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प्राचीन भारत में खगोलीय ज्ञान (Astronomical Knowledge in Ancient India)
भारत के प्राचीनतम ग्रंथों ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के अनेक मंत्रों में सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी के पारस्परिक सम्बंधों, ऋतु परिवर्तनों, दिन-रात्रि की क्रमिक आवृत्ति आदि के विवरण मिलते हैं। इन ग्रंथों 27 नक्षत्रों (शिरा, कृतिका, चित्रा आदि), विषुव दिन आदि के उल्लेख भी अनेक मंत्रों में पाये जाते है। भारतीय प्राचीन ग्रंथों में ब्रह्मांड और पृथ्वी की उत्पत्ति, चन्द्र कलाओं, सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण, ऋतु परिवर्तन, सौर वर्ष, सौर मास, चान्द्र मास, चान्द्र वर्ष, दिन-रात की अवधि आदि की यथार्थ गणना और व्याख्या की गयी है।
ब्रह्मांड उत्पत्ति (Origin of Universe)
वेदों और उपनिषदों में ब्रह्मांड की उत्पत्ति का क्रमबद्ध वर्णन देखने को मिलता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में लिखा हैं, “उस परमेश्वर और प्रकृति से (कारण रूप तत्य) आत्मान् और उससे आकाश उत्पन्न हुआ। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी, पृथ्वी से वनस्पतियां और वनस्पतियों से अन्न की उत्पत्ति हुई।”
ऋग्वेद के एक मंत्र में कहा गया है कि, “परम तेजोमय परमेश्वर से ज्ञान और प्रकृति की उत्पत्ति हुई। उससे परमाणुओं से युक्त आकाश उत्पन्न हुआ और परमाणुओं से पूर्ण आकाश में क्षोभ (हलचल) उत्पन्न होने से नक्षत्रों, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी आदि की उत्पत्ति हुई।” इस प्रकार भारतीय प्राचीन ग्रंथों में वर्णित सृष्टि का विकास क्रम विज्ञान की आधुनिक खोजों से सत्य सिद्ध होता है।
भारतीय काल गणना (Indian Measure of Time)
प्राचीन भारतीय ज्योतिष सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक दिवस (24 घण्टे के दिन-रात) 60 घटी (घटिका) का होता है। एक घटी में 60 पल, एक पल में 60 विपल और एक विपल में 60 लीक्षक होते हैं। उल्लेखनीय है कि एक लीक्षक एक सेकण्ड का 150वाँ भाग होता है। इस प्रकार हम पाते हैं कि समय (काल) के विभाजन की 60-60 की पद्धति मूलतः भारतीय है। संभवतः भारतीय ग्रंथों के आधार पर ही यूनानी विद्वान टालमी ने सर्वप्रथम एक अंश को 60 मिनट और 1 मिनट को 60 सेकण्ड में विभाजित करने की पद्धति बतलाया था।
पृथ्वी की आकृति एवं आकार (Shape and Size of the Earth)
वेदों और परवर्ती अनेक ग्रंथों में पृथ्वी की आकृति गोलाभ (Spheroid) बताई गयी है। यजुर्वेद में लिखा है कि “यह गोलाकार पृथ्वी अपने पालन कर्ता सूर्य के आगे आगे अपने जलों सहित भली प्रकार चलती हुई आकाश में अपनी कक्षा पर चारों ओर घूमती है।”
चौथी शताब्दी में ज्योतिषाचार्य ब्रह्मगुप्त ने पृथ्वी का व्यास 1581 योजन अर्थात् 7905 मील बताया था जो पृथ्वी के नवीनतम आकलन ( 7925 मील) के लगभग समान है। इसके पहले ही आर्यभट्ट ने पृथ्वी की परिधि लगभग 24,835 मील बताया था जो पृथ्वी के वर्तमान परिधि (24901 मील) के लगभग तुल्य है।
पृथ्वी का घूर्णन और परिक्रमण (Rotation of the Earth)
वेद, उपनिषद्, आरण्यक आदि प्राचीन ग्रंथों में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि पृथ्वी अपने अक्ष (axis) पर घूमती है जिससे दिन और रात बनते हैं। सूर्य के सम्मुख वाले पृथ्वी के आधे भाग पर दिन और पीछे वाले आधे भाग पर रात (अंधेरा) होती है।
यजुर्वेद में स्पष्ट उल्लेख है कि पृथ्वी सूर्य के चारों और अपनी निश्चित कक्षा (Orbit) पर परिक्रमण करती है। ईसा पूर्व सातवीं-आठवीं शताब्दी तक सूर्य की उत्तरायण और दक्षिणायन स्थितियों तथा उनसे उत्पन्न ऋतु परिवर्तन की गणना की जाने लगी थी। जिस तिथि को सम्पूर्ण पृथ्वी पर दिन और रात बराबर होते हैं उसे विषुव (Equinox) कहते हैं जो प्रतिवर्ष दो बार आता है- चैत्र मास (21 मार्च) को वसंत विषुव और आश्विन मास (23 सितम्बर) की शरद विषुव ।
पृथ्वी जितने समय में सूर्य की एक परिक्रमा पूरी कर लेती है उसे एक सौर वर्ष (Solar Year) कहते हैं। इसकी अवधि 365 दिन, 5 घण्टे 48 मिनट 46 सेकेण्ड होती है जिसे लगभग 365,25 दिन के बराबर माना जाता है।
चन्द्रमा की कलाएं (Phases of the Moon)
ऋग्वेद में स्पष्ट उल्लेख है कि चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है। भारत के प्राचीन ग्रंथों में चन्द्रमा की कलाओं का वर्णन किया गया है। लगभग 29.5 दिन में चन्द्रमा पृथ्वी का एक चक्कर पूरा कर लेता है। इस अवधि को एक चन्द्र मास (Lunar month) माना जाता है। एक चन्द्र मास में 14 या 15 दिन के दो पक्ष होते हैं- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष ।
इनका विभाजन पूर्णिमा (Full moon) और अमावस्या (Black moon) के द्वारा होता है। अमावस्या को पृथ्वी की छाया से चन्द्रमा पूर्णतः ढक जाता है और अदृश्य रहता है। इसके दूसरे दिन से चन्द्रमा का प्रकाशित भाग क्रमशः बढ़ता है और 15 दिन बाद पूर्णतः प्रकाशित होता है जिसे पूर्णिमा कहते हैं। अमावस्या के पश्चात् पूर्णिमा तक के 15 दिन की समयावधि को शुक्ल पक्ष कहा जाता है।
पूर्णिमा के दूसरे दिन से चन्द्रमा का प्रकाशित भाग क्रमशः घटने लगता है और 15 दिन बाद चन्द्रमा पूर्णतः अदृश्य हो जाता है जिसे अमावस्या कहते हैं। पूर्णिमा के पश्चात् अमावस्या तक के 15 दिन की समयावधि को कृष्ण पक्ष कहा जाता है। एक पूर्णिमा से दूसरी पूर्णिमा तक की समयावधि को एक चन्द्र मास कहते हैं। 12 क्रमिक चन्द्र मास (354 दिन) का एक चन्द्र वर्ष (Lunar year) होता है जो एक सौर वर्ष से लगभग 11.25 दिन छोटा होता है।
चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण (Lunar Eclipse and Solar Eclipse)
ईसा की चौथी शताब्दी में आर्यभट्ट, वाराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त जैसे महान खगोलवेत्ता हुए जो नक्षत्रों, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी आदि पिण्डों की चालों का नियमित वेध करते थे। तब से चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण के वेध, गणनायें तथा भविष्यवाणियां की जाने लगीं जो यथार्थ के निकट होती थीं ।
चन्द्र ग्रहण पूर्णिमा को और सूर्य ग्रहण अमावस्या को होता है किन्तु यह प्रत्येक पूर्णिमा या अमावस्या को नहीं बल्कि कभी-कभी होता है। प्राचीन भारतीय विद्वान जानते थे कि चन्द्रमा का क्रांतिवृत तल (ecliptic plane) पृथ्वी के क्रांतिवृत्त तल (ecliptic plane) से 5० झुका हुआ है जिसके कारण ही ऐसा होता है।
जिस पूर्णिमा को सूर्य और चन्द्रमा के बीच पृथ्वी चन्द्रमा के क्रांतिवृत्त तल (ecliptic plane) में आ जाता है, पृथ्वी की छाया चन्द्रमा पर पड़ने से चन्द्रमा का कुछ या पूर्ण भाग अंधकारमय (अदृश्य) हो जाता है जिसे चन्द्र ग्रहण कहते हैं। इसके विपरीत जिस अमावश्या को सूर्य और पृथ्वी के बीच चन्द्रमा पृथ्वी के समान क्रांतिवृत्त तल पर आ जाता है, चन्द्रमा द्वारा सूर्य का जितना भाग ढक लिये जाने के कारण पृथ्वी से नहीं दिखायी देता उसे सूर्य ग्रहण कहते हैं। दोनों ग्रहण दो प्रकार के होते हैं- खण्ड ग्रहण और पूर्ण ग्रहण ।
अक्षांश और देशांतर (Latitudes and Longitudes)
भारतीय खगोलवेत्ता गोलाकार पृथ्वी को 360 अंशों (Degrees) में विभाजित करते थे। एक अंश में 60 कला और एक कला में 60 विकला मानकर गणना की जाती थी। इस प्रकार वर्तमान में प्रचलित मिनट और सेकण्ड के बराबर क्रमशः कला और विकला होती थी।
भूमण्डल पर स्थानों की स्थिति को प्रदर्शित करने के लिए अक्षांश और तूलांश (देशांतर) का प्रयोग प्राचीन भारत में किया जाता था। कुछ प्रमुख स्थानों और नगरों की अक्षांशीय और देशांतरीय स्थिति को ज्ञात करके खगोलवेत्ता अपनी पुस्तकों में लिख दिया करते थे।
इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में खगोलज्ञ किसी स्थान के अक्षांश और देशांतर की गणना की विधि जानते थे। इसके लिए वे कुछ वेध यंत्रों का प्रयोग करते थे।
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