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मृदा संरक्षण (Soil Conservation) में उन सभी उपायों को किया जा सकता है, जिनसे मृदा अपरदन पर नियंत्रण पाया जा सके और साथ ही मिट्टी का ऊपजाऊपन भी वापस लाया जा सके। इस तरह के उपाय निम्नलिखित हो सकते हैं
(अ) स्थानीय या व्यक्ति स्तर के लघु उपाय
(ब) बड़े क्षेत्र पर बड़ी लागत वाले सरकारी स्तर पर किए गए बृहत् उपाय
(स) अतिरिक्त उपाय
मृदा संरक्षण (Soil Conservation) के उपाय
(अ) लघु उपाय (Small Measures)
लघु उपायों में निम्नलिखित उपाय शामिल किए जा सकते हैं
- वनरोपण
- समोच्च रेखी कृषि या पहाड़ी क्षेत्रों में सीढ़ीदार खेती, ठूँठ एवं घासपात का उपयोग
- कृत्रिम खादों और उर्वरकों के उपयोग से मृदा की सम्बद्धता में वृद्धि
- अवनालिका रोधन
- अधिक पशुचारण और झूम कृषि पर नियंत्रण
- शुष्क और अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में वायु वेग तथा वायु अपरदन में रुकावट के लिए सुरक्षापेटियों का निर्माण
- पौधों और घासों को लगाकर बालुका स्तूपों का स्थिरीकरण
- खेती में एकान्तर तकनीक का उपयोग
- शुष्क कृषि को लोकप्रिय बनाना और वैज्ञानिक शस्य आवर्तन विधि को अपनाना
(ब) बृहत् उपाय (Large Measures)
इसके अन्तर्गत प्रदेशों और केन्द्र सरकारों द्वारा मृदा अपरदन को रोकने और भूमि सुधार हेतु जारी की गई बड़ी योजनाओं को शामिल किया जाता है। इसमें कुछ का उल्लेख नीचे किया जा रहा है
बीहड़ और उत्खात भूमि उद्धार
मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात और राजस्थान में बीहड़ और उत्खात भूमि उद्धार हेतु बड़े पैमाने पर योजनाओं को क्रियान्वित करने की जरूरत है। ऐसी कई योजनाएँ जिनमें अवनालिका मुख रोधन, अवनालिका बन्धन, धरातल समतलन, वनरोपण, अति पशुचारण पर रोक आदि सम्मिलित हैं इन राज्यों में क्रियान्वित हैं। विश्व बैंक ने मध्य प्रदेश को लगभग 1 लाख हे० बीहड़ भूमि के उद्धार हेतु 300 मिलियन रुपये की सहायता दी है।
बाढ़ नियंत्रण
भारत में मृदा अपरदन की समस्या बहुत कुछ बाढ़ों और जल-लग्नता की समस्या से जुड़ी है। यह मुख्य रूप से मौसमी और मूसलाधार वर्षा के कारण है। यदि इस अतिरिक्त वर्षा जल के संग्रहण की व्यवस्था की जाए तो न केवल इससे बाढ़ों पर नियंत्रण हो सकेगा वरन् इसका उपयोग शुष्क ऋतु में और शुष्क क्षेत्रों में सिंचाई हेतु तथा अतिरिक्त विद्युत उत्पादन हेतु किया जा सकेगा।
इसके लिए बड़ी व्यावर्तक (diversion) वाहिकाओं, बड़े जलाशयों और बाँधों के निर्माण की जरूरत होगी जिसमें बड़ा खर्च आएगा। प्रेक्षणों से पता चला है कि जब उत्तर भारत की नदियों में भारी बाढ़ होती है, तब दक्षिण भारत की नदियाँ इससे मुक्त होती हैं। इस प्रकार उत्तर भारत की बाढ़ के इस अतिरिक्त जल को दक्षिण भारत की ओर मोड़ा जा सकता है। इस दिशा में माला नहर योजना, गंगा-कावेरी योजक नहर योजना आदि प्रस्ताव सामने आए हैं जो धनाभाव के कारण क्रियान्वित नहीं हो पा रहे हैं।
वनरोपण
बहते हुए जल और वायु द्वारा होने वाले मृदा अपरदन को रोकने के लिए वनरोपण एक कारगर उपाय है। इन पेड़ों को सड़कों, नहरों, नदी तटों, मरुस्थल की सीमाओं, बीहड़ और बंजर भूमि के क्षेत्रों में लगाया जा सकता है। इस प्रकार के वृक्षारोपण कार्यक्रमों को स्थानीय, सामुदायिक, प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर संचालित किया जा सकता है। वृक्षारोपण के साथ-साथ वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई पर भी प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए। चिपको आन्दोलन के रूप में जन जागरूकता, जलाऊ लकड़ी सस्ते विकल्प इस दिशा में कारगर हो सकते हैं।
पुरानी परती भूमि का पुनरुद्धार
देश में कुल 101 लाख हे० पुरानी परती भूमि है जिसमें से लगभग 80 लाख हे० केवल आठ राज्यों (आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु, बिहार और उत्तर प्रदेश) में पाई जाती है। 1982-83 में पुरानी परती भूमि के पुनरुद्धार हेतु इन आठ राज्यों में एक कार्यक्रम की शुरुआत की गई जिसे बाद में 5 और राज्यों (असम, गुजरात, मेघालय, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल) में फैला दिया गया। एक अनुमान के अनुसार लगभग 9.66 लाख हे० परती भूमि का इन राज्यों में उत्पादक कार्यों हेतु पुनरुद्धार कर लिया गया है।
झूम कृषि पर नियंत्रण
झूम कृषि पर नियंत्रण हेतु एक योजना की शुरुआत उत्तर-पूर्व के सात राज्यों में की गयी है। यह एक लाभग्राही कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य प्रत्येक झुमिया परिवार को स्थायी तौर पर एक हेक्टेयर सीढ़ीदार कृषि क्षेत्र और एक हेक्टेयर बागबानी क्षेत्र देकर पुनः बसाना है। आठवीं पंचवर्षीय योजना में इसके लिए कुल 45 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। इस कार्यक्रम को अन्य राज्यों में भी लागू करने और झूम कृषि को स्थायी कृषि में बदलने की आवश्यकता है।
क्षारीय (ऊसर ) भूमि का उद्धार
यह एक केन्द्र द्वारा चलाई जाने वाली योजना है जिसे सातवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में लागू किया गया था। इसे अब गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी विस्तारित कर दिया गया है। इसके अन्तर्गत सुनिश्चित सिंचाई, भूमि समतलन, गहन जुताई, सामूहिक अपवाह प्रणाली, भूमि सुधार, जैव उर्वरकों के प्रयोग आदि कार्यक्रमों को सम्मिलित किया गया है।
इस योजना में खर्च का आधा-आधा बँटवारा केन्द्र और सम्बन्धित राज्य सरकार द्वारा वहन किया जाता है। वर्ष 1995-96 तक इसके तहत 59.67 करोड़ रुपये की केन्द्रीय सहायता से 4.32 लाख हे० भूमि का उद्धार किया गया है। लवणता और क्षारीयता की समस्या के समाधान हेतु इस योजना को अन्य राज्यों में भी लागू करने की आवश्यकता है।
(स) अतिरिक्त उपाय (Additional Measures)
मृदा संरक्षण (Soil Conservation) के उद्देश्य की पूर्ति मृदा के दुरुपयोग रोकने, मृदा के क्षय एवं नुकसान को नियन्त्रित करने और मिट्टी की उर्वरता को सुरक्षित करने से होती है। इसे निम्न प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष विधियों के उपयोग से भी प्राप्त किया जा सकता है
- बड़ी नदियों की सहायक नदियों पर बाढ़ और मृदा अपरदन नियंत्रण हेतु छोटे बांधों का निर्माण करके
- नहरों में जल रिसाव से बचाव हेतु और जल लग्नता तथा भौम जल तल में उत्थान को नियंत्रित करने के लिए उनकी तली और किनारों को पक्का करके
- धरातलीय और लम्बवत अपवाह के विस्तार द्वारा जल लग्नता की समस्या का समाधान करके
- मरु भूमियों में वायु विच्छेदों और सुरक्षा पेटियों का निर्माण करके
- वैज्ञानिक विधियों (जिप्सम आदि का प्रयोग) का उपयोग कर क्षारीय मिट्टियों का पुनरुद्धार करके
- वनस्पति रहित क्षेत्रों में रासायनिक उर्वरकों के साथ- साथ जैव उर्वरकों के उपयोग में वृद्धि करके
- खाद के रूप में गोबर और वनस्पति के उपयोग को लोकप्रिय बना करके
- मानव अपशेष और नगरीय कचरे को खाद में परिवर्तित करके
- वैज्ञानिक शस्य आवर्तन और परती छोड़कर मृदा उर्वरता का संरक्षण करके
- अवनालिकाओं का भराव एवं ढलवाँ सतह के सहारे वेदिकाओं का निर्माण करके
- बीहड़ क्षेत्रों का समतलन और इन क्षेत्रों में मिट्टी को बांधने वाले पौधों का रोपण करके
- झूम कृषि क्षेत्रों का आधुनिक स्थायी कृषि क्षेत्रों में परिवर्तित करके
- शुष्क और पहाड़ी क्षेत्रों में वृक्षारोपण और अत्यधिक पशुचारण पर प्रतिबन्ध लगा करके
- पोषणीय कृषि की नयी तकनीकों को अपना करके
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