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आर्थिक भूगोल की विषय-वस्तु (Scope of Economic Geography)

आर्थिक भूगोल का कार्यक्षेत्र बहुत व्यापक है। इसकी विषय-वस्तु अथवा क्षेत्र से अभिप्राय है कि हम आर्थिक भूगोल में किन-किन बातों का अध्ययन करते हैं।

एल्सवर्थ हटिंगटन (Elisworth Huntington) के अनुसार अर्थिक भूगोल उन सभी प्रकार के पदार्थों (materials), संसाधनों (resources), क्रियाओं (activities), संस्थाओं (institutoins) प्रथाओं (customs), क्षमताओं (capacities) एवं योग्यताओं (abilities) का अध्ययन करता है जो आजीविका प्राप्त करने के लिए किसी कार्य में योगदान देती है।

हम जानते हैं कि मानव के लिए कृषि,  विनिर्माण एवं व्यापार आजीविका प्राप्त करने के मुख्य साधन हैं। अतएव आर्थिक भूगोल में भी इन तीन प्रमुख अवस्थाओं (phases) का सम्मिश्रण पाया जाता है। इनके अलावा खनन, लकड़ी काटना, मछली पकड़ना आदि क्रियाएं भी महत्त्वपूर्ण है, जो मानव भूगोल के अध्ययन क्षेत्र में आती हैं।

बेंग्स्टन तथा रोएन के अनुसार आर्थिक भूगोल विश्व के विभिन्न भागों के आधारभूत संसाधनों की विविधता की खोज करता है। यह संसाधनों के उपयोग को प्रभावित करने वाले भौतिक पर्यावरण का भी मूल्यांकन करता है। यह विश्व के विभिन्न प्रदेशों तथा देशों में आर्थिक विकास की भिन्नताओं का भी अध्ययन करता है। यह आर्थिक विकास की भिन्नताओं से उत्पन्न होने वाले तथा प्रभावित होने वाले परिवहन, व्यापारिक मार्गों एवं व्यापार का भी अध्ययन करता है।

उपरोक्त परिभाषा से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आर्थिक भूगोल, विश्व के संसाधनों के दोहन (exploitation), वितरण (distribution) एवं प्रसंस्करण (Processing) तथा लोगों द्वारा उनके उपयोग (consumption) के अध्ययन से सम्बंधित है। इसी प्रकार संसाधनों के दोहन तथा इस पर पर्यावरण द्वारा निश्चित की गयी सीमाएँ भी आर्थिक भूगोल के कार्यक्षेत्र (scope) के अंतर्गत शामिल हैं। आर्थिक भूगोल वेत्ता का वास्तविक कार्य इस बात की व्याख्या करना है कि कुछ प्रदेश किन्हीं वस्तुओं के उत्पादन तथा निर्यात में अग्रणी बन जाते हैं तथा अन्य प्रदेश उन वस्तुओं के आयात तथा उपयोग में दक्ष होते हैं।

रॉबिन्सन के अनुसारआर्थिक भूगोल का सम्बन्ध मानव द्वारा पृथ्वी पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के विदोहन, वस्तुओं के उत्पादन और उनके विनिमय तथा उपभोग से है। इन बातों का अध्ययन ही आर्थिक भूगोल की विषय-वस्तु अथवा क्षेत्र कहा जा सकता है।”

उपरोक्त परिभाषा के अनुसार आर्थिक भूगोल के तीन महत्त्वपूर्ण पक्ष उत्पादन, वितरण तथा उपभोग हैं जिनका इस विषय में अध्ययन किया जाता है। आइए इन पक्षों को विस्तार में जानते हैं:-

उत्पादन (Production) –

मानव की आर्थिक क्रियाओं में वस्तुओं का उत्पादन सबसे ऊपर आता है । उत्पादन को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है :

1. प्राथमिक उत्पादन (Primary Production)

प्राकृतिक तत्त्वों के सीधे उपयोग द्वारा किए गए वस्तुओं के उत्पादन को प्राथमिक उत्पादन कहा जाता है। उदाहरण के लिए; मिट्टी के सीधे उपयोग द्वारा कृषि पदार्थों का उत्पादन, जल से मछली का उत्पादन, पशु चारण द्वारा दुग्ध, मांस आदि का उत्पादन, वनों से लड़की का उत्पादन तथा खानों से खनिज पदार्थों का उत्पादन इत्यादि ।

2. द्वितीयक उत्पादन (Secondary Production)

प्राकृतिक तत्वों का सीधा उपयोग करने के  बजाय उनका रूप बदल कर नई वस्तुओं का उत्पादन करना द्वितीयक उत्पादन कहलाता है। इसमें उद्योगों द्वारा कच्चे माल से विभिन्न प्रकार की निर्मित वस्तुओं को शामिल किया जाता है – उदाहरण के लिए लौह धातु से निर्मित इस्पात, लकड़ी से बना फर्नीचर, कपास तथा पशुओं की ऊन से बने वस्त्र इत्यादि।

3. तृतीयक उत्पादन (Tertiary Production)

इसके अन्तर्गत वे सेवाएँ आती हैं जिनकी सहायता से विभिन्न प्राथमिक एवं द्वितीयक उत्पादन प्रक्रियाएँ सम्पन्न की जाती हैं- जैसे तकनीकी एवं वाणिज्य सेवाएँ,  यातायात,  संचार,  बैंकिंग,  प्रशिक्षण, प्रशासन तथा शिक्षा इत्यादि । इनमें वे सभी सेवाएँ शामिल हैं जो प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से वस्तुओं के उत्पादन में सहयोग देती हैं। परन्तु जीन गॉटमैन (Jean Gottmann) महोदय इनमें केवल उन्हीं सेवाओं को शामिल किया है, जो प्रत्यक्ष रूप से उत्पादन में सहायता करती हैं।

उनके अनुसार परोक्ष सेवाएँ जैसे अनुसंधान (Research), प्रशिक्षण (Training), प्रशासन (Administration) तथा शिक्षा (Education) इत्यादि – चतुर्थक उत्पादन (Quaternary Production) के अन्तर्गत आती हैं। वैज्ञानिक, डॉक्टर, वकील, शिक्षक, प्रबन्धक, लेखक, कलाकार तथा संगीतकार आदि व्यक्तियों द्वारा किया गया उत्पादन भी चतुर्थक उत्पादन में ही सम्मिलित है।

वितरण (Distribution) –

आर्थिक भूगोल का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष वितरण है। इसे निम्नलिखित दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है :

1.स्थानान्तरण (Transposal)

इसके अन्तर्गत वस्तुएँ अथवा सेवाएँ एक स्थान से दूसरे स्थानों पर ले जाई जाती हैं। यातायात एवं परिवहन कार्य इसे सम्पन्न करते हैं।

2. विनिमय (Exchange)

इसके द्वारा किसी वस्तु पर अधिकार का परिवर्तन होता है। इसके अन्तर्गत वाणिज्य अथवा व्यापर सम्बन्धी कार्य आते हैं।

उपभोग (Consumption)

उपभोग से अभिप्राय मानव की उस क्रिया से है जिससे वह उत्पादित वस्तुओं का अपने जीवन निर्वाह के लिए उपयोग करता है। कोई भी देश या प्रदेश केवल उन्हीं वस्तुओं का उपयोग नहीं करता जो वहाँ उत्पन्न की जाती हैं अपितु दूसरे प्रदेशों से अनेक वस्तुएँ मंगवाकर भी उनका उपयोग करता है। वास्तव में कोई भी देश अथवा प्रदेश जीवन में उपयोग की जाने वाली सभी वस्तुओं के उत्पादन में सक्षम नहीं होता। प्रत्येक क्षेत्र में वहाँ की भौतिक अर्थात् प्राकृतिक परिस्थितियों के अनुसार ही विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन होता है।

अतः जिन प्रदेशों में किन्हीं वस्तुओं का उत्पादन आवश्यकता से अधिक होता है वे उनका अन्य प्रदेशों को निर्यात कर देते हैं और जिन वस्तुओं का वहाँ उत्पादन कम अथवा बिल्कुल भी नहीं होता तो उन वस्तुओं का आयात कर उनका उपयोग करते हैं। इस प्रकार उपभोग की क्रिया को भी यातायात, परिवहन तथा वाणिज्य सम्बन्धी कार्य ही सम्पन्न करते हैं।

अतः निष्कर्ष रूप में हम आर्थिक भूगोल के अध्ययन क्षेत्र को निम्नलिखित चार भागों में बाँट सकते हैं-

  1. प्राकृतिक संसाधनों का अध्ययन
  2. मानवीय संसाधनों का अध्ययन
  3. आर्थिक क्रियाओं (economic activities) का अध्ययन
  4. आर्थिक विकास के नियोजन (planning) एवं संसाधनों के सर्वोत्तम उपयोग का अध्ययन

1. प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources) का अध्ययन

इस अध्ययन के आठ प्रमुख पक्ष हैं, जो निम्नलिखित हैं:-

  • देश की स्थिति (location)।
  • जलवायु, जिसके अन्तर्गत सूर्य से मिलने वाली शक्ति और उसका संसाधन के रूप में प्रयोग भी सम्मिलित है।
  • थलीय संसाधन (land resources) अर्थात् भूमि, जो कृषि करने, उद्योगों के कारखानों को स्थापित करने, बस्तियाँ बसाने, मार्गों, आदि के लिये प्रयुक्त होती है।
  • मृदा या मिट्टी, जिसके द्वारा खेती की फसलों का और बागवानी के फलों का उत्पादन होता है तथा जो वनस्पति-जगत और जन्तु-जगत का भोजन उत्पन्न करती है।
  •  जलीय संसाधन (water resources), जो फसलों की सिंचाई, जल-विद्युत उत्पादन, मत्स्य उद्योग, नौ-परिवहन तथा समुद्री व्यापार, आदि के लिए प्रयुक्त होते हैं ।
  • खनिज (mineral) तथा शक्ति संसाधन (power resources)।
  • वनस्पति संसाधन, और
  • पशु संसाधन ।

2. मानवीय संसाधन (Human Activities) का अध्ययन

मानवीय संसाधनों के अन्तर्गत प्रदेश या देशों की जनसंख्या, उनकी सघनता, जन सांख्यिकीय विशेषताएँ, क्षमताएं (capacities), लिंग अनुपात, आयु-वर्ग,  शिक्षा का स्तर, तकनीकी में प्रगति, ग्रामीण-नगरीय (rural-urban) अनुपात, सामाजिक गठन (social structure), जीवन-यापन स्तर (standard of living) तथा संस्कृति सम्मिलित है ।

3. आर्थिक क्रियाओं (Economic Activities) का अध्ययन

आर्थिक क्रियाओं के अध्ययन के दस पक्ष होते हैं, जो संकल्पनाओं के रूप में निम्नलिखित हैं

  • आर्थिक क्रियाओं का क्षेत्रीय या स्थानिक वितरण ।
  • आर्थिक क्रियाओं की अवस्थिति (location) |
  • आर्थिक क्रियाओं की विशेषताएँ ।
  • आर्थिक क्रियाओं का वर्गीकरण ।
  • आर्थिक क्रियाओं के अन्य घटनाओं से सम्बन्ध (relationships)।
  • आर्थिक क्रियाओं के सांस्कृतिक पक्ष ।
  • आर्थिक भूदृश्य (economic landscape) की संकल्पना ।
  • आर्थिक उन्नति का स्तर ।
  • स्थानिक संगठन (spatial organization) ।
  • प्रादेशिक आर्थिक विकास का अध्ययन ।

4. आर्थिक विकास के नियोजन एवं संसाधनों के सर्वोत्तम उपयोग का अध्ययन

आर्थिक भूगोल के इस पक्ष में संसाधन संरक्षण के उपाय किए जाते हैं। संसाधन के न्यूनतम उपयोग से अधिक लाभ प्राप्ति के उपाय किए जाते हैं, जिससे भविष्य के लिए संसाधनों की उपलब्धता बनी रहे। उदाहरण के लिये पेट्रोलियम के बढ़ते हुए उपयोग के भय से वैज्ञानिक एक ओर तो ऊर्जा के विकल्पों की खोज कर रहे हैं तथा दूसरी ओर कम पेट्रोलियम से अधिक ऊर्जा प्राप्ति या एक लीटर में अधिक से अधिक दूरी चलने वाली गाड़ियों का आविष्कार कर रहे हैं। वर्तमान काल में आर्थिक भूगोल पर पड़ने वाले वातावरण परिवर्तन से सम्बन्धित कारकों का अध्ययन भी महत्वपूर्ण है।

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