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अपक्षय के चार रूपों भौतिक अपक्षय, रासायनिक अपक्षय, प्राणिवर्गीय अपक्षय एवं जैव रासायनिक अपक्षय में से भौतिक अपक्षय के बारे में हम पिछले लेख ‘भौतिक या यांत्रिक अपक्षय’ में पढ़ चुके हैं। यहां हम अपक्षय के दूसरे रूप रासायनिक अपक्षय के बारे में जानेंगे।
रासायनिक अपक्षय (Chemical Weathering) का अर्थ
हम जानते हैं कि वायुमण्डल के निचले भाग में आक्सीजन, कार्बन डाईआक्साइड गैसों तथा जलवाष्प आदि की प्रधानता होती है। जब तक ये गैसें नमी या जल के सम्पर्क में नहीं आती है, तब तक अपक्षय की दृष्टि से ये तत्व महत्त्पूर्ण या क्रियाशील नहीं होते। परन्तु जैसे ही इनका सम्पर्क जल से हो जाता है, ये सक्रिय घोलक के रूप में काम करना शुरू कर देते हैं।
जिसके कारण चट्टानों में रासायनिक परिवर्तन होने लगते हैं। इस प्रक्रिया में ऐसे पदार्थों तथा खनिजों की रचना हो जाती है, जो या तो मूल पदार्थ से अधिक आयतन वाले या कम आयतन वाले होते हैं । चट्टानों के खनिजों में इस नवीन व्यवस्था के कारण उनमें वियोजन होना शुरू हो जाता है। वियोजन की क्रिया पृथ्वी की सतह के ऊपर तथा नीचे, दोनों क्षेत्रों में होता रहता है ।
लेकिन रासायनिक अपक्षय की क्रिया उष्ण, उपोष्ण एवं शीतोष्ण आर्द्र प्रदेशों में जल तथा कार्बन डाई आक्साइड गैस के सहयोग से चूना पत्थर पर अधिक होता है ।
आक्सीजन तथा कॉर्बन डाई आक्साइड आदि गैसों के प्रभाव से ये रासायनिक परिवर्तन कई रूपों में सम्पन्न होते हैं। जिनका उल्लेख नीचे किया गया है:
रासायनिक अपक्षय (Chemical Weathering) के रूप
आक्सीडेशन या आक्सीकरण (oxidation)
वायु में उपस्थित आक्सीजन का सम्पर्क जब जल से होता है, तो जल से मिली आक्सीजन चट्टानों के खनिजों के साथ क्रिया करती है। इसके कारण खनिजों में आक्साइड बन जाते हैं तथा चट्टानों में वियोजन होने लगता है। आक्सीजन की इस क्रिया को ‘आक्सीकरण’ कहते हैं। जिन चट्टानों में लोहे के यौगिक अधिक होते हैं उनमें आक्सीकरण का प्रभाव सबसे अधिक देखने को मिलता है।
उदाहरणस्वरुप आग्नेय चट्टानों में लोहा, लौह सल्फाइट तथा पाइराइट के रूप में होता है। जिससे इन चट्टानों में आक्सीकरण के प्रभाव से प्राय: जंग (rust) लग जाता है और चट्टानें ढीली पड़ जाती हैं एवं वियोजन होने लगता है। पाइराइट पर जल तथा आक्सीजन के मिश्रित प्रभाव से गन्धक का अम्ल बनता है, जिससे चट्टानें गलने लगती हैं।
उष्णार्द्र भागों में आक्सीकरण की क्रिया अधिक होती है, जिस कारण रासायनिक परिवर्तन के कारण वहाँ पर मिट्टियों का रंग लाल, पीला या भूरा पाया जाता है। कभी-कभी आक्सीकरण तथा जलयोजन (hydration) की क्रियाएं साथ-साथ कार्य करती हैं। उदाहरण के लिए लोहे के आक्साइड पर जलयोजन होने से मिट्टियों का रंग पीला अथवा नारंगी हो जाता है।
कार्बोनेशन (carbonation)
जब कार्बन डाईआक्साइड (CO2) गैस का जल से सम्पर्क होता है, तो कई प्रकार के कार्बोनेट बनते हैं जो जल में घुलनशील होते हैं। इन कार्बोनेटों के बनने से चट्टानों के घुलनशील तत्व उनसे अलग होकर जल के साथ बहने लगते हैं। इसी कारण से कार्बोनेशन को ‘घोलन’ (solution) भी कहा जाता है। जब लौह सल्फाइड या पाइराइट पर कार्बन डाईआक्साइड से युक्त जल का प्रभाव होता है, तो उसके प्रभाव से क्रमशः लोहे के कार्बोनेट तथा सलफ्यूरिक अम्ल (sulphuric acid) बन जाते हैं।
लोहे के कार्बोनेट अत्यधिक घुलनशील होने के कारण जल में शीघ्रता से घुलकर चट्टान से अलग हो जाते हिं। चूने का पत्थर साधारण जल में नहीं घुलता है, परन्तु जब उसका सम्पर्क कार्बन डाई आक्साइड गैस से होता है, तो चूने का पत्थर कैलसियम बाई कार्बोनेट में बदल जाता है जो कि आसानी से जल के साथ घुलकर मिल जाता है।
कार्बोनेशन की क्रिया के कारण ही पोटाश या पोटैशियम कार्बोनेट की रचना होती है जो कि एक प्रकार का प्रमुख जीव का भोजन होता है। भूमिगत जल में कार्बन डाईआक्साइड का अंश अधिक रहता है, अत: चूने की चट्टानों वाले भागों में सतह के ऊपर तथा नीचे इस प्रकार के अपक्षय द्वारा कई प्रकार की स्थलाकृतियों के निर्माण हुए हैं। पूर्ववर्ती यूगोस्लाविया का कार्स्ट प्रदेश इसका प्रमुख उदाहरण हैं ।
हाइड्रेशन या जलयोजन (hydration)
चट्टानों का सम्पर्क जब जल से होता है, तो जल की हाइड्रोजन से चट्टानों के खनिजों में हाइड्रेशन की क्रिया होती है, अर्थात् चट्टानें जल सोख लेती हैं तथा उनके आयतन में वृद्धि हो जाती है। कभी-कभी यह वृद्धि प्रारम्भिक आयतन से दो गुना हो जाती है। इस क्रिया से कभी-कभी मूल चट्टान के वास्तविक आयतन में 88 प्रतिशत तक की वृद्धि देखने को मिलती है।
इस प्रकार चट्टानों के आयतन में बढ़ोतरी होने से उनके कणों तथा खनिजों में तनाव की स्थिति पैदा हो जाती है, जिस कारण चट्टानें फैलकर टूटने लगती हैं। आग्नेय चट्टान पर हाइड्रेशन की क्रिया का अधिक प्रभाव पड़ता है तथा इस प्रकार के अपक्षय से आग्नेय चट्टान टूट-टूटकर परतदार शैलों में परिवर्तित होती रहती हैं। हाइड्रेशन की क्रिया द्वारा फेल्सपार नामक खनिज का परिवर्तन कओलिन मृत्तिका में हो जाता है। जिप्सम की संरचना मुख्य रूप से जलयोजन की क्रिया द्वारा ही हुई है।
सिलिका का पृथक्करण (desilication)
हम जानते हैं कि अनेक चट्टानों में सिलिका की मात्रा अधिक होती है। जब जल द्वारा रासायनिक विधि से सिलिका युक्त चट्टानों से सिलिका अलग हो जाती है, तो उस क्रिया को सिलिका का पृथक्कीकरण कहते हैं । आग्नेय चट्टानों में खासकर ग्रेनाइट में सिलिका की मात्रा अधिक होती है। इसमें से कुछ क्वार्ट्ज के रूप में होते हैं तथा अधिकांश सिलिकेट के रूप में।
सिलिकेट का जल के द्वारा चट्टान से पृथक्कीकरण आसानी से हो जाता है, जिससे चट्टान ढीली पड़ जाती है तथा उसका वियोजन प्रारम्भ हो जाता है। यही कारण है कि आग्नेय चट्टान वाले प्रदेश में बहने वाली नदियों में सिलिका की मात्रा, परतदार चट्टानों वाले भागों की अपेक्षा अधिक होती है, क्योंकि परतदार चट्टानों में सिलिका क्वार्टज के रूप में होता है जो कि जल में जल्दी से नहीं घुलती। रासायनिक अपक्षय की दृष्टि से बेसिक आग्नेय चट्टानों का वियोजन एसिड आग्नेय चट्टानों की अपेक्षा अधिक होता है।
References
- भौतिक भूगोल, डॉ. सविन्द्र सिंह
FAQs
रासायनिक अपक्षय वह प्रक्रिया है जिसमें चट्टानों के खनिजों में रासायनिक परिवर्तन होते हैं। यह परिवर्तन आक्सीजन, कार्बन डाईऑक्साइड, और जल के प्रभाव से होते हैं, जिससे चट्टानें विघटित होती हैं और नए खनिजों का निर्माण होता है।
आक्सीडेशन एक रासायनिक प्रक्रिया है, जिसमें आक्सीजन चट्टानों के खनिजों के साथ प्रतिक्रिया करती है। इस प्रक्रिया में खनिजों का ऑक्साइड बनता है, जिससे चट्टानें ढीली और कमजोर हो जाती हैं, विशेषकर उन चट्टानों में जिनमें लोहे के यौगिक होते हैं।
कार्बोनेशन एक रासायनिक प्रक्रिया है, जिसमें कार्बन डाईऑक्साइड और जल की प्रतिक्रिया से चट्टानों के खनिजों का घुलन होता है। यह प्रक्रिया चूना पत्थर जैसे खनिजों में विशेष रूप से प्रभावी होती है, जिसमें कैल्सियम बाइकार्बोनेट का निर्माण होता है जो जल में घुलनशील होता है।
हाइड्रेशन वह प्रक्रिया है जिसमें चट्टानों के खनिज जल सोख लेते हैं, जिससे उनका आयतन बढ़ जाता है। इस प्रक्रिया के कारण चट्टानें ढीली और कमजोर हो जाती हैं, और उनका वियोजन शुरू हो जाता है।
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