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उत्तर भारत के विशाल मैदान का परिचय
भारत के महान मैदान शिवालिक के दक्षिण में स्थित हैं। हिमालयी अग्र भ्रंश (HFF) इस मैदान को हिमालय से अलग करता है। यह मैदान उत्तर के हिमालय प्रदेश और दक्षिण के प्रायद्वीपीय प्रदेश के मध्य एक संक्रमण प्रदेश है। पश्चिम से पूरब की ओर ढाल वाले इस महान मैदानी क्षेत्र का निर्माण सिंधु, गंगा, बह्मपुत्र और इनकी सहायक नदियों द्वारा निक्षेपित जलोढ़ों से हुआ है।
उत्तर भारत का विशाल मैदान सिंधु और गंगा नदियों के मुहाने के बीच पूरब-पश्चिम दिशा में लगभग 3200 कि.मी. लंबाई तक फैला है। इसकी चौड़ाई विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग है, जैसे-असम में 90 -100 कि.मी., झारखंड में 160 कि.मी. (राजमहल के पास), बिहार में 200 कि.मी., उत्तर प्रदेश (इलाहाबाद) में 280 कि.मी. और पंजाब में 500 कि.मी. (राजमहल के पास) है।
इस प्रकार देखा जाए तो सामान्यतया पूरब से पश्चिम की ओर इसकी चौड़ाई बढ़ती जाती है। इस मैदान की समुद्र तल से औसत ऊंचाई 200 मीटर है। अधिकतम ऊंचाई अंबाला और सहारनपुर के बीच 291 मीटर है। यह क्षेत्र इस विशाल मैदान का जल-विभाजक भी है। इसके पूर्व की ओर गंगा तथा उसकी सहायक नदियां पूर्व दिशा में बहती है और बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं। वहीं इस जल-विभाजक की पश्चिम की ओर सिन्धु एवं उसकी सहायक नदियां अरब सागर में जाकर मिल जाती है।
उत्तर भारत का इस विशाल मैदान में अधिकांशतः हिमालयी एवं प्रायद्वीपीय नदियों द्वारा लाए गए जलोढ़ निक्षेप मिलते हैं। अनुमानों के अनुसार इन निक्षेपों की औसत गहराई 1300 से 1400 मी. के बीच आंकी गयी है (वैसे यह गहराई बुंदेलखंड के उत्तर में है)। इन “मैदानों की सर्वाधिक गहराई हरियाणा के अंबाला, यमुनानगर जगाधरी में 8000 मी. से कुछ अधिक है। इस मैदान में उच्चावच से संबंधित भिन्नता बहुत कम ही देखने को मिलती है।
हालांकि कहीं कहीं पर नदियों की मृत भुजाएं, भुरों (Bhurs), तटबंधों (levees), बीहड़ों एवं खोलों (Khols) आदि प्राकृतिक भू-दृश्यों द्वारा इस मैदान की समतलता भंग भी होती है। मैदानों के उन भागों जहां बार-बार बाढ़ें आती हैं, नदियों का मार्ग परिवर्तन एक खास विशेषता है। हालाँकि बाढ़े जान-माल को भारी क्षति पहुंचाती हैं, इनके द्वारा बाढ़ के मैदानों पर उच्च उर्वरता वाले जलोढ़ मिट्टियों को जमा भी करती हैं।
भारत के उत्तरी मैदान का भू-आकृतिक विभाजन (Physiographic Division of the Great Plains of India)
वैसे तो उत्तर भारत का यह विशाल मैदान समतल एवं स्पाट है, जिसका औसत ढाल 20 सेंटीमीटर प्रति किलोमीटर है। परंतु फिर भी इस मैदान की कुछ अपनी विविधताएं हैं जिनका अपना विशिष्ट स्थान है। मिट्टी की विशेषता तथा ढाल के आधार पर इन विविधताओं को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है:
1. भाबर मैदान (The Bhabar Plain)
- यह शिवालिक के दक्षिण में स्थित है तथा इसका विस्तार पश्चिम से पूर्व दिशा में सिंधु नदी से तिस्ता नदी तक है।
- इसकी चौड़ाई पश्चिम में अधिक और पूर्व में कम है। इसकी चौड़ाई सामान्यतया 8 से 16 कि.मी. है तथा यह हिमालय और शिवालिक से निकलने वाली नदियों द्वारा निक्षेपित कंकड़ और बजरी के मिश्रित अवसादों से निर्मित हुआ है।
- ‘भाबर की सरंध्रता (porosity) इतनी अधिक है कि छोटी नदियां (‘चोस’ एवं ‘राओस’) इस क्षेत्र में विलुप्त हो जाती हैं। केवल बड़ी नदियां ही इस पर बहती हुई दिखाई देती हैं।
- यह क्षेत्र फसलों की खेती के लिए उपयुक्त नहीं है। लंबी जड़ों वाले बड़े वृक्ष ही यहां फल- फूल पाते हैं।
- इस मैदान के अधिकांश निवासी मवेशी पालन करने वाले होते हैं।
2. तराई मैदान (The Tarai Tract)
- भाबर के दक्षिण में 15 से 30 कि.मी. चौड़ी तराई की पट्टी है।
- इस मैदान में भाबर में लुप्त हुई नदियां फ़िर से भू तल पर प्रकट हो जाती हैं।
- अत्याधिक वर्षा के कारण यह दलदली एवं अत्याधिक नमी वाला प्रदेश है और मच्छरों से भरा है, जिसके कारण मलेरिया की अत्याधिक संभावना बनी रहती है। |
- यह तराई क्षेत्र पूर्व की ओर अपेक्षाकृत अधिक चौड़ी है, विशेषकर ब्रह्मपुत्र घाटी में।
- यहां घने जंगल और वन्य जीवों की प्रचुरता है।
- उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और जम्मू एवं कश्मीर (जम्मू मंडल) के तराई वनों को खेती के लिए कटाई की गयी है।
- शिवालिक के किनारे पर स्थित यह क्षेत्र कभी घने जंगलों और जंगली घासों का एक दलदलीय प्रदेश था, आज पूरा का पूरा कृषि कार्यों के लिए तैयार कर लिया गया।
- वर्तमान में तराई प्रदेश गन्ने, गेंहू, चावल, मक्का, तिलहन, दलहनों और चारे की खेती के लिए प्रसिद्ध हैं।
3. बांगर मैदान (The Bhangar Plains)
- यह उत्तर भारत के विशाल मैदान का वह ऊंचा भाग है, जहां पर नदियों के बाढ़ का जल नहीं पहुंच पाता।
- यह पुरानी जलोढ़ मिट्टियों से बना है। इनका निक्षेपण मध्य अभिनूतन काल में हुआ था।
- इसकी मृदा गहरे रंग की है, जिनमें ह्यूमस की प्रचुरता है तथा उर्वरा शक्ति से परिपूर्ण है। इनमें अशुद्ध कैल्सियम कार्बोनेट की ग्रंथिकाएं (nodules) एवं संग्रन्थियां (concretions) विद्यमान हैं, जिन्हें ‘ककड़’ (kankar) भी कहते हैं।
- अपेक्षाकृत शुष्क क्षेत्रों में इनमें लवणीय एवं क्षारीय क्षेत्र भी विकसित हुए हैं जिन्हें ‘रेह’, ‘कल्लर’ (Kallar) या ‘धुड़’ (Thur) के नाम से (स्थानीय भाषाओं में) भी पुकारा जाता है।
- बांगर मैदान के निक्षेपों में हाथी, घोड़े, दरियाई घोड़े, गैंडे इत्यादि के जीवाश्म विद्यमान हैं।
- अच्छे अपवाहों वाले बांगर मैदान, ‘भारत के विशाल मैदानों के सबसे उपजाऊ क्षेत्र हैं।’
4. खादर मैदान (The Khadar Plains)
- नदियों की धारा के दोनों तरफ तथा बाढ़ के मैदानों में नये जलोढ़ों से बने मैदानी भाग खादर या ‘बेत’ कहलाते हैं।
- हर साल वर्षा ऋतु में खादर प्रदेश में नदियों द्वारा नई मिट्टी की परत बिछा दी जाती है, जिससे इन मैदानों की उर्वरता बनी रहती है।
- खादर भूमि में बालू, गाद, चिकनी मिट्टी और कीचड़ आदि का मिश्रण होता है।
- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अधिकांश खादर मैदानों को कृषि क्षेत्र में परिवर्तित कर लिया गया है, जिन पर मुख्यतया गन्ने, चावल, गेहूं, मक्के, तिलहन, फलीदार फसलों तथा चारे की खेती की जाती है।
- इनमें मानव, हिरण, बैल, भैंस, घोड़े, हाथी, गैंडे इत्यादि के जीवाश्म विद्यमान हैं।
5. डेल्टा मैदान (The Delta Plains)
- डेल्टाई मैदान खादर के ही विस्तार हैं।
- यह गंगा नदी के निचले भागों में लगभग 1.9 लाख वर्ग कि.मी. में विस्तृत है।
- नदी के बहाव के कम होने के कारण गाद के महीन कण नदी मुहाने के पास पर जमा हो जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप डेल्टा का निर्माण होता है। यह वास्तव में एक उच्च निक्षेपण प्रदेश है।
- दलदलीय डेल्टाई मैदान मुख्यतया पुराने पंक एवं नए पंक से बने हैं।
- डेल्टा प्रदेश की उच्चभूमि को ‘चार’ (Chars) और दलदलीय क्षेत्र को ‘बिल’ (Bils) के नाम से जानते हैं।
- गंगा के डेल्टा के सक्रिय डेल्टा (active delta) होने के कारण इसका बंगाल की खाड़ी की ओर निरंतर विस्तार जारी है।
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FAQs
भाबर क्या है? भाबर की दो विशेषताएं क्या हैं?
भाबर की दो विशेषताएं:
(i) गिरिपद पर स्थित होने के कारण इस क्षेत्र में नदियों ने बड़ी मात्रा में भारी पत्थर, कंकड़, बजरी आदि लाकर जमा कर दिया है जिससे पारगम्य चट्टानों का निर्माण होता है और यह वन विहीन क्षेत्र है।
(ii) पारगम्य चट्टानों के कारण यहाँ छोटी-छोटी नदियाँ भूमिगत होकर अदृश्य हो जाती हैं और यह क्षेत्र कृषि के लिए अधिक उपयोगी नहीं होता।
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