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मानव भूगोल के उपागम (Approaches to Human Geography)
मानव भूगोल एक सामाजिक विज्ञान है जो मानव और उसके पर्यावरण के स्थानिक वितरण और अंतःक्रिया का अध्ययन करता है। मानव भूगोल के अध्ययन के लिए विभिन्न उपागम हैं। प्रत्येक उपागम का लोगों और उनके वातावरण के बीच के जटिल संबंधों को समझने और विश्लेषण करने का अपना दृष्टिकोण है। जिनका वर्णन नीचे दिया गया है:
1. प्रत्यक्षवादी उपागम (Positivist approach)
2. व्यवहारपरक या आधारपरक उपागम (Behavioural approach)
3. मानववादी उपागम (Humanistic approach)
4. क्रांतिपरक या मार्क्सवादी उपागम (Radical or Marxist approach)
5. कल्याणपरक उपागम (Welfare approach).
6. तंत्र उपागम (System approach).
प्रत्यक्षवादी उपागम (Positivist Approach)
प्रत्यक्षवाद (Positivism) का प्रतिपादन फ्रांसीसी गणितज्ञ और दार्शनिक आगस्ट काटे (1798-1857) ने 1820 के दशक में किया था। मानव भूगोल का यह उपागम इस मान्यता पर आधारित है कि वास्तविक ज्ञान वैज्ञानिक होता है और तथ्यों तथा अनुभव पर आधारित होता है अर्थात् जिसे तथ्यों तथा वैज्ञानिक रूप से सत्यापित किया जा सकता है। 1950 एवं 1960 के दशकों में मानव भूगोल पर प्रत्यक्षवाद (Positivism) का गहरा प्रभाव पड़ा।
इनके परिणामस्वरूप उन मानवीय तत्वों तथा पर्यावरण के साथ सम्बंधों के अध्ययन पर अधिक बल दिया गया जिसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है या जिसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है और जिसकी माप की जा सकती है। अतः मानव भूगोल में गणितीय तथा सांख्यिकीय विधियों के प्रयोग और तत्वों के प्रत्यक्ष अनुभव तथा प्रेक्षण के आधार पर व्याख्या करने और सामान्य निष्कर्ष प्राप्त करने पर अधिक बल दिया गया।
इस प्रकार प्रत्यक्षवाद का प्रतिपादन एक वस्तुनिष्ठ, मूल्य निरपेक्ष, आनुभविक, स्वयंसिद्ध तथा सार्वभौमिक ज्ञान की प्राप्ति हेतु किया गया है। प्रत्यक्षवादियों के अनुसार विज्ञान का सम्बंध केवल आनुभविक प्रश्नों से होता है, काल्पनिक प्रश्नों से नहीं।
उदाहरण के लिए ; नगरीकरण का अध्ययन करने के लिए मात्रात्मक विधियों का उपयोग करना। इस उपागम का उपयोग करने वाले शोधकर्ता किसी नगर के विभिन्न भागों में जनसंख्या घनत्व, भूमि उपयोग प्रतिरूप और आर्थिक क्रियाओं जैसे कारकों से संबंधित आंकड़ों को एकत्र करते हैं और फिर सांख्यिकीय विधियों का उपयोग करके तथा इन आंकड़ों का विश्लेषण करके इन कारकों व इनके कारण नगर में उत्पन्न विभिन्न भौगोलिक प्रतिरूपों के मध्य संबंधों की पहचान करने का प्रयास करते हैं।
1950 एवं 1960 के दशकों में यूरोप तथा अमेरिका में भूगोल के अधिकांश शोध छात्र अपने अध्ययन में वैज्ञानिक विश्लेषण पद्धति और मात्रात्मक विधियों का प्रयोग करने लगे थे। जिसे मात्रात्मक क्रांति (Quantitative Revolution) की संज्ञा दी गयी। इस मात्रात्मक उपागम को ‘नवीन भूगोल’ (New Geography) भी कहा गया। मात्राकरण क्रांति के मानव भूगोल में मानवीय घटनाओं व पर्यावरण के साथ इन घटनाओं के सम्बन्धों की व्याख्या हेतु सामान्यीकरण और माडल निर्माण पर अधिक बल दिया गया।
इससे मानव भूगोल में गणितीय एवं सांख्यिकीय विधियों के प्रयोग से सिद्धांतों, नियमों तथा संकल्पनाओं के निर्माण में पर्याप्त सहायता मिली । किन्तु इसके अंतर्गत सभी स्थलरूपों एवं भूदृश्यों को ज्यामितीय आकृति में देखने का प्रयास किया गया और मानव मूल्यों तथा उसकी कृतियों को एक अभिकर्ता के रूप में नहीं बल्कि एक वस्तुनिष्ठ तथ्य या आंकड़ों के रूप में समीकरण के माध्यम से विश्लेषित करने का प्रयास किया गया जो तर्कसंगत नहीं है। यही कारण था कि 1970 तक मात्रात्मक क्रांति कमजोर पड़ गयी और इसका स्थान व्यवहारवाद ने ले लिया।
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व्यवहारपरक या आचारपरक भूगोल (Behavioural Approach)
1960 दशक के मध्य तक यह महसूस किया जाने लगा कि केवल मात्रात्मक विधियों के प्रयोग पर आधारित भौगोलिक तथ्यों का विश्लेषण जीवन की वास्तविकता को नहीं दर्शा सकता । जिसके परिणामस्वरूप मानव भूगोल के अध्ययन का एक नया उपागम उभर कर सामने आया, जिसे व्यवहारवाद या व्यवहारपरक उपागम (Behavioural Approach)के नाम से जाना जाता है। इसके अंतर्गत पर्यावरण के साथ मानव के सम्बंध एवं प्रतिक्रिया से संबंधित प्रक्रियाओं को समझने के लिए व्यवहारवाद की मान्यताओं और विधियों का प्रयोग किया जाता है। जिसमे मानवीय तथ्यों या घटनाओं के भौगोलिक विश्लेषण में व्यक्ति के व्यवहार (आचरण) पर विशेष बल दिया जाता है।
इस प्रकार किसी प्रदेश के सांस्कृतिक (मानवीय) तत्वों के भौगोलिक अध्ययन में मनुष्य की व्यक्तिगत अभिरूचि, आवश्यकता, कार्यकुशलता, चेतना, क्षमता आदि मानसिक गुणों को पर्याप्त महत्व प्रदान किया जाता है। अध्ययन के इस उपागम में इस तथ्य की खोज का प्रयास किया जाता है कि किसी कार्य के करने या न करने के सन्दर्भ में मनुष्य के निर्णय को उसका व्यक्तिगत व्यवहार किस प्रकार और किस सीमा तक प्रभावित करता है।
उदाहरण के लिए, परिवार नियोजन को अपनाने के विषय में अन्य भौगोलिक कारकों की तुलना में मनुष्य के व्यक्तिगत दृष्टिकोण का अधिक प्रभाव देखने को मिलता है। परिवार में सन्तानों की संख्या कितनी हो? अथवा दो बच्चों के जन्म के बीच समय अंतराल कितना हो? इसके निर्णय पर मनुष्य की व्यक्तिगत सोच और व्यवहार का महत्वपूर्ण प्रभाव पाया जाता है। इसी प्रकार एक स्थान से दूसरे स्थान के लिए प्रवास पर भी मनुष्य का व्यक्तिगत व्यवहार अधिक प्रभावशाली होता है।
समान भौगोलिक परिस्थिति में ही जहाँ एक व्यक्ति सामाजिक आर्थिक कारणों से प्रवास के लिए तत्पर होता है और स्वेच्छा से अपना स्थान छोड़ने के लिए तैयार होता है वहीं दूसरा व्यक्ति अपने व्यक्तिगत विचारों तथा धारणाओं के प्रभाव से अपना स्थान नहीं छोड़ना चाहता है। यही कारण है कि मानवीय तथ्यों के विश्लेषण में मनुष्य के व्यक्तिगत व्यवहार पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है।
भूगोल में व्यावहारिक उपागम का प्रयोग करने वालों में विलियम किर्क (William Kirk) का प्रयास अधिक महत्वपूर्ण है जिन्होंने 1963 में एक लेख के माध्यम से व्यावहारिक पर्यावरण के महत्व पर बल दिया। किर्क ने मनुष्य को चैतन्य, तार्किक और सोद्देश्य माना किन्तु उसकी तुलना आर्थिक मानव से नहीं किया। उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि व्यावहारिक पर्यावरण; वास्तविकता (Reality) और सांस्कृतिक मूल्य (Cultural Value) की अंतर्क्रिया का परिणाम होता है और कोई भी मानव समुदाय बाह्य पर्यावरण के साथ ही मनोवैज्ञानिक तथ्यों से भी प्रभावित होती है।
किर्क के पश्चात् भूगोल में व्यावहारिक उपागम का प्रयोग बढ़ता गया और मानव भूगोल के अध्ययन में यह एक प्रमुख उपागम बन गया। इसमें मानव-पर्यावरण के अंतर्सम्बंधों के विश्लेषण में पर्यावरण बोध (Environmental Perception) तथा उससे सम्बंधित मानसिक संरचना और निर्णय प्रक्रिया पर पड़ने वाले उसके प्रभाव पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा।
मानववादी उपागम (Humanistic approach)
मानव भूगोल के इस उपागम के अंतर्गत मानव के ज्ञान, कार्य कुशलता, सर्जनात्मकता, सक्रियता आदि को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। भूगोल में मानववाद का सर्वप्रथम प्रयोग अपने स्थूल रूप में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बाइडल डी ला ब्लाश के नेतृत्व में फ्रांसीसी भूगोलवेत्ताओं द्वारा किया गया था। ‘सम्भववाद'(Possibilism) मानववादी उपागम की ही विशिष्ट उपज है। मानववाद का विकास पुनः 1970 के दशक में प्रत्यक्षवाद (positivism) की प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ।
इसके अंतर्गत सकारात्मक मानवीय पक्षों के अध्ययन पर बल दिया जाने लगा। प्रत्यक्षवाद से प्रेरित मात्रापरक अध्ययन पद्धति एक प्रकार की स्वचालित मशीनरी प्रक्रिया बन गयी थी जिसमें भूगोल के विद्यार्थी का कार्य उसके द्वारा निर्मित क्षेत्रीय प्रतिरूपों के वस्तुनिष्ठ विश्लेषण तक ही सीमित था। उसमें मानवीय चेतना, अनुभूतियों, संवेगों आदि के लिए कोई स्थान नहीं था। उसमें अध्यनकर्ता वस्तु स्थिति को स्वीकार करके उसकी व्याख्या करता था और क्यों तथा कैसे से सम्बंधित प्रश्नों पर ध्यान नहीं देता था।
इस अध्ययन विधा की प्रतिक्रिया स्वरूप मानववादी विचारधारा का पुनः उदय हुआ। यह नवीन मानववादी उपागम मानव एवं प्राकृतिक पर्यावरण के अंतर्सम्बंधों, मानव की सर्जनात्मकता तथा ज्ञान के महत्व पर केन्द्रित था। इसीलिए मानववादी उपागम को मानव केन्द्रित उपागम (Man Centered Approach) के नाम से भी जाना जाता है। मानववादी चिन्तन के प्रभाव में मानव भूगोल की व्याख्या मानव कर्तृत्व पर केन्द्रित हो गयी।” मानववादी भूगोल उपयोगितावादी नहीं था। तत्कालीन मार्क्सवादी चिन्तकों ने इस कमी पर कड़ी आपत्ति की और अर्थनीतिक परिदृष्टि के अनुसार भौगोलिक अध्ययन पर बल दिया।
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क्रांतिपरक या मार्क्सवादी उपागम (Radical or Marxist Approach)
मानव भूगोल में प्रत्यक्षवाद की आलोचनात्मक प्रतिक्रिया के रूप में भूगोल में एक क्रांतिपरक उपागम प्रकाश में आया जिसे समाजवादी (मार्क्सवादी) उपागम के नाम से भी जाना जाता है। इसका विकास 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में एक आन्दोलन के रूप में हुआ जिसके समर्थक पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था तथा प्रत्यक्षवाद के सिद्धांतों के प्रबल आलोचक थे और केवल सिद्धांत ही नहीं बल्कि व्यवहार में भी क्रांतिकारी परिवर्तन के पक्षधर थे। क्रांतिपरक भूगोल का विकास मूलतः पूर्व संस्थापित नियमों तथा मान्यताओं की नकारात्मक प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था। मानव कल्याणपरक सामाजिक मूल्यों का प्रश्न ही इसका केन्द्र बिन्दु है।
क्रांतिपरक भूगोल की विस्तृत समीक्षा अमेरिकी भूगोलवेत्ता पीट (J. R. Peet) ने किया है। पीट (1977) के अनुसार, क्रांतिपरक भूगोल का विकास मूलतः संस्थापित सिद्धांत की नकारात्मक प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप हुआ। यह प्रारंभिक रूप से हाल में स्वीकृत प्रत्यक्षवादी विधियों की प्रतिक्रिया का ही प्रतिफल था। 1970 के दशक के आरंभ में इस आलोचनात्मक विश्लेषण का आधार मार्क्सवादी विचारधारा थी जिसका उद्देश्य एक क्रांतिपरक विज्ञान का सृजन करना था जो केवल घटित होने वाली घटनाओं की व्याख्या की ही खोज नहीं करता है बल्कि उसमें क्रांतिकारी परिवर्तन को भी प्रस्तावित करता है।
क्लार्क विश्वविद्यालय (सं. रा. अमेरिका) द्वारा 1969 में क्रांतिपरक भूगोल की एक शोध पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया गया जिसका नाम था ‘एण्टीपोड’ (Antipode) | एण्टीपोड का शाब्दिक अर्थ है विपरीत ध्रुव (प्रतिध्रुव)। क्रांतिपरक भूगोल के विकास में विलियम बुंगी (W. Bunge) और डेविड हार्वे (David Harvey) का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान है। हार्वे ने कई पुस्तकों तथा लेखों को प्रकाशित करके क्रांतिपरक भूगोल के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया है।
उन्होंने पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रहार करते हुए सामाजिक न्याय की अनिवार्यता की व्याख्या भौगोलिक दृष्टिकोण से किया। हार्वे ने निरन्तर बिगड़ती सामाजिक दशा और उसे नियंत्रित करने में अक्षम भौगोलिक चिन्तन में क्रांतिकारी परिवर्तन का जोरदार समर्थन किया।
क्रांतिपरक भूगोलवेत्ताओं का मानना है कि मानव द्वारा मानव का तथा पर्यावरण का शोषण किया जा रहा है जिसके लिए पूँजीवादी व्यवस्था, निजी व्यवसायी तथा उच्च आर्थिक वर्ग उत्तरदायी है। अतः पूँजीवाद का अंत करके ही सामाजिक तथा क्षेत्रीय असमानता को दूर किया जा सकता है। अतः विभिन्न सामाजिक वर्गों के मध्य व्याप्त असमानता के विनाश की प्रक्रिया पर बल दिया जाना चाहिए।
क्रांतिपरक भूगोल के समर्थक ऐतिहासिक भौतिकवाद और कालिक विश्लेषण पर अधिक बल देते हैं जबकि भूगोल में स्थानिक विश्लेषण द्वारा उद्भूत प्रतिरूपों का विशेष महत्व है। यही कारण है कि भौगोलिक अध्ययन पद्धति पर क्रांतिपरक भूगोल का स्थान अधिक स्थायी नहीं बन पाया।
कल्याणपरक उपागम (Welfare Approach)
भूगोल के कल्याणपरक उपागम का विकास 1970 के दशक में हुआ। 1960 के दशक में भौगोलिक अध्ययनों में मात्रात्मक विधियों तथा आंकड़ों के विश्लेषण का प्रयोग अधिकाधिक होने लगा था किन्तु इस प्रकार का अध्ययन मौजूदा समस्याओं को उद्घाटित करने तथा उनके समाधान हेतु उपाय सुझाने में संतोषजनक नहीं था। अतएव मानव कल्याण से सम्बंधित अध्ययन की आवश्यकता महसूस की गयी जिसके परिणामरवरूप कल्याणपरक उपागम का विकास हुआ।
इसके अंतर्गत मानव कल्याण को ध्यान में रखते हुए मानवीय क्रियाओं की क्षेत्रीय भिन्नता और स्थानिक संगठन पर विचार किया जाता है। मानव भूगोल के अध्ययन के इस उपागम में ऐसे प्रत्येक तत्व को शामिल किया जाता है जिसका मानव जीवन की गुणवत्ता से सम्बंध होता है। इसमें समाज के लिए उपयोगी वस्तुओं के वितरण, उपभोग की दशाओं, उपयोगिता की मात्रा आदि पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
इस प्रकार कल्याणपरक उपागम मानव और पर्यावरण के मध्य इस प्रकार के सम्बंध पर जोर देता है जिससे मानव कल्याण में वृद्धि हो। इसके अंतर्गत मानव कल्याण से संबंधित विभिन्न पक्षों जैसे निर्धनता, भुखमरी, अकाल, बीमारी, अपराध, सामाजिक विभेद (जाति, भाषा, रंग, वर्ग भेद आदि) तथा सामाजिक सेवाओं (चिकित्सा, स्वास्थ्य शिक्षा, सफाई, मनोरंजन आदि) के वितरण में प्रादेशिक असमानता का विश्लेषण किया जाता है और इस असमानता को दूर करने तथा सामाजिक न्याय उपलब्ध कराने सम्बंधी सुझाव दिया जाता है।
इस प्रकार कल्याणपरक उपागम ‘सब जन हिताय और सब जन सुखाय’ की अवधारणा पर आधारित है जो किसी प्रदेश के जन समुदाय के जीवन स्तर को दूसरे (मानव या पर्यावरण) को क्षति पहुँचाये बिना ऊँचा उठाने और जीवन को स्वस्थ तथा सुखमय बनाने पर बल देती है।
कल्याणपरक उपागम मानव पर्यावरण की ऐसी अन्योन्य क्रिया पर बल देता है जिससे किसी प्रदेश या क्षेत्र के निवासियों की प्रमुख आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे और वहाँ का पर्यावरण संतुलन भी बना रहे। इसके अंतर्गत इस तथ्य की खोज करने का प्रयास किया जाता है कि किस तत्व विशेष की कहाँ पर बहुलता है और कहाँ पर अभाव है? जीवन के लिए उपयोगी वस्तुओं तथा सेवाओं के संदर्भ में समाज का कौन सा वर्ग सम्पन्न है और कौन सा वर्ग अभावग्रस्त है?
इस क्षेत्रीय विभिन्नता तथा सामाजिक असंतुलन को किस प्रकार कम करके या दूर करके सामान्य जन जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि की जाये? इस प्रकार के अनेक समस्यात्मक प्रश्नों को उठाना तथा उनका हल ढूँढना कल्याणपरक उपागम का प्रमुख लक्ष्य होता है। इसके अंतर्गत विकास के संकुचित आर्थिक आधार से आगे बढकर जीवन की गुणवत्ता (Quality of Life) पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है।
1970 के दशक में अमेरिकी भूगोलवेत्ता डी. एम. स्मिय (1973-1977) ने मानव भूगोल में कल्याणपरक उपागम के प्रयोग तथा महत्व की व्याख्या अपनी पुस्तकों तथा लेखों के माध्यम से किया। जिसका भौगोलिक अध्ययन विधा पर बड़ा प्रभाव पड़ा। स्मिथ के शब्दों में “कल्याणपरक उपागम का केन्द्र बिन्दु है कौन पाता है, क्या, कहाँ और कैसे (Who gets what, where and how) ? कौन (who) का तात्पर्य है अध्ययन क्षेत्र में निवास करने वाली जनसंख्या जो वर्ग, प्रजाति तथा अन्य लक्षणों के आधार पर उपवर्गों में विभक्त होती है।
क्या (what) का अर्थ उन अच्छाइयों (goods) तथा बुराइयों (bads) से है जिनका उपयोग जनसंख्या द्वारा वस्तुओं, सेवाओं, पर्यावरणी गुगों, सामाजिक सम्बंध आदि के रूप में किया जाता है। कहाँ (where) यह दर्शाता है कि निवास क्षेत्र के अनुसार जीवन स्तर में भिन्नता पायी जाती है। कैसे (How) का अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा पर्यवेक्षित भिन्नतायें उत्पन्न होती हैं।”
1960 के दशक के अंत तक समाज के आर्थिक पक्षों के पर्यवेक्षण तथा वस्तुनिष्ठ विश्लेषण पर अधिक ध्यान दिया जाता रहा। पिछले कुछ दशकों से पर्यावरणीय क्षति तथा मानव जीवन स्तर में व्याप्त असमानता के कारण होने वाली सामाजिक क्षति ने मानव भूगोलवेत्ताओं तथा अन्य विज्ञानियों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है।
कल्याणपरक उपागम मूलतः समाजवादी विचारधारा पर आधारित है जो सामाजिक एवं प्रादेशिक असमानता तथा असंतुलन का विरोधी है। यद्यपि भूगोल में कल्याणपरक उपागम का प्रस्ताव एक स्थानापन्न (substitute) उपागम के रूप में किया गया था किन्तु वर्तमान समय तक यह भूगोल की अन्य अध्ययन विधाओं के साथ लगभग विलीन हो गया है और इसका प्रयोग अन्य उपागमों में सहायक उपकरण के रूप में किया जाने लगा है।
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तंत्र उपागम (Systems Approach)
तंत्र उपागम या तंत्र विश्लेषण भूगोल के पारिस्थितिक उपागम (Ecological approach) का ही संशोधित नया रूप है। डी. हार्वे (1969) के अनुसार तंत्र विश्लेषण भौगोलिक समस्याओं के परीक्षण के लिए सुविधाजनक सूचकों को प्रदान करता है। इस उपागम की प्रकृति बहुचरीय (Multivariate) प्रकार की है, अतः किसी भी भौगोलिक तथ्य या समस्या की व्याख्या पृथक् रूप से नहीं की जा सकती क्योंकि यह किसी तंत्र का मात्र एक अंग होगा जो तंत्र के अन्य अंगों से सम्बद्ध होता है।
भूतल के किसी भी भाग में विविध प्रकार के भौतिक तथा मानवीय घटक तत्व विद्यमान होते हैं जो परस्पर किसी न किसी रूप में सम्बंधित होते हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। उन समस्त तत्वों की क्रिया प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप ही उस क्षेत्र के वास्तविक प्रतिरूप या भूदृश्य का निर्माण होता है। उन समस्त घटकों (तत्वों) की समष्टि जिसमें क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहती है, उसे एक तंत्र (system) कहते हैं।
भूगोल के विभिन्न तत्व आपस में तथा अन्य पर्यावरणीय तत्वों से घनिष्ट रूप से सम्बंधित होते हैं। इसीलिए किसी एक तत्व के वास्तविक विश्लेषण के लिए समष्टि में होने वाली अंतर्क्रिया तथा उसके प्रभाव की जानकारी आवश्यक हो जाती है। हाल के वर्षों में अन्य विज्ञानों की भाँति मानव भूगोल में भी तंत्र विश्लेषण पर अधिक बल दिया जाने लगा है।
उदाहरण के लिए, नगरीय भूदृश्य का अध्ययन करने में, तंत्र उपागम इस बात पर विचार करेगा कि नगरीय भूदृश्य को आकार देने के लिए जनसंख्या वृद्धि, आर्थिक विकास और परिवहन नेटवर्क जैसे विभिन्न कारक कैसे परस्पर क्रिया करते हैं और इन घटकों के बीच गतिशील संबंधों की जांच करना भी इसी का हिस्सा है।
तंत्र उपागम का उपयोग पर्यावरण तन्त्र, जैसे पारिस्थितिक तंत्र और भूदृश्य का अध्ययन करने के लिए भी किया जा सकता है। यह उपागम इस बात पर विचार करता है कि मानव गतिविधियाँ, जैसे कि भूमि उपयोग और संसाधन का दोहन, इन तंत्रों के स्वास्थ्य और कार्यप्रणाली को कैसे प्रभावित कर सकती हैं। यह इस बात की भी जांच करता है कि जलवायु परिवर्तन और अपरदन जैसी प्राकृतिक क्रियाएं पारिस्थितिक तंत्र और भूदृश्य को आकार देने के लिए मानव क्रियाओं से कैसे अंतक्रिया करती हैं।
अतः तंत्र उपागम के अंतर्गत किसी तंत्र की इकाई (तत्व) के विश्लेषण पर ही ध्यान नहीं दिया जाता है बल्कि सम्पूर्ण संरचना और उसकी कार्य प्रणाली की व्याख्या पर बल दिया जाता है। तंत्र उपागम से अध्ययन में बहुचर विश्लेषण (Multivariate Analysis) अधिक उपयोगी है। इसके लिए कम्प्यूटर जैसे आधुनिक उपकरण बहुत सहायक सिद्ध हो रहे हैं क्योंकि इनके द्वारा विविध तत्वों के पारस्परिक सम्बंधों तथा उनसे उत्पन्न प्रतिरूपों की व्याख्या सुगम हो जाती है।
भूगोल वेत्ता तंत्र का अध्ययन किसी न किसी रूप में बहुत पहले से ही करते आ रहे हैं किन्तु साधनों तथा उपकरणों की कमी के कारण इसकी उपदेयता अधिकतर सैद्धान्तिक स्तर तक ही सीमित थी। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दो-तीन दशकों में तंत्र उपागम के व्यावहारिक महत्व में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। बेरी (B. 1. L. Berry) आदि कुछ भूगोलवेत्ताओं ने तंत्र संकल्पना का उपयोग करके नवीन सैद्धांतिक माडलों का भी निर्माण किया है। वर्तमान समय में भूगोल में क्षेत्रीय संगठन (Spatial Organization) की संकल्पना के प्रयोग को अधिक महत्व दिया जा रहा है। इस प्रकार के अध्ययनों में तंत्र उपागम का प्रयोग एक सशक्त तथा आवश्यक उपकरण के रूप में किया जा सकता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्येक उपागम लोगों और उनके पर्यावरण के बीच जटिल संबंधों पर एक अद्वितीय या विशिष्ट दृष्टिकोण प्रदान करता है, और प्रत्येक ने मानव भूगोल के एक समृद्ध और विविध क्षेत्र के विकास में योगदान दिया है।
FAQs
मानव भूगोल केपांच उपागम निम्नलिखित हैं:
1. प्रत्यक्षवादी उपागम
2. व्यवहारपरक उपागम
3. मानववादी उपागम
4. क्रांतिपरक या मार्क्सवादी उपागम
5. कल्याणपरक उपागम
मानव भूगोल के अध्ययन में प्रत्यक्षवादी उपागम एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण है जो तथ्यों और अनुभवों पर आधारित होता है। यह मात्रात्मक विधियों और सांख्यिकीय विश्लेषण का उपयोग करता है।
मानव भूगोल के अध्ययन में तंत्र उपागम मानव और पर्यावरण के बीच जटिल संबंधों का अध्ययन करता है। यह प्रणाली और उसकी प्रक्रियाओं के विश्लेषण पर आधारित होता है।
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