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नवनियतिवाद या नवनिश्चयवाद (Neo Determinism)

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नवनियतिवाद या नवनिश्चयवाद (Neo Determinism)

नवनियतिवाद या नवनिश्चयवाद (Neo Determinism) नियतिवाद या पर्यावरणवाद की संशोधित विचारधारा है जो व्यावहारिक जगत् के अधिक समीप है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित होने के कारण इसे वैज्ञानिक नियतिवाद (Scientific determinism) भी कहते हैं। बीसवीं शताब्दी के मध्य तक अधिकांश भूगोलविदों की आस्था सम्भववाद में होने लगी और जो लोग नियतिवाद में विश्वास रखते थे वे भी प्राचीन नियतिवाद के आलोचक थे और उसके संशोधित तथा वैज्ञानिक स्वरूप पर बल देते थे। प्राचीन नियतिवाद के समर्थक सदैव यह सिद्ध करने में लगे रहे कि मनुष्य पर प्रकृति का नियंत्रण है और मनुष्य प्रकृति का दास है।

नवनियतिवाद या नवनिश्चयवाद (Neo Determinism) विचारधारा अतिशयोक्तिपूर्ण है क्योंकि वर्तमान सभ्य संसार में अनेक क्षेत्रों में मनुष्य ने प्रकृति की दासता से मुक्ति प्राप्त कर ली है। सम्भववादी विचारधारा के अनुसार मनुष्य को प्रकृति का विजेता समझा जाता है। इन दोनों अतिशयवादी विचारधाराओं के समन्वय का वर्तमान परिस्थिति में विशेष महत्व है क्योंकि ये दोनों ही विचारधारायें वास्तविकता से दूर प्रतीत होती हैं। आधुनिक नियतिवादी विचारक प्रकृति (प्राकृतिक पर्यावरण) को प्रमुख मानते हैं किन्तु ये मध्य मार्ग का अनुसरण करते हैं।

जार्ज टेयम के शब्दों में, ‘नियंत्रण’ के स्थान पर ‘प्रभाव’ और ‘प्रभाव’ के स्थान पर ‘प्रतिक्रिया’ या ‘समायोजन’ शब्द का प्रयोग किया जाता है (The term they use are more moderate ‘control’ is replaced by influence’ and ‘influence’ by response’ or ‘adjustment’)

उनके मतानुसार मानव प्रगति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य प्रकृति की अवहेलना न करे तथा उससे सहयोग प्राप्त करे क्योंकि मानव क्रिया एवं मानव जीवन पर प्राकृतिक तत्वों का प्रभाव कमोवेश मात्रा में निश्चित रूप से पड़ता है। नियतिवाद के संशोधित इसी नवीन विचारधारा को नवनियतिवाद या नवनिश्चयवाद (Neo Determinism) के नाम से जाना जाता है। इसे नवपर्यावरणवाद (Neo Environmentalism) भी कहा जाता है। 

प्रसिद्ध भूगोलविद् ग्रिफिथ टेलर (Griffith Taylor) को नवनियतिवाद (Neo Determinism) का प्रमुख प्रवर्तक माना जाता है। टेलर पहले आस्ट्रेलिया, फिर संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा के विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर रहे। उन्होंने नियतिवाद को नवीन स्वरूप प्रदान किया और प्रकृति के नियंत्रण की नहीं बल्कि प्रकृति के प्रभाव की व्याख्या की और इस प्रकार वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित नियतिवाद का समर्थन किया।

टेलर ने इस बात पर बल दिया है कि मानव-जीवन पर पर्यावरण के नियंत्रण की पूर्णतया उपेक्षा नहीं की जा सकती भले ही उसमें कमी लायी जा सकती है या उसे किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, आज तक उत्तरी अमेरिका तथा यूरेशिया के शीत प्रधान टुंड्रा प्रदेशों, अंटार्कटिका की हिमाच्छादित भूमि, सहारा तथा आस्ट्रेलिया के निर्जन मरुस्थलों में मनुष्य को प्रकृति की दासता स्वीकार करनी पड़ती है और मनुष्य प्रकृति के नियंत्रण से मुक्त नहीं है।

इसी प्रकार अनुपयुक्त भौगोलिक दशाओं वाले अनेक क्षेत्र निर्जन प्राय हैं जो निकट भविष्य में एशिया, यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका के सघन जनसंख्या वाले भागों के समान विकसित नहीं हो पायेंगे। इसका मुख्य कारण यहाँ प्रकृति के नियंत्रण की प्रबलता है। टेलर ने अपने इस संशोधित नियतिवाद को वैज्ञानिक नियतिवाद (Scientific determinism) की संज्ञा दी है। उन्होंने वैज्ञानिक नियतिवाद को ‘रुको और जाओ नियतिवाद’ (Stop and Go determinism) भी कहा है।

टेलर के अनुसार ‘प्रकृति चौराहे पर खड़ी ट्रैफिक पुलिस के समान है जो यात्रियों को चौराहे पर नियंत्रित करती है किन्तु उनके गन्तव्य को प्रायः बदलती नहीं है। चौराहे पर पहुँचकर यात्री अपने दायें बाएं देखकर तथा अपनी सूझ-बूझ से आगे बढ़ता है जबकि उसे कुछ क्षण के लिए ठहरना भी पड़ सकता है। जिस प्रकार अपनी भलाई के लिए यात्री को यातायात के नियमों का पालन करना उपयोगी है उसी प्रकार मनुष्य को भी प्राकृतिक नियमों को ध्यान में रख कर कार्य करना चाहिए अन्यथा उसे किसी अज्ञात कठिनाई या दुर्घटना का शिकार होना पड़ सकता है’। ‘रुको और जाओ’ (Stop and Go) का शाब्दिक अर्थ सम्भवतः इसी भावना से सम्बंधित है।

इस प्रकार नवनियतिवाद (Neo Determinism) यह प्रतिपादित करता है कि मनुष्य पर प्रकृति का पूर्ण नियंत्रण नहीं है किन्तु उसके प्रभाव को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। कनैडियन भूगोलवेत्ता जार्ज टैयम (George Tatham) ने टेलर की इस विचारधारा को ‘व्यावहारिक सम्भववाद’ (Pragmatic Possibilism) की संज्ञा दी है। वास्तव में प्रकृति मनुष्य के सम्मुख अनेक योजनाएं प्रस्तुत करती है जिसमें मनुष्य को चयन करने की स्वतंत्रता होती है। इस प्रकार यह विचारधारा सम्भववाद के भी निकट है और अपेक्षाकृत अधिक व्यावहारिक है।

अमेरिकी भूगोलवेत्ता एल्सवर्थ हंटिंगटन ने वैज्ञानिक नियतिवाद में ही आस्था व्यक्त की थी। बीसवी शताब्दी के पूर्वाद्ध में लिखित उनकी विभिन्न पुस्तकों में इसी विचारधारा की झलक मिलती है। उन्होंने मनुष्य की आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रियाओं पर प्राकृतिक दशाओं के प्रभावों को स्पष्ट करने का प्रयास किया। ये प्राकृतिक तथ्यों में जलवायु को सर्वाधिक प्रभावशाली मानते थे। उनके मतानुसार किसी प्रदेश की मानव संस्कृति तथा सभ्यता के निर्धारण में प्राकृतिक कारकों के साथ ही प्रजाति, धर्म, समाज आदि का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है।

ब्रिटिश भूगोलवेत्ता मार्टिन (A. F. Martin) ने वैज्ञानिक नियतिवाद को आवश्यक बताया है। उन्होंने लिखा है कि वैज्ञानिक स्तर पर हम उन नियमों की व्याख्या कर सकते हैं जिनके अनुसार कोई विशिष्ट क्रिया सम्पूर्ण कार्य-कारण संश्लिष्ट के प्रभाव से अपना स्वरूप प्राप्त करती है। उन्होंने कार्य-कारण को समष्टि (Whole) तथा संश्लिष्ट (Complex) के रूप में देखा। इसीलिए उन्होंने यह प्रस्तावित किया कि ‘नियतिवाद निश्चितरूप से विद्यमान है किन्तु कारण और प्रभाव की कड़ी बहुत जटिल है’ (Determinism must exist but the chain of cause and effect is very complicated) |

लेवेथवेट (Lewthwaite, G.R.) ने मार्टिन के विचारों से सहमति व्यक्त करते हुए लिखा है कि भूगोलवेता दावे के साथ नहीं कहते हैं कि भौगोलिक पर्यावरण ही मानव-क्रिया का अकेला या सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निर्धारक है, ये केवल यह कहते हैं कि उनका विशिष्ट कार्य अन्य की अपेक्षा निर्धारकों के इस समूह का परीक्षण करना है।

बीसवीं शताब्दी के उत्तार्द्ध में नियतिवादी विचारधारा में परिमार्जन हुआ जिससे नव नियतिवाद की उल्लेखनीय प्रगति हुई। अमेरिकी भूगोलविद् कार्ल सावर (Carl Sauer) ने संशोधित नियतिवादी दृष्टिकोण अपनाया है और मनुष्य तथा प्रकृति के मध्य समायोजन की आवश्यकता पर बल दिया है। उनका विचार या कि मनुष्य को प्राकृतिक पर्यावरण के अनुकूल अपने को कुछ हद तक बदल कर (अनुकूलित करके) और साथ ही उसमें आवश्यक परिवर्तन करके उससे समायोजन (adjustment) करना चाहिए। प्राचीन नियतिवादी विचारक केवल अनुकूलन की ही बात करते थे। इस प्रकार प्राचीन नियतिवादी ‘अनुकूलन’ (adaptation) पर और नवनियतिवादी समायोजन (adjustment) पर बल देते हैं।

ब्रिटिश भूगोलविद् हरबर्टसन (A.J. Herbertson) भी नवनियतिवाद (Neo Determinism) के ही पोषक थे। उन्होंने वनस्पति को प्रमुख निर्धारक मानते हुए विश्व को प्राकृतिक प्रदेशों में विभक्त किया किन्तु उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि किसी प्राकृतिक प्रदेश में केवल प्राकृतिक तत्वों की ही नहीं बल्कि मानवीय तत्वों की भी समानता पायी जाती है। उनका मानना था कि मनुष्य पर भीतिक शक्तियों का प्रभाव इतना प्रबल होता है कि वह मानव-जीवन तथा उसके क्रिया-कलापों में प्रकट होता है। 

ब्रिटिश भूगोलविद् फ्ल्यूर (HJ. Fleure) ने प्रकृति के साथ मानवीय प्रश्न पर भी बल दिया है। उनके विचार से मानव प्रदेश (Human regions) जलवायु तथा पर्वतों की सीमाओं को भी लांघ जाते हैं किन्तु उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि मानव प्रदेशों के अध्ययन में प्राकृतिक शक्तियों की आवहेलना नहीं की जा सकती। इस प्रकार उन्होंने प्राकृतिक तथा मानवीय दोनों प्रकार की शक्तियों के समन्वय पर बल दिया है जो नवनियतिवाद का मूलतत्व है।

नियतिवाद और सम्भववाद दोनों अतिशयवादी विचारधाराएं हैं जिनकी सार्थकता व्यावहारिक जगत् में बहुत कम हो गयी है। समान प्रकार के प्राकृतिक पर्यावरण वाले दो अलग-अलग प्रदेशों में मानव जीवन, मानवीय क्रिया-कलाप, सामाजिक-सांस्कृतिक दशाएं आदि निश्चित रूप से समान नहीं पायी जाती हैं क्योंकि इनके निर्धारण में मानव शक्ति का भी हाथ होता है। अतः यह प्रादेशिक मित्रता मानवीय गुणों में मित्रता का ही परिणाम है। 

इसी प्रकार मनुष्य इस भूतल पर जो भी आर्थिक, सामाजिक या राजनीतिक कार्य करता है उस पर प्राकृतिक पर्यावरण का प्रभाव किसी न किसी हद तक अवश्य होता है। किसी देश या प्रदेश के निवासियों का भोजन, पोशाक (वस्त्र), आवास गृह, व्यवसाय, सामाजिक संगठन, परम्परायें, राजनीतिक संगठन आदि सभी सम्बद्ध पर्यावरण से प्रभावित होते हैं। समस्त मानवीय क्रियाएं प्राकृतिक तथा मानवीय दोनों ही दशाओं से प्रभावित तथा नियंत्रित होती हैं। 

अतः मानव प्रकृति की अंतर्क्रिया में किसी एक को सर्वशक्तिमान मानना और दूसरे की उपेक्षा करना न उचित है और न व्यावहारिक ही। कृषि, पशुपालन, आखेट, वनोद्योग आदि प्राथमिक क्रियाओं पर प्रकृति का प्रभाव अधिक है जबकि उद्योग, व्यापार, परिवहन आदि पर मनुष्य का प्रभाव अधिक दिखाई पड़ता है किन्तु इनमें से कोई भी व्यवसाय दोनों (प्रकृति और मनुष्य) में से किसी एक के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं है।

इस प्रकार यह बिल्कुल स्पष्ट है कि मनुष्य और प्रकृति एक-दूसरे से अंतर्सम्बंधित हैं यद्यपि उनके प्रभावों के अनुपात में देश काल के अनुसार असमानता भी पायी जाती है। दोनों का अंतसंबंध इतना जटिल है कि यह पता लगाना कि कहां एक का प्रभाव क्षीण हो रहा है और कहाँ से दूसरे के प्रभाव में तीव्रता आ रही है, बहुत कठिन है। अतः मानव समाज के विकास के लिए यह आवश्यक है कि वह प्रकृति द्वारा निर्धारित सीमाओं को ध्यान में रखते हुए और प्राकृतिक योजनाओं को समझकर ही अपनी शक्ति और कौशल का प्रयोग करे। 

यद्यपि प्रकृति पर मानवीय विजय को सामाजिक-आर्थिक प्रगति का सूचक माना जाने लगा है किन्तु इससे अन्यान्य पर्यावरणी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं जो मानवता के लिए हानिकारक हैं और उसे विनाश तक भी पहुँचा सकती हैं। अतः आज यह सामान्य धारणा बन गयी है कि मनुष्य अपनी वास्तविक उन्नति प्रकृति से लड़ाई करके या उसकी उपेक्षा करके नहीं बल्कि उससे सहयोग प्राप्त करके ही कर सकता है। 

यही भावना जार्ज टैयम की इस युक्ति में भी है ‘मानव भूगोल का परम उद्देश्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करना अथवा उसकी अधीनता स्वीकार करना नहीं बल्कि प्रकृति के साथ सहयोग प्राप्त करना होना चाहिए (In human geography the maximum should be not conquest of, nor submission to, but cooperation with nature).

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