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प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त (Plate Tectonic Theory)

Estimated reading time: 21 minutes

Table of contents

प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त (Plate Tectonic Theory)

इस लेख को पढ़ने के बाद हम :

  • यह जान सकेंगे कि प्लेट क्या होती है ?
  • यह पूरा स्थलमण्डल कितनी प्लेटों से बना है ?
  • प्लेटों में संचलन कैसे होता है ?
  • प्लेट विवर्तनिकी किन कारणों से होती है ?
  • प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त (Plate Tectonic Theory) क्या है ?
  • प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त से किस तरह पर्वत निर्माण, भूकम्प, ज्वालामुखियों के बारे में पता लगता है।

प्लेट क्या होती है ?

पृथ्वी की बाह्य ठोस और कठोर परत को भू-पृष्ठ कहा जाता है। इसकी मोटाई सब जगह एक समान नहीं है। यह महासागरों के नीचे कहीं केवल 5 किलोमीटर मोटी है, परन्तु कुछ पर्वतों के नीचे इसकी मोटाई 70 किलोमीटर तक है। भू-पृष्ठ के नीचे सघन शैलें पाई जाती हैं, जिन्हें मेंटल (Mantle) कहते हैं। मेंटल का उपरी भाग धरातल से औसतन 100 किलोमीटर की गहराई तक ठोस है। 

यह ठोस मेंटल तथा उपरी भू-पृष्ठ मिलकर तुलनात्मक रूप से एक कठोर खंड का निर्माण करते हैं जिसे स्थलमंडल कहा जाता है। मेंटल 100 से 250 किलोमीटर की गहराई के बीच आंशिक रूप से पिघला हुआ है। इस क्षेत्र को दुर्बलता मण्डल कहते हैं। स्थलमण्डल कई खण्डों में विभाजित है। इन खंडों को ही प्लेट कहते हैं। ये प्लेट दुर्बलता मण्डल के ऊपर तैर रहे हैं। 

स्थलमण्डल कितनी प्लेटों से बना है ?

स्थलमण्डल सात मुख्य प्लेटों से बना है। इन मुख्य प्लेटों के अतिरिक्त कुछ छोटी-छोटी प्लेट हैं जिनकी संख्या लगभग 20 है। इनमें से कुछ छोटी मुख्य प्लेट इस प्रकार हैं – अरबी प्लेट, फिलीपीनी प्लेट, कोकोस प्लेट, नाजका प्लेट, कैरेबियन प्लेट, स्कोशिया प्लेट, कैरोलीना प्लेट, जुआन डी प्यूका प्लेट। पूरी पृथ्वी का निर्माण इन मुख्य और छोटे (गौण) प्लेटों से हुआ है।

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प्रमुख एवं गौण प्लेटें

प्लेटों की विशेषताएँ

प्लेट विर्वतनिकी पृथ्वी पर भूमि और जल के वितरण को समझने का एक तरीका है। विवर्तनिकी प्लेटों का एक प्रकार से संचलन है। इस संचलन से आंतरिक शक्तियों को समझाया गया है, जो कि भू-पृष्ठ के वितरण, पर्वत श्रृंखलाओं के निर्माण और भूकम्प तथा ज्वालामुखीं के वितरण के लिए उत्तरदायी है। पृथ्वी पर जो ये प्लेटें पाई जाती हैं इनकी कुछ विशेषताएं हैं जिनमें कुछ मुख्य इस प्रकार हैं- 

1. प्लेट ठोस चट्टान का वह विशाल और अनियमित खण्ड है, जो महाद्वीपों व महासागरीय स्थलखण्डों से मिलकर बना है। एक प्लेट को महाद्वीप या महासागरीय प्लेट भी कहा जा सकता है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि उस प्लेट का अधिकतर भाग महाद्वीप से सम्बद्ध है या महासागर से। 

2. प्लेटों की गति एक ही दिशा और एक ही स्थायी चाल से नहीं होती बल्कि प्लेट की गति में अन्तर होता है।

3. प्लेटों की दूरी आपस में घटती-बढ़ती रहती है। 

4. प्रशान्त प्लेट का आकार सबसे बड़ा है। 

5. प्लेटों की मोटाई 100 से 200 कि०मी० तक हो सकती है।

6. प्रत्येक प्लेट का क्षेत्र उसकी मोटाई से ज्यादा होता है। महासागरीय नितल के नीचे प्लेट कम गहरी होती है जबकि महाद्वीपों के नीचे यह काफ़ी मोटी होती है।

7. प्रत्येक प्लेट अपने घूर्णन ध्रुव (Pole of rotation) के चारों ओर वृत्ताकार मार्ग में परिभ्रमण करती हैं। 

8. विवर्तन की सभी घटनाएँ जैसे- भूकम्प, ज्वालामुखी उद्भदन तथा पर्वत निर्माण इत्यादि प्लेटों के किनारों पर घटित होती है।

प्लेट संचलन का रचनातंत्र (Mechanism of Plate Movements) 

ब्रिटिश भूवैज्ञानिक आर्थर होम्स (Arthur Holmes) ने सन् 1928-1929 में बताया कि स्थलमण्डल के नीचे संवहनीय धाराएँ (Convection Currents) चलती हैं। इन संवहनीय धाराओं के केन्द्र के बारे में तो पूरी जानकारी नहीं परन्तु यह माना जाता है कि धरातल के नीचे इसकी गहराई 100 से 250 किलोमीटर है। ये धाराएँ रेडियोधर्मी खनिजों के विखंडन से उत्पन्न ऊर्जा द्वारा संचालित होती हैं। 

रेडियोधर्मी खनिजों के एकीकरण और विखंडन से जो ऊष्मा उत्पन्न होती है वह आस-पास की शैलों को पिघला देती है। इस तरह से संवहनीय धाराएँ चलनी प्रारंभ हो जाती हैं। इन धाराओं को अपसरण और अभिसरण क्रियाओं के साथ क्रमशः आरोही और अवरोही क्रमों में वर्गीकृत किया गया है।

ऊपर उठती हुई संवहनीय धाराओं द्वारा गर्म और चिपचिपा पदार्थ ऊपर की ओर उठने लगता है। धरातल के नीचे लगभग 100 किलोमीटर की गहराई पर पहुँचने के बाद ये धाराएँ मुड़ जाती हैं, जिससे ऊपर की परत फट जाती है। पिघला हुआ पदार्थ टूटे हुए भाग में धंस जाता है और इस प्रकार से एक नए धरातल का जन्म होता है और एक भारी प्लेट विपरीत दिशा में खिसकने लगती है। यह मध्य महासागरीय कटक के नीचे होता है। 

दूसरी ओर दो जोड़ी अवरोही उष्मीय संवहनीय धाराएँ दो प्लेटों को आपस में जोड़ती हैं, यह आरोही सीमा बनाती है, जहाँ धंसाव की क्रिया होती है। संवहनीय धाराओं के कारण स्थलमण्डल की प्लेट लगातार चलायमान रहती हैं।

प्लेट सीमाएँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय संरचनात्मक लक्षण हैं। सीमाएँ अत्यन्त सुस्पष्ट और सरलता से पहचानी जाने वाली हैं। ये नवीन पर्वत तन्त्रों, महासागरीय कटकों और गर्तों से सम्बन्धित हैं। प्लेट लगातार खिसक रहे हैं और इनके खिसकने की दिशा सापेक्षिक है। प्लेटों के खिसकने की दिशा के आधार पर आसानी से तीन प्रकार की प्लेट सीमाओं की पहचान की जा सकती है। 

प्लेट सीमाएं (Plate Boundaries)

1. अपसरण सोमाएँ

2. अभिसरण सीमाएँ

3. रूपान्तर भ्रंश सीमा

plate tectonic and plate boundaries
प्लेट सीमाएं

अपसरण सीमाएँ (Divergent Boundary)

संवहनी धाराएँ रेडियोधर्मी पदार्थों से उत्पन्न होती हैं। ये धाराएँ भूपृष्ठ की परत तक पहुँचते ही मुड़ जाती हैं। अपसरित धाराएँ भूपृष्ठ के मिलन क्षेत्र में खिंचाव पैदा करती हैं, जिससे ये टूट जाती हैं। चुम्बकीय पदार्थ इस टूटे हुए भाग में घुसकर ठोस हो जाता है। यह लगातार चलने वाली प्रक्रिया खंडों को विपरीत दिशा में धकेलकर एक नए क्षेत्र का निर्माण करती है, इसे ‘निर्माण क्षेत्र’ कहते हैं।

अभिसरण सीमाएँ (Convergent Boundary)

अभिसरण सीमाओं पर नजदीक की दो प्लेटें एक-दूसरे के बहुत पास आ जाती हैं और टकरा जाती हैं। जब दोनों खंड महाद्वीपीय प्रकार के होते हैं, तो पर्वतों का निर्माण होता है। जब एक खंड महाद्वीप तथा दूसरा महासागरीय होता है, तब भी इनको सीमाओं के पास पर्वतों का निर्माण होता है। इसमें महाद्वीपीय प्लेट, महासागरीय प्लेट के ऊपर चढ़ जाती है। जब दोनों खंड महासागरीय होते हैं, तो दोनों टूट कर धंस जाते हैं और नीचे प्रवेश कर जाते हैं, जिससे गर्तों का निर्माण होता है। इस प्रकार की सीमाओं पर भूकम्प और ज्वालामुखी उद्भेदन प्रमुख हैं। इन तीनों ही अवस्थाओं में, धरातलीय क्षेत्र कम हो जाता है। इसलिए इसे ‘विनाश का क्षेत्र’ भी कहते हैं।

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रूपान्तर भ्रंश सीमा (Transform Boundary)

रूपान्तर भ्रंश सीमा वह होती है, जहाँ एक-दूसरे के पास स्थित प्लेट एक-दूसरे से रगड़ते हुए विपरीत दिशाओं में खिसक जाते हैं। इनके खिसकने की दिशा एक-दूसरे के साथ-साथ या विपरीत हो सकती है, परन्तु ये एक-दूसरे के समान्तर खिसकते हैं। इसलिए यहाँ न तो नये क्षेत्र का निर्माण होता है और न ही भूपर्पटी नष्ट होती है। इसलिए इसे ‘परिरक्षित क्षेत्र’ कहते हैं।

प्लेट स्थाई लक्षण नहीं होते, वरन इनका आकार और आकृति बदलती रहती है। प्लेट विभाजित या पास के प्लेट से जुड़ सकती हैं। लगभग सभी विवर्तनिक हलचलें प्लेटों की सीमाओं पर होती हैं। प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त से पहले वेगनर द्वारा प्रतिपादित महाद्वीपीय विस्थापन के सिद्धान्त की आलोचना विशेषरूप से उस ऊर्जा या शक्ति के लिए हुई थी जो महाद्वीपों को विस्थापित करती है। 

वास्तव में इस सिद्धान्त को स्पष्ट प्रमाणों के होते हुए भी अस्वीकार कर दिया गया था। लेकिन समुद्री सतह के पदार्थों और पुराचुम्बकत्व में किए गए अन्वेषणों ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया और 1960 में प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त ने प्लेट संचलन के रचनातन्त्र की समस्या को सुलझा दिया।

प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास (Origin and Evolution of Plate Tectonic Theory)

प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त के अनुसार समस्त पृथ्वी पर विवर्तनिक शक्तियाँ काम कर रही हैं जिनके प्रभावाधीन भू-पर्पटी का ऊपरी भाग (Lithosphere) नरम दुर्बलतामण्डल (Asthenosphere) पर भ्रमण कर रहा है। प्लेट शब्दावली का प्रयोग सबसे पहले कनाडा के विख्यात भू-वैज्ञानिक जे० टूजो विलसन (J. Tuzo Wilson) ने सन् 1965 में किया था। सन् 1967 में मेक केनी (Mc Kenie) तथा पार्कर (Parker) ने यह बताया कि महासागरीय नितल की चट्टानें मध्य महासागरीय कटक के निकट कम आयु की होती हैं और खाइयों में उनका विनाश होता है। 

सन् 1968 में प्रिन्सटन विश्वविद्यालय (Princeton University) के डब्ल्यू० जे० मॉर्गन (W. J. Morgan) ने पहली बार प्लेट विवर्तनिक को सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी को बीस प्लेटों में बाँटा। ली पिचोन (Le Pichon) ने 1968 में प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त को सरल रूप में प्रस्तुत किया और समस्त पृथ्वी को छः बड़ी तथा कुछ छोटी प्लेटों में बाँटा। सन् 1984 में ए० एन० स्ट्राहलर तथा ए० एच० स्ट्राहलर (A.N. Strahler and A.H. Strahler) ने विश्व का मानचित्र तैयार किया जिसमें 12 प्लेटें दिखाई गईं।

आज के युग में प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त माना गया है जिसने आधुनिक वैज्ञानिक चिन्तन पर गहरी छाप छोड़ी है। इस सिद्धान्त की सहायता से हम महाद्वीपों की उत्पत्ति एवं उनकी वर्तमान स्थिति, समुद्र अधः स्तल का विस्तार, पर्वतों का निर्माण, गहरी समुद्री खाइयों, समुद्री बेसिनों, भूकम्पों, ज्वालामुखियों तथा भू-पटल पर पाई जाने वाली अन्य कई भू-आकृतियों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त की आधारभूत कल्पनाएँ (Basic assumptions of Plate tectonics)

प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त मुख्यतः तीन अग्रलिखित आधारभूत कल्पनाओं पर टिका हुआ है जो इस प्रकार है-

1. समुद्र तली अथवा अधस्तल का विस्तार (Sea-floor spreading) होता है। महासागर तली के मध्य में स्थित कटक लावा निष्कासन में सक्रिय है। मध्यवर्तीय महासागरीय कटक महासागर के तली पर स्थित दरारें हैं, जहाँ से पिघली हुई चट्टानें बाहर निकल कर नई भू-पर्पटी का निर्माण कर रहे हैं। कटकों से बाहर की ओर भू-पर्पटी का विस्तार हो जाता है और महासागर द्रोणी चौड़ी हो जाती है।

2. ऐसा अनुमान है कि पिछले 60 करोड़ सालों से पृथ्वी का क्षेत्रफल एक समान रहा है और इसके अर्धव्यास में 5% से अधिक की वृद्धि नहीं हुई है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जितना भूपटल नष्ट हुआ है उतने ही नए भू-पटल का निर्माण हुआ है। 

3. भू-पटल का नवनिर्मित भाग प्लेट का अभिन्न अंग बन जाता है। यह नवनिर्मित भाग महाद्वीपीय या महासागरीय हो सकता है।

प्लेट विवर्तनिकी के कारण (Causes of Plate Tectonics)

जिन कारणों से प्लेटों में गति होती है उनमें कुछ मुख्य इस प्रकार हैं-

तापीय संवहन धाराएँ (Thermal Convections Currents)

भू-वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी के अन्दर तापमान और दबाव के कारण तापीय संवहन तरंगों का जन्म होता है। मेंटल की श्यानता (Viscosity) पूरी तरह अन्दर के तापमान और दबाव पर निर्भर करती है। अधिक तापमान वाले क्षेत्र में मैग्मा का उपरिमुखी प्रवाह अथवा धरातल की ओर प्रवाह अधिक वेग से होता है। ऊपर को उठते हुए पदार्थ की श्यानता घटती जाती है और उसका वेग बढ़ता जाता है। 

मध्य महासागरीय कटकों के नीचे 300-400 कि०मी० की गहराई से उमड़ता हुआ लावा जब सतह के नीचे पहुँचता है तब वह क्षैतिज रूप से विपरीत दिशाओं में अपसरित हो जाता है। इस तरह मध्य महासागीरय कटक के नीचे जहाँ गर्म पदार्थ की संवहन तरंगें अपसरित होती हैं, वहाँ पर प्लेटों का संचलन विपरीत दिशा में आरम्भ हो जाता है लेकिन जहाँ दो क्षैतिज तरंगें मिलकर नीचे की ओर मुड़ जाती हैं वहाँ प्लेट सीमान्त का क्षेपण (Subduction) महासागरीय गर्तों के नीचे होता है।

संचलन की गति (Rates of Motion)

महासागरीय मध्य कटकों के दोनों ओर समुद्र तली अथवा अधस्थल का विस्तार एक समान होता है और विस्तार की गति 1 से 6 से०मी० प्रति वर्ष होती है। महासागरीय खाइयों में भू-पटल का हास 5 से 15 से०मी० प्रति वर्ष की दर से होता है।

गुरुत्व बल (Gravitational Force)

भूगोलवेत्ताओं का मानना है कि मध्य महासागरीय कटक के पास मैग्मा तथा लावा के कुछ अतिरिक्त पदार्थ जमा हो जाते हैं। इन पदार्थों के कारण कटक की ऊपरी प्लेट की ऊँचाई तटों की अपेक्षा 2-3 कि०मी० अधिक हो जाती है। इससे कटक के किनारों पर अत्यधिक गुरुत्व बल पैदा हो जाता है जिस कारण से दोनों ओर प्लेटें सरक जाती हैं।

चट्टान का भार (Weight of the Rock)

मध्य महासागरीय कटकों के नीचे से निकलता हुआ तप्त चट्टानी पदार्थ बहता हुआ जैसे ही कटक से दूर जाता है, ठण्डा होने लगता है। ठण्डा होने पर यह पदार्थ भारी होकर नीचे डूबने लगता है और अपने साथ प्लेट को भी खींच के ले जाता है।

स्थलमण्डल की दृढ़ता (Strength of Lithosphere)

बड़ी-बड़ी प्लेटें बिना विकार (Deformation) काफी दूर तक जा सकती है। कई प्लेटों की लम्बाई उनकी मोटाई से बीस गुना या उससे अधिक है। यदि प्लेट के नीचे घर्षण रोधिका (Frictional Resistance) बहुत कम हो तो लम्बाई व मोटाई के इस अनुपात के होते हुए कोई सम्पीड़नात्मक (Compressional) अथवा तनावमूलक (Tensional) बल इसके एक किनारे से दूसरे किनारे तक नहीं जा सकता।

प्लेट विवर्तनिकी धारणा की पुष्टि में मत (Evidences in favor of Plate Tectonics Concept)

हैरी हैस (Harry Hess) ने 1960 में महाद्वीपों के सरकने की धारणा की पुष्टि करने के लिए प्लेट विवर्तनिकी की धारणा पेश की थी। हैस की धारणा के अनुसार महाद्वीप और महासागर इन प्लेटों के साथ-साथ गतिशील रहते थे। महाद्वीप और महासागरों का वर्तमान दृश्य कारबोनीफेरस काल (Carboniferous) के पश्चात् दूसरे पैंजिया की गतिशीलता के कारण अस्तित्व में आया इस धारणा की पुष्टि निम्न तर्कों से हो जाती है-

महासागरीय तली का फैलना (Spreading of Sea floors)

हैस ने सबसे पहले महासागरों के फैलने सम्बन्धी विचार 1960 में दिए थे। उसके विचार बहुत सारे महासागरीय भू-वैज्ञानिकों, भू-रसायन वैज्ञानिकों और भू-भौतिक वैज्ञानिकों की खोज पर आधारित थे। ‘सकरीपश इन्स्टीच्यूट ऑफ ऑसनोग्राफी’ (Scripps Institute of Oceanography) के मैसन नामक वैज्ञानिक ने मैगनोमीटर की सहायता से प्रशान्त महासागर के फर्श की चट्टानों की चुम्बकीय शक्ति के बारे में जानकारी दी। 

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इसके बाद मैसन ने उत्तरी अमेरिका की पश्चिमी तटवर्ती रेखा पर मैक्सिको से ब्रिटिश कोलम्बिया तक के प्रशान्त महासागर के तल का निरीक्षण किया। इस सर्वेक्षण से प्राप्त चुम्बकीय अनियमितताओं का अध्ययन करके हैस ने कहा कि मध्यवर्ती सागरीय कटक का निर्माण मध्यमण्डल (Mantle) में तापीय संवहन (Thermal Convection Currents) धाराओं के उठने के कारण हुआ है। 

सागरीय पपड़ी मध्यवर्ती सागरीय कटक से विपरित दिशा की ओर बढ़ती है। मध्यवर्ती सागरीय कटक के साथ- साथ निरन्तर गर्म लावा निपेक्ष होता रहता है। यह गर्म पदार्थ ठण्डा होकर कठोर रूप धारण करके रचनात्मक प्लेट किनारों के साथ नई पपड़ी का निर्माण कर देता है। इस प्रकार मध्यवर्ती सागरीय कटक के साथ निरन्तर नई पपड़ी (Crust) का निर्माण होता रहता है।

1963 में वाइन तथा मैथ्यू (Vine and Matheus) ने हिन्द महासागर में स्थित कार्लशबर्ग कटक की चुम्बकीय प्रोफाइलें (Profiles) तैयार कीं। जब इन प्रोफाइल का निरीक्षण किया गया तो इनमें अन्तर पाया गया। इसके बाद भिन स्त्रोतों का निरीक्षण किया। इसके बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि भू-चुम्बकीय क्षेत्रों में उल्टा सम्बन्ध है और सागरों के फर्श निरन्तर फैल रहे हैं।

भू-तापीय प्रवणता (Geothermal Gradient)

मध्यमण्डल में उठने वाले ताप को मापा जा सकता है। प्रायः देखा गया है कि महासागरीय गर्त (Trenches) के निकट मिलने वाली प्लेटों के नीचे धंसने वाले जो क्षेत्र हैं उनकी भू-तापीय प्रवणता कम होती है। ज्वालामुखियों और मध्यसागरीय कटकों वाले क्षेत्रों में भू-तापीय प्रवणता अधिक होती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भू-तापीय प्रवणता में मिलने वाली भिन्नता प्लेट विवर्तनिक धारणा की पुष्टि करती है।

प्लेट विवर्तनिकी और महाद्वीपीय विस्थापन (Plate Tectonics and Continental Drift)

भू-चुम्बकत्व (Palaeomagnetism) और सागरीय तलों के अध्ययन को आधार बना कर यह कहा जा सकता है कि महासागरों और महाद्वीपों के तल कभी भी स्थिर नहीं रहे। बल्कि भू-वैज्ञानिक इतिहास (Geological History) के अनुसार आज भी एक-दूसरे के अनुसार गतिशील हैं। सागरों के खुलने और बन्द होने की अवस्था को सत्यापित करने के कितने ही उदाहरण हैं-

  • जैसे भू-मध्यसागर (Mediterranean Sea) टैथीज सागर (Thays Sea) का अवशेष भाग है।
  • अमेरिकन प्लेट के साथ वाली कटक के निरन्तर ऊपर उठने के कारण प्रशान्त महासागर तंग होता जा रहा है।
  • अन्धमहासागर पिछले 2 करोड़ वर्षों से निरन्तर फैलता जा रहा है। 
  • लाल सागर (Red Sea) ने भी फैलना शुरू कर दिया है।

वैलेन्टाइन तथा मूर्स (Valentine and Moores) ने 1970 में तथा हैलाम (Haylam) ने 1972 में महाद्वीपों और महासागरीय तलों के अस्तित्व को शुरू से लेकर वर्तमान तक की रचना करने का प्रयत्न किया। इनके अनुसार आज से 70 करोड़ साल पहले सारे स्थलखण्ड आपस में जुड़े हुए थे। इस विशाल स्थलमण्डल को पहला पैंजिया (Pangea-1) का नाम दिया गया। 

लगभग 50-60 करोड़ साल पहले यह भू-गर्भिक तापीय संवहन धाराओं के कारण टूटने लगा। मध्यमण्डल और भिन्न-भिन्न स्थलखण्ड एक-दूसरे से दूर होने लगे। ये अलग हुए स्थलखण्ड एक बार फिर प्लेट की निर्माण गति के कारण इकट्ठे हो गए। इस विशाल स्थलखण्ड को दूसरा पैंजिया (Pangea II) कहा गया। दूसरे पैंजिया का आज से 20-30 करोड़ साल पहले हो गया था।

development of the continents from pangaea
पैंजिया के टूटने से लेकर वर्तमान तक महाद्वीपों की यात्रा

हैलाम के अनुसार जुरासिक काल (Jurassic Age) में दूसरा पैंजिया फिर से टूटने लगा। सबसे पहले उत्तरी पश्चिमी अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका से टूट कर दूर सरकने लगा। सागरीय फर्श लगातार उत्तर और दक्षिण की ओर फैलने लग गया था।

दक्षिणी अमेरिका और अफ्रीका मध्य करेटेशीयस काल में अलग हो गए और इसी समय ही उत्तरी अमेरिका और यूरोप एक-दूसरे से दूर हटने लगे थे।

वर्तमान उत्तरी अन्ध महासागर का अस्तित्व कई अवस्थाओं में से गुज़रने के बाद सम्भव हुआ है। लगभग 8 करोड़ साल पहले उत्तरी अमेरिका, अफ्रीका से अलग हो गया तथा यूरोप और ग्रीनलैण्ड टूट कर लेब्रेडोर से दूर चले गए, जिससे लेब्रेडोर सागर का निर्माण हो गया जो कुछ समय तक अन्ध महासागर के उत्तरी विस्तार के तौर पर बना रहा।

टरशरी काल (Tertiary Period) में रौकाल का पठार (Rockall Plateau) ग्रीनलैण्ड से अलग हो गया। मध्य मायोसीन तक लैब्रेडोर सागर और उत्तरी अन्धमहासागर, यूरोप और ग्रीनलैण्ड के बीच फैलते रहे, क्योंकि यूरोपीय और अमेरिकी प्लेटें क्रमानुसार पूर्व और पश्चिम की ओर सरकती रहीं। मध्य मायोसीन काल में लैब्रेडोर सागर का विस्तार होना तो बन्द हो गया, परन्तु उत्तरी अन्ध महासागर का विस्तार निरन्तर होता रहा।

भू-वैज्ञानिकों के अनुसार करेटेशीयस काल से पहले हिन्द महासागर का अस्तित्व नहीं था। भारतीय प्लेट टैथीज़ सागर के द्वारा एशियाई प्लेट की ओर बढ़ने लगी थी। ऑस्ट्रेलियाई और अंटार्कटिका प्लेटें, अफ्रीकी प्लेट से टूटने के बाद केरेटीशीयस काल में दक्षिण की ओर बढ़ने लगी थीं।

डान मैकंजी और जान स्लैटर (Dan Mackenzie and John Sclater) ने चुम्बकीय अनियमिताओं के अध्ययन के आधार पर हिन्द महासागर के विकास का क्रम प्रस्तुत किया। इन के अनुसार टरशरी काल के दौरान भारतीय प्लेट 18 सैंटीमीटर प्रति वर्ष की दर से उत्तर की ओर सरकने लगी थी, यह क्रम इयोसीन काल के समय बन्द हो गया। ठीक इसी समय अण्टार्कटिका, ऑस्ट्रेलिया से टूट कर दूर चला गया इस प्रकार प्रशान्त महासागर का आकार घटने लगा और अन्ध महासागर एवं हिन्द महासागर का आकार बढ़ने लगा। 

आज से 70 करोड़ साल पहले जब पहला पैंजिया टूटा तो अन्ध महासागर फैलने लगा। अमेरिका तथा अफ्रीकन यूरोपीयन प्लेटों का भिन्न-भिन्न दिशाओं में प्रसार होने लगा और यह सिलसिला आज से 40 करोड़ साल पहले तक चलता रहा। जैसे ही अन्ध महासागर का विस्तार होना बन्द हुआ, वैसे ही उत्तरी अमेरिका के अप्लेशियन पर्वतों का निर्माण हुआ।

इसके बाद आज से 15 करोड़ साल पहले जब दूसरा पैंजिया टूटा, अन्ध महासागर फिर से फैलने लगा, जो आज तक फैल रहा है, क्योंकि अमरीकी और यूरोपीय प्लेटें एक-दूसरे से विपरीत दिशा की ओर बढ़ रही हैं। जहाँ एक तरफ अन्ध महासागर का विस्तार लगातार हो रहा है, वहीं प्रशान्त महासागर के पश्चिम की ओर जाने की प्रवृत्ति के कारण पिछले 20 करोड़ सालों से सिकुड़ता जा रहा है। 

भू-वैज्ञानिकों का मत है कि महाद्वीपों और महासागरों का वर्तमान रूप शायद आज से 5 करोड़ साल पहले अस्तित्व में आया। आगे दो उदाहरण दिए गए हैं जिनसे महाद्वीपों का विस्थापन, सागरीय तलों का विस्तार और महासागरों के आकार में आ रही कमी को स्पष्ट किया जा सकता है।

लाल सागर और अदन की खाड़ी (Red Sea and the gulf of sea) 

लाल सागर, अफ्रीका और अरब प्रायद्वीप के मध्य में स्थित है। गिर्डलेर (A.W. Griddler) ने इस क्षेत्र की चुम्बकीय अनियमिताओं का सर्वेक्षण किया था, जिस के अनुसार अनियमिताओं का नमूना सागरीय क्षेत्रों से मेल खाता है। 1966 में वाइन (F.J. Vine) ने चुम्बकीय अनियमिताओं को आधार बना कर लाल सागर के विस्तार की दर को मापा था। वाइन के अनुसार 30-40 लाख वर्ष पहले से एक सेंटीमीटर प्रति वर्ष की दर से फैल रहा है। अलेन और मोरेली की 1969 की गणनाओं के अनुसार लाल सागर 1.1 सैंटीमीटर प्रति वर्ष की दर से फैल रहा है।

इसी तरह अदन की खाड़ी के विस्तार की भी गणना की गई। इसके अनुसार अदन की खाड़ी 0.9 से 1.1 सैंटीमीटर वार्षिक दर से फैल रही है। लाल सागर और अदन की खाड़ी तीन प्लेटों (नुबीयल प्लेट, सुमाली प्लेट, अरबी प्लेट) के सन्धि स्थल पर स्थित है। नुबीयल और सोमाली प्लेटों को इथोपीयन दरार (Ethiopian fault) द्वारा अलग किया जाता है।

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कैलिफोर्निया की खाड़ी (The Gulf of California)

अमेंरीकी प्लेट के पश्चिम की ओर बढ़ने के कारण प्रशान्त महासागर निरन्तर सिकुड़ता जा रहा है। वैज्ञानिकों का विश्वास है कि अन्ध महासागर की मध्यवर्ती कटक की तरह ही प्रशान्त महासागर के मध्य में भी मध्यवर्ती कटक होनी चाहिए, जो प्लेटों के विस्थापन के कारण पहचान में नहीं आती। कैलिफोर्निया की खाड़ी के चुम्बकीय सर्वेक्षण से पता चलता है कि इसकी चुम्बकीय पट्टियों में अनियमिताएँ मिलती हैं। इन अनियमिताओं के कारण दो तथ्य उभरते हैं-

  1. प्रशान्त महासागर का पूर्वी उभार (Rise) – कैलिफोर्निया की खाड़ी में स्थित है और पिछले 40 लाख सालों से लगातार कटक के साथ-साथ खाड़ी का विस्तार हो रहा है।
  2. कैलिफोर्निया और बाजा (Baja) भूतकाल में उत्तरी अमेरिका के मुख्य स्थलखण्ड का भाग थे जोकि बाद में सागरीय फर्श के फैलने के कारण टूट कर अलग हो गया।

प्लेट विवर्तनिकी और पर्वत निर्माण (Plate Tectonic and Mountain Building)

प्लेट विवर्तन सिद्धान्त द्वारा पर्वत निर्माण क्रिया स्पष्ट हो जाती है। दो प्लेटों की आमने-सामने की गति (अभिसरण) के कारण प्लेटों में परस्पर टकराव होता है। परिणामस्वरूप वहाँ पटल के सम्पीडन (Compression) के कारण पर्वत निर्माण होता है। भू-प्लेटों का अभिसरण तीन स्थितियों में होता है। जिसके आधार पर अनेक प्रकार के पर्वतों का जन्म होता है-

i) महाद्वीप – महाद्वीप प्लेटों का अभिसरण हिमालय तथा आल्पस का निर्माण।

ii) महाद्वीप – महासागर प्लेटों का अभिसरण रॉकीज्ज व एण्डीज पर्वतों का निर्माण।

(iii) महासागर – महासागर प्लेटों का अभिसरण जापान के द्वीपीय पर्वत, फिलीपीन्स चाप, मरियाना चाप तथा द्वीप तोरणों (Island Festoons) का निर्माण।

प्लेट विवर्तनिकी तथा भू-गतियाँ (Plate Tectonics and Earth Movements)

प्लेट विवर्तनिकी से हमें भू-गतियों के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है। बड़े स्थलखण्डों से सम्बन्धित निर्माणकारी गतियाँ (Epeirogenic Movements) तब होती हैं जब नीचे मेंटल का पदार्थ भू-पर्पटी को ऊपर की ओर उठाता है और एक गुम्बदनुमा आकृति का निर्माण होता हैं। इस प्रकार कोलोरेडो तथा राइन गिरिपिड (Rhine Massif) धीरे-धीरे ऊपर उठ रहे हैं। जब यह प्रक्रिया लम्बे समय तक चलती है तो भू-तल पर तनाव बढ़ता है और भ्रंश पैदा होते हैं। 

अफ्रीका की वृहत् भ्रंश घाटी (The Great African Rift Valley) का निर्माण इसी प्रकार से हुआ है। यदि अन्तर्महाद्वीप विस्थापन की प्रक्रिया जारी रही तो यह घाटी एक खुले महासागर का रूप धारण कर सकती है।

प्लेट विवर्तनिकी बनाम भूकम्प और ज्वालामुखी (Plate Tectonics Versus Earthquakes and Volcanoes)

पृथ्वी पर भूकम्प और ज्वालामुखी के वितरण यह स्पष्ट करता है कि ये प्लेटों की सीमाओं से घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं। विश्व के अधिकांश भूकम्प तथा ज्वालामुखी प्लेटों के किनारों पर ही स्थित हैं। प्लेट विवर्तनिकी के सिद्धान्त की सहायता से हमें इस बात का पता चलता है कि भूकम्प तथा ज्वालामुखी प्रशान्त महासागर के तटीय क्षेत्र में क्यों अधिक सक्रिय हैं। 

सबसे अधिक ज्वालामुखी तथा भूकम्प प्रशान्त महासागर के तटों के साथ-साथ ही सक्रिय हैं जिस कारण इसे अग्नि वलय (Ring of Fire) कहते हैं। प्रशान्त प्लेट का प्रविष्ठन किनारा (Subduction edge) भू-पर्पटी तथा ऊपरी मेंटल में काफ़ी अधिक गहराई तक पहुँच जाता है और वहाँ से पिघले हुए मैग्मे को ऊपर धकेल देता है। यह मैग्मा दबाव के प्रभावाधीन भू-तल पर आता है और ज्वालामुखी का रूप धारण कर लेता है। विश्व के अन्य भागों में भी इसी प्रकार की प्रक्रिया जारी रहती है और ज्वालामुखी फटते रहते हैं।

ज्वालामुखी उद्‌गारों की भाँति भूकम्प भी मुख्यतः प्लेटों के किनारों पर ही अधिक आते हैं। वास्तव में भूकम्पीय पेटियाँ प्लेटों के किनारों को निर्धारित करने के लिए प्रयोग की जाती हैं। कम गहरे केन्द्र वाले भूकम्प लगभग सभी प्लेटों के किनारों पर पाए जाते हैं। परन्तु मध्य सागरीय कटकों पर इनका विशेष केन्द्रण मिलता है। 

मध्यम गहराई वाले भूकम्पों का केन्द्र लगभग 200 किमी० की गहराई पर होता है। इस वर्ग के भूकम्प मुख्यतः महासागरीय खाइयों में मिलते हैं। इन क्षेत्रों में प्लेटें खाई के तल से 300-400 कि०मी० नीचे चली जाती हैं। कहीं-कहीं तो ये प्लेटें मेंटल में 700 कि०मी० की गहराई तक जाती हैं। खाइयों का यह क्षेत्र महाद्वीपीय भू-स्थल की ओर 30° से 80° के कोण पर झुका हुआ होता है हालाँकि अधिकांश झुकाव 45° से 60° तक ही होते हैं। 

इस प्रकार के झुकाव वाले भूकंपीय क्षेत्र प्रशान्त महासागर के तट के निकट ही पाए जाते हैं। इन्हें बेनिऑफ क्षेत्र (Benioff Zone) कहते हैं क्योंकि इनकी खोज सबसे पहले भूकम्प विशेषज्ञ Hugo Benioff ने की थी। बेनिऑफ क्षेत्र की भूकम्पीय क्रिया स्थलमण्डल (lithosphere) के नीचे धंसने से होती है। मध्यम गहराई वाले भूकम्प तनाव अथवा संपीडन से पैदा होते हैं। तनाव तब पैदा होता है जब अधिक घनत्व वाली प्लेट अपने भार के कारण डूब जाती है। जब नीचे जाने वाली प्लेट की गति में मैग्मा अवरोध पैदा करता है तो संपीडन पैदा होती है। अधिक गहराई वाले भूकम्प केवल संपीडन से ही पैदा होते हैं।

प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त के सम्बन्ध में आपत्तियाँ (Objections regarding the Plate Tectonic Theory)

1960 के दशक में इस सिद्धान्त का विकास हो गया था। आज तक यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त बन गया है और इसने कई भू-वैज्ञानिक समस्याओं को सुलझाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। परन्तु फिर भी इस सिद्धान्त के सम्बन्ध में भूगोलवेत्ताओं ने कुछ आपत्तियाँ उठाई हैं जो इस प्रकार हैं-

  1. बहुत-से विस्तारण कटकों (Spreading ridges) की लम्बाई प्रविष्ठन क्षेत्र (Subduction Zone) से काफ़ी अधिक है। अर्थात् स्थलाकृतियों का निर्माण उनके विनाश से कहीं अधिक है जिसका अर्थ यह है कि कुछ क्षेत्रों में प्लेटों की गति में वृद्धि हो जाती है, परन्तु इस बारे में कोई प्रमाण नहीं मिले हैं।
  2. प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त यह स्पष्ट करने में असमर्थ है कि प्रविष्ठन केवल प्रशान्त महासागरीय तटों तक ही क्यों सीमित है जबकि अन्य सभी महासागरों में अपसरन अथवा विस्तारण (Spreading) पाया जाता है।
  3. कई बार एक प्लेट के विभिन्न दिशाओं में गतिमान होने के प्रमाण मिले हैं। परन्तु प्लेट विवर्तनिकी के सिद्धान्त के अनुसार यह असम्भव है।
  4. सभी सम्भावित क्षेत्रों पर बेनिऑफ क्षेत्र (Benioff Zone) नहीं पाया जाता। उदाहरणतः उत्तरी अमेरिका में मध्यम तथा अधिक गहराई वाले भूकम्प नहीं पाए जाते।
  5. यह कहना बहुत मुश्किल है कि प्रत्येक प्लेट एक इकाई के रूप में व्यवहार करती है।
  6. इस सिद्धान्त से पर्वतों के निर्माण के सम्बन्ध में भी कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं दिया जा सकता। पृथ्वी पर कई पर्वत श्रेणियाँ ऐसी हैं जिनका प्लेट विवर्तनिकी से कोई सम्बन्ध नहीं। दक्षिणी अफ्रीका का ड्रेकन्सबर्ग (Drakensberg), ब्राजील के सियरा डेलमार (Sierra Del Mar) तथा ऑस्ट्रेलिया की पूर्वी उच्च भूमि (Eastern Highlands of Australia) कुछ ऐसे ही पर्वत हैं जिनका निर्माण प्लेट विवर्तनिकी के आधार पर स्पष्ट नहीं किया जा सकता।

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