइड की क्रिस्टलीय संरचना तथा हिम की संरचना में बहुत समानता होती है, इसीलिए अतिशीतलित कपासी मेघों (supercooled cumulus cloud) में इसके कणों के छोड़े जाने पर उनका गत्यात्मक प्रभाव (dynamic effect) पड़ता है।
रजत आयोडाइड की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यदि उसे बहुत ऊँचे तापमान तक गरम किया जाय, तो वह वाष्प बन जाता है। शीतल होने पर उस वाष्प से रजत आयोडाइड के अत्यन्त सूक्ष्म कणों का निर्माण हो जाता है, जिनका व्यास 0.01 से 0.1 माइक्रान तक होता है। जब ऐसे सूक्ष्म कणों को धुएं के रूप में अतिशीतलित जल कणों से निर्मित मेघों में पहुंचा दिया जाता है, तो वे इन्हें हिम कणों से निर्मित मेघों में तत्काल परिवर्तित कर देते हैं। रजत आयोडाइड के इन्हीं सूक्ष्म कणों पर हिम-क्रिस्टलों का विकास होता है। ए
सीटोन (acetone) नामक अत्यधिक ज्वलनशील तरल पदार्थ में रजत आयोडाइड का घोल जलाया जाता है जिससे इनके अत्यन्त सूक्ष्म क्रिस्टलों का निर्माण होता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि शुष्क हिम अथवा सिल्वर आयोडाइड का प्रयोग केवल उन विशेष प्रकार के मेघों में किया जाता है जिनमें वर्गरान प्रक्रिया क्रियाशील होती है। दूसरे शब्दों में, उपर्युक्त रासायनिक द्रव्यों का प्रयोग कृत्रिम वर्षा के निमित्त केवल उन्हीं मेघों में प्रभावकारी सिद्ध हुआ है जिनमें प्राकृतिक ढंग से वृष्टि की सम्भावनायें विद्यमान रहती हैं।
रजत आयोडाइड के द्वारा कृत्रिम वर्षा कराने की विधि में अनेक अच्छाइयाँ हैं। यह रसायन विशेष महँगी नहीं पड़ती । दूसरे, इसकी थोड़ी मात्रा में आवश्यकता पड़ती है। धरातल पर जेनरेटरों को थोड़ी-थोड़ी दूरी पर एक पंक्ति में रखकर उनसे कई घण्टे तक रजत आयोडाइड को मेघों की ओर छोड़ा जाता है। इन जेनरेटरों को पवन-दिशा में निर्दिष्ट क्षेत्र से कई मील दूर रखा जाता है, ताकि वायुमण्डल में छोड़े गए रासायनिक पदार्थ को हवा से बादलों तक पहुँचाया जा सके।
इस विधि की अपनी कुछ सीमायें भी हैं। अतिशीतलित मेघ-स्तर अपेक्षाकृत अधिक ऊँचाई पर होने से रजत आयोडाइड के कणों का उन तक पहुँचना निश्चित नहीं रहता, क्योंकि उनके मार्ग में अनेक बाधायें पड़ सकती हैं। दूसरे यह कि रजत आयोडाइड सूर्य के प्रकाश से बहुत शीघ्र प्रभावित होता है, अतः उसमें लगभग एक घण्टे रहने के पश्चात् हिम कणों के निर्माण की क्षमता का नाश होने लगता है।
कृत्रिम वर्षा (Artificial Rain) कराने की तीसरी विधि
कृत्रिम ढंग से वर्षा करने की तीसरी विधि बोवेन सिद्धान्त (Bowen’s theory) पर आधारित है। जैसा कि इसके पूर्व वर्षा की प्रक्रिया के सम्बन्ध में बताया जा चुका है, कुछ ऐसे मेघ होते हैं जिनमें जल की बड़ी बूंदों के अभाव में संलयन (coalescence) का प्रारम्भ ही नहीं हो पाता। अतः इस अभाव की पूर्ति के लिए ऐसे अवर्षी मेघों में जल की कुछ ऐसी बड़ी बूँदों का छिड़काव कर दिया जाता है जिनका व्यास लगभग 50 माइक्रान होता है।
कृत्रिम वर्षा (Artificial Rain) की संभावनाएं
कृत्रिम ढंग से वर्षा कराने के लिए किए गए प्रयासों की सफलता सदैव विवादास्पद रही है। प्रारम्भ में अनके व्यावसायिक फर्मों ने दावा किया कि मेघों के कृत्रिम बीजारोपण से वृष्टि की मात्रा में कई सौ प्रतिशत की वृद्धि सम्भव है, किन्तु वैज्ञानिकों ने ऐसे दावे निराधार सिद्ध कर दिए। उनके अनुसार वृष्टि की मात्रा में वृद्धि अधिक से अधिक 10 से 20 प्रतिशत हो सकती है।
सटन (Sutton) ने इस सम्बन्ध में अपना स्पष्ट मत व्यक्त किया है कि धरातल से छोड़े गए रजत आयोडाइड के द्वारा विस्तृत क्षेत्रों की वृष्टि में अधिक मात्रा में वृद्धि के सन्तोषजनक प्रमाण नहीं मिलते। अधिकांश विशेषज्ञों का मत है कि कृत्रिम बीजारोपण के लिए चुने गए मेघों की मोटाई लगभग 1500 मीटर होनी चाहिए। धरातल से इन मेघों के आधार की ऊँचाई उतनी ही होनी चाहिए जितनी इनकी मोटाई हो। धरातल से 1-2 किलोमीटर की ऊँचाई पर पाए जाने वाले वर्षा मेघ (nimbus clouds) होते हैं जिनका रंग गहरा भूरा होता है। इन्हीं मेघों से कृत्रिम वर्षा करायी जाती है।
मेघों से वृष्टि कराने के लिए विद्युत्- तरंगों तथा प्रघाती तरंगों (shock waves) की संभावनाओं पर विचार किया जा रहा है। सैद्धांतिक रूप से इनमें कृत्रिम वृष्टि की अपार संभावनायें निहित हैं। आकाशीय विद्युत् से वायुमण्डल में जो गर्मी उत्पन्न होती है, उससे संवाहनिक क्रियाओं पर प्रभाव पड़ता है तथा विद्युत् आवेशों से मेघों के सूक्ष्म कणों को परस्पर मिलकर बड़ा होने में सहायता मिलती है। यही कारण है कि कपासी-वर्षा मेघों में बिजली की चमक के तत्काल बाद जोरों की वर्षा होती है।
इसी प्रकार मेघ गर्जन से जिन आघात-तरंगों का सृजन होता है, वे बूँदों के टकराव में महत्वपूर्ण योगदान करती हैं। उन्हीं के कारण वायुमण्डलीय प्रसार से होने वाले शीतलन से अत्यन्त सूक्ष्म हिम-क्रिस्टलों का निर्माण होता है जो वृष्टि में सहायक होते हैं। विगत् वर्षों में परीक्षण के तौर पर मेत्रों के मध्य राकेटों के द्वारा विस्फोट करके कृत्रिम वृष्टि करायी गई है।