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प्रत्यक्षवाद या अनुभववाद (Positivism or Empiricism)

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इस लेख में आप भौगोलिक विचारों में आधुनिक प्रसंग प्रत्यक्षवाद या अनुभववाद (Positivism or Empiricism) के बारे में जानेंगे।

याद रखने योग्य महत्वपूर्ण शब्दावली
निषेधवादी-दर्शन, ऑगस्ट कॉम्टे, ईश्वर मीमांसा, वियना-सर्किल

प्रत्यक्षवाद या अनुभववाद (Positivism or Empiricism)

प्रत्यक्षवाद एक प्रकार का दार्शनिक आन्दोलन है। यह धर्म और परम्पराओं के विरुद्ध खड़ा हुई सोच है। इसका वैज्ञानिक आधार और वैज्ञानिक विधि ज्ञान का स्त्रोत है। यह तथ्यों (आंकड़ों) और मूल्यों (सांस्कृतिक) में भेद व्यक्त करने वाली सोच है। ऑगस्ट कॉम्टे (Auguste Comte) ने अध्यात्म (Metaphysics) और कोरे बुद्धिवाद को जाँच व अन्वेषण की एक निरर्थक शाखा बताया। वह मानवता के विकास के लिए सामाजिकता को वैज्ञानिक धरातल पर स्थापित करने का पक्षपाती था।

प्रत्यक्षवाद को अनुभववाद (Empiricism) भी कह सकते हैं। इस दार्शनिक सोच में ज्ञान का आधार तथ्य हैं। तथ्यों को प्रेक्षण (Observation) द्वारा अनुभव कर उनमें संबन्धों पर आधारित ज्ञान प्रत्यक्षवाद का मुख्य उद्देश्य है। इसमें आनुभविक प्रश्नों का हल यथार्थ अर्थात् वास्तविकता के आधार पर खोजा जाता है और जहां पर वास्तविकता हो वहां ‘तथ्य स्वयं साधन’ बनते हैं (Facts Speak for Themselves)। 

विज्ञान का नाता भी वस्तुपरक तथ्यों से है। व्यक्ति परकता (Subjective Viewpoint) का इसमें कोई स्थान नहीं है। यथार्थ वही है जो प्रत्यक्ष में दिखता है। हमारी इन्द्रियाँ जो कुछ अनुभव कर रही हैं, वही ज्ञान है, वही वैज्ञानिक है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण वस्तुपरक, सत्य से पूर्ण बना और तटस्थ होता है। प्रत्यक्षवादी वैज्ञानिक एकता के हामी हैं। 

वे यथार्थ के बारे में सामान्यानुभावों, सामान्य वैज्ञानिक भाषा और प्रेक्षणों की पुनरावृत्ति को सुनिश्चित बनाने की विधि के विश्वासी हैं। वैज्ञानिक विधि इन्हीं लक्षणों के एकीकरण से बना व्यापक विज्ञान है। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि विज्ञान का आपूर्ण तंत्र भौतिकी, रसायन, जीव, मनोविज्ञान व सामाजिक विज्ञानों के नियमों के अन्तर्गत तार्किक रूप से जुड़ा तंत्र है।

अत: देखा जाए तो प्रत्यक्षवाद-दर्शन एक प्रकार से आदर्शवाद का विरोधी है, क्योंकि आदर्शवाद केवल मानसिक अथवा बुद्धिपरक है। वह नियामक और नीतिपरक भी नहीं है। मानव- मूल्यों, विश्वास, आस्था, अभिवृत्ति, पूर्वाग्रह, पक्षपात, रीति-रिवाज, परम्परा, रुचि, लालित्य व सौन्दर्यपरक मूल्यों से जुड़े प्रश्नों व समस्याओं में प्रत्यक्षवादी शोध नहीं करता क्योंकि इनका निर्णय व्यक्तिवादिता से ग्रसित होता है। ये नैतिक मापदण्ड देश, काल, समाजों के साथ-साथ बदलते रहते हैं, और इनके बारे में निर्णय वैज्ञानिक आधारों पर सम्भव नहीं है। 

प्रत्यक्षवाद का दर्शन वस्तुपरक, निष्पक्षता, तटस्थता पर आधारित विज्ञान है। प्रत्यक्षवाद में व्याख्या व कथनों का आधार 

( अ) आनुभविक अर्थात् प्रत्यक्ष अनुभवों (जो कुछ हमारे सामने दृश्य-जगत् है) से जुड़ा होता है।

(ब) वह एकीकृत बनी वैज्ञानिक विधि है।

(स) वह अनुभवजन्य वैज्ञानिक नियमों व सिद्धान्तों से जुड़ा है।

(द) वह नियामक, नीति संगत, नैतिकता से मुक्त स्वतंत्र प्रेक्षण है।

(इ) वह अपरिवर्तनीय, शाश्वत वैज्ञानिक व्यवस्था है जिसमें वैज्ञानिक नियमों के विकास- क्रम की एकीकृत बनी लोकव्यापी पद्धति सम्मिलित है।

ऐतिहासिक रूप से प्रत्यक्षवाद का उदय फ्रांस की क्रांति के उपरान्त हुआ, और ऑगस्त कॉम्टे ने इसे स्थापित बनाया। क्रांति से पूर्व प्रचलित बना यह निषेधवादी-दर्शन (Negative Philosophy) की प्रतिक्रिया स्वरूप जन्मा वैज्ञानिक प्रत्यक्षवादी सोच था। निषेधवादी दर्शन न तो रचनात्मक था, और न प्रयोगात्मक (Practical)। वह भावना-प्रधान था जो काल्पनिक विकल्पों द्वारा वर्तमान प्रश्नों के हल खोजने में डूबा था। 

अतः निषेधवाद के विरुद्ध प्रत्यक्षवाद एक प्रकार से खण्डन-मण्डनी वाद-विवादों से लैस हथियार सिद्ध हुआ। प्रत्यक्षवाद का आन्दोलन घिसे-पिटे निषिद्ध कर्मों व धार्मिक प्रपंचों के विरुद्ध खड़ा हुआ था।

कॉम्टे के अनुसार सामाजिक विकास के चरण 

प्रत्यक्षवाद सामाजिक संबन्धों को वैज्ञानिक धरातल पर उतारने में विश्वास व्यक्त करता है। वह सामाजिक-विज्ञान (Social Science) को भी प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति शाश्वत नियमों में ढालने का पक्षपाती था। कॉम्टे के अनुसार सामाजिक विकास तीन चरणों में घटित बना-

(i) ईश्वर मीमांसा (Theological) का पहला चरण जब मानव प्रत्येक घटना अथवा दृश्य को ईश्वरीय सत्ता व ईश्वरेच्छा समझकर व्याख्या करता था,

(ii) दूसरे चरण में सामाजिक व्यवस्था का विकास तात्विक, बुद्धिपरक, अभौतिक (Metaphysical) विचारों द्वारा व्याख्या।

(iii) तीसरे चरण में सामाजिक क्रियाओं व विकास का आधार कार्य-कारण संबन्ध का जुड़ाव (Causal Connections)। मानव अपने निर्णयों को संबन्धित कारणों के आधार पर सुनिश्चित बना कर अपनाता है। ऐसे कारणों की पहचान की जा सकती है।

प्रत्यक्षवादी सोच अधिनायकवादी शासनों (Dictatorial Regimes) में विकसित सोच के विरुद्ध है। सन् 1930 में वियना (यूरोप) में ‘वियना-सर्किल’ की स्थापना हुई। यह तर्कसंगत प्रत्यक्षवादियों का समूह था। ये वैज्ञानिक उन सभी विचारों का विरोध करते थे जो आनुभविक रूप से परीक्षण नहीं किए जा सकते और जो नियंत्रित बनी पद्धतियों से नहीं खोजे जा सकते। नाज़ीवादी सोच (Nazism) को प्रत्यक्षवादी तर्कशून्य, पक्षपाती और हठधर्मितापूर्ण मानते थे।

मानव भूगोल में किए गए प्रत्यक्षवादी सोच पर आधारित कार्यों की मार्क्सवादियों और यथार्थवादियों ने आलोचना की। ये कार्य ऐसे नियमों की खोज थे जो साधन-सामग्री (Infrastructure) प्रक्रिया से नहीं जुड़े थे। वे अस्तित्वहीन ऐसे ढांचे के नियम थे जो संसाधनों के तामझाम में बदलाव लाने में विश्वासी नहीं थे।

मानवतावादियों ने भी प्रत्यक्षवादी सोच की आलोचना की है क्योंकि उसमें मूल्यों व आदर्शों को कोई स्थान नहीं था। मानव-जीवन उनके अभाव में अधूरा होता है। मार्क्सवादियों, व्यवहारवादियों और वैज्ञानिक प्रेक्षकों के अनुसार मूल्य विहीन, मात्रात्मक-गणितीयकरण व नियम-निरूपण एवं विवेचन सम्भव नहीं है। परन्तु प्रत्यक्षवादियों की मान्यता है कि प्रत्येक समस्या का तकनीकी हल संभव है और मूल्यविहीन शोध ही वैज्ञानिक है। 

परन्तु व्यवहार में यह देखा गया है कि शोधकार्य अनेक स्थलों पर व्यक्तिनिष्ठता से प्रभावित बन जाता है। शोध विषय के चयन से लेकर दृश्य-वस्तुओं के वितरण व प्रारूपों की पहचान और निष्कर्ष- निर्धारण प्रक्रियाओं में कुछ न कुछ अंश में व्यक्तिनिष्ठता प्रवेश कर जाती है। 

जैसे ही परिणाम ज्ञात हो जाते हैं, मौजूदा वितरण के विवरण निर्णयकर्त्ताओं के सोच को प्रभावित करना आरम्भ कर देते हैं कि भावी वितरण कैसा होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि वैज्ञानिक प्रक्रिया स्वयं ही यथार्थता का स्वरूप लेने लगती है। शोधकर्ता उदासीन और तटस्थ या वैज्ञानिक नहीं रह पाता।

विज्ञानों में एकता भी आलोचना की पात्र है। सामाजिक वैज्ञानिकों में एकता का विकास सम्भव नहीं हो सका है। प्रत्येक विषय (समाज शास्त्र, मनो विज्ञान, राजनीति विज्ञान, भूगोल आदि) के अपने-अपने अलग सोच व अभिगम हैं जिनके आधार पर वे वस्तुओं- दृश्य-जगत् आदि का विश्लेषण करते देखे जाते हैं। वे यथार्थता को अपनी-अपनी पद्धतियों, विधियों, अभिगमों आदि द्वारा व्यक्त करते हैं।

एक अत्यन्त संगीन आलोचना प्रत्यक्षवाद की इस तथ्य पर आधारित है कि प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञानों की प्रकृति ही एक जैसी नहीं है। दोनों अलग प्रकृति की वैज्ञानिक- शाखाएँ हैं। वे प्रायोगिक दृष्टि से समान नहीं हैं। उनकी प्रयोगात्मक प्रक्रियाएँ (Experimental Processes) अलग-अलग हैं। उनको एक समान कोटि की विधियों द्वारा नहीं पूरा कर सकते हैं। 

सामाजिक विज्ञानों की विषयवस्तु का केन्द्र ‘मानव’ है जिसे ‘वस्तु’ मानकर पदार्थवत् आकलन नहीं कर सकते क्योंकि उसका निजी सोच व बुद्धि-कौशल है। मानव-व्यवहार अन्य जीवों के व्यवहार से भी अलग हैं। उसकी कल्पनाएँ, धारणाएँ, अभिवृत्ति, रुचि, आस्था आदि को प्राकृतिक विज्ञानों के वस्तु-जगत् की भाषा में नहीं बदला जा सकता। अतएव मानव-व्यवहार पर आधारित मानव भूगोल एवं अन्य सामाजिक विज्ञानों के नियम-निरूपण में व्यक्तिनिष्ठता का घटक समाया रहता है।

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