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माउंट एवरेस्ट (Mount Everest): ऊंचाई, नामकरण, इतिहास एवं रोचक तथ्य

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विश्व के मानचित्र पर माउंट एवरेस्ट

इस लेख के माध्यम से आप माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) की ऊंचाई, नामकरण, इतिहास एवं रोचक तथ्यों से परिचित होंगे।

माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) की ऊंचाई एवं नामकरण के पीछे का इतिहास

इस लेख में हम जानेंगे दुनिया के सबसे बड़े और विशाल पर्वत माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) के बारे में। माउंट एवरेस्ट तिब्बत की सीमा पर नेपाल में स्थित दुनिया का सबसे बड़ा पर्वत है, जिसकी ऊंचाई 8848 मीटर है। यह ऊंचाई इतनी है कि जहां पर सांस लेने योग्य पर्याप्त ऑक्सीजन भी नहीं है। इतनी ऊंचाई पर बहुत ही विरल हवा और खून को जमा देने वाली ठंड होती है। बहुत ही कम लोग जानते हैं कि इस विराट और भव्य पर्वत को खोजने में दुनिया के वैज्ञानिकों ने सालों गुजार दिए और उसकी वास्तविक ऊंचाई को साबित करने में भी बहुत संघर्ष करना पड़ा है तथा इस पर्वत के नाम को लेकर भी कई विवाद हुए हैं। 

तो चलिए शुरुआत से जानते हैं माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) के बारे में। 1850 की बात है, जब माउंट एवरेस्ट का नाम दुनिया के सबसे ऊंचे शिखरों में नहीं लिया जाता था। तब दुनिया का सबसे ऊंचा शिखर कंचनजंघा को माना जाता था। उस समय पर्वतों की ऊंचाई नापने के लिए त्रिकोणमिति के साधनों का उपयोग किया जाता था। जो इतना सटीक भी नहीं था। ऊपर से एवरेस्ट के आसपास के पहाड़ उसे थोड़ा ढक लेते थे। जिसके कारण माउंट एवरेस्ट या जिसे शिखर नंबर 15 भी माना जाता था, इसकी सटीक ऊंचाई का अनुमान लगा पाना बहुत ही मुश्किल था। 

सर्वे आफ इंडिया की अंग्रेजों की एक टीम को थोड़ा डाउट लगा और उन्होंने हिमालय के सभी पहाड़ों को फिर से और थोड़ी और सटीकता से नापने की शुरुआत की। तब 1855 में जाकर शिखर नंबर 15 या यू कहिए कि माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) की ऊंचाई का अनुमान लगाया गया और वह था 8840 मी।

यह आंकड़ा गलत था लेकिन यह तो साफ-साफ पता चलता था कि दुनिया का सबसे ऊंचा शिखर अब एवरेस्ट है। ऊपर से माउंट एवरेस्ट का एक और विवाद था उसके नाम को लेकर। पहाड़ों का सर्वे करने वाले एक अंग्रेज ने जिसका नाम था जॉर्ज एवरेस्ट उसने अपने ही नाम से शिखर नंबर 15 को एवरेस्ट नाम दे दिया। जबकि वहां के स्थानिक नेपाली लोग तो उसे सदियों तक गौरी शंकर के नाम से जानते थे।

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अभी तो नेपाल में उसे सागरमाथा और तिब्बत की स्थानिक भाषा में उसे चोमोलुंगमा कहा जाता था। अब आप ही सोचिए इस पहाड़ के स्थानिक नाम को छोड़कर किसी अंग्रेज के नाम से इसे पहचानना कितना योग्य है। चोमो लूंग मा और सागरमाथा यह वहां की प्रजा के लिए भी स्थानिक नाम थे और दुनिया का सबसे बड़ा शिखर भी उनके लिए वहां का स्थानिक ही था। फिर भी स्थानिक प्रजा के जज्बातों की अवहेलना कर इसे एक अंग्रेज अफसर का नाम दे दिया गया। 

अब और एक दिलचस्प और पते की बात सुनो जॉर्ज एवरेस्ट जब तक जिंदा रहा तब तक तो उसे यह नाम मिला नहीं। क्योंकि 1866 में जब उसका अवसान हुआ तब तक तो हर नशे में दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर के नाम पर गौरी शंकर का उल्लेख होता था और सालों बाद यही क्रम रहा। लेकिन 1930 में कैप्टन वुड नाम का एक भौतिकशास्त्री ज्यादा अनुकूलित साधनों के साथ गौरीशंकर पहाड़ के विश्लेषण के लिए जब उसके और नजदीक गया; तो मालूम हुआ कि दुनिया के सबसे बड़े पर्वत से तो गौरी शंकर की चोटी थोड़ी नीची है और इन दोनों पहाड़ों में 55 किलोमीटर का अंतर है। 

इस तरह यह साबित हो गया कि गौरी शंकर से भी ऊंचा और उससे अलग और एक पहाड़ मौजूद है, जिसे अब तक लोग शिखर नंबर 15 के एक ही तराजू में तोलते आए थे। और फिर से इस अलग नए पहाड़ को माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) नाम दिया गया। 

जिसे वास्तव में स्थानिक नाम सागरमाथा या चोमो लुंग मा दोनों में से एक देने की जरूरत थी। अब सवाल यह है कि इस विराट और विराज पहाड़ की सही पहचान करने में इतने साल क्यों लग गए। तो कारण यह थे कि एवरेस्ट तक पहुंचाने के लिए या उसके आसपास जाने के लिए सर्वे आफ इंडिया के अंग्रेज अफसरों को या तो नेपाल जाना होता या तिब्बत।

परंतु प्रॉब्लम यह था कि उसे समय तिब्बत में बाहरी दुनिया के आम आदमियों के लिए दरवाजे बंद थे। और नेपाल के राजा यह अच्छी तरह जानते थे कि अंग्रेजों ने व्यापार के नाम पर भारत में आकर क्या हाल किया है। इसलिए वह भी अंग्रेजों को हो सके उतना अपने देश के दरवाजों से बाहर ही रखते थे।

हुआ यूं की सन 1920 में पहली बार नेपाल और ब्रिटेन के बीच मित्रता खिली। भारत में ब्रिटिश राज आने के बाद, दक्षिण में सीलोन या यू कहिए कि श्रीलंका पर और पूर्व में म्यांमार या ब्रह्म देश पर अंग्रेजों ने अपनी शिकंजा कसा  थी। इस हालत में नेपाल के राणा को भी अंग्रेजों का डर तो था ही।

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इस सब के बीच अंग्रेजों ने नेपाल को सार्वभौम राष्ट्र जाहिर कर दिया और नेपाल के प्रति मित्रता दिखाई और शर्त यह रखी की नेपाल के गोरखा सैनिक ब्रिटिश फौज में शामिल हो इसमें अंग्रेजों का सीधा-सीधा स्वार्थ था। अंग्रेज यह चाहते थे कि किसी पराए देश के कसे हुए और जांबाज योद्धा लड़ें और दूसरी तरफ नेपाल भी सुरक्षित रहे और राणा के राज पर भी कोई आंच ना आए। यह नेपाल के राणा की ख्वाहिश थी। 

इस कार्य के बाद अंग्रेजों के लिए नेपाल के दरवाजे खुल गए और इस समय तिब्बत ने भी अपना साहस दिखाने के लिए विदेशी पर्वतारोहियों को मंजूरी दी  कई साहसी पर्वतारोही अपना साहस दिखाने के लिए और माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) का जायजा लेने के लिए निकल गए। उस समय ब्रिटिश न्यूज़पेपर द टाइम्स के आर्टिकल में ऑन पेज पर छपा कि can mount everest be claimed मतलब क्या हम इंसान कभी माउंट एवरेस्ट को फतह कर पाएंगे। आज हम देखें तो वह न्यूज़ पेपर का आर्टिकल बेतुका और गलत सा लगता है, क्योंकि अब तक लगभग 4500 से भी ज्यादा लोग माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) या सागरमाथा पर चढ़ चुके हैं। 

हालांकि इस पहाड़ को फतह करने में कई लोगों की जान भी गई है। जो कभी माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) से वापस नहीं आ पाए। कई लोग तो 95% पहाड़ को फतह करने के बाद चोटी से सिर्फ 5% दूर होने के बावजूद भी वहां से लौट आए। क्योंकि वहां पर वातावरण बहुत ही भयंकर, असामान्य और विपरीत रहता है। स्थिति इतनी विपरीत होती है, कि इंसानियत की आखिरी सीमा तक परीक्षा होती है और हालात तो वहां पर किसी के काबू में नहीं रहते। 

माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) से संबंधित कुछ रोचक तथ्य

  • सबसे पहले माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) पर चढ़ने या कहें फतह करने वाले व्यक्ति थे, तेनसिंह नोर्गे जो मूल नेपाल से थे और उनके साथ ही थे एडमंड हिलेरी जो न्यूजीलैंड से थे। इन दोनों ने माउंट एवरेस्ट को सन 1953 में फतह किया था। 
  • माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) की चोटी तक पहुंचने वाले सबसे पहले भारतीय थे, अवतार सिंह चीमा। अवतार सिंह ने 1965 में माउंट एवरेस्ट को फतह किया था। 
  • माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई करने वाली सबसे पहली महिला थी, जूनको ताबे (Junko Tabei) भी जो मूलतः जापानी थी और उन्होनें सन 1975 में माउंट एवरेस्ट को फतह किया था। 
  • 8000 मीटर की ऊंचाई पर परिस्थितियां बहुत ही खतरनाक होती है, यहां पर अगर किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसके शव को वहीं पड़ा रहने दिया जाता है। क्योंकि इतनी विपरीत परिस्थिति में वहां से शव को वापस लाना इतना आसान नहीं है। 
  • कई पर्वतारोहियों को चढ़ाई करने के दौरान रास्ते में कई लोगों की लाशें पड़ी मिलती है, लेकिन वे लोग उनके लिए कुछ नहीं कर सकते। 
  • माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) की चढ़ाई में सबसे ज्यादा मौत शिखर के करीब के 800 मीटर तक के दायरे में होती है। इस डेथ जॉन भी कहा जाता है। 
  • कई लोग तो छोटी पर चढ़ने के बाद वापस उतरने के समय मौत को गले लगा चुके हैं।
  • एवरेस्ट की चढ़ाई करने के लिए 19 अलग-अलग रास्ते हैं। 
  • एवरेस्ट पर चढ़ाई करने का सबसे अच्छा वक्त है मार्च से मई तक का। इस समय बर्फ ताजा रहती है और स्थिति थोड़ी सी अनुकूलित होती है। लेकिन कठिनाई तो अभी उतनी ही रहती है। 
  • इसे अब तक सफलता से पूरा करने वालों में एक 13 साल का लड़का, एक अंधा व्यक्ति और एक 73 साल की जापानी महिला भी शामिल है।
  • गर्मियों में एवरेस्ट के शिखर का तापमान औसत रूप से – 30 से – 35 डिग्री तक रहता है।
  • अगर आपको माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) पर चढ़ना हो तो 11000 अमेरिकी डॉलर फीस नेपाल गवर्नमेंट को देनी होगी दरअसल यह फीस 2015 के पहले 25000 अमेरिकन डॉलर थी। लेकिन 2015 में नेपाल गवर्नमेंट ने यह फीस लगभग आदि से भी कम कर दी है।
  • माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) की चोटी तक पहुंचने के लिए करीबन 2 महीने तक का समय लगता है। जिसमें एक आदमी का खर्च तकरीबन 85 से 90 लाख तक का होता है। 
  • माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) पर चढ़ने के लिए जाने वाले लोगों में से हर 10 में से एक व्यक्ति वापस नहीं आता।
  • माउंट एवरेस्ट पर चढ़े हुए अब तक के लोगों ने वहां पर और बीच रास्ते में जो चीजें या सामान छोडा है, उस कचरे का  का वजन आज तक लगभग 120 टन तक पहुंच गया है।
  • यह पहाड़ हर साल लगभग 2 सेंटीमीटर और ऊपर होता जा रहा है अर्थात् माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई औसत रूप से हर साल लगभग 2 सेंटीमीटर बढ़ रही है। 
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