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भ्रंशन की क्रिया से धरातल का कुछ भाग ऊपर उठ जाता है व कुछ भाग नीचे धँस जाता है, जिससे विभिन्न प्रकार के स्थलरूपों (landforms) का निर्माण होता है। होर्स्ट (horst), ग्राबेन (graben द्रोणिका), तथा रिफ्ट घाटी (भ्रंश घाटी) भ्रंशन द्वारा बने स्थलरूपों में महत्वपूर्ण हैं। हम इस लेख में केवल रिफ्ट घाटी का ही वर्णन करेंगे।
नोट: इस लेख को अच्छे से समझने के लिए पहले नीचे दिए गए लेखों को अवश्य पढ़ें। 1. भ्रंश एवं संबंधित शब्दावली 2. भ्रंश के प्रकार |
रिफ्ट घाटी या ग्राबेन क्या है?
जब किसी स्थान पर कई किलोमीटर की लम्बाई में फैले दो सामान्य भ्रंशों (Normal Faults) के बीच का भाग नीचे धँस जाता है, तब एक बेसिन या घाटी का निर्माण हो जाता है जिसे ‘रिफ्ट घाटी’ या ‘ग्राबेन’ (graben) कहा जाता है। रिफ्ट घाटी का निर्माण उस समय भी हो सकता है जब सामान्य भ्रंशों (Normal Faults) के बीच का भाग स्थिर रहे और अगल-बगल वाले भाग ऊपर उठ जाएं।
‘ग्राबेन’ जर्मन भाषा का शब्द है, जो एक घाटी का बोध कराता है। वैसे ग्राबेन तथा रिफ्ट घाटी में इतना ही अन्तर होता कि ग्राबेन, रिफ्ट घाटी से आकार में छोटी होती है। सामान्यतया रिफ्ट घाटी लम्बी व संकरी किन्तु अधिक गहरी होती है।
रिफ्ट घाटी के उदाहरण
रिफ्ट घाटी का सबसे अच्छा उदाहरण राइन नदी की रिफ्ट घाटी जो कि बसेल व बिन्जेन नगरों (जर्मनी) के बीच 320 किलोमीटर की लम्बाई तथा 32 किलोमीटर की चौड़ाई में फैली है। इस घाटी के एक तरफ बासजेस तथा हार्ज पर्वत तथा दूसरी ओर ब्लैक फारेस्ट तथा ओडेनवाल्ड पर्वतों का विस्तार है जो कि होर्स्ट या ब्लाक पर्वतों के उदाहरण हैं।
संसार की सबसे लम्बी रिफ्ट घाटी वह है जो कि जार्डन नदी की घाटी, लाल सागर के बेसिन से होती हुई जाम्बेजी नदी तर् 4800 किलोमीटर की लम्बाई में फैली है। कुछ रिफ्ट घाटियां तो इतनी गहरी हो गई हैं कि उनकी तली सागर तल से नीचे पाई जाती है । दक्षिणी कैलिफोर्निया की डेथ वैली (मृत्यु घाटी) इस तरह की ग्राबेन की प्रमुख उदाहरण हैं।
एशिया का मृत सागर (Dead Sea) भी रिफ्ट घाटी का एक अन्य महत्वपूर्ण उदाहरण है, जिसका तल सागर की सतह से 866.93 मीटर नीचा है। जार्डन घाटी का तल भी सागर की सतह से 433.3 मीटर नीचे है। इस ग्राबेन की गहराई 1.6 किलोमीटर है। रिफ्ट घाटी या ग्राबेन के उदाहरण न केवल भूपटल की सतह पर मिलते हैं वरन् सागर तली में भी मिलते है।
संसार की सबसे गहरी ग्राबेन के उदाहरण महासागरों के गर्तों (deeps) में पाए जाते हैं। जैसे क्यूबा के दक्षिण में बार्टलेट ट्रफ (खाई) सागर तल से भी 4.8 किलोमीटरं गहरी है। संसार का सबसे गहरा फिलीपाइन गर्त 10.47 किमी० तक गहरा है। स्काटलैण्ड का मध्यवर्ती मैदान, दक्षिण आस्ट्रेलिया की स्पेन्सर की खाड़ी आदि रिफ्ट घाटियों के ही उदाहरण हैं। भारत में नर्मदा नदी की घाटी भी रिफ्ट घाटी का उदाहरण प्रस्तुत करती है।
इनको भी देखें 1. वलन के प्रकार 2. विश्व की प्रमुख लौह-अयस्क खानें |
रिफ्ट घाटी की उत्पत्ति सम्बन्धी परिकल्पनाएं
रिफ्ट घाटी की उत्पत्ति से संबंधित विचार समय -2 पर विभिन्न विद्वानों प्रस्तुत किए जाते रहे हैं। रिफ्ट घाटी की संरचना इतनी जटिल है कि आज तक इसकी उत्पत्ति से संबंधित किसी भी सिदधांत का प्रतिपादन नहीं हुआ है। जो विचार रखे गए हैं वे परिकल्पनाओं पर आधारित हैं जिनको दो वर्गों में रखा गया है –
1. तनावमूलक-परिकल्पना
2. संपीडनात्मक परिकल्पना
तनावमूलक परिकल्पना (tensional hypothesis)
रिफ्ट घाटी के निर्माण से संबंधित शताब्दियों पहले जो विचार दिए गए, उसके ठीक उल्ट मेहराब (arch) के बीच पत्थर या ईंट (key stone) के गिरने से बने रिक्त स्थान के रूप में रिफ्ट घाटी की उत्पत्ति की परिकल्पना की गई थी । अर्थात् किसी भवन के मेहराब (arch) के बीच वाले सबसे ऊपरी भाग में स्थित पत्थर या ईंट जब मेहराब में दरार के कारण नीचे की ओर सरकती है तो बीच में रिक्त स्थान बन जाता है। इसी तरह धरातल पर चट्टानों में तनाव के कारण दो खंडों के विपरीत दिशा में खिसकने के कारण उनके बीच का भाग जब नीचे धँस जाता है, तो रिक्त स्थान का निर्माण होता है। इसे ही रिफ्ट घाटी कहते हैं।
लेकिन इस परिकल्पना की कड़े शब्दों में आलोचना की गई, क्योंकि यह कई गलत अवधारणाओं पर आधारित है। उदाहरण के लिए भवन के मेहराब के नीचे खली स्थान होता है, अतः बीच का पत्थर आसानी से नीचे सरक सकता है किन्तु धरातलीय चट्टानों के नीचे रिक्त स्थान नहीं होता। अतः बीच वाले चट्टानी भाग को नीचे सरकने में कठिनाई होगी। यह तभी नीचे धँस सकता है, जबकि यह नीचे स्थित मैगमा को विस्थापित करने में समर्थ हो ।
यदि चट्टानी भाग द्वारा मैगमा का विस्थापन संभव है तो रिफ्ट घाटी के निर्माण के समय ज्वालामुखी क्रिया होनी चाहिए, क्योंकि विस्थापित मैगमा ऊपर आने का प्रयास करेगा। और आकस्मिक घटना के रूप में रिफ्ट घाटी के समय ज्वालामुखी का उद्गार होना चाहिए, परन्तु यह सदैव आवश्यक नहीं है, क्योंकि अनेक रिफ्ट घाटियों में ज्वालामुखी क्रिया के कोई प्रमाण नहीं मिलते।
अनेक पर्यवेक्षणों तथा प्रयोगों के आधार पर यह बताया गया है कि रिफ्ट घाटी के निर्माण के समय सक्रिय ज्वालामुखी क्रियाएँ स्थगित हो गयी थीं। यह तभी हो सकता है जब कि लावा के निकलने का मार्ग बन्द हो गया होगा। यदि तनाव द्वारा विस्तार के कारण रिफ्ट घाटी का निर्माण होता तो लावा का निकलना बन्द नहीं हो सकता। इसके विपरीत संपीडन द्वारा संकुचन होने से ही लावा का निकलना बन्द हो सकता है। इस आधार पर वर्तमान समय में तनावमूलक परिकल्पना को मान्यता नहीं है।
संपीडनात्मक परिकल्पना (compressional hypothesis)
तनाव के कारण रिफ्ट घाटी की उत्पत्ति में आने वाली समस्याओं को दूर करने के लिए कुछ विद्वानों ने संपीडनात्मक परिकल्पना का प्रतिपादन किया है। इनमें प्रमुख हैं – वेलैण्ड, बेली बिलिस, वारेन डी० स्मिथ तथा बलार्ड।
वेलैण्ड नामक विद्वान ने अलबर्ट झील व रुवेन्जोरी खंड (युगांडा एवं कांगो की सीमा पर स्थित) का तथा बेली बिलिस ने मृत सागर का अध्ययन करने के बाद कहा कि रिफ्ट घाटियों का निर्माण तनाव से न होकर गहराई वाले दाब के कारण होता है। संपीडन के कारण उत्क्रम भ्रंश (thrust fault) के सहारे किनारे वाले खंड (horst) ऊपर की ओर सरकते हैं। इन्हें अधिक्षेपण रिफ्ट ब्लाक (over thrusting rift block) कहते हैं।
इस तरह ऊपर उठते हुए किनारों के कारण उत्पन्न दाब के फलस्वरूप बीच का भाग नीचे की ओर सरकता है। इसे ‘रिफ्ट ब्लाक’ (rift block) कहते हैं। यह रिफ्ट ब्लाक ऊपर की ओर संकरा होता है तथा नीचे की ओर क्रमशः चौड़ा होता जाता है । ऊपर उठी इन किनारों वाली दिवारों से चट्टानों के टुकड़ों का सर्पण (slumping) होता है। इस कारण ऊपर उठी दीवारें सामान्य भ्रंश के समान लगती हैं जो कि सोपानकार होती हैं। वास्तव में यह भ्रंश उत्क्रम भ्रंश होता है।
बलार्ड की परिकल्पना
बलार्ड महोदय ने सन् 1933- 34 ई० में ‘गुरुत्व सर्वेक्षण’ के समय रिफ्ट घाटी की उत्पत्ति से संबंधित नए विचार दिए। इन्होंने बताया कि रिफ्ट घाटी का रिफ्ट ब्लाक गुरुत्व के कारण मेहराब के की स्टोन (बीच वाला भाग) के समान नीचे नहीं सरक सकता । अतः रिफ्ट घाटी का निर्माण केवल दोनों पाश्र्व से संपीडन द्वारा हो सकता है। इस तरह बलार्ड ने भी संपीडनात्मक परिकल्पना का ही प्रतिपादन किया है फिर भी बिलिस तथा वेलैण्ड के विचारों से अलग अपने ने विचारों की व्याख्या की।
इस परिकल्पना द्वारा रिफ्ट घाटी की अनेक समस्याओं का निवरण हो जाता है। बलार्ड के अनुसार रिफ्ट घाटी का निर्माण एक बार में नहीं हो जाता है वरन् कई क्रमिक अवस्थाओं में होता है । प्रथम अवस्था में दृढ़ भूपटल के पठारी क्षेत्र की चट्टानों के स्तरों में क्षैतिज संचलन द्वारा संपीडन होता है। इस रूप में क्षैतिज बल (horizontal force) स्थलखंड के दोनों किनारों से आमने- सामने कार्य करते हैं। इस पार्श्ववर्ती संपीडन (lateral compression) के कारण स्थलखंड में सिकुड़न (buckling) होने लगता है। जैसे-जैसे पार्श्ववर्ती संपीडन के कारण दाब बढ़ता जाता है, चट्टानों में सिकुड़न बढ़ता जाता है। जब सम्पीडन अत्यधिक हो जाता है तो चट्टान में एक स्थान पर चटकन (crack) हो जाती है।
संपीडन के बढ़ते जाने से चटकन बढ़ती जाती है। समय के साथ एक भाग दूसरे भाग पर चढ़ जाता है। इसे उत्क्षेपित खण्ड कहते हैं तथा यह प्रक्रिया उत्क्रमण या क्षेपण (thrusting) कहलती है। जो दूसरा भाग नीचे ‘चला जाता है,उसे अधः क्षेपित खण्ड कहते हैं तथा यह प्रक्रिया ‘अधः क्षेपण’ कहलती है।
उत्क्षेपित खण्ड की दीवार जब कुछ हजार मीटर तक ऊँची हो जाती है तो संपीडन के कारण अधः क्षेपित खण्ड में भी किसी स्थान पर चटकन आ जाती है जो अधःक्षेपित खंड के उच्चतम बिन्दु पर होती है। धीरे-धीरे यह चटकन भी विभंग तथा दरार में परिवर्तित हो जाती है। दबाव के बढ़ जाने से अधःक्षेपित खण्ड की दरार भी चौड़ी हो जाती है जिस कारण उसका एक भाग दूसरे पर चढ़ जाता है।
इस तरह से दो उत्क्षेपित खंडों के बीच अध:क्षेपित खंड ‘रिफ्ट घाटी’ का निर्माण होता है। बलार्ड महोदय ने रिफ्ट घाटी की चौड़ाई के विषय में बताया है कि यह (चौड़ाई) चट्टान की लोचकता (elasticity) तथा गहराई और अधः स्तर के घनत्व पर आधारित होती है। यदि अधः स्तर का घनत्व 3.3 मान लिया जाय तो 20 किमी० गहराई पर रिफ्ट घाटी की चौड़ाई 39 किमी० होगी। इसी तरह 40 किमी० की गहराई पर चौड़ाई 65 किमी० होगी।
इस तरह से बलार्ड महोदय ने सफलतापूर्वक रिफ्ट घाटी की उत्पत्ति तथा उसकी विभिन्न समस्याओं को सुलझाने का तर्कसंगत प्रयास किया है। वर्तमान समय तक रिफ्ट घाटी की कई समस्याओं का निदान न तो तनावमूलक परिकल्पना से हो पाया है, न तो संपीडनात्मक परिकल्पना से ही। इस क्षेत्र में और अधिक शोध की आवश्यकता है।
References
- भौतिक भूगोल, डॉ. सविंद्र सिंह
- भूआकृतिक विज्ञान, बी. सी. जाट
- भूगोल, डी. आर. खुल्लर
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