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इस लेख में आप उद्योगों की स्थिति को प्रभावित करने वाले कारकों (Factors Affecting Location of Industries) के बारे में जानेंगे।
हर प्रकार का उद्योग प्रत्येक स्थान पर नहीं लगाए जा सकता। क्योंकि उद्योग लगाने से पहले अनेक कारकों; जैसे कच्चे माल की उपलब्धता, ऊर्जा, बाज़ार, पूँजी, यातायात और श्रम इत्यादि की उपलब्धता को देखना पड़ता है। हम जानते हैं कि उपरोक्त बताए गए कारकों का महत्त्व समय, स्थान और हालात के अनुसार बदलता रहता है। इन कारकों के बीच संतुलन बनाते हुए उद्योगों को हमेशा वहीं लगाना चाहिए जहाँ उत्पाद के निर्माण और उस उत्पाद को उपभोक्ता तक पहुँचाने की लागत कम-से-कम आए।
आइए अब हम उद्योगों की स्थिति को प्रभावित करने वाले उपरोक्त प्रमुख कारकों का वर्णन करते हैं-
क्या आपने कभी सोचा है कि क्यों तेल शोधन के ज्यादातर कारखाने तटों पर स्थित हैं ? क्यों पूर्वी व दक्षिण भारत में लौहे इस्पात उद्योग विकसित हुआ है? क्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, गुजरात और राजस्थान में कोई स्टील प्लांट नहीं है ? आपको इन सब प्रश्नों के उत्तर इस लेख को पढने के बाद मिल जाएंगे। |
उद्योगों की स्थिति को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Location of Industries)
कच्चा माल (raw materials)
किसी पदार्थ की कुल कीमत में कच्चे माल की कीमत का जितना अनुपात अधिक होगा उस उद्योग के कच्चे माल के स्रोत के नजदीक लगने की उतनी ही संभावना बढ़ेगी। भार खोने वाले (Weight Loosing) कच्चे माल का प्रयोग करने वाले उद्योग प्रायः कच्चे माल के स्रोत के निकट ही लगाए जाते हैं। उदाहरण के लिए एक टन चीनी बनाने के लिए 10 टन गन्ने की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि भारत में चीनी उद्योग उन्हीं क्षेत्रों में विकसित हुआ है जो गन्ना उत्पादक हैं।
इसी प्रकार लुगदी उद्योग, तांबा प्रगलन उद्योग तथा लौह-इस्पात उद्योग अपने कच्चे माल प्राप्ति के स्थानों के नजदीक ही लगाए जाते हैं। लौह-इस्पात उद्योग में तो लोहा और कोयला दोनों ही वजन खोने वाले कच्चे माल हैं । दूसरी ओर, शुद्ध कच्चा माल प्रयोग करने वाले उद्योग सामान्यतः बाजार के निकट स्थापित होते हैं। उदाहरण के लिए एक टन कपास से लगभग एक टन कपड़ा बनता है। इसी कारण सूती वस्त्र उद्योग कपास उत्पादक क्षेत्रों से बाहर भी लगाए जा सकते हैं।
जिन उद्योगों में भारी और कम मूल्य का कच्चा माल प्रयोग होता है वे उद्योग कच्चे माल के स्रोत की ओर आकर्षित होते हैं; जैसे भारत में पटसन उद्योग पश्चिम बंगाल में हुगली नदी के आस-पास स्थापित हो गया है। ऐसे उद्योग परिवहन का अधिक खर्चा सहन करने में असमर्थ होते हैं । इसी कारण सीमेंट बनाने के कारखाने चूने के पत्थर की खदानों के निकट ही स्थापित किए जाते हैं। इसी प्रकार एल्यूमीनियम उद्योग बॉक्साइट की उपलब्धता पर निर्भर करता है हालांकि इसके लिए बिजली का उपलब्ध होना अधिक महत्त्वपूर्ण है।
(TISCO) जमशेदपुर में लोहे और कोयले के स्रोतों के मध्य अनुकूलतम जगह पर स्थित है। बोकारो और दुर्गापुर स्टील प्लांट कोयला क्षेत्रों के निकट स्थापित है जबकि भद्रावती, भिलाई और राउरकेला स्टील प्लांट लौह-अयस्क के स्रोतों के निकट स्थित हैं।
शक्ति (power)
शक्ति मशीनों को चलाने के लिए आवश्यक बल प्रदान करती है। इसलिए किसी भी उद्योग की स्थापना से पहले शक्ति अथवा ऊर्जा की अबाधित आपूर्ति सुनिश्चित कर ली जाती है। फिर भी कुछ उद्योगों; जैसे विद्युत-धातुकर्मी (Electro-Metallurgical) तथा विद्युत-रसायन (Electro-Chemical) उद्योगों तथा एल्यूमीनियम, उर्वरक और कृत्रिम नाइट्रोजन निर्माण उद्योगों की स्थापना शक्ति स्रोत के निकट की जाती है क्योंकि ये ऊर्जा-गहन उद्योग हैं।
मध्य प्रदेश के कोरबा तथा उत्तर प्रदेश के रेनूकोट में एल्यूमीनियम बनाने के कारखाने तथा नांगल में उर्वरक के कारखाने की स्थापना वहाँ उपलब्ध विद्युत-शक्ति के कारण हुई है। तारों (Wires ) द्वारा बिजली के दूर-दूर तक पहुँच के कारण कई उद्योगों की कोयले पर निर्भरता कम हो रही है ।
बाज़ार (market)
किसी भी उद्योग की अंतिम मंज़िल (Destination) बाजार होती है। उपभोक्ता क्षेत्र से उद्योग की निकटता निर्मित पदार्थ की कीमत कम करके माँग को बढ़ाने में सहयोग करती है। भारी मशीन, मशीन के औज़ार, भारी रसायनों की स्थापना अधिक माँग वाले क्षेत्रों के निकट की जाती है क्योंकि ये उद्योग बाज़ार-अभिमुख होते हैं ।
सूती वस्त्र उद्योग में शुद्ध (जिसमें भार- ह्रास नहीं होता) कच्चे माल का उपयोग होता है और ये प्रायः महानगरों में स्थापित किए जाते हैं, उदाहरणार्थ- मुंबई, अहमदाबाद, सूरत आदि । पेट्रोलियम परिशोधनशालाओं की स्थापना भी बाज़ारों के निकट की जाती है क्योंकि कच्चे या अपरिष्कृत तेल का परिवहन आसान होता है और उनसे प्राप्त कई उत्पादों का उपयोग दूसरे उद्योगों में कच्चे माल के रूप में किया जाता है। कोयली, मथुरा और बरौनी इसके विशिष्ट उदाहरण हैं।
यदि किसी देश का उद्देश्य पेट्रोलियम निर्यात करना है तो परिशोधनशालाओं की स्थापना में पत्तन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । बाजार की निकटता से ही उपभोक्ता की बदलती आदतें, व्यवहार और अधिमान का पता चलता रहता है। शीघ्र नाशवान वस्तुओं (जैसे बर्फ, आइसक्रीम, बेकरी) सस्ते मूल्य की वस्तुओं तथा रोज़ बदलते फैशन के धंधों का स्थानीकरण सदा बाज़ार के निकट होता है।
परिवहन एवं संचार (transport and communication)
कोई भी उद्योग तब तक सफल नहीं होता जब तक कच्चे माल, श्रमिकों और मशीनों को उद्योग केंद्र तक लाने तथा निर्मित माल को माँग के क्षेत्रों तक पहुँचाने के लिए सस्ते तथा दक्ष परिवहन तंत्र उलब्ध ना हो। यही कारण है कि दो या अधिक सड़कों के मिलन स्थान, रेलवे जंक्शन तथा बंदरगाहें अनेक प्रकार के उद्योंगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। मुंबई, भोपाल,कोलकाता, विशाखापत्तनम्, कानपुर, मेरठ आदि नगर इन्हीं सुविधाओं के कारण औद्योगिक केंद्रों के रूप में विकसित हुए हैं।
आज के युग में कोई भी उद्योग टेलीफोन, कंप्यूटर व इंटरनेट के बिना विश्व-स्तरीय प्रतियोगिता में बड़ा खिलाड़ी (Major Player) नहीं बन सकता । अतः संचार के विकसित साधन उद्योगों के स्थानीकरण को प्रभावित करते हैं।
श्रम (labor)
आधुनिक युग में स्वचालित मशीनों के होने के बावजूद भी औद्योगिक विकास के लिए उचित वेतन पर सही श्रमिकों का महत्त्व आज भी बना हुआ है। हर उद्योग के लिए एक खास किस्म के श्रम की आवश्यकता होती है जो प्रत्येक स्थान पर व प्रत्येक समय पर उपलब्ध नहीं होता। परंपरागत कला वाला श्रम कुछ विशेष स्थानों पर ही सीमित हो जाता है; जैसे फ़िरोजाबाद में शीशा उद्योग, कानपुर में चमड़ा उद्योग, लुधियाना में हौजरी उद्योग, फर्रुखाबाद में कपड़ा रंगने और छापने का उद्योग, जालंधर और मेरठ में खेलों का सामान बनाने का उद्योग इत्यादि विशिष्ट श्रम के कारण ही स्थापित हुए हैं।
सामान्य किंतु सस्ते श्रम की सतत् पूर्ति भी कई धंधों की स्थापना का कारण बनती है। भारत और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में चाय बागान उद्योग भौगोलिक दशाओं के अतिरिक्त सस्ते श्रम के कारण भी विकसित हुआ है। इन देशों में बी.पी.ओ. व के.बी.पी.ओ. केंद्रों की स्थापना का मूल कारण भी सस्ता और दक्ष श्रम है।
ऐतिहासिक कारक (historical factors)
देश के गिने-चुने महानगरों जैसे मुंबई, कोलकाता और चेन्नई का औद्योगिक केंद्रों के रूप में विकास औपनिवेशिक कारणों से हुआ था। उपनिवेशीकरण के प्रारम्भिक समय में यूरोपीय व्यापारियों ने औद्योगिक क्रियाओं में नई जान फूँकी। परिणामस्वरूप मुर्शिदाबाद, ढाका, भदोई, सूरत, वडोदरा, कोझीकोड, कोयम्बटूर व मैसूर आदि महत्त्वपूर्ण विनिर्माण केंद्रों के रूप में उभरे।
उपनिवेशवाद के परवर्ती चरणों में स्थानीय उत्पादों से ब्रिटेन में बनी वस्तुओं से होड़ और उपनिवेशिक शक्ति की भेदमूलक नीति के कारण इन औद्योगिक केंद्रों का तेजी से विकास हुआ। उपनिवेशवाद के अंतिम चरणों में अंग्रेजों ने कुछ चुने हुए स्थानों पर कुछ विशेष प्रकार के उद्योगों को प्रोत्साहित किया। इससे इन उद्योगों का देश में बड़े पैमाने पर स्थानिक विस्तार हुआ।
औद्योगिक नीति (industrial planning)
विभिन्न प्रदेशों के बीच असंतुलन को दूर करने की दृष्टि से पिछड़े क्षेत्रों में उद्योग लगाने के लिए प्रोत्साहन तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए उद्योगों का एक ही स्थान या क्षेत्र में केंद्रण रोकना सरकार की ऐसी कारगर नीतियाँ हैं जिनके द्वारा उद्योगों की अवस्थिति और विकेंद्रण पर भारी प्रभाव पड़ता है।
इन्हीं नीतियों के कारण ही मारुति फैक्टरी गुड़गाँव में, लौह-इस्पात उद्योग दक्षिण भारत में, तेल-शोधनशालाएँ मथुरा और पानीपत में, रेल कोच फैक्टरी कपूरथला में तथा उर्वरक संयंत्र जगदीशपुर में स्थापित हुए । भिलाई और राउरकेला में लौह-इस्पात उद्योग की स्थापना देश के पिछड़े जनजातीय क्षेत्रों के विकास के निर्णय पर आधारित थी ।
पूँजी व बैंकिंग (capital and banking)
पूँजी या धन उद्योगों की ऑक्सीजन है। जमीन, इमारत, श्रमिकों व प्रबंधकों के वेतन, कच्चा माल, परिवहन के साधनों तथा विज्ञापन पर आज करोड़ों रुपए की लागत आती है। बैंक, स्टॉक एक्सचेंज व वित्तीय संस्थाएँ पूँजी निर्माण में सहायता करके उद्योगों के विकास और विस्तार में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आर्थिक असंतुलन दूर करने की नीति के कारण पिछड़े क्षेत्रों में पूँजी अभी भी उद्योगों की अवस्थिति को प्रभावित करने वाला एक बड़ा कारक है।
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