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देखा जाए तो कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की आधार है और देश की लगभग दो-तिहाई जनसंख्या कृषि पर ही निर्भर है फिर भी भारतीय कृषि कई समस्याओं से ग्रसित है और कुछ समस्याएं तो समय बीतने के साथ और भी जटिल होती जा रही हैं। स्वतंत्रता के तुरंत बाद योजनाबद्ध विकास के बावजूद भी कृषि संबंधी समस्याओं को सुलझाने में कोई विशेष सफलता नहीं मिली है। आइए यहां हम भारतीय कृषि से जुडी कुछ गंभीर समस्याओं की चर्चा करते हैं।
भारतीय कृषि की समस्याएं (Problems of Indian Agriculture)
1. जीवन-निर्वाहक कृषि
भारतीय कृषि की सबसे बड़ी विशेषता या खामी यह है कि यह मुख्यतः जीवन-निर्वाह कृषि है। भारत की लगभग दो-तिहाई श्रमिक जनसंख्या कृषि कार्य में लगी हुई है फिर भी हम अपनी आवश्यकता के लिए पर्याप्त कृषि उत्पादन नहीं कर पाते। पहले कृषि भारत के सकल घरेलू उत्पाद का एक-तिहाई से भी अधिक भाग प्रदान करती थी परंतु 2008-09 में यह घटकर केवल 17.1% रह गया।
हमारी कुल कृषीय भूमि के तीन-चौथाई भाग में खाद्यान्न बोए जाते हैं, फिर भी हमें प्रायः खाद्यानों (अनाज) का आयात करना पड़ता है। इसके विपरीत, संयुक्त राज्य अमेरिका में केवल 6% लोग कृषि कार्य में लगे हुए हैं और यह देश अपनी आवश्यकता को पूरा करने के पश्चात् बड़ी मात्रा में विदेशों को कृषि उत्पाद निर्यात करता है।
2. भारतीय कृषि पर जनसंख्या का भारी दबाव
हमारी जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा कृषि पर निर्भर करता है, इसलिए कृषि पर हमारी जनसंख्या का दबाव बहुत अधिक है। इसका कारण हमारी कृषि में यन्त्रीकरण का कम उपयोग है। अधिकांश कृषि कार्य किसान तथा उसके परिवार के सदस्य हाथों से करते हैं, जिससे प्रति व्यक्ति कृषि उत्पादन कम होता है। देश की लगभग दो-तिहाई जनसंख्या प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कृषि पर ही आधारित है। एक तरफ तो जनसंख्या में तेजी से बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर प्रति व्यक्ति कृषि भूमि तेजी से कमी हो रही है।
सन् 1951 में 0.3 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति कृषि भूमि थी जो घटकर अब केवल 0.1 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति रह गई है। अर्थात् स्वतंत्रता से लेकर जब तक प्रति व्यक्ति कृषि भूमि एक-तिहाई रह गई है। विश्व में 4.2 हेक्टेयर औसत प्रति व्यक्ति कृषि भूमि उपलब्ध है। स्पष्ट है कि भारत में कृषि पर जनसंख्या का भार बहुत अधिक हो गया है और यह भार आने वाले समय में और भी अधिक हो जाएगा।
3. कृषि जोतों (खेतों) का छोटा आकार
हमारे देश में जोतों (खेत) का आकार बहुत छोटा है। हमारी सामाजिक व्यवस्था के अनुसार पिता की जमीन उसके बेटों में बराबर बाँट दी जाती है, जिससे खेतों का आकार लगातार छोटा होता जा रहा है। इस समय भारत में जोतों का आकार केवल 2 हेक्टेयर है जबकि इंग्लैंड में यह आकार 25 हेक्टेयर तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में 40 हेक्टेयर है।
देश के कुछ भागों में तो जोत का आकार एक हेक्टेयर से भी कम है। कुछ खेत तो इतने छोटे हैं कि उनसे कृषक के परिवार का गुजारा भी नहीं हो पाता। छोटे खेत आधुनिक कृषि के लिए अनुकूल नहीं हैं क्योंकि ऐसे खेतों में आधुनिक उपकरणों का प्रयोग नहीं किया जा सकता।
4. भूमि का असंतुलित वितरण
कृषि जोतों के छोटा होने के साथ-साथ भूमि का वितरण भी बहुत ही असन्तुलित है। देश के केवल 1% किसान 20% कृषि भूमि के स्वामी है, 10% किसानों के पास 50% कृषि भूमि है तथा शेष 89% किसानों के पास केवल 30% भूमि है।
सरकार द्वारा जमींदारी के उन्मूलन तथा भूमि की अधिकतम सीमा निर्धारित करने के बावजूद भी 2015-16 तक 86% सीमांत एवं छोटे किसान है और केवल 0.57% बड़े किसान है जिनके पास 25 एकड़ से अधिक कृषि भूमि है। इसका अर्थ यह है कि छोटे और सीमांत किसानों की संख्या ज्यादा है जिनके पास कृषि सुधार के लिये पर्याप्त साधन नहीं होते और कृषि पिछड़ी अवस्था में ही रह जाती है।
5. मिट्टी की उपजाऊ शक्ति का कम होना
भारत में हजारों वर्षों से खेती होती जा रही है। सदा से उसी भूमि पर लगातार खेती होने के कारण मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बहुत कम हो जाती है। आर्थिक साधनों के अभाव के कारण बहुत से किसान रासायनिक खादों का प्रयोग नहीं कर पाते।
6. मृदा अपरदन
वनों की अन्धाधुन्ध काटने, पशुओं को अधिक चराने, तीव्र वायु तथा वर्षा की अनिश्चितता के कारण भारत में बड़े पैमाने पर मृदा अपरदन हुआ है। अनुमान है कि भारत में लगभग 8 करोड़ हेक्टेयर भूमि में मृदा अपरदन का प्रभाव है। इसमें से 4 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर कृषि की जा रही है। 2.5 करोड़ हेक्टेयर परती भूमि है तथा 2 करोड़ हेक्टेयर भूमि मरुभूमि है।
7. सिंचाई की सुविधाओं का अभाव
भारत में वर्षा मानसून पवनों द्वारा होती है जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इसलिए नियमित रूप से कृषि करने के लिए सिंचाई की सुविधाओं का पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना अति आवश्यक है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि हमने सिंचाई के क्षेत्र में उल्लेखनीय उन्नति की है। । 1950-51 में भारत में कुल 2.08 करोड़ हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की सुविधाएँ उपलब्ध थीं जो सन् 2019-20 में 7.54 करोड़ हेक्टेयर तक पहुँच गई। अर्थात् 70 वर्ष के अल्पकाल में हमारे सिंचित क्षेत्र में तीन गुना से अधिक वृद्धि हुई।
परन्तु देश के आकार, जलवायु तथा मिट्टी सम्बन्धी परिस्थितियों को देखते हुए यह बहुत ही कम है। हमारे देश में 2019-20 तक 13.9 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर कृषि की जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि स्वतंत्रता के इतने वर्ष बाद भी हम अपने कृषि क्षेत्र के केवल 52.24% भाग को ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध करा सके हैं। शेष 47.76% भाग सिंचाई से वंचित है और पूर्णतया वर्षा पर ही निर्भर करता है। भारत की मानसूनी वर्षा अनिश्चित तथा अनियमित है जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। अतः कृषि की समस्या को हल करने के लिए सिंचाई का व्यापक प्रबन्ध करने की आवश्यकता है।
8. निम्नस्तरीय प्रौद्योगिकी का प्रयोग
अधिकांश भारतीय किसानों के पास आवश्यकता से कम भूमि है और उनके पास आधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग करने के लिए पर्याप्त वित्तीय साधन नहीं होते। अतः ये कृषि का अधिकांश कार्य अपने परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर स्वयं करते हैं या कृषि के विभिन्न कार्यों के लिए पशुओं का प्रयोग करते हैं। भारतीय पशुओं का स्वास्थ्य एवं उनकी कार्य कुशलता निम्न स्तर की होती है जिससे हल चलाने, बीज बोने, फसल काटने आदि कृषि कार्यों में विलम्ब होता है और कार्यकुशलता एवं कृषि उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
9. श्रम प्रधान कृषि
भारतीय कृषि श्रम प्रधान कृषि है जिसमें खेत को जोतने, समतल करने, बोने, कटाई एवं घटाई करने, सिंचाई करने, फसल काटने और अनाज निकालने का सारा काम मानवीय श्रम द्वारा किया जाता है। अतः कृषि कार्यों के लिए अधिक व्यक्तियों की आवश्यकता होती है और प्रति व्यक्ति उत्पादकता निम्न स्तर की होती है। आधुनिक मशीनों तक पहुँच केवल पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र एवं गुजरात के धनी किसानों तक ही सीमित है।
10. किसानों का रूढ़िवादी एवं भाग्यवादी होना
अधिकांश भारतीय किसान परिश्रम की अपेक्षा भाग्य में अधिक विश्वास करते हैं। वे सदियों से चली आ रही रूढ़ियों का पालन करते है और कृषि की नई पद्धति को अपनाने में संकोच करते हैं। इसके अतिरिक्त अधिकांश भारतीय किसान अशिक्षित एवं अप्रशिक्षित है जिससे वे चाहते हुए भी कृषि की नई विधियों को नहीं अपना सकते। इन सभी कारणों से कृषि के विकास में बाधा पड़ती है।
11. प्रति हेक्टेयर उपज कम होना
भारतीय कृषि की सबसे बड़ी समस्या फसलों की प्रति हेक्टेयर उपज कम होना है। यह विश्व के अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है।
तालिका 1
चुनिंदा फसलों के उपज की अंतर्राष्ट्रीय तुलना, 2020
गेंहू | चावल | दालें | |||
देश | उपज प्रति हेक्टेयर (कि.ग्रा. में.) | देश | उपज प्रति हेक्टेयर (कि.ग्रा. में.) | देश | उपज प्रति हेक्टेयर (कि.ग्रा. में.) |
विश्व | 3474 | विश्व | 4717 | विश्व | 986 |
चीन | 5742 | चीन | 7043 | भारत | 743 |
भारत | 3440 | भारत | 4138 | कनाडा | 2212 |
रूसी संघ | 2976 | इंडोनेशिया | 5128 | चीन | 1815 |
संयुक्त राज्य अमेरिका | 3342 | बांग्लादेश | 4809 | म्यांमार | 946 |
फ्रांस | 6680 | वियतनाम | 5921 | नाइजीरिया | 768 |
कनाडा | 3537 | थाईलैंड | 2906 | रूसी संघ | 1807 |
यूक्रेन | 3795 | म्यांमार | 3804 | ब्राज़िल | 1121 |
पाकिस्तान | 2868 | फिलिपींस | 4089 | इथियोपिया | 1880 |
जर्मनी | 7819 | कंबोडिया | 3385 | संयुक्त राज्य अमेरिका | 2171 |
अर्जेंटीना | 2939 | जापान | 7161 | नाइजर | 464 |
कम उपज के मुख्य कारण मृदा की निम्न स्तरीय उपजाऊ क्षमता, खाद एवं उर्वरकों का सीमित प्रयोग, शस्यावर्तन (crop rotation) की कमी, उपयुक्त फसलों के चयन का अभाव, परती भूमि आदि हैं।
12. फसलों की बीमारियां तथा कीड़े
फसलों को अनेक प्रकार की बीमारियां लग जाती हैं। जैसे गेहूं को करंजवा (Rust) लग जाता है जिससे गेहूँ के दाने बेकार हो जाते हैं। कई कीड़े-मकोड़े भी फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। अनुमान है कि भारत में 10 प्रतिशत फसले कीड़ों के कारण खराब हो जाती हैं। कीटनाशक रासायनों के प्रयोग के फसलों को बीमारियों एवं कीड़ों से बचाया जा सकता है परन्तु निश्चित सीमा से अधिक कीटनाशक रासायनों के प्रयोग से पर्यावरण का प्रदूषण होता है।
13. फलीदार तथा चारे की फसलों को कम क्षेत्र
फलीदार फसलों को उगाने से मृदा में नाइट्रोजन की आपूर्ति होती है और मृदा की उपजाऊ शक्ति बढ़ती है। परंतु भारतीय कृषि प्रणाली में इन फसलों को बहुत कम महत्त्व दिया जाता है और मृदा की उपजाऊ क्षमता निरंतर कम हो रही है। इसके अतिरिक्त कुल कृषि क्षेत्र में केवल 4 प्रतिशत भाग पर चारे की फसलें बोई जाती हैं जो हमारे विशाल पशु धन के लिए पर्याप्त नहीं है। इससे पशु दुर्बल होते हैं और उनको उत्पादकता कम हो जाती है। भारत में पशुओं की संख्या विश्व के किसी भी देश के पशुओं की संख्या से अधिक परंतु पशु उत्पादों (दूध, मांस, खातें आदि) की दृष्टि से भारत का स्थान नगण्य है।
14. सरकारी नीतियाँ
सरकारी नीतियों से भी कृषि को वांछित सहयोग नहीं मिला। पहली पंचवर्षीय योजना के बाद कृषि को सौतेला व्यवहार ही मिला और उद्योगों की ओर अधिक झुकाव रहा। इसके परिणामस्वरूप कृषि का वह विकास नहीं हो सका जो भारत जैसे कृषि प्रधान देश में होना चाहिए था आज भारतीय अर्थव्यवस्था की वार्षिक वृद्धि दर 2022 में 7 प्रतिशत रही और इसकी तुलना में कृषि की वार्षिक वृद्धि दर केवल 3 प्रतिशत रही।
औद्योगिक क्षेत्र की वार्षिक वृद्धि दर लगभग 11 प्रतिशत रही। किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिलता और फसल प्रायः नष्ट हो जाती है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में ग्रामीण क्षेत्र के उत्थान से संबंधित तथा ग्रामीण-नगरीय असमानता को दूर करने पर बल दिया गया है परंतु इस कार्यक्रम के वांछित परिणाम अभी तक प्राप्त नहीं हुए हैं।
15. फसलों के विक्रय एवं भंडारण संबंधी समस्याएं
कृषि एक मौसमी आर्थिक किया है जिसमें फसलें किसी विशिष्ट मौसम में ही पक कर तैयार होती हैं। अतः विशिष्ट फसल किसी विशिष्ट मौसम में मण्डियों में आती है। मण्डियों में फसल के विक्रय की कोई उचित व्यवस्था नहीं होती और व्यापारी लोग इस स्थिति का अनुचित लाभ उठाते हैं और किसान को उनकी उपज का उचित दाम नहीं मिलता। सरकारी तंत्र किसानों से उनकी फसल खरीदता है परंतु देश में भंडारण की पर्याप्त व्यवस्था न होने के कारण बहुत सी फसल सड़ कर नष्ट हो जाती है।
16. प्रशिक्षण का अभाव
देश के अधिकांश ग्रामीण इलाकों में किसानों को उचित प्रशिक्षण नहीं दिया जाता और कृषि की नवीनतम विधियों से अपरिचित रहते हैं। इससे कृषि उपज में वृद्धि नहीं होती और किसान की आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं हो पाता।
17. किसानों की गरीबी और कर्जा
भारत में अधिकांश किसान गरीबी की हालत में रह रहे हैं और कर्ज से दबे हुए हैं। 2019-20 में भारत के 50% किसान परिवार ऋण के बोझ तले दबे हुए थे। इन दो समस्याओं के कारण आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, उड़ीसा, गुजरात, पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में हजारों किसानों ने पिछले लगभग एक दशक में आत्महत्या की है।
छोटे और सीमांत किसान अब भी ऋण के लिए साहूकार पर निर्भर करते हैं जो किसानों को ऊंची ब्याज दरों पर ऋण देते हैं। जब किसान साहूकार का कर्जा उतारने में असफल होता है तो वह किसान की जमीन हड़प लेता है। किसानों को इस समस्या से मुक्त कराने के लिए ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में संगठित बैंकों का प्रावधान किया गया है परंतु इसके वात परिणाम अभी तक प्राप्त नहीं हुए हैं।
18. अतार्किक भूधारण (Land Tenancy)
देश के कई भागों में कृषि भूमि के स्वामी अनुपस्थित भूस्वामी (Absentee Landiords) हैं जो भूमिहीन किसानों को बटाई पर जमीन देते हैं। ऐसी अवस्था में कृषक भूमि का स्वामी नहीं होता और भू-स्वामी स्वयं कृषि नहीं करता। चूंकि स्वयं कृषि करने वाला किसान भूमि का स्वामी नहीं होता इसलिए वह उचित कृषि, प्रबंधन तथा आधुनिकीकरण आदि की ओर ध्यान नहीं देता और कृषि की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
19. उपयुक्त कृषि भू-उपयोग नीति का अभाव (Lack of Proper Agricultural Land Use Policy)
भारत में कृषि भू-उपयोग की कोई निश्चित नीति नहीं है। इस कारण से किसान संबंधित क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियों की अनदेखी करके अपनी इच्छा के अनुसार फसलें उगाते हैं। इससे प्रायः फसल आवश्यकता से कम और कभी-कभी आवश्यकता से अधिक होती है। फसल अधिक होने की स्थिति में मण्डियों में फसल की मांग नहीं होती और दाम कम हो जाते हैं। इससे किसान को भरपूर फसल होने पर भी उचित लाभ नहीं मिलता कम फसल होने की स्थिति में किसान को भारी हानि उठानी पड़ती है।
20. समाज में कृषि कार्य की निम्न प्रतिष्ठा (Low Status of Agriculture in the Society)
भारतीय ग्रामीण समाज की मानसिकता के अनुसार कृषि को समाज में निम्न प्रतिष्ठा वाला व्यवसाय माना जाता है। अधिकांश शिक्षित ग्रामीण युवक कृषि की अपेक्षा नगरों में नौकरी करना अधिक पसन्द करते हैं। जब ये कृषि व्यवसाय में अपनी योग्यता के अनुसार उचित रोजगार प्राप्त करने में असफल हो जाते हैं तो नगरों की ओर प्रवास करते हैं।
इसके अतिरिक्त बड़े किसान कृषि से प्राप्त होने वाले लाभ को गैर-कृषि व्यवसायों में निवेश करते हैं जिससे उनको आर्थिक लाभ प्राप्त होता है। इस प्रकार कृषि को सक्षम मानव संसाधन तथा निवेश की हानि होती है और कृषि उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
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