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गोंड जनजाति (Gond Tribe)

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गोंड जनजाति भारत में संथाल के बाद दूसरा बड़ा जनजातीय समूह है। प्राचीन काल में 14वीं से 18 वीं शताब्दी के बीच इनका अपना एक स्वतंत्र राज्य हुआ करता था जो बड़े विशाल क्षेत्र में फैला हुआ था। इसे गोंडवानालैंड के नाम से जाना जाता था। 18 वीं शताब्दी के बाद मुगल व मराठों ने इन्हें क्रमशः उत्तर व दक्षिणी भारत से खदेड़ दिया और ये लोग घने जंगलों तथा दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में चले गए। इस समय इनकी जनसंख्या लगभग 50 लाख के आसपास है। 

गोंड जनजाति (Gond Tribe) का निवास क्षेत्र 

गोंड जनजाति का भारत में प्रमुख संकेन्द्रण मध्य भारत में है। इस समय ये लोग मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तथा उड़ीसा के पठारी भागों में रहते हैं। इस जनजाति का अधिकतम संकेन्द्रण मध्यप्रदेश के मांडला तथा छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में पाया जाता है।

गोंड जनजाति (Gond Tribe) का भौतिक पर्यावरण

जलवायु

 इस क्षेत्र की जलवायु शीत तथा आर्द्र है। यहां पर तापमान 15 डिग्री से 30 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है और औसत वार्षिक वर्षा 125 से 150 सेंटीमीटर तक होती है।

मिट्टी 

गोंड जनजाति का निवास क्षेत्र पहाड़ी और वन क्षेत्र है। यह प्रदेश लाल, पथरीली व रेतीली मिट्टी वाला है। जहां पर केवल मोटे अनाज ही उगाए जा सकते हैं। इस क्षेत्र के निम्न प्रदेशों में जलोढ़ मिट्टी भी पाई जाती है, जो चावल की खेती के लिए उपयुक्त है।

वनस्पति

 इस क्षेत्र में मानसून वन पाए जाते हैं। जिनमें साल, शीशम, पालस, माल्दू, तेंदू, महुआ, कुसुम तथा बांस के पेड़ उगते हैं। यहां बड़ी संख्या में वन्य जीव भी पाए जाते हैं।

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गोंड जनजाति (Gond Tribe) के शारीरिक लक्षण

इनकी त्वचा का रंग काला होता है तथा इनके बाल सीधे व काले होते हैं। ये लोग दिखने में सुंदर नहीं होते। इनकी आंखें बड़ी, होंठ पतले तथा सिर एवं मुँह चौड़ा होता है। रिसले के अनुसार ये द्रविडियन प्रजाति के है, जबकि गुहा के अनुसार ये लोग प्रोटो-ऑस्ट्रेलायड जाति से संबंधित हैं। 

Gond Tribe Women

गोंड जनजाति की महिलाएं

गोंड जनजाति (Gond Tribe) की अर्थव्यवस्था

गोंड जनजाति के लोगों का मुख्य व्यवसाय आखेट तथा मछली पकड़ना है। ये लोग बड़े जानवरों को भाले तथा तीरों से मारते हैं। जबकि छोटे जानवरों को पकड़ने के लिए जाल का प्रयोग करते हैं। कुछ गोंड लोग वनों से खाद्य सामग्री भी एकत्रित करते हैं। दूध के लिए गाय, भैंस व बकरियां पालते हैं। जबकि मांस के लिए सूअर, बत्तख, कबूतर, आधी को पाला जाता है बहुत से गोंड लोग स्थानांतरित कृषि करते हैं। स्थानांतरित कृषि को विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न नामों से जाना जाता है। जैसे पहाड़ी मारिया गोंद इस कृषि को पेंडा, बस्तर जिले के गोंड लोग इसे दहिया तथा भारिया गोंड इसे मरहम व मांडला के गोंड बीवार अथवा बिमरा के नाम से जानते हैं। 

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गोंड लोग प्रमुख रूप से तीन फसलें बोते हैं। जो निम्नलिखित हैं:

छोटा कोसरा 

इसकी फसलें मई में बोकर सितंबर में काटी जाती हैं। छोटा कोसरा की प्रमुख फसलें समा, सीका, कोदो व कुटकी हैं। 

बड़ा कोसरा 

इसकी फसलें जून-जुलाई में बोई जाती है तथा दिसंबर या जनवरी में काटी जाती हैं। इसकी मुख्य फसलें विभिन्न प्रकार की दालें हैं। 

ओस कोसरा

इसकी फसलें अगस्त-सितंबर में बोकर दिसंबर या जनवरी के महीने में काट ली जाती हैं। इसके अंतर्गत मोटे अनाज सम्मिलित किए जाते हैं।

कुरूख वर्ग के गोंड लोगों का मुख्य व्यवसाय मछली पकड़ना है। ये लोग कृषि नहीं करते। इसीलिए अन्य गोंडों को ये लोग अनाज के बदले में अपनी मछलियां देते हैं। इसी प्रकार रावत वर्ग के गोंड लोगों का मुख्य व्यवसाय पशु पालन है। ये लोग अपने गाय, बैल दूसरे किसानो को बेच देते हैं। समाज में इन्हे अन्य वर्गों के लोगों से अधिक पवित्र माना जाता है। इसलिए इन लोगों का छुआ हुआ दूध, दही तथा अन्य खाद्य सामग्री सभी लोग खा लेते हैं। रावत लोग खेती-बाड़ी तथा लकड़ी काटने का काम भी करते हैं। इस वर्ग के लोग दूध-दही के बदले में अन्य वस्तुएं ले लेते हैं।

गोंड जनजाति (Gond Tribe) का भोजन 

इन लोगों का मुख्य आहार चावल व मोटे अनाज हैं। ये लोग वनों से इकट्ठे किए हुए फलों तथा सब्जियों का भी भोजन के रूप में प्रयोग करते हैं। गोंड लोगों का प्रिय आहार लाल चीटियां है। ये लोग गाय, बकरी, बत्तख, सूअर, चूहे, कबूतर, आदि का मांस भी खाते हैं। गोंड लोग महुआ, खजूर, तथा चावल से बनी क्रमशः मोरिया, टोड्डी तथा लोंगा नामक शराब का सेवन भी करते हैं। इन लोगों में अफीम, तंबाकू, शहद आदि के प्रयोग का भी प्रचलन है।

गोंड जनजाति (Gond Tribe) के आभूषण एवं वस्त्र 

इस जनजाति के लोग कम ही कपड़े पहनते हैं। महिलाएं सूती धोती पहनती हैं। इसके लिए ये लोग सूत पास के ही कस्बे से खरीदते हैं और गांव में गांव में सूती वस्त्र बनाते हैं। भेड़-बकरियों से मिलने वाली ऊन से ये लोग कंबल तथा अन्य वस्त्र गांव में बनाते हैं। अपने शरीर को राख तथा रंगों से रंगते हैं और सिर पर पक्षियों के पंख पहनते हैं। त्योहारों पर ये लोग रंग-बिरंगे कपड़े पहने हुए दिखाई देते हैं। 

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गोंड स्त्रियों को आभूषण या गहने पहनने का बड़ा ही चाव होता है। ये स्त्रियां मूंगे तथा नकली मोतियों के आभूषण गले तथा हाथों में पहनती हहैं। विभिन्न पशुओं के सींगो तथा सफेद बांस से कंघी बनाकर अविवाहित लड़कियां अपने बालों के जूडे में ऐसे 6-7 कंघे लगाती है। इस जनजाति में शरीर पर टैटू बनवाने का भी बहुत प्रचलन है।

Gond tribe Ornaments and dance

गोंड जनजाति के लोग सिर पर मोर पंख एवं शारीर पर विभिन्न रंग लगाए हुए

गोंड जनजाति (Gond Tribe) के घर एवं बस्तियां 

गोंड जनजाति की बस्तियों की स्थिति भौगोलिक लक्षणों तथा जल की उपलब्धता पर निर्भर करती है। इनकी बस्तियां नगले अर्थात पल्ली तथा छोटे गांव के रूप में होती है। ये लोग जब भी अपना घर बनाते हैं, तो सबसे पहले पुजारी से उस जगह के विषय में जानकारी लेते हैं। इनके ज्यादातर घर नदियों के किनारे या उन स्थानों पर होते हैं जहां बाहर से आक्रमण का कोई भय नहीं रहता। इनके गांव पशु और मनुष्य की सुविधा तथा दुश्मनों के खतरे से बचने वाले स्थान पर बनाए जाते हैं।

इनका का गाँव लगभग 50 झोपड़ियों का होता है जिसे तोला कहते हैं। हर गांव में एक मंदिर होता है और एक श्मशान स्थल होता है।  शमशान सदा बस्ती के पूर्व की ओर चुना जाता है। ये लोग मरे हुए लोगों को जलाते भी हैं और उन्हें जमीन में दबाते हुए हैं। 

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गोंड जनजाति (Gond Tribe) का औजार व उपकरण 

इन लोगों के उपकरण एवं औजार बहुत ही साधारण किस्म के होते हैं। गांव के ही लोहार से कृषि के लिए हलों की फालियां, फसल निराने के लिए खुरपे, फावड़े, दरांती, कुल्हाड़ी और शिकार करने के लिए तीरों के नोंक बनवाते हैं।

गोंड जनजाति (Gond Tribe) का सामाजिक व्यवस्था

गोंड लोगों का समुदाय पितृ प्रधान है। इनमें हर कुल का एक चिह्न होता है। ये लोग एकाकी तथा संयुक्त दोनों ही तरह के परिवारों में रहते हैं।पुरुष लोग मुख्यतया कृषि, आखेट, व्यापार आदि का कार्य करते हैं। जबकि महिलाएं घर का काम करती हैं। 

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इस जनजाति की एक प्रमुख प्रथा मजदूरी तथा कबाड़ी प्रचलित है। इस प्रथा के अंतर्गत मजदूरी के बदले अनाज और धन दिया जाता है। किसी बड़े जमीदार की नौकरी कभी-कभी दासता का रूप भी धारण कर लेती है। बड़े कृषकों के पास ऐसे मजदूर होते हैं, जो जन्म भर उसी की नौकरी करते हैं। जब कोई मजदूर अपनी बेटी की शादी करता है या ग्राम पंचायत का जुर्माना देता है। तो वह उस कृषक से कर्जा लेता है।

इस कर्जे को वह कृषि मजदूरी द्वारा चुकाता है। इसी प्रथा को कबाड़ी मजदूरी प्रथा कहा जाता है। जब कोई कबाड़ी मरते समय अपने स्वामी का कर्ज नहीं उतार पाते तो यह जिम्मेवारी उसकी संतान पर आ पड़ती है। इस प्रकार कबाड़ी का बेटा जीवन भर कबाड़ी बनकर अपने स्वामी के लिए कृषि मजदूर के रूप में काम करता रहता है।

इसके अतिरिक्त गोंडों में पशु बलि की प्रथा भी प्रचलित है। ये लोग देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिए भेड़- बकरियों की बलि देते हैं। बलि देते समय नाच गाने की व्यवस्था होती है। गोंड लोगों का विश्वास है कि बलि देने से फसल अच्छी होती है। बलि न देने से देवी-देवता रूठ जाते हैं और फसल नष्ट हो जाती है। इसलिए बीज बोने से पहले भी देवी माता की पूजा की जाती है। बलि हुए पशु का खून बीजों में छिडक दिया जाता है ताकि देवी माता प्रसन्न हो जाए और उसके आशीर्वाद से फसल अच्छी हो जाए। ये लोग जादू-टोने में विश्वास करते हैं। 

इस जनजाति में गांव की अपनी पंचायत होती है। जिसके मुखिया को मुक्कादम कहते हैं पंचायत के निर्णय सभी लोगों पर एक समान लागू होते हैं। गांव में एक पुजारी होता है जो सभी प्रकार के धार्मिक कार्य पूरे करता है। 

उनकी चित्रकला की एक अनूठी परंपरा है, जिसे गोंड कला के नाम से जाना जाता है। पेंटिंग आमतौर पर दीवारों, फर्श और कागज पर की जाती हैं ।

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