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भारतीय वानिकी की समस्याएँ (Problems of Indian Forestry)

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यद्यपि देश के पास प्रचुर और विविध वन संसाधन उपलब्ध हैं परन्तु वैज्ञानिक नियोजन के अभाव, शोषण की देशी पद्धति और कुप्रबन्ध के कारण वार्षिक उपज बहुत कम है। जहाँ प्रति हेक्टेयर वन क्षेत्र में वार्षिक उत्पादकता स्तर फ्रांस में 3.9 घन मीटर, जापान में 1.8 घनमीटर, संयुक्त राज्य अमेरिका में 1.25 घन मीटर लकड़ी है वहाँ भारत में यह केवल 0.5 घन मीटर है। हर प्रयासों के बावजूद प्रतिवर्ष प्रति हेक्टेयर साल के वन से 6.8 टन, देवदार से 10.1 टन और चीड़ से 3.2 टन से ज्यादा लकड़ी नहीं प्राप्त हो पाती है।

भारत की वानिकी समस्याएँ (Problems of Indian Forestry)

कम क्षेत्रफल

भारत में वनावरण बहुत कम है। वर्ष 1953 की राष्ट्रीय वन नीति द्वारा निर्धारित 33 प्रतिशत का समग्र वनावरण (मैदान में 25% एवं पहाड़ी क्षेत्र में 60%) केवल अण्डमान-निकोबार, मिजोरम, नगालैण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय (पहाड़ी क्षेत्र), छत्तीसगढ़, असम एवं उड़ीसा (मैदानी क्षेत्र) को छोड़कर अन्यत्र नहीं पाया जाता है।

एक साथ विभिन्न प्रजाति के वृक्षों का मिलना

भारत के वनों में विभिन्न प्रजाति के वृक्ष एक साथ मिले- जुले रूप में पाए जाते हैं जिससे किसी एक वृक्ष प्रजाति की लकड़ी की खोज में कठिनाई होती है और काफी समय लगता है।

अधिकतम दुर्गम वन

देश के लगभग 40 प्रतिशत वन दुर्गम पहाड़ी भागों में स्थित हैं जहाँ यातायात और परिवहन की सुविधाओं का पर्याप्त विकास नहीं हुआ है। अन्य क्षेत्रों के वनों में भी सड़कों की दशा अच्छी नहीं है तथा वर्षा ऋतु में अधिक झाड़-झंखाड़ उग आने के कारण वनों का दोहन कठिन हो जाता है।

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लोगों का अत्यधिक हस्तक्षेप

लगभग 48 प्रतिशत वनों में जनजातियों एवं स्थानीय लोगों को पशुचारण, जलाऊ लकड़ी और वनोपजों के संग्रह का रिवाजी अधिकार प्राप्त है। इसके साथ-साथ चोरी से शिकार एवं तश्करी से वनों का ह्रास हो रहा है और उनकी उपज घट रही है।

लकड़ियों उपयोग हेतु पुरानी तकनीकी का उपयोग

हमारे लकड़ी काटने, चिराई करने आदि के तरीके काफी पुराने हैं जिससे लकड़ी के छीजन की मात्रा अधिक होती है। अच्छी मात्रा में घटिया लकड़ी, जिसे सीजन एवं संरक्षण उपचार द्वारा आर्थिक उपयोग में लाया जा सकता है, फेंक दी जाती है। चिराई की मशीनें पुरानी हैं और ऊर्जा की सुविधाओं का अभाव है।

वाणिज्यिक वनों का अभाव

भारत में वाणिज्यिक वनों का अभाव है। यहाँ के अधिकांश वन संरक्षात्मक प्रयोजनों हेतु हैं। प्रशिक्षित कर्मचारियों और वैज्ञानिक शोधों के अभाव में वनों के प्रबंधन और वन संसाधनों के उपयोग में कठिनाई होती है। अच्छी खासी ऊर्जा वनों के पुनरुद्धार और संवर्धन के बजाय केवल उनके रखरखाव तथा सुरक्षा में खर्च हो जाती है। अर्वाचीन वानिकी के अभाव में कई वनोत्पादों की आर्थिक उपयोगिता के बारे में हमें जानकारी ही नहीं है।

वनोपजों की कम मांग

निम्न जीवन स्तर के कारण भारत में पाश्चात्य देशों की तुलना में वनोपजों की मांग बहुत कम है। इससे वनपालों और वन व्यवसाय में लगे लोगों को पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं मिल पाता है। हाल के वर्षों में इस्पात, प्लास्टिक एवं संश्लेषित उत्पादों के लकड़ी के विकल्प के रूप में प्रयोग किये जाने से वन उद्योग के सामने अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो रहा है।

वनों के विकास पर कम ध्यान

भारत में पौधों के केवल नैसर्गिक विकास का ही सहारा लिया जाता है जबकि कई विकसित देशों में उनकी वृद्धि को तेज करने की वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाता है। कई वृक्षों की किस्मों की वृद्धि दर मन्थर और उपज कम होती है। अज्ञानता, जनसंख्या दबाव और अन्धाधुन्ध उपयोग के कारण बहुत सी पौधों की प्रजातियाँ लुप्त होने की कगार पर हैं।

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भारत के वनों में आग, बीमारियों एवं कीटों से सुरक्षा की पर्याप्त और कारगर व्यवस्था का अभाव

भारत के वनों में आग, बीमारियों एवं कीटों से सुरक्षा की पर्याप्त और कारगर व्यवस्था नहीं है। उदाहरणार्थ, मध्य प्रदेश में हजारों हेक्टेयर के साल के वन साल बेधक (sal borer) कीट से आक्रान्त हैं। वनोंपजों ‘की चोरी एक गंभीर समस्या है। भ्रष्ट कर्मचारियों के सहयोग से न केवल ये तश्कर वन एवं वन्य जीवों को भारी क्षति पहुँचा रहे हैं वरन् सरकार के राजस्व को बड़ा नुकसान प्रदान कर रहे हैं।

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