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कोबर का पर्वत निर्माणक भूसन्नति सिद्धान्त (Geosyncline Orogen Theory of Kober)
इस लेख को पढ़ने के बाद आप
- कोबर के पर्वत निर्माणक भूसन्नति सिद्धान्त (Geosyncline Orogen Theory of Kober) की आलोचनात्मक व्याख्या कर पाएंगे।
- कोबर के पर्वत निर्माणक भूसन्नति सिद्धान्त से सम्बन्धित महत्वपूर्ण शब्दावली जैसे अग्रदेशों (forlands), पर्वत निर्माण स्थल (orogen), कैटोजेन, रेण्डकेटेन, मध्य पिण्ड (median mass) या स्वाशिनवर्ग आदि को परिभाषित कर सकेंगे।
- विश्व के विभिन्न भागों में में स्थित मध्य पिण्ड (median mass) के उदाहरण प्रस्तुत कर सकेंगे।
पर्वत निर्माण से संबंधित सिद्धांतों के वर्ग
पर्वत निर्माण के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने अपने अलग-अलग सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। इन सिद्धान्तों को दो वर्गों में रखा जाता है –
प्रथम वर्ग
प्रथम वर्ग के अन्तर्गत उन सिद्धान्तों को रखा जाता है, जिसके अनुसार पर्वतों का निर्माण धरातल के क्षैतिज संचलन के कारण भूपटल में सिकुड़न एवं वलन होने से होता है। प्रथम वर्ग के सिद्धान्तों को पुनः दो वर्गों में रखा जाता है
- पहले वर्ग के अन्तर्गत उन सिद्धान्तों को सम्मिलित किया जाता है, जिनमें क्षैतिज संचलन पृथ्वी में सिकुड़न होने से उत्पन्न होता है। इसके अन्तर्गत संकुचन सिद्धान्त (contraction theory) का अध्ययन किया जाता है। इस वर्ग के अन्तर्गत कोबर तथा ज़ेफ्रीज के सिद्धान्त महत्वपूर्ण हैं।
- दूसरे वर्ग के अन्तर्गत उन सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है, जिनमें क्षैतिज संचलन की उत्पत्ति महाद्वीपीय प्रवाह के कारण होती है। इसके अन्तर्गत महाद्वीपीय प्रवाह के सिद्धान्त को सम्मिलित किया जाता है। इस वर्ग के अन्तर्गत वेगनर, होम्स, जोली तथा डेली के सिद्धान्तों को शामिल किया जाता है।
दूसरा वर्ग
दूसरे वर्ग के अन्तर्गत उन सिद्धान्तों को सम्मिलित किया जाता है, जिनके अनुसार पर्वतों का निर्माण लम्बवत् संचलन के कारण होता है।
इस लेख में हम प्रथम वर्ग के अंतर्गत आने वाले कोबर के पर्वत निर्माणक भूसन्नति सिद्धान्त पर चर्चा करेंगे
कोबर का पर्वत निर्माणक भूसन्नति सिद्धान्त (Geosyncline Orogen Theory of Kober)
प्रसिद्ध जर्मन विद्वान कोबर ने वलित पर्वतों की उत्पत्ति की व्याख्या के लिए ‘भूसन्नति सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया। उनका प्रमुख उद्देश्य प्राचीन दृढ़ भूखण्डों तथा भूसन्नतियों में सम्बन्ध स्थापित करना था। तथा पर्वत निर्माण की क्रिया को समझाने का भरसक प्रयास किया है।
इनका सिद्धान्त संकुचन शक्ति पर आधारित है। पृथ्वी में संकुचन होने से उत्पन्न बल से अग्रदेशों (forlands) में गति उत्पन्न होती है, जिससे प्रेरित होकर सम्पीडनात्मक बल के कारण भूसन्नति का मलवा वलित होकर पर्वत का रूप धारण करता है। जहाँ पर आज पर्वत हैं, वहाँ पर पहले भूसन्नतियाँ थीं, जिन्हें कोबर ने पर्वत निर्माण स्थल (orogen) बताया है। इन भूसन्नतियों के चारों ओर प्राचीन दृढ़ भूखण्ड थे, जिन्हें कैटोजेन बताया है।
कोबर के अनुसार भूसन्नतियाँ लम्बे तथा चौड़े जलपूर्ण गर्त थीं। पर्वत निर्माण की पहली अवस्था भूसन्नति निर्माण की होती है, जिसके दौरान पृथ्वी में संकुचन के कारण भूसन्नति का निर्माण होता है। इसे भूसन्नति अवस्था कहते हैं। प्रत्येक भूसन्नति के किनारे पर दृढ़ भूखण्ड होते हैं, जिन्हें कोबर ने अग्रदेश (foreland) बताया है।
इन दृढ़ भूखण्डों के अपरदन से प्राप्त मलबा का नदियों द्वारा भूसन्नति में धीरे-धीरे जमाव होता रहता है। इस क्रिया को अवसादीकरण (sedimentation) कहते हैं। अवसादी जमाव के कारण भार में वृद्धि होने से भूसन्नति की तली में निरन्तर धँसाव होता जाता है। इसे अवतलन की क्रिया (subsidence) कहते हैं। इन दोनों क्रियाओं के लम्बे समय तक चलते रहने के कारण भूसन्नति की गहराई अत्यन्त अधिक हो जाती है तथा अधिक मात्रा में मलबा का निक्षेप हो जाता है।
जब भूसन्नति भर जाती है तो पृथ्वी के संकुचन से उत्पन्न क्षैतिज संचलन के कारण भूसन्नति के दोनों अग्रदेश एक दूसरे की ओर खिसकने लगते हैं। इसे पर्वत निर्माण की अवस्था कहते हैं। इस तरह भूसन्नति के दोनों किनारों के समान गति से एक दूसरे की ओर सरकने के कारण भूसन्नति के तलछट पर बल पड़ता है। इस प्रकार से उत्पन्न सम्पीडनात्मक बल के कारण भूसन्नति में जमा हुआ मलबा वलित होकर पर्वत का रूप धारण कर लेता है।
भूसन्नति के दोनों किनारों पर दो पर्वत श्रेणियों का निर्माण होता है, जिन्हें कोबर ने रेण्डकेटेन नाम दिया है। भूसन्नति के मलबा का पूर्णतः या आंशिक रूप में वलित होना सम्पीडन के बल पर आधारित होता है। यदि सम्पीडन का बल सामान्य होता है तो केवल किनारे वाले भाग ही वलित होते हैं तथा बीच का भाग वलन से अप्रभावित रहता है। इस अप्रभावित भाग को कोबर ने स्वाशिनवर्ग की संज्ञा प्रदान की है, जिसे सामान्य रूप से मध्य पिण्ड (median mass) कहा जाता है।
जब सम्पीडन का बल सर्वाधिक सक्रिय होता है तो भूसन्नति का समस्त मलबा वलित हो जाता है तथा मध्य पिण्ड का निर्माण नहीं हो पाता है। सम्पीडन बल जितना ही अधिक तीव्र होता है, पर्वतीकरण में उतनी ही अधिक जटिलता आती है। कोबर ने अपने विशिष्ट मध्य पिण्ड (typical median mass) के आधार पर विश्व के वलित पर्वतों की संरचना को स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
उनके अनुसार टेथीज भूसन्नति के उत्तर में यूरोप का स्थल भाग तथा द० अफ्रीका का दृढ़ भूखण्ड था। इन दोनों अग्रदेशों के आमने-सामने सरकने के कारण अल्पाइन पर्वत श्रृंखला का निर्माण हुआ। अफ्रीका के उत्तर की ओर सरकने के कारण बेटिक कार्डिलरा, पेरेनीज प्राविन्स श्रेणियाँ, मुख्य आल्प्स, कार्पेथियन्स, बालकन पर्वत तथा काकेशस का निर्माण हुआ। इसके विपरीत यूरोपीय दृढ़ भूखण्ड के दक्षिण की ओर खिसकने के कारण एटलस, एपीनाइन्स, डिनाराइड्स, दूसरे हेलेनाइड्स, टाराइड्स आदि पर्वतों का निर्माण हुआ।
कोबर के अनुसार दो पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित मध्य पिण्ड अर्थात् स्वाशिनवर्ग के उदाहरण
पर्वत श्रेणियाँ | मध्य पिण्ड |
---|---|
कार्पेथियन्स तथा दिनारिक | हंगरी का मैदान |
पेरेनीज श्रेणियों तथा एटलस | रूम सागर का भाग |
टारस तथा पाण्टिक श्रेणियों | अनातोलिया का पठार |
एल्बुर्ज और जेग्रोस पर्वत | ईरान का पठार |
हिमालय तथा कुनलुन | तिब्बत का पठार |
पश्चिमी द्वीपसमूह के पर्वत तथा मध्य अमेरिकी श्रेणी | कैरेबियन सागर |
वासाच श्रेणियाँ तथा सियरा नेवादा पर्वत | बेसिन रैन्ज क्षेत्र (संयुक्त राज्य अमेरिका) |
उपरोक्त उदाहरणों के माध्यम से कोबर ने अपने सिद्धान्त में ‘मध्य पिण्ड’ की कल्पना को साकार रूप देकर पर्वतीकरण को उचित ढंग से समझाने का प्रयास किया है तथा ‘मध्य पिण्ड’ की यह कल्पना कोबर के विशिष्ट पर्वत निर्माण स्थल की अच्छी तरह व्याख्या करती है।
यद्यपि वर्तमान समय तक भूगर्भवेत्ताओं ने चार प्रमुख पर्वतीकरण के युगों का पता लगाया है, परन्तु कोबर ने ऐसे 6 युगों का उल्लेख किया है। इनमें तीन घटनायें कैम्ब्रियन युग से पहले घटित हुई मानी गयी हैं तथा इनके विषय में बहुत कम ज्ञान है। दो पर्वतीकरण के बीच एक शान्त काल होता है, जिस समय पर्वत निर्माण रुक जाता है।
हिमालय के निर्माण के विषय में कोबर ने बताया है कि पहले टेथीज सागर था, जिसके उत्तर में अंगारालैण्ड तथा दक्षिण में गोण्डवानालैण्ड अग्रदेश के रूप में थे। इयोसीन युग में दोनों आमने-सामने सरकने लगे, जिस कारण टेथीज के दोनों किनारों पर तलछट में वलन पड़ने से उत्तर में कुनलुन पर्वत तथा दक्षिण में हिमालय की उत्तरी श्रेणी का निर्माण हुआ। दोनों के बीच तिब्बत का पठार मध्य पिण्ड के रूप में बच रहा। आगे चलकर मध्य हिमालय तथा लघु शिवालिक श्रेणियों का भी निर्माण हो गया।
कोबर के पर्वत निर्माणक भूसन्नति सिद्धान्त की आलोचना
यद्यपि कोबर का भूसन्नति सिद्धान्त पर्वत निर्माण से सम्बन्धित कई तथ्यों का उचित उल्लेख करता है, तथापि कुछ को स्थानों पर दोष भी पाए जाते हैं, जो इस प्रकार हैं-
- कोबर द्वारा वर्णित पृथ्वी के संकुचन से उत्पन्न बल, पर्वत निर्माण के लिए उपयुक्त नहीं है।
- कोबर के अनुसार भूसन्नति के दोनों पार्श्व सरकते हैं, परन्तु स्वेस ने बताया है कि एक पार्श्व सरकता है, जिसे इन्होंने ‘पृष्ठ प्रदेश’ (backland) कहा है तथा दूसरा पार्श्व अपनी जगह पर स्थिर रहता है, जिसे इन्होंने अग्रदेश (foreland) कहा है। हिमालय की उत्पत्ति के सम्बन्ध में स्वेस का मत अधिक सत्य लगता है, क्योंकि प्रायद्वीपीय भारत के स्थिर दृढ़ भूखण्ड का उत्तर में खिसकना तर्कसंगत नहीं है। अब यह आलोचना मान्य नहीं है। प्लेट टेक्टानिक सिद्धान्त के आधार पर प्रायद्वीपीय भारत (इण्डियन प्लेट) का उत्तर की ओर संचलन हुआ था। आज भी यह संचलन सक्रिय है।
- कोबर के इस सिद्धांत से पूर्व-पश्चिम फैले पर्वतों (आल्प्स, हिमालय) का स्पष्टीकरण तो हो जाता है, परन्तु उत्तर-दक्षिण फैले पर्वतों का स्पष्टीकरण नहीं हो पाता है।