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जहां एक ओर कुछ ज्वालामुखी बहुत तेज आवाज के साथ विस्फोटक रूप में धरातल पर प्रकट होते हैं, वहीं कुछ दूसरे ज्वालामुखी शान्त रूप में दरार के रूप में धरातल पर प्रकट होते हैं। जबकि कुछ ज्वालामुखी उद्गार के बाद जल्दी ही शान्त हो जाते हैं व कुछ काफी समय तक सक्रिय रहते हैं। इसी प्रकार कुछ ज्वालामुखी थोड़े समय के लिए शांत पड़ जाते हैं तथा कुछ ज्वालामुखी थोड़े समय के बाद पुन: जाग्रत हो जाते हैं। कुछ ज्वालामुखी से बहुत अधिक मात्रा में लावा आदि पदार्थ निकलते हैं, जबकि कुछ में अल्प मात्रा ही लावा आदि पदार्थ बाहर आते हैं।
इस प्रकार ज्वालामुखी के धरातल पर प्रकट होने के तरीके तथा उद्गार की अवधि (ज्वालामुखी कितनी देर तक सक्रिय रहता है) में अन्तर के कारण उन्हें कई रूपों में विभाजित किया जाता है। जिनका वर्णन नीचे किया जा रहा है।
नोट: यदि आप पहले नीचे दिए गए लेखों को पढ़ेंगें तो आपको इस लेख को समझने में आसानी होगी 1. ज्वालामुखी व ज्वालामुखी क्रिया में अंतर 2. ज्वालामुखी से निकलने वाले पदार्थ एवं ज्वालामुखी के अंग |
ज्वालामुखी के प्रकार (Types of Volcanoes)
ज्वालामुखी के उद्गार या ज्वालामुखी के धरातल पर प्रकट होने के तरीके के आधार पर ज्वालामुखी का वर्गीकरण
इस आधार पर ज्वालामुखी को दो वर्गो में बाँटा जाता है
(1) केन्द्रीय उद्भेदन वाले ज्वालामुखी (central eruption type)
(2) दरारी उद्भेदन वाले ज्वालामुखी (fissure eruption type)
उद्गार की अवधि (ज्वालामुखी कितनी देर तक सक्रिय रहता है) के आधार पर ज्वालामुखी का वर्गीकरण
(1) सक्रिय या जाग्रत ज्वालामुखी (active volcano)
(2) प्रसुप्त ज्वालामुखी (dormant volcano)
(3) शान्त ज्वालामुखी ( extinct volcano)
इस लेख में हम केवल ज्वालामुखी के उद्गार या ज्वालामुखी के धरातल पर प्रकट होने के तरीके के आधार पर ज्वालामुखी के वर्गीकरण का अध्ययन करेंगे।
(1) केन्द्रीय उद्भेदन वाले ज्वालामुखी (central eruption type)
वे ज्वालामुखी जिनके छिद्र (मुख) का व्यास कुछ सौ फीट से अधिक नहीं होता और आकार करीब-करीब गोल होता है तथा जिनसे गैस, लावा तथा अन्य विखण्डित पदार्थ अधिक मात्रा में विस्फोट के साथ आकाश में काफी ऊँचाई तक प्रकट होते हैं, ‘केन्द्रीय उद्गार वाले ज्वालामुखी’ कहलाते हैं।
इस प्रकार के ज्वालामुखी में उद्गार एक संकरी नली के सहारे करीब-2 गोल छिद्र से होता है । जब लावा के साथ गैस की मात्रा अधिक होती है तब ऊपरी दबाव कम होने पर ये गैसें बड़ी तीव्रता से भूपटल के नीचे भाग पर धक्के लगाती हैं और जहाँ कहीं भी धरातल कमजोर मिलता है, वहाँ पर गैसें इन्हें तोड़कर भयंकर आवाज करती हुई अत्यधिक तीव्रता के साथ धरातल पर प्रकट होती हैं ।
इसके परिणामस्वरूप लावा व अन्य पदार्थ बहुत ऊँचाई तक आकाश में चले जाते हैं तथा वाष्प, गैस एवं धुएं के कारण आकाश काले बादलों से ढक जाता है। थोड़ी देर बाद जब गसों का दबाव कम हो जाता है, लावा तथा अन्य विखण्डित पदार्थ धरातल पर इस प्रकार गिरने लगते हैं मानो चट्टानी टुकड़ों की वर्षा हो रही हो।
अत: इस प्रकार के ज्वालामुखी अधिक विनाशकारी होते हैं। इनके उद्गार से भयंकर भूकम्प आते हैं तथा यहाँ पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि सभी केन्द्रीय उद्गार वाले ज्वालामुखी एक समान ही भयंकर नही हुआ करते। इनके उद्गार में अन्तर, निकलने वाले पदार्थों की विभिन्नता एवं उद्गार की अवधि के अनुसार इन्हें कई उपविभागों में रखा जा सकता है। इस आधार पर लैक्रायक्स (lacroix) ने केन्द्रीय उद्भेदन वाले ज्वालामुखी को चार प्रकारों (हवाई, स्ट्राम्बोली, वलकैनो तथा पीली प्रकार) में विभाजित किया है। कुछ विद्वानों ने इन्हें 6 प्रकारों में वर्गीकृत किया है।
(i) हवाई तुल्य ज्वालामुखी
इस प्रकार के ज्वालामुखियों का उद्गार विस्फोटक नहीं होता तथा लावा व अन्य पदार्थ शान्त ढंग से धरातल पर प्रकट होते हैं। इसका प्रमुख कारण लावा का पतला होना तथा गैस की तीव्रता का कम होना है। इस कारण गैसें धीरे से लावा से अलग होकर भूपटल पर प्रकट हो जाती हैं। विखण्डित पदार्थ की मात्रा न के बराबर होती है। लावा पतला होने कारण दूर तक फैलकर एक पतली चादर के रूप में जमा हो जाता है।
ज्वालामुखी उद्गार के समय लावा के छोटे-छोटे लाल पिण्ड गैसों के साथ ऊपर उछाल दिए जाते हैं। जब वायु द्वारा ये लाल पिण्ड हवा में ही रोक लिए जाते हैं तो ऐसा लगता है कि आकाश में लावा पिण्ड केशों (hair) की तरह उड़ रहे हों । हवाई द्वीप के लोग इसे अपनी अग्निदेवी पीली (pelee) की केशराशि समझते हैं। इस तरह का उद्गार विशेषकर हवाई द्वीप पर होता है, कारण इस प्रकार के ज्वालामुखियों का नामकरण ‘हवाई प्रकार के ज्वालामुखी’ किया गया है।
(ii) स्ट्राम्बोली तुल्य ज्वालामुखी
इस तरह का ज्वालामुखी हवाई प्रकार के जवालामुखी की अपेक्षा कुछ अधिक तीव्रता से प्रकट होता है। जब कभी गैसों के मार्ग में रुकावट हो जाती है तो कभी-कभी विस्फोटक उद्गार भी होते हैं। इस प्रकार के ज्वालमुखी से निकलने वाले लावा में एसिड की मात्रा कम होती है, फिर भी हवाई प्रकार के जवालामुखी की अपेक्षा यह अधिक पतला एवं हलका नहीं होता है।
स्ट्राम्बोली तुल्य ज्वालामुखी तरल लावा के अतिरिक्त कुछ विखण्डित पदार्थ, जैसे ज्वालामुखी धूल, झामक (pumice), अवस्कर (scoria) तथा ज्वालामुखी बम भी उद्गार के समय निकलते हैं, जो अधिक ऊँचाई पर जाकर पुनः ज्वालामुखी क्रेटर में गिर जाते हैं। इस प्रकार का उद्गार भूमध्य सागर में सिसली द्वीप के उत्तर में स्थित लिपारी द्वीप के स्ट्राम्बोली ज्वालामुखी में पाया जाता है तथा इसी के नाम पर इस तरह के उद्गार वाले ज्वालामुखियों को ‘स्ट्राम्बोली तुल्य ज्वालामुखी’ कहते हैं।
(iii) वलकैनो तुल्य ज्वालामुखी (Vulcanian Type of Volcano)
वलकैनो प्रकार का ज्वालामुखी विस्फोट एवं भयंकर उद्गार के साथ धरातल पर प्रकट होता है। इससे निकलने वाला लावा इतना चिपचिपा एवं लसदार (viscous & pasty) होता है कि दो उद्गारों के बीच यह ज्वालामुखी छिद्र पर जमकर उसे ढक लेता है। इस तरह गैसों के मार्ग में अवरोध हो जाता है। परिणामस्वरूप गैसें अधिक मात्रा में एकत्रित होकर तीव्रता से ऊपर वाले अवरोध को उड़ा देती हैं तथा भयंकर रूप में आकाश में अधिक ऊंचाई तक प्रकट होती हैं।
इस ज्वालामुखी के फटने पर बदल काफी दूरी तक छा जाते हैं। इनका आकार प्राय: फूलगोभी के रूप में होता है। इस तरह के उद्गार से एसिड से लेकर पैठिक (बेसिक) सभी प्रकार का लावा निकलता है। इस प्रकार ज्वालामुखी का नामकरण भूमध्य सागर स्थित लिपारी द्वीप के प्रसिद्ध ज्वालामुखी वलकैनो (Vulcano) के आधार पर किया गया है।
(iv) पीलियन तुल्य ज्वालामुखी
पीलियन प्रकार के ज्वालामुखी सबसे अधिक विनाशकारी होते हैं तथा इनका उद्गार सबसे अधिक विस्फोटक एवं भयंकर होता है। इनसे निकला लावा सबसे अधिक चिपचिपा तथा लसदार होता है। उद्गार के समय ज्वालामुखी नली में लावा की कठोर पट्टी जमा हो जाती है तथा अगले उद्गार के समय भयंकर गैसें इन्हें तीव्रता से तोड़कर आवाज करती हुई धरातल पर प्रकट होती हैं।
8 मई, सन् 1902 ई० को पश्चिमी द्वीपसमूह के मार्टिनिक द्वीप पर पीली (pelee) ज्वालामुखी का भयंकर उद्भेदन हुआ था। इसी आधार पर अत्यधिक विस्फोटक उद्गार वाले ज्वालामुखियों को ‘पीली तुल्य ज्वालामुखी’ कहते हैं।
(v) विसूवियस तुल्य ज्वालामुखी
विसूवियस प्रकार के ज्वालामुखी वलकैनियन प्रकार की तरह के होते हैं। अन्तर केवल इतना होता है कि गैसों की तीव्रता के कारण लावा पदार्थ आकाश में अधिक ऊँचाई तक पहुँच जाते हैं’। ज्वालामुखी बादल का आकार फूलगोभी के समान होता है। जब विस्फोटित पदार्थ काफी ऊँचाई तक पहुँच जाते हैं तो गैस एवं वाष्प से बने ज्वालामुखी बादल गोलाकार हो जाता है।
इस प्रकार का उद्भेदन 79 ई० में विसूवियस में हुआ था, जिसका प्रथम पर्यवेक्षण प्लिनी महोदय ने किया था। इस आधार पर प्लिनी के नाम पर ऐसे उद्गार वाले ज्वालामुखी को ‘प्लिनियन प्रकार’ (Plinian-type) का ज्वालामुखी भी कहते हैं।
(2) दरारी उद्गार वाले ज्वालामुखी (fissure volcano)
जब लावा के साथ गैस की मात्रा अधिक नहीं होती तब धरातल में दरार पड़ जाने के कारण लावा शान्त रूप में बहकर धरातल के ऊपर जमा होने लगता है। कभी- कभी लावा की मात्रा इतनी अधिक होती है कि धरातल के ऊपर लावा की मोटी परत जमा हो जाती है, जो कि जमने से ठोस होकर लावा मैदान अथवा लावा पठार का रूप धारण करती है।
संयुक्त राज्य अमेरिका का कोलम्बिया का पठार, प्रायद्वीपीय भारत का लावा प्रदेश इसी प्रकार के ज्वालामुखी उद्गार से निकले लावा के जमने से बना हुआ माना जाता है। केन्द्रीय उद्गारवाले ज्वालामुखी तथा इनमें सबसे बड़ा अन्तर यह होता है कि दरारी उद्गार में लावा ज्वालामुखी छिद्र से न होकर एक लम्बी दरार से निकलता है। दूसरे, गैस तथा विखण्डित पदार्थ की मात्रा बहुत कम होती है । हालांकि दरारी उद्गार वाले ज्वालामुखी पृथ्वी के इतिहास में बहुत ही कम हुए हैं।
सन् 1783 में आइसलैंड में एक 27 किमी० लम्बी दरार से होकर लावा का उद्गार हुआ था, जिसका फैलाव लगभग 348 किमी० की लम्बाई तक हुआ था । इससे आइसलैंड की जनसंख्या का पांचवां भाग नष्ट हो गया था। दरारी उद्गार वाले ज्वालामुखी क्रीटैसियस युग में बड़े पैमाने पर हुए थे, जिनके लक्षण भूपटल के अधिकांश भागों पर देखे जा सकते हैं। प्रारम्भ में जबकि पृथ्वी शीतल हो रही थी, उस समय भूपटल (crust) काफी पतला था, जिस कारण उसमें दरार पड़ना आसान था । यही कारण है कि पृथ्वी प्रारम्भिक इतिहास में दरारी उद्गार अधिक हुए, पर अब उनकी कमी पाई जाती है।
उद्गार की अवधि (ज्वालामुखी कितनी देर तक सक्रिय रहता है) के आधार पर ज्वालामुखी का वर्गीकरण
References
- भौतिक भूगोल, डॉ. सविन्द्र सिंह
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