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इस लेख के माध्यम से हम अपक्षय का अर्थ, परिभाषा एवं अपक्षय को प्रभावित करने वाले कारकों के बारे में जानेंगे।
अपक्षय (Weathering) का अर्थ
अपक्षय (Weathering) में चट्टानों के अपने स्थान पर टूटने-फूटने की क्रिया तथा उससे उस चट्टान विशेष या स्थान विशेष के अनावरण (uncover) की क्रिया को शामिल किया जाता है। अपक्षय की क्रिया में चट्टान-चूर्ण के परिवहन को शामिल नहीं किया जाता।
अपरदन की क्रिया के अंतर्गत अपक्षय की क्रिया में टूटे हुए चट्टानों के टुकड़ों के बहते जल (नदी), हिमनदी, वायु, भूमिगत जल तथा सागरीय लहर द्वारा परिवहन तथा टुकड़ों द्वारा आपस में रगड़ एवं उनके द्वारा कटाव की क्रिया को शामिल किया जाता है।
अनाच्छादन (denudation) में अपक्षय (Weathering) तथा अपरदन दोनों क्रियाओं को शामिल किया जाता है। इस प्रकार अपक्षय में केवल स्थैतिक क्रिया (static action) तथा अपरदन में गतिशील क्रिया (dynamic action) होती है। जबकि अनाच्छादन स्थैतिक तथा गतिशील दोनों क्रियाओं का योग है। स्थैतिक क्रिया का साधारण शब्दों में अभिप्राय चट्टानों के अपने स्थान पर टूट-फूट से है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अपक्षय चट्टानों के टूट-फूट की वह क्रिया है, जिसके अन्तर्गत चट्टानें विघटन तथा वियोजन द्वारा ढीली पड़कर तथा टूटकर अपने स्थान पर ही बिखर कर रह जाती हैं।
उपरोक्त परिभाषा के अनुसार अपक्षय (Weathering) की क्रिया के लिए दो आवश्यक तत्व होते हैं। प्रथम्, चट्टानों का विघटन (disintegration) तथा वियोजन (decomposition)। आइए इनका अर्थ समझते हैं:
वियोजन (decomposition): वियोजन भौतिक क्रियाओं जैसे ताप, तुषारपात (frost), जल आदि द्वारा चट्टानों के ढीले पड़ने को ‘विघटन’ कहते हैं
विघटन (disintegration): रासायनिक कारकों जैसे oxidation, hydration, carbonation आदि द्वारा चट्टानों के कमजोर तथा ढीले पड़ने को वियोजन कहते हैं।
अत: विघटन एवं वियोजन की क्रियाओं द्वारा चट्टानें ढीली पड़ जाती हैं तथा बाद में टूट कर बिखर जाती हैं।
अपक्षय (Weathering) की परिभाषाएं
आर्थर होम्स के अनुसार, “अपक्षय उन विभिन्न भूपृष्ठीय (subaerial) प्रक्रियाओं का प्रभाव है, जो कि चट्टानों के नष्ट होने तथा विघटन में सहायता प्रदान करती हैं, बशर्ते कि ढीले पदार्थों का बड़े पैमाने पर परिवहन न हो। ”
स्पार्क्स महोदय के अनुसार “पृथ्वी की सतह पर प्राकृतिक कारणों द्वारा चट्टानों के अपने ही स्थान पर यांत्रिक विधि द्वारा टूटने अथवा रासायनिक वियोजन की क्रिया को ‘अपक्षय’ कहा जाता है।’ |”
अत: उपरोक्त दोनों परिभाषाओं में आधार पर अपक्षय को निम्न शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है
“अपक्षय ताप, जल, वायु तथा प्राणियों का कार्य है जिनके द्वारा यांत्रिक तथा रासायनिक परिवर्तनों से चट्टानों में अपने स्थान पर ही टूट-फूट होती रहती है।” (Weathering is the work of wind, temperature, water and organisms that tend to break down the rocks by mechanical or physical and chemical change in situ). ।
अपक्षय (Weathering) को नियंत्रित करने वाले कारक
चट्टान का संगठन तथा संरचना
- क्योंकि अपक्षय की क्रिया में चट्टानों का विघटन तथा वियोजन होता है, अतः स्पष्ट है कि कमजोर तथा असंगठित चट्टानों में ये क्रियाएं आसानी से घटित हो सकती हैं। उदाहरण के लिए रंध्रपूर्ण (अधिक छिद्र वाली) तथा घुलनशील खनिजों से बनी चट्टानों जैसे चूनापत्थर तथा डोलोमाइट आदि का रासायनिक अपक्षय आसानी से एवं शीघ्रता से होता है।
- चट्टानों की परत की स्थिति का भी प्रभाव अपक्षय की सक्रियता पर पड़ता है। जिन चट्टानों में परतों की स्थिति धरातल के लम्बवत् या उर्ध्वाकार रूप में होती है, उनमें तापीय भिन्नता, तुषारपात, जल तथा हवा का प्रभाव शीघ्र होने लगता है तथा जैसे चट्टान ढीली पड़ती है, लम्बवत् स्तर के कारण उनमें टूट-फूट तथा गुरुत्व के कारण नीचे की ओर खिसकाव प्रारम्भ हो जाता है। इसके विपरीत यदि चट्टानों के स्तर क्षैतिज रूप में मिलते हैं, तो उनमें संगठन अधिक होता है तथा उनका विघटन एवं वियोजन आसानी से व शीघ्रता से नहीं हो पाता है।
- चट्टानों की संधियों (जोड़ों) का यांत्रिक अपक्षय पर सर्वाधिक प्रभाव होता है। शीतोष्ण कटिबन्धीय भागों में अधिक संधियों वाली चट्टान में तुषार के कारण फैलाव तथा संकुचन होता रहता है, जिस कारण विघटन शीघ्रता से प्रारम्भ हो जाता है। इसी प्रकार उष्ण भागों में तापीय अंतर के कारण (रात्रि तथा दिन में) इन संधियुक्त चट्टानों में फैलाव तथा संकुचन अधिक होने से विघटन होता रहता है।
स्थल के ढाल का स्वभाव
ढाल यांत्रिक अपक्षय तथा मुख्य रूप से अपक्षय से उत्पन्न चट्टान चूर्ण के सरकने को सर्वाधिक नियंत्रित करता है। यदि किसी भी स्थान में चट्टानी भागों का ढाल खड़ा है, तो यांत्रिक अपक्षय के कारण जरा भी विघटन होने से चट्टानों में ढीलापन आने से चट्टानों का शीघ्र टूटकर नीचे सरकना प्रारम्भ हो जाता है। यदि अपक्षय से उत्पन्न सामग्री का शीघ्र स्थानान्तरण हो जाता है, तो अपक्षय की गति और अधिक तेज हो जाती है। इसके विपरीत सामान्य ढाल वाले भागों में अपक्षय तीव्र रूप में नहीं हो पाता।
इसके कई कारण हैं। प्रथम यह कि सामान्य ढाल होने के कारण उत्पन्न सामग्री का स्थानान्तरण नहीं हो पाता है तथा दूसरा यह कि कम ढाल होने से चट्टानों का संगठन शीघ्रता से कमजोर नहीं हो पाता है।
जलवायु की विभिन्नता
जलवायु की विभिन्नता दो रूपों में अपक्षय (Weathering) की क्रिया पर अपना प्रभाव डालती है। एक तो यह कि धरातल के विभिन्न भागों में जलवायु की विभिन्नता के कारण अपक्षय में भिन्नता तथा उसकी सक्रियता (कार्य करने क दर) में पर्याप्त अन्तर मिलता है। उदाहरण के लिए उष्ण कटिबन्धीय आर्द्र भागों में अत्यधिक जल के कारण रासायनिक अपक्षय अधिक होता है।
उष्ण कटिबन्धीय आर्द्र भागों में आर्द्रता तथा ताप की अधिकता के कारण सभी प्रकार के लवण के अपक्षालक कार्य (leaching action) तथा घोलक कार्य अधिक सक्रिय होते हैं जिस कारण धरातलीय भागों में रासायनिक अपक्षय द्वारा अपक्षालन तथा घोलन (solution) अधिक होता है। यहाँ पर यांत्रिक अपक्षय नगण्य होता है।
इसके विपरीत उष्ण तथा शुष्क मरुस्थलीय जलवायु वाले भाग अर्थात् उष्ण कटिबन्धी मरुस्थलीय भागों में यांत्रिक अपक्षय अधिक होता क्योंकि चट्टानी भागों में दिन के अधिक तापमान तथा रात्रि के कम तापमान के कारण क्रमश: फैलाव तथा संकुचन होते रहने से विघटन आसान हो जाता है।
शुष्क शीतोष्ण कटिबन्धी जलवायु वाले प्रदेशों में भी रासायनिक अपक्षय की तुलना में यांत्रिक अपक्षय अधिक होता है क्योंकि चट्टानों की दरारों एवं संधियों में दिन के समय प्रवेश किया हुआ जल रात में जमकर ठोस हो जाता है तथा दिन में पुन: पिघलकर तरल हो जाता है। इस क्रिया की पुनरावृत्ति के कारण चट्टानें ढीली पड़ जाती हैं तथा विघटन प्रारम्भ हो जाता है।
शीत जलवायु वाले भागों में सभी प्रकार के अपक्षय प्रायः नगण्य होते हैं। क्योंकि धरातल पूर्ण रूप से जमकर बर्फ से ढक जाता है तो यांत्रिक एवं रासायनिक सभी प्रकार के अपक्षय स्थगित हो जाते हैं तथा यह क्रिया तभी सक्रिय हो पाती है जब कि बर्फ पिघल जाती है।
इन सब के अलावा एक ही स्थान पर जलवायु की वार्षिक विभिन्नता का भी प्रभाव अपक्षय (Weathering) की क्रिया पर अधिक होता है। उदाहरण के लिए मानसूनी गर्म प्रदेशों में वर्षाकाल में अधिक नमी तथा ताप के कारण रासायनिक अपक्षय अधिक होता है, परन्तु शुष्क ग्रीष्मकाल में यांत्रिक अपक्षय सक्रिय होता है।
वनस्पति का प्रभाव
किसी भी स्थान विशेष में वनस्पतियों की उपस्थिति तथा अनुपस्थिति का अपक्षय क्रिया पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव देखने को मिलता है। यहाँ पर यह बताना आवश्यक है कि वनस्पतियाँ आंशिक रूप में अपक्षय का कारण भी हैं तथा आंशिक रूप में अपक्षयके लिए अवरोधक भी हैं। क्योंकि एक तरफ तो वनस्पतियाँ अपनी जड़ों द्वारा चट्टानों को जकड़े रहती हैं जिससे चट्टानों का संगठन अधिक बढ़ जाता है। इसी प्रकार वनस्पतियों के आवरण से सूर्यातप आदि का प्रभाव आवरण के नीचे वाली चट्टानों पर नहीं हो पाता है। इस प्रकार जिन भागों में वनस्पतियों की स्थिति होती है, वहाँ पर अपक्षय (Weathering) सीमित होता है।
परन्तु दूसरी ओर वनस्पतियों के अभाव में स्थिति पूर्णतया विपरीत होती है। इस विषय में मतभेद है। वनस्पतियों की जड़ों में कई प्रकार के कीडे-मकोड़े होते हैं जो कि चट्टानों में धीरे-2 विघटन लाते रहते हैं तथा वृक्षों की जड़ों के चट्टानों में प्रवेश के कारण उनकी संधियाँ बड़ी हो जाती हैं, जिससे चट्टान ढीली पड़ जाती है तथा विघटन प्रारम्भ हो जाता है।
References
- भौतिक भूगोल, डॉ. सविन्द्र सिंह
अपक्षय वह प्रक्रिया है जिसमें चट्टानों का अपने स्थान पर टूटना और विघटन शामिल होता है, बिना किसी बाहरी कारक के हस्तक्षेप के। इसमें चट्टान टूटने-फूटने के बाद भी उसी स्थान पर बने रहती है।
अपक्षय में चट्टानों का अपने स्थान पर टूटना और विघटन शामिल है, जबकि अपरदन में इन टूटे हुए चट्टानों के टुकड़ों का जल, हिमनदी, वायु, और सागरीय लहरों के द्वारा परिवहन और कटाव शामिल है।
अपक्षय को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों में चट्टान का संगठन और संरचना, स्थल का ढाल, जलवायु की विभिन्नता, और वनस्पति शामिल हैं।
जलवायु अपक्षय की गति और प्रकार को प्रभावित करती है। उष्णकटिबंधीय आर्द्र क्षेत्रों में रासायनिक अपक्षय अधिक होता है, जबकि शुष्क क्षेत्रों में यांत्रिक अपक्षय अधिक होता है।
वनस्पति अपक्षय को आंशिक रूप से रोक सकती है क्योंकि उनकी जड़ें चट्टानों को पकड़कर रखती हैं। हालांकि, दूसरी ओर, वनस्पतियों की जड़ें चट्टानों में दरारें बढ़ा सकती हैं, जिससे चट्टानें ढीली पड़ जाती हैं और विघटन तेज हो सकता है।
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