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सतत् पोषणीय विकास (Sustainable Development): परिचय
20वीं शताब्दी के आरम्भ से ही पश्चिम के विकसित राष्ट्रों ने पर्यावरण की सहन-सीमा की परवाह किए बिना प्रौद्योगिकी के बल पर प्राकृतिक संसाधनों का अन्धा-धुन्ध शोषण करना शुरू कर दिया। सन् 1960 के दशक के अन्त में इन राष्ट्रों में तीव्र औद्योगीकरण के पर्यावरण पर अवांछित परिणाम सामने आने लगे थे। इससे चिंतित लोगों की पर्यावरण सम्बन्धी सामान्य जागरूकता भी बढ़ने लगी। वे समझने लगे कि अविचारित विकास न केवल वर्तमान पीढ़ी का जीवन अभावग्रस्त कर सकता है बल्कि भावी पीढ़ियों का जीवन भी अन्धकारमय कर सकता है।
सन् 1968 में प्रकाशित एहरलिच (Ehrlich) की पुस्तक ‘द पापुलेशन बम’ और सन् 1972 में प्रकाशित मीडोस (Meadows) व अन्यों द्वारा लिखित पुस्तक ‘द लिमिट टू ग्रोथ’ ने पर्यावरण निम्नीकरण पर लोगों व विशेष रूप से पर्यावरणविदों की चिंता को बढ़ा दिया। इस समस्त घटनाक्रम के संदर्भ में विकास के एक नए मॉडल का विकास हुआ जिसे सतत् पोषणीय विकास कहा गया।
सतत् पोषणीय विकास (Sustainable Development) का अर्थ
“हमारा पर्यावरण और प्राकृतिक-जैविक संसाधन वर्तमान पीढ़ी को तो सुखी बनाएँ मगर आने वाली पीढ़ियों को भी अभावग्रस्त न रहने दें।” आर्थिक विकास के इसी फलसफे ने सतत् पोषणीय विकास की अवधारणा को जन्म दिया। सतत् पोषणीय विकास टिकाऊ एवं स्थायी होता है। ऐसा विकास लम्बे समय तक मनुष्य का साथ देता है, क्योंकि ऐसे विकास से प्रकृति के भण्डार जितने रिक्त होते हैं, उतने ही भरते भी रहते हैं यद्यपि ‘सतत् पोषणीय विकास’ शब्दावली का पहली बार प्रयोग सन् 1970 में पर्यावरणीय तथा विकास पर कोकोयोक घोषणा (Cocoyoc Declaration on Environment and Development) के दौरान किया गया था लेकिन इसकी मान्य परिभाषा सन् 1987 में हमारा साँझा भविष्य (Our Common Future) नामक रिपोर्ट में ब्रुंडलैण्ड कमीशन ने दी।
ब्रुंडलैण्ड कमीशन के अनुसार, “सतत् पोषणीय विकास वह विकास है जो भावी पीढ़ियों को अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की योग्यता के साथ समझौता किए बिना ही वर्तमान आवश्यकताओं को पूरा करे।”
समय के साथ यह परिभाषा भी अपर्याप्त मानी जानें लगी क्योंकि यह वर्तमान तथा भावी दोनों पीढ़ियों की आवश्यकताओं को परिभाषित नहीं करती। सन् 1987 के बाद अनेक विद्वानों और संस्थाओं ने सतत् पोषणीय विकास की एक बेहतर और अधिक सार्थक परिभाषा देने का प्रयास किया।
श्रीकुमार चट्टोपाध्याय के अनुसार, “सतत् पोषणीय विकास पारिस्थितिक तन्त्र की पोषण क्षमता के अन्दर रहकर मानव जीवन के स्तर को ऊँचा करना है।”
सतत् पोषणीय विकास के तत्त्व (Elements of Sustainable Development)
ब्राउन एवं अन्य (1987) तथा लेली (1989) ने सतत् पोषणीय विकास के तत्त्वों को अंकित करने का प्रयास किया है। उनके अनुसार सतत् पोषणीय विकास की सम्पूर्ण अवधारणा अग्रलिखित तत्त्वों को समाहित करती है-
- मानव व जीवन के अन्य सभी रूपों का जीवित रहना (Existence of All Forms of Life)
- सभी जीवों, मुख्यतः मनुष्य की आधारभूत आवश्यकताओं का पूरा होना (Meeting the Basic Requirements of All Living Beings, especially Man)
- जीवों की भौतिक उत्पादकता का अनुरक्षण (Protection of Bio-physical Productivity)
- मनुष्य की आर्थिक क्षमता एवं विकास (Economic Efficiency and Development of Man)
- पर्यावरण तथा पारिस्थितिक तन्त्र का संरक्षण ( Conservation of Environment and Ecology)
- अंतर तथा अंतरा पीढ़ी समानता (Inter and Intra Generational Equity)
- सामाजिक न्याय और स्वावलम्बन (Social Justice and Self-Dependence)
- आम लोगों की प्रतिभागिता (Participation of Common Man)
- जनसंख्या की वृद्धि दर में स्थिरता (Stability in the Growth Rate of Population)
- जीवन मूल्यों का पालन (Observance of Human Values)
सतत् पोषणता के बारे नज़रिया अलग-अलग है….. ब्राजील के बन्दरगाह नगर रियो डि जेनेरियो में जून, 1992 में सम्पन्न रियो शिखर सम्मेलन में यह बात साफ़ हो गई कि सतत् पोषणता के बारे में विकासशील और विकसित राष्ट्रों की सोच अलग-अलग है। विकसित देशों का विचार हैं कि यदि पर्यावरण के छोटे-मोटे कुप्रभावों को नियन्त्रित करने की प्रौद्योगिकी का विकास कर लिया जाए तो विकास की वर्तमान दर को और अधिक बढ़ाया जा सकता है। इसके विपरीत विकासशील देश आर्थिक विकास की दर को केवल इसलिए बढ़ाना चाहते हैं ताकि लोगों की मूलभूत जरूरतों को पूरा कर उन्हें गरीबी के चंगुल से छुड़ाया जा सके। उनका मानना है कि गरीबी ही पर्यावरण की सबसे बड़ी प्रदूषक है। विकासशील देश चाहते हैं कि पर्यावरण के प्रदूषण को कम करने का ज़िम्मा विकसित राष्ट्रों का है क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों का सबसे ज्यादा दोहन उन्हीं ने ही किया है। अतः विकसित देशों का यह कर्त्तव्य बनता है कि पर्यावरण की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए विकसित देश धन और प्रौद्योगिकी के माध्यम से विकासशील देशों की सहायता करें। |
सतत् पोषणीय विकास एक गत्यात्मक संकल्पना है (Sustainable Development is a Dynamic Concept)
सतत् पोषणता का विचार स्थैतिक नहीं है। अतः इस अवधारणा को स्थायी रूप से परिभाषित नहीं किया जा सकता। यह एक गत्यात्मक संकल्पना है जिसे विभिन्न देशों में एक समय विशेष के सन्दर्भ में उनकी संस्कृति, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था के अनुरूप देखा, समझा और परिभाषित किया जाता है।
सतत् पोषणीय विकास लम्बे समय तक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। इसकी गत्यात्मकता के बारे में निम्नलिखित तथ्य उल्लेखनीय हैं-
- सतत् पोषणीय विकास को अल्प अवधि में प्राप्त नहीं किया जा सकता। अल्प अवधीय विकास जैव-भौतिक पर्यावरण पर भारी दबाव डालता है जो अन्ततः दीर्घ अवधीय विकास के लिए हानिकारक सिद्ध होता है।
- जब तक आधारभूत संसाधनों की सुरक्षा नहीं की जाती तब तक मनुष्य के अस्तित्व की सुरक्षा नहीं की जा सकती।
- नवीकरण योग्य (Renewable) संसाधन भी तभी उपलब्ध होंगे जब हम उनके उचित पोषण एवं पुनर्भरण का प्रबन्ध करेंगे।
- प्रकृति केवल भोग्य (Consumable) वस्तु नहीं है, यह जीवन का आधार है। प्रकृति में सह-अस्तित्व के बिना मानव कल्याण संभव नहीं है।
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