Estimated reading time: 7 minutes
Table of contents
इस लेख के माध्यम से हम जैविक अपक्षय का अर्थ एवं इसके विभिन्न रूपों के बारे में जानेंगे।
प्राणिवर्गीय या जैविक अपक्षय के कारणों में वनस्पतियाँ, जीव-जन्तु एवं मानव तीनों चट्टानों के विघटन तथा वियोजन क्रियाओं में महत्त्पूर्ण भूमिका निभाते हैं। जीव-जन्तु विशेषकर जो बिलो में रहते हैं, वें पृथ्वी की सतह को खोदते रहते हैं, जिससे अपक्षय को बढ़ावा मिलता है। वनस्पतियाँ एक तरफ तो चट्टान को अपनी जड़ों द्वारा कमजोर तथा ढीला बनाती हैं, वहीं दूसरी तरफ मिट्टी को एक स्थान पर बंधे रखकर सतह को सघन व संगठित भी करती है। मानव की बात करें तो कार्य से पृथ्वी तल पर भौतिक आकृतियों में तोड़-फोड़ करता है।
आइए इन कारकों द्वारा अपक्षय की प्रक्रिया को हम अलग-अलग संक्षेप में रूप में समझते हैं:
जैविक अपक्षय (Biological Weathering) के रूप
जीव-जन्तुओं द्वारा अपक्षय (weathering due to animals)
पृथ्वी की ऊपरी सतह में मिट्टी में रहने वाले कई प्रकार के कीड़े-मकोड़े तथा बिल में रहने वाले जीव (burrowing animals) धीरे-2 परन्तु लगातार धरातलीय चट्टानों में बिल बनाने के लिए खनन कार्य द्वारा उनको ढीली तथा कमजोर बनाते रहते हैं। बिल में रहने वाले जीवों में गोफर (एक प्रकार की गिलहरी), प्रेयरी कुत्ते, दीमक, लोमड़ी, गीदड़, चींटी, चूहा आदि प्रमुख हैं, जो कि अपने रहने का स्थान बनाने के लिए चट्टानों को खोदकर उनमें बिल बनाते हैं, जिस कारण चट्टानें ढीली तथा कमजोर हो जाती हैं एवं विघटन आसानी से होने लगता है।
छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े, खासकर केछुएँ जैविक अपक्षय में सबसे महत्त्पूर्ण भूमिका निभाते हैं, जो प्रतिवर्ष अधिक मात्रा में निचली परतों से मिट्टी खोदकर ऊपरी सतह परइकट्ठा करते रहते हैं। उदहारण के रूप में सामान्य मिट्टी के एक एकड़ में 1,50,000 छोटे-छोटे कीड़े होते हैं जो एक वर्ष में लगभग 15 टन मिट्टी पृथ्वी की सतह पर एकत्र कर देते हैं। चार्ल्स डार्विन के अनुमान के अनुसार अंग्रेजी बागों में कीड़े प्रतिवर्ष प्रति हेक्टेयर भूमि से 25.4 हजार किलोग्राम मिट्टी खोदकर सतह के ऊपर ला देते हैं।
मानव भी एक जीव है, जो अपक्षय के कर्कर्नों में से एक है। वह अपने विभिन्न कार्यों जैसे खानें खोदना, सड़कों आदि के निर्माण के लिए सुरंगें बनाना, वनों को काटना आदि द्वारा चट्टानों को कमजोर बना देता है। हिमालय प्रदेश में वनों को काटने के कारण चट्टानें नग्न हो रही हैं जिनके अपक्षय के कारण गंगा तथा यमुना नदियों में अधिक् अवसाद हो जाने से इनकी घाटी में अवसादी निक्षेप के कारण घाटी की गहराई कम हो रही है। जिसके परिणामस्वरूप बाढ़ का प्रकोप बढ़ रहा है।
वनस्पतियों द्वारा अपक्षय (weathering due to vegetation)
वनस्पतियों द्वारा अपक्षय दो रूपों में होता है। पहला, यांत्रिक तथा दूसरा, रासायनिक। यांत्रिक अपक्षय में वृक्षों, झाड़ियों तथा छोटे-छोटे पौधों की जड़ें पृथ्वी के अन्दर प्रवेश करती हैं, जिस कारण चट्टानों की दरारें जिनमें इनकी जड़ों प्रवेश करती हैं, फैलने लगती हैं तथा तनाव के कारण विघटन होने लगता है। याद रहे कि सभी प्रकार के पौधे, चाहे बड़े हों या छोटे अपक्षय में सक्रिय भाग लेते हैं।
वनस्पतियों द्वारा होने वाला रासायनिक अपक्षय भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। सभी प्रकार की वनस्पतियों की जड़ें चट्टानों के कुछ तत्वों को अपने अन्दर शोख लेती हैं, जिससे चट्टानें कमजोर हो जाती हैं। वनस्पतियों की जड़ों में प्राय: जलयुक्त बैक्ट्रीया होते हैं जो कि चट्टानों के खनिजों को घुलाकर उनसे अलग कर लेते हैं तथा चट्टान को कमजोर बना देते हैं।
वनस्पतियों तथा जीवों के अवशेष जल में पड़कर सड़ते हैं, जिस कारण उनसे कार्बन डाईआक्साइड, आर्गेनिक एसिड आदि अलग हो जाते हैं तथा इनके सम्मिश्रण से जल एक सक्रिय घोलक के रप में काम करने लगता है तथा चट्टानों के खनिजों को अलग कर लेता है। उदाहरण के लिए वनस्पतियों के अवशेषों के सड़ने से प्राप्त ह्यमस तत्व लिमोनाइट को घुला कर अलग कर लेता है।
ऊपर की गई चर्चा का तात्पर्य नहीं है कि वनस्पतियों का कार्य सदैव चट्टानों में विघटन तथा वियोजन उत्पन्न करना ही है, बल्कि ये चट्टानों के संरक्षक का भी कार्य करती हैं। पौधे तथा वनस्पतियों की जड़ों द्वारा चट्टानें आपस में बंध जाती हैं, जिससे अपक्षय तथा अपरदन के लिए सघन तथा संगठित हो जाती हैं। वनस्पतियों के अभाव में अपरदन इतना अधिक सक्रिय हो जाता है कि भूमि पूर्णतया अनुपजाऊ हो जाती है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के केण्टुकी, वर्जीनिया, टेनेसी आदि प्रान्तों में इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। हिमालय प्रदेश में वनों के अनावरण से अपक्षय (यांत्रिक तथा रासायनिक) की सक्रियता में वृद्धि हो रही है। अपक्षय की उपर्युक्त क्रियाएँ प्राय: अलग-अलग कार्य नहीं करती हैं, वरन् एक दूसरे के सहयोग के साथ सक्रिय होती हैं। अत: अपक्षय के एक प्रकार को दूसरे से अलग करना न्यायोचित नहीं है।
मानव जनित अपक्षय (anthropogenic weathering)
मनुष्य एक जैविक जन्तु है परन्तु प्रौद्योगिक मानव के रूप में अपक्षय की प्राकृतिक प्रक्रियाओं की दर को कई गुना अधिक या कम कर देने में समर्थ हो गया है। आधुनिक प्रौद्योगिकी सेबहुत सी आर्थिक क्रियाएं, यथा- खनिजों की प्राप्ति के लिए खनन कार्य, सड़क निर्माण एवं खनिजों के लिए डायनामाइट द्वारा पहाड़ियों को उड़ाना, औद्योगिक एवं निर्माण कार्य के लिए आवश्यक पदार्थों की प्राप्ति के लिए (यथा-सीमेण्ट के लिए चूना पत्थर) खनन कार्य आदि, शैलों के विघटन में इतनी शीघ्रता से सहायता करती हैं कि इस तरह से उत्पन्न परिवर्तन सामान्य रूप में प्राकृतिक कारकों द्वारा हजारों वर्षों में ही हो सकता है।
वनों की कटाई से पहाड़ी ढालों पर अपक्षय की दर में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है जिस कारण पहाड़ी ढालों का सन्तुलन बिगड़ गया है तथा भूमिस्खलन की क्रियाएं तेज हो गई हैं। उदाहरण के लिए अगस्त, 1998 में उत्तर प्रदेश के पिथौरागढ़ जनपद के मालपा गांव का हृदय विदारक विनाशी भूमिस्खलन इसका प्रत्यक्ष गवाह है। इस प्राकृतिक प्रकोप के कारण कैलाश-मानसरोवर जा रहे सैकड़ों तीर्थयात्री कालकवलित हो गए ।
जैव रासायनिक अपक्षय (biochemical weathering)
जैविक पदार्थों (पौधों तथा जन्तुओं, दोनों के) द्वारा शैलों में विघटन एवं वियोजन अर्थात् रासायनिक अपक्षय को जैव रासायनिक अपक्षय कहते हैं। जैविक पदार्थों द्वारा विभिन्न प्रकार के अम्ल (एसिड) के जनन (यथा-ह्यूमिक एसिड, बैक्टीरिया एसिड, सूक्ष्म जन्तु एसिड आदि) से कई प्रकार की जटिल एवं जैव रासायनिक प्रक्रियाएं सक्रिय हो जाती हैं (यथा- कैटायन जड़ परिवर्तन – (cation root exchange),चेलेशन, घौलीकरण आदि) जिस कारण शैलों में विघटन तथा वियोजन होता है।
रसायनपोषी (chemotrophic) बेक्टीरिया उष्ण कटिबन्धी मिट्टियों में सल्फाइड उत्पन्न करती हैं, तथा सिलिका को अलग कर देती हैं। नीली-हरी शैवाल (algae) के कारण शैलों पर मरु वारनिश (desert varnish) का निर्माण हो जाता है। सूक्ष्म जीव शैलों की सतह पर वारनिश लेप (varnish incrustation) कर देते हैं। जीवों द्वारा उत्पन्न जैविक कार्बन डाई आक्साइड द्वारा कार्बोनेशन की प्रक्रिया तेज हो जाती है जिस कारण चूनापत्थर एवं डोलोमाइट का रासायनिक अपक्षय तेज हो जाता है।
References
- भौतिक अपक्षय, डॉ. सविन्द्र सिंह
FAQs
जैविक अपक्षय वह प्रक्रिया है जिसमें जीव-जन्तु, वनस्पतियाँ, और मानव चट्टानों के विघटन और वियोजन में योगदान करते हैं। यह प्रक्रिया भौतिक, रासायनिक और जैविक रूपों में होती है।
वनस्पतियाँ अपनी जड़ों द्वारा चट्टानों में दरारें पैदा करती हैं, जिससे चट्टानें कमजोर होती हैं। ये जड़ें चट्टानों के खनिजों को अवशोषित करके रासायनिक अपक्षय को भी बढ़ावा देती हैं।
जीव-जन्तु, जैसे कि बिल में रहने वाले जीव, चट्टानों को खोदकर उनमें दरारें पैदा करते हैं। इस प्रक्रिया से चट्टानें ढीली और कमजोर होती हैं, जिससे वे विघटित हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, गोफर, प्रेयरी कुत्ते, और केचुएँ इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
मानव गतिविधियाँ, जैसे कि खनन, सड़क निर्माण, और वनों की कटाई, चट्टानों के विघटन में तेजी लाती हैं। इन गतिविधियों से चट्टानों की संरचना कमजोर होती है और अपक्षय की दर बढ़ जाती है।