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उपयोगितावाद (Pragmatism)
उपयोगितावाद एक ऐसा दार्शनिक दृष्टिकोण है जो अनुभव द्वारा अर्थपूर्ण विचारों को जन्म देता है। यह सोच अनुभवों, प्रयोगात्मक खोजबीन, और सत्य के आधार पर परिणामों का मूल्यांकन करती है। अनुभवों पर आधारित किए गए कार्यों के फल अर्थपूर्ण व ज्ञानप्रद हैं। उपयोगितावाद के अनुसार समस्याओं में जकड़ी स्थितियों से समायोजना कर लेना और उन्हें उपयोग में लाना ही अर्थपूर्ण है, वही सत्य है।
देखा जाए तो उपयोगितावाद भी प्रत्यक्षवाद सोच का ही संशोधित स्वरूप है। यह भी वैज्ञानिक विधि को प्रयोग करने पर ज़ोर देता है, अन्तर केवल इतना ही है कि उपयोगितावाद मानव समस्याओं के समाधान के प्रयास का आन्दोलन है। मूल्यों पर आधारित वैज्ञानिक पद्धति समाज की व्यावहारिक, प्रयोगात्मक (Practical) समस्याएँ हल करना उपयोगितावाद का मुख्य लक्षण है।
सामाजिक समायोजन ही वस्तुतः भौगोलिक यथार्थता है। स्थानिक परिस्थितियों की समस्याओं से घिरे समाज में भी मानव का समायोजन खोज लेना ही अर्थपूर्ण है, सत्य है और यथार्थ है। शोध कार्य इसीलिए किए जाते हैं कि वे तुरंत जन्मी स्थानिक समस्याओं के अर्थपूर्ण हल खोज निकालें जो परिणामतः वहाँ जनसमुदाय के लक्ष्यों की पूर्ति कर सकने में सक्षम बन सकें।
भूगोल में उपयोगितावाद – अभिगम एक नियोजित क्रिया (Planned Action) है न कि केवल नियोजन के लिए सोच। इसमें परिणामों पर आधारित क्रियाओं के चरण सम्मिलित हैं। वस्तुतः स्थानिक रूप से स्थित समस्याओं से जूझने की अथवा क्रियाशील बन उठने की यह स्थिति है। लक्ष्यों की पूर्ति के साधन जुटाना, मानवीय उपयोग के तथा जन- कल्याण से जुड़ी क्रियाओं का मूल्यों के आधार पर समाधान इसकी वास्तविकता है।
अमेरिका के गृहयुद्ध (Civil War) के उपरान्त वहाँ उपयोगितावाद विकसित बना जिसने वहाँ द्वितीय विश्वयुद्ध तक सामाजिक व बौद्धिक परिवर्तन समाज में आए। इसके समर्थकों की एक अच्छी संख्या पश्चिमी यूरोपीय देशों में भी पायी जाती हैं।
इस दार्शनिक सोच की एक सामान्य विशेषता इसका व्यावहारिक समस्याओं (Practical Problems) से निपटना ही है। अतएव इसका ज़ोर उपयोगिता और प्रयोगात्मक पर है। उपयोगितावादी का विश्वास सामने खड़ी वास्तविक (Concrete) स्थिति के हल के लिए क्रिया में है। इसके वैज्ञानिक ज्ञान पर आधारित ही वह जगत् को समझने-बूझने में सक्रिय है। इस प्रक्रिया में उसके लिए ‘निरपेक्ष’ अथवा सामान्य नियमों व सिद्धान्तों का योग भी महत्त्वपूर्ण निर्देशांक हैं।
तात्पर्य यह है कि उपयोगितावादी सैद्धांतिक सोच एवं प्रयोगात्मक स्थितियाँ, दोनों ही क्रियाओं से जुड़ी है। सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रयासों को सुसंगठित बनाना, प्रेरित बनाना और क्रियान्वयन की आवश्यकता पर भूगोलवेत्ताओं की रणनीति टिकी है।
उपयोगितावाद के प्रधान-लक्षणों में सम्मिलित हैं-
(i) वास्तविकता का अभाव अथवा अपूर्णता – उपयोगितावादियों का विश्वास बना है कि इस काल में ‘वास्तविकता’ विषयक ज्ञान अपूर्ण है, और उसमें त्रुटियाँ हैं।
(ii) ज्ञान की भ्रामक विचारवीथी जगत् के प्रति वास्तविकता के बारे में हमारे मस्तिष्क में भ्रम उत्पन्न हैं। अतः प्रयोगों से प्राप्त परिणामों में त्रुटियाँ विकसित हैं। भविष्य में सफलता संदिग्ध है, क्योंकि हमारे सोच भूतकाल की त्रुटियों से ग्रसित रहते हैं। अतः परिकल्पनाओं व वर्तमान धारणाओं में बदलाव और उनका पुनर्मूल्यांकन दौगोलि आवश्यक है।
(iii) वैज्ञानिक पद्धति और परिकल्पना पर आधारित – निगमनात्मक मॉडल सर्वोत्तम विधि है जिसका शोध कार्य में प्रयोग करना आवश्यक बन उठा है।
(iv) समस्याओं को तार्किक आधार पर ही हल किया जाना चाहिए। समस्याएँ भी मानव- कल्याण विषयक चयन की जानी चाहिए, और वे व्यावहारिक (Practical) हों तथा जिनके हल मानव कल्याण के विकास में योग दे सकें।
इन आधारों पर उपयोगितावादियों ने मूल्यविहीन प्रत्यक्षवाद को नकारा घोषित किया। उससे समाज का न तो कल्याण हो सकता, और न वह जगत् की सम्पूर्ण वास्तविकता का ज्ञान करा सकता है।
उपयोगितावाद ने भूगोल में प्रयोगात्मक (Applied) पक्ष का समर्थन कर प्रयोगात्मक भूगोल (Applied Geography) को जन्म दिया। प्रयोगात्मक भूगोल की नीतियाँ जन- कल्याण से संबन्धित मूल्यों पर आधारित बनायी जानी चाहिए। वे चाहे वातावरण में समायोजित बनाने हेतु परिवर्तन हों, चाहे समाज की आर्थिक, शैक्षिक, आवासीय, स्वास्थ्य विषयक असमानताओं के मेटने के प्रयास अथवा सांस्कृतिक दृश्य-जगत् का संरक्षण हो, सामाजिक-मूल्यों पर आधारित किए जाने चाहिए। उनको जन-कल्याण हेतु उपयोगिता के आधार पर ही विकसित करना Pragmatism की मूल भावना है।
उपयोगितावादी भूगोलवेत्ताओं के लिए परिकल्पनाओं की रचना हेतु ढाँचा प्रस्तुत करने के लिए तर्क-संगत स्थानिक नियमों (Spatial Laws) की आवश्यकता होती है। ये निगमनात्मक परिकल्पनाएँ आनुभविक प्रमाणों द्वारा परीक्षण कर एवं संशोधित बनाकर अपनायी जानी चाहिए।
इसका लक्ष्य मानवीय घटक पर ज़ोर देने से जुड़ा हुआ है। इसकी पूर्ति हमारे कार्यों पर निर्भर है। हमारीसोच हमारे कार्यों को प्रेरित करती है। हमारे कार्यों का स्रोत विगत काल के जगत् की प्रकृति है। 4 मानव, यहाँ केन्द्रीय स्थान ग्रहण किए रहता है। ये विचार विडाल-डि-ला ब्लाश (फ्रांसीसी सम्प्रदाय का अग्रणीय भूगोलवेत्ता) द्वारा व्यक्त मत से मिलते-जुलते हैं।
मानवतावादी भूगोल में, मानव और विज्ञान को के समन्वित बना दिया है। भूगोल में आधुनिक मानवतावाद का प्रधान ध्येय सामाजिक विज्ञान व मानव की सामंजस्यता है। इसी में वस्तुनिष्ठता और व्यक्तिनिष्ठता का, भौतिकवाद और आदर्शवाद का और तर्क व वास्तविकता का समन्वय है।
इस आधार पर उपयोगितावादी भूगोल के कतिपय लक्षण व घटकों की पहचान निम्न-आधारों पर की जा सकती है-
(i) भौगोलिक स्थान ज्ञान और भ्रांतियों द्वारा संयुक्त बनी परिकल्पना है।
(ii) भौगोलिक स्थान परिवर्तनशील है। इसके परिवर्तन का बोध और इसको परिवर्तन बनाने की दिशा के लिए हमारे ज्ञान और हमारे सोच के मापकों को परिशुद्ध बनाना आवश्यक प्रक्रिया है।
(iii) भौगोलिक-स्थान काल-अवधि के दौरान विकसित ‘मानवीय घटकों’ का विवरण है।
(iv) प्रयोगात्मक मानवीय समस्याओं के समाधान के लिए भूगोल की संरचना और पुनर्रचना आवश्यक है।
(v) स्थानिक वास्तविकता मानवीय अनुभवों की संयुक्त बनी परिकल्पना है।
(vi) परिकल्पनाओं की रचना के लिए स्थानिक नियमों की आवश्यकता होती है। परन्तु साथ-साथ हमारे ज्ञान व काल के सन्दर्भ में इनमें संशोधन भी किया जाना चाहिए।
(vii) भौगोलिक अध्ययन वस्तुतः प्रयोगात्मक समस्याओं से संबन्धित है, और प्रायोगिक समस्याएँ (Practical Problems) स्थानिक रूप से मानव के कल्याण से जुड़ी हैं। इनका अध्ययन वैज्ञानिक रीति-नीति से किया जाना चाहिए।