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बृहद मृदा वर्गीकरण योजना (Comprehensive Soil Classification System, CSCS)

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बृहद मृदा वर्गीकरण योजना (Comprehensive Soil Classification System)

मृदा वर्गीकरण की इस योजना को संक्षेप में CSCS भी कहा जाता है । सन् 1975 में अमेरिकी मृदा संरक्षण सेवा के मृदा सर्वेक्षण विभाग ने मिट्टियों के वर्गीकरण की एक विस्तृत एवं वैज्ञानिक योजना प्रस्तुत की जिसे बृहद मृदा वर्गीकरण तंत्र कहा जाता है। इस योजना के अन्तर्गत विश्व की समस्त मिट्टियों को 6 वर्गों में विभाजित किया गया है, जिनको नीचे तालिका में दर्शाया गया है:

मृदा वर्गमिट्टियों के निर्धारित वर्गों की संख्या
श्रेणी (order)10
उपश्रेणी (suborder)50
बृहद मृदा वर्ग (great soil groups)225 
उपवर्ग (subgroups)1000  (मात्र संयुक्त राज्य अमेरिका में) 
परिवार (family)5000 (मात्र संयुक्त राज्य अमेरिका में)
श्रृंखला (series) 10,000 (मात्र संयुक्त राज्य अमेरिका में)
CSCS योजना के तहत मिट्टियों के प्रमुख वर्ग

उपरोक्त तालिका के अनुसार CSCS योजना के अन्तर्गत विश्व की समस्त मिट्टियों को प्रमुख रूप से 10 श्रेणियों में विभाजित किया गया है। इन श्रेणियों का निर्धारण निम्न आधारों पर किया गया है

(i) मिट्टियों का संघटन

(ii) मृदा परिच्छेदिका (soil profile) में विभिन्न संस्तरों (horizons ) का विकास 

(iii) संस्तरों (horizons ) की उपस्थिति या अनुपस्थिति, 

(iv) मृदा में खनिजों के अपक्षय की मात्रा जिसे सामान्यतया कैटायन विनिमय क्षमता (CEC – cation exchange capacity) के रूप में या आधार सम्पृक्तता प्रतिशत (PBS – percent base saturation) के रूप में व्यक्त किया जाता है । 

इनको भी पढ़ें
1. मृदा: परिभाषा, निर्माण, घटक एवं परिच्छेदिका
2. मिट्टियों का USDA SYSTEM आधारित वर्गीकरण
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बृहद मृदा वर्गीकरण योजना के अनुसार मिट्टियों की प्रमुख श्रेणियाँ

1. एण्टीसॉल 

एण्टीसॉल मिट्टियों का अच्छी तरह विकास नहीं हुआ होता। इनमें मृदा का एक भी संस्तर विकसित नहीं होता है। इन् मिट्टियों को 5 उपश्रेणियों में विभाजित किया गया है – 

(i) अक्वेण्ट्स, (ii) अरेण्ट्स, (iii) फ्लूवेण्ट्स, (iv) Psaments, तथा (v) अर्थेण्ट्स

2. इनसेप्टीसॉल 

इस श्रेणी में उन मिट्टियों को शामिल किया जाता है। जिनमें मृदा के संस्तरों का या तो ठीक से विकास नहीं हो पाता है या संस्तरों का शीघ्रता से विकास हुआ हो। ये प्रायः नवीन मिट्टियाँ होती हैं। जिनकी निम्न विशेषतायें होती हैं- 

(i) मिट्टियों में इतना जल रहता है कि पौधों को कम से कम तीन महीने तक लगातार जल मिलता रहे।  

(ii) एक या दो मृदा संस्तरों का विकास होता है। 

(iii) मृदा के कण बारीक होते हैं। 

(iv) मृदा में अपक्षय से कुछ अप्रभावित खनिज भी होते हैं। 

इस श्रेणी की मिट्टियों को 6 उपश्रेणियों में विभाजित किया गया है- 

(i) अक्वेप्ट्स मिट्टियाँ, (ii) अण्टेप्ट्स मिट्टियाँ, (ii) ट्रोपेप्ट्स मिट्टियाँ, (iv) अम्ब्रेप्ट्स मिट्टियाँ, (v) आक्रेप्ट्स मिट्टियाँ, तथा (vi) प्लेजेप्ट्स मिट्टियाँ

3. हिस्टोसॉल 

इस प्रकार की मिट्टियों के ऊपरी 80 cm वाले भाग में जैविक पदार्थों की अधिकता होती है। अधिकांश हिस्टोसॉल पीट मृदाएँ होती हैं जिनमें पौधों के वियोजित (decomposed) अवशेष पाए जाते हैं जिनका जमाव जल में हुआ है। कुछ का निर्माण वनों की गिरी हुई पत्तियों के सड़ने-गलने से भी हुआ है। 

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ठंडे इलाकों (शीत प्रदेश) की हिस्टोसॉल में अम्ल की मात्रा अधिक तथा पोषक तत्वों की मात्रा कम होती है। गर्म इलाकों (निम्न अक्षांशों) के उन भागों, जहाँ पर जैविक पदार्थों की मोटी परत के जमाव की दशाएँ सुलभ हैं, में भी हिस्टोसॉल का निर्माण हुआ है। मध्य अक्षांशों में इनका कृषि महत्व अधिक होता है।

चूने तथा उर्वरकों के प्रयोग से ये उपजाऊ हो जाती हैं तथा सब्जियों की खेती सफलतापूर्वक होती है। इन्हें चार उपश्रेणियों में विभाजित किया गया है- (i) फाइब्रिस्ट मिट्टियाँ, (ii) फोलिस्ट मिट्टियाँ, (iii) हेमिस्ट मिट्टियाँ, तथा (iv) सैप्रिस्ट मिट्टियाँ 

4. आक्सीसॉल 

इस श्रेणी की मिट्टियों के अन्तर्गत बहुत पुरानी तथा अपक्षयित मिट्टियों को शामिल किया जाता है जैसे  उष्ण कटिबन्ध की मिट्टियाँ। इन मिट्टियों में जैविक संस्तर की प्रमुखता होती है। आक्सीसॉल मिट्टियों की तीन मुख्य विशेषताएं होती हैं, जो निम्नलिखित हैं  

(i) अधिकतर खनिजों का अपक्षय हो चुका होता है, एल्यूमिनियम तथा लोहे के आक्साइड्स तथा कवोलिनाइट्स की प्रचुरता होती है। 

(ii) कैटायन विनिमय क्षमता (CEC) बहुत कम होती है। 

(iii) इनमें दोमट तथा मृत्तिका के कण अधिक पाए जाते हैं। 

इन मिट्टियों का सर्वाधिक विकास भूमध्य रेखीय, उष्ण कटिबन्धी एवं उपोष्ण कटिबन्धी क्षेत्रों के स्थल भाग पर हुआ है। इनका रंग लाल, पीला तथा पीला-भूरा होता है। इनमें पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की मात्रा कम होती है। अधिकांश भागों में इस तरह की मिट्टियों पर झूम कृषि या स्थानान्तरणी कृषि की जाती है। फसलों के उत्पादन के लिए चूना, खादों तथा अन्य पोषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा के उपयोग की आवश्यकता होती है। इस श्रेणी में 5 उपश्रेणियों का निर्धारण किया गया है यथा-अक्वाक्स, ह्यूमाक्स, आरथाक्स, टोराक्स तथा अस्टाक्स मिट्टियाँ

5. अल्टीसॉल 

इस श्रेणी की मिट्टियों का निर्माण या विकास कई तरह की जलवायु में होता हैं जैसे – आर्द्र उपोष्ण कटिबन्धी जलवायु, शुष्क-तर उष्ण कटिबन्धी जलवायु, मानसूनी जलवायु आदि। आक्सीसॉल मिट्टियों की विशेषताएं निम्नलिखित हैं:

(i) इनमें कैटायन विनिमय क्षमता (CEC) कम होती है तथा मृदा का औसत वार्षिक तापमान 8° सेण्टीग्रेड से अधिक रहता है। 

(ii) गहराई के साथ आधार सम्पृक्तता प्रतिशत (PBS) घटता जाता है। 

(iii) इन मिट्टियों का निर्माण मुख्य रूप से वन क्षेत्रों में होता है।

(iv) इनका B संस्तर पीला-भूरा होता है। 

(v) ये मिट्टियाँ मुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका, द० चीन, बोलिविया, द० ब्राजील, पश्चिमी तथा मध्य अफ्रीका, भारत,बर्मा , पूर्वी द्वीप समूह, उ० पू० आस्ट्रेलिया आदि में पाई जाती हैं। 

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(vi) इन मिट्टियों का उष्ण एवं उपोष्ण कटिबन्धी भागों में स्थानान्तरणी कृषि के लिए सबसे अधिक दोहन हुआ है। 

इनमें पोषक तत्वों की कमी होती है परन्तु खादों तथा अन्य आवश्यक पोषक तत्वों के उपयोग के बाद फसलों के लिए काफी उत्पादक हो जाती हैं। इनको 5 उपश्रेणियों में विभक्त किया गया है – आकल्ट्स, ह्यूमल्ट्स, अडल्ट्स, अस्टल्ट्स तथा जेरल्ट्स मिट्टियाँ। 

6. वर्टीसॉल 

वर्टीसॉल श्रेणी की मिट्टियों की निम्न विशेषतायें होती हैं- 

(i) मृत्तिका खनिज खासकर माण्टमोरिलोनाइट की बहुलता होती है। यह खनिज जल से सम्पृत्त होने पर फैलता है तथा सूखने पर सिकुड़ता है। 

(ii) शुष्क मौसम में पानी की कमी होने पर मृदा की ऊपरी सतह पर गहरी दरारें पड़ जाती हैं। 

(iii) वर्षा के मौसम में मिट्टियाँ गीली होकर मुलायम हो जाती हैं तथा वे खिसकने लगती हैं। 

(iv) वर्टीसॉल मिट्टियों का निर्माण मुख्य रूप से शुष्क एवं आर्द्र मौसम वाले उष्ण एवं उपोष्ण सवाना जलवायु प्रदेशों की घास या सवाना वनस्पति की दशाओं में हुआ है। 

(v) विभिन्न क्षेत्रों में इन मिट्टियों को काली मिट्टी, कपास मिट्टी, उष्ण कटिबन्धी काली मिट्टी, रेगुर आदि नामों से सम्बोधित किया जाता है। 

ये मिट्टियाँ मात्र उष्ण एवं उपोष्ण कटिबन्धों में ही पायी जाती हैं (जैसेभारत के प्रायद्वीपीय पठारी भाग, सूडान, पूर्वी आस्ट्रेलिया आदि) । इन मिट्टियों में कैलसियम तथा मैग्नेशियम की काफी मात्रा होती है। pH न्यूट्रल (7.0) होता है तथा जैविक पदार्थों की सामान्य मात्रा होती है। बारीक गठन के कारण मिट्टियों में जलधारण की क्षमता अधिक होती है परन्तु अधिकांश जल पौधों को आसानी से उपलब्ध नही हो पाता है क्योंकि वह माण्टमोरिलोनाइट मृत्तिका में ही रुका रहता है। 

इन मिट्टियों का कृषि सम्बन्धी उपयोग कठिन होता है क्योंकि ये जलसिक्त होने पर (गीली होने पर) जुताई योग्य नहीं रह जाती हैं। जहाँ पर मशीनें सुलभ हैं वहाँ पर कृषि कार्य आसान हो गया है तथा फसलों एवं कपास की खेती होती है अन्यथा अधिकांश भाग घास या सवाना वनस्पति से युक्त हैं। इसके अन्तर्गत चार उपश्रेणियों का निर्धारण किया गया है- टोरेस, उडेर्ट्स, अस्टर्स तथा जेरर्ट्स मिट्टियाँ। 

7. अल्फीसॉल 

इस श्रेणी की मिट्टियों की निम्न विशेषतायें होती हैं – 

(i) ये तर मिट्टियाँ होती हैं तथा B संस्तर में मृत्तिका का संचय होता रहता है । 

(ii) मृदा के संस्तरों का रंग धूसर (gray), भूरा या लाल होता है । 

(iii) ह्यूमस के अभाव में मृदा संस्तर के ऊपरी भाग का रंग काला नहीं होता है। 

(iv) पौधों को मृदा जल कम से कम 3 महीनों तक लगातार सुलभ रहता है। 

ये मिट्टियाँ खासकर मध्य उत्तरी अमेरिका, यूरोप, मध्य साइबेरिया, उत्तरी चीन, दक्षिणी आस्ट्रेलिया, पूर्वी ब्राजील, पश्चिमी-पूर्वी तथा दक्षिणी अफ्रीका, उत्तरी आस्ट्रेलिया, पूर्वी भारत आदि में पाई जाती हैं। सामान्य रूप से ये मिट्टियाँ कृषि की दृष्टि से उत्पादक होती हैं। इस श्रेणी के अन्तर्गत 5 उपश्रेणियों का निर्धारण किया गया है – अक्वल्प्स, बोरल्प्स, उडल्फ्स, अस्टल्फ्स तथा जेरल्फ्स मिट्टियाँ

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8. मोलीसॉल 

इस श्रेणी की मिट्टियों की निम्न विशेषतायें होती हैं – 

(i) इन मिट्टियों की परिच्छेदिका के ऊपरी संस्तर का निर्माण मौलिक इपिपेडान द्वारा होता है। इस संस्तर का रंग गहरा एवं काला होता है। 

(ii) मृदा का काफी गहराई तक निर्माण होता है अतः मृदा की परिच्छेदिका मोटी होती है। 

(iii) सूखने पर मृदा की संरचना ढीली हो जाती है। 

(iv) A तथा B संस्तरों में कैलसियम की अधिकता होती है। 

(v) रवेदार मृत्तिका खनिजों की अधिकता होती है। 

(vi) इनका रंग काला होता है। 

इन मिट्टियों का निर्माण उपोष्ण कटिबन्धी एवं मध्य अक्षांशीय क्षेत्रों की उष्णार्द्र जलवायु वाले घास क्षेत्रों में होता है। ये मुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका (अर्जेन्टाइना तथा युरूगवे के पम्पाज क्षेत्र), यूरेशिया ( रोमानिया से लेकर रूसी स्टेपी क्षेत्र एवं साइबेरिया से होते हुए मंगोलिया तथा मंचूरिया तक के विस्तृत भाग) आदि में पाई जाती हैं। ये अति विकसित तथा उपजाऊ मिट्टियाँ होती हैं। इनके क्षेत्र अन्न के भण्डार कहे जाते हैं। इसके निम्न उपभाग हैं – अलबोल्स, अक्वोल्स, बोरोल्स, रेण्डोल्स, उडोल्स, अस्टोल्स तथा जेरोल्स । 

9. स्पाडोसॉल 

इनकी निम्न विशेषताएं होती हैं – 

(i) A2 संस्तर का रंग ब्लीच्ड भूरा से श्वेत तक होता है। 

(ii) B संस्तर में गहरे रंग वाले पदार्थों का संग्रह होता है। 

(iii) मिट्टियों में अम्ल की अधिकता तथा पोषक तत्वों की कमी होती है। 

(iv) ह्यूमस तत्व की कमी होती है। 

(v) मृदा कण रेत के होते हैं । 

(vi) मिट्टियों में जलधारण करने की क्षमता कम होती है। इनका कृषि के लिए महत्व कम होता है क्योंकि इनकी उत्पादकता बहुत कम होती है। इनके अन्तर्गत चार उपश्रेणियों का निर्धारण किया गया है – अक्वाड्स, फेराड्स, ह्यूमाड्स तथा अर्थाड्स मिट्टियाँ। 

10. एरिडोसॉल 

इस श्रेणी की निम्न विशेषतायें होती हैं- 

(i) ह्यूमस के अभाव में काले रंग वाले ऊपरी संस्तर का अभाव रहता है। 

(ii) वर्षा के अधिकांश समय में पौधों के लिए मृदा जल सुलभ नहीं होता है। 

(iii) मृदा में जैविक तत्वों की मात्रा निहायत कम होती है। 

(iv) गहराई में कार्बोनेट पदार्थों का अधिकाधिक संग्रह रहता है आदि। इन मिट्टियों का निर्माण रेगिस्तानी या उपमरुस्थली जलवायु दशाओं के अन्तर्गत होता है। ऐसी दशा वाले क्षेत्रों में वर्षा अत्यन्त न्यून तथा विरल होती है। अतः वर्षा के जल के अधिकांश भाग का शीघ्र वाष्पीकरण हो जाता है।

विश्व के सभी उष्ण एवं उपोष्ण कटिबन्धी मरुस्थली भागों में ये मिट्टियाँ पायी जाती हैं। अधिकांश भागों में इन मिट्टियों का उपयोग चरागाह के रूप में किया जाता है। सिंचाई द्वारा जल सुलभ हो जाने पर ये मिट्टियाँ अत्यधिक उपजाऊ हो जाती हैं। इनके अन्तर्गत दो उपश्रेणियों का निर्धारण किया गया है – आरगिड्स तथा आरथिड्स मिट्टियाँ

Reference

  1. भौतिक भूगोल, डॉ. सविन्द्र सिंह

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