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गुज्जर जनजाति का परिचय
गुज्जर एक अद्भुत जनजातीय समूह है जो जम्मू-कश्मीर की पहाड़ी चोटियों व घाटियों के बीच निरंतर ऋतु प्रवास करता रहता है। ये लोग अपने भेड़-बकरियों के झुण्ड के साथ ग्रीष्म ऋतु में पहाड़ी की चोटियों की ओर तथा शीत ऋतु में घाटी की ओर लगातार प्रवास करते रहते हैं। वैसे तो गुज्जर अपने आपको जम्मू-कश्मीर का मूल निवासी बताते हैं। परंतु विभिन्न विद्वानों ने इनके मूल निवास क्षेत्र के बारे में अलग-अलग विचार रखे हैं।
कुछ विद्वानों का मानना है कि गुज्जर लोग मध्य एशिया के पशुचारकों के वंशज हैं। और कुछ विद्वानों का मत है कि ये पूर्वी तातार जातियों, कुशान व यूची के वंशज हैं। परंतु विभिन्न भौगोलिक शोध तथा भाषाई व पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि गुज्जर लोग गुरजिस के वंशज हैं, जिनका मूल निवास क्षेत्र जॉर्जिया है। जो यूरोप में काकेशस पर्वत के दक्षिण में स्थित काला सागर तथा कैस्पियन सागर के बीच पड़ता है।
गुरजिस लोगों की परंपरा रही है कि ये लोग अपने निवास क्षेत्र का नाम विभिन्न जातियों के आधार पर रखते हैं। यह विश्वास किया जाता है कि इनके भारत में आने से पहले ये मध्य एशिया तथा अफगानिस्तान में रहे होंगे। ये क्षेत्र जुर्जस अथवा जुर्ज, गुर्जर, गुरु, गुरजिस्तान, गुजरखास और चौसक गुजर के नाम से जाने जाते हैं। जब ये लोग भारत में आए तो उन्होंने कुछ क्षेत्रों के नाम जैसे गुजरांवाला (पाकिस्तान का एक जिला), गुजरात (पश्चिमी भारत का राज्य), गुजरघर (ग्वालियर) तथा गुजरात (सहारनपुर, यू,.पी.) दिए।
1941 की भारतीय जनगणना में कश्मीर में निवास करने वाले गुज्जर लोगों का निकास गुजरात व राजस्थान राज्यों से बताया गया है। बताया जाता है कि इन राज्यों में जब भयानक अकाल पड़ा तो यह लोग कश्मीर की ओर चले गए। इनमें से कुछ लोग तो सीधे जम्मू कश्मीर चले गए। तथा कुछ लोग पहले पंजाब के मैदान में बसे उसके बाद कश्मीर पहुंचे। वर्तमान समय में गुज्जर राजोरी, रेयासी, जम्मू, पुंछ तथा कठुआ जिलों में रहते हैं।
गुज्जरों के प्रकार
प्रोफेसर आर.पी. खटाना ने जम्मू-कश्मीर में रहने वाले गुज्जरों को व्यवसाय एवं बसाव की दृष्टि से दो वर्गों में बांटा है:
1. खेतिहर गुज्जर
ये लोग स्थाई जीवन व्यतीत करते हैं तथा इनका एक निश्चित ठिकाना होता है। इसीलिए इन्हें मुकामी गुज्जर भी कहते हैं। क्योंकि मकाम का शाब्दिक अर्थ ‘ठिकाना’ होता है। ये लोग पहाड़ी ढलानों व घाटियो पर अपने स्थाई निवास बनाते हैं। इनमें से कुछ लोग वर्तमान में व्यापार व नौकरी भी करने लगे हैं।
2. ऋतु प्रवासी गुज्जर
ये लोग ऋतु परिवर्तन के साथ अपने पशुओं की झुण्ड को लेकर पर्वतीय चोटियों व घाटियों के बीच निरंतर प्रवास करते रहते हैं। इस प्रक्रिया में ये शीत ऋतु के आगमन पर, जब ऊंचे पर्वतीय भाग बर्फ से ढक जाते हैं। तब ये नीचे घाटी के क्षेत्रों में आ जाते हैं। इसी प्रकार जब ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है। तब घाटी में गर्मी अधिक हो जाती है और घास सूखने लग जाती है। तब ये लोग ऊंचे पर्वतीय भागों में चले जाते हैं।
पाले गए पशुओं के आधार पर ऋतु प्रवासी गुज्जर को पुनः दो वर्गों में बांटा जाता है
इनके नाम है: बनीहारा अथवा दोधी गुज्जर तथा बकरवाल गुज्जर
बनीहारा गुज्जर
वे गुज्जर है, जो वनों में रहते हैं और भैंस पालते हैं। उनको बनीहारा गुज्जर कहा जाता है। ये लोग अपना गुजारा भैंस के दूध तथा दूध से बने उत्पादों को बेच करते हैं। यही कारण है कि इन्हें दोधी गुज्जर अथवा बन गुज्जर या भैसी गुज्जर के नाम से जाना जाता है।
बकरवाल गुज्जर
ये गुज्जर भेड़-बकरियां पालते हैं इन गुज्जर को भी अपने पूर्वजो द्वारा मूल स्थान से जम्मू और कश्मीर में प्रवास करने के आधार पर दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। कुम्हारी गुज्जर तथा इलाहीवाल गुज्जर
कुम्हारी गुज्जर
बकरवालों की मानना है कि उनके पूर्वज पाकिस्तान में स्थित कंगन प्रदेश की कुम्हार नदी की घाटी से आए हैं और कश्मीर में बस गए।
इलाहीवाल गुज्जर
बकरवालों की मान्यता है कि उनके पूर्वज पाकिस्तान के इलाहीवाल प्रदेश की स्वात घाटी में रहते थे। वहां पठानों और गुज्जर बकरवालों के बीच चरागाहों को लेकर प्राय: झगड़े होते रहते थे जिस कारण ये गुज्जर जम्मू और कश्मीर की नई चरागाहों में आ गए।
गुज्जरों का निवास क्षेत्र
वैसे तो गुज्जर देश के विभिन्न भागों में निवास करते हैं। परंतु फिर भी इनका अधिकतर सकेंद्रण जम्मू- कश्मीर के पर्वतीय क्षेत्रों में है।
भौतिक पर्यावरण
यह क्षेत्र एक उबड-खाबड पर्वतीय प्रदेश है। जहां पर शीतोष्ण कटिबंधीय जलवायु पाई जाती है। इस क्षेत्र में दक्षिण से उत्तर की ओर जाने पर तापमान तथा वर्षा दोनों की मात्रा में कमी होती जाती है। इसके दक्षिणी भाग में जुलाई से सितंबर तक मानसून के कारण बरसात होती है। और वहीं कश्मीर घाटी तथा लद्दाख क्षेत्र में शीत ऋतु में पश्चिमी विक्षोभों के कारण वर्षा व हिमपात होता रहता है। हिमपात केवल 1250 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में ही होता है।
गुज्जरों के चरागाह
गुज्जरों द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले प्राकृतिक चरागाह मौसमी होते हैं। ये लोग शीत ऋतु में निचले क्षेत्रों (घाटियों) तथा ग्रीष्म ऋतु में उच्च पर्वतीय क्षेत्रों (ढलानों) के चरागाहों का उपयोग करते हैं। जम्मू कश्मीर में उपयोग में लाए जाने वाले चरागाहों को तीन मुख्य भागों में बांटा जाता है।
इनके नाम है
- शीतकालीन चरागाह
- मध्यवर्ती चरागाह
- ग्रीष्मकालीन चरागाह जिन्हें यहां पर मारगस अथवा ढ़ोक कहते हैं
गुज्जरों का ऋतु प्रवास (Transhumance or Seasonal Migration)
ऋतुओं के अनुसार ये लोग निचले इलाकों से उच्च पर्वतीय प्रदेशों की ओर तथा उच्च प्रदेशों से निचले इलाकों की ओर प्रवास करते रहते हैं, जिसे ऋतु प्रवास कहा जाता है। इन लोगों का जीवन पूरी तरह से प्राकृतिक चरागाहों पर निर्भर करता है। ये चरागाह ऋतुओं के अनुसार बदलते रहते हैं।
जब शीतकाल के समय उत्तर के उच्च पर्वतीय प्रदेश बर्फ से ढक जाते हैं तब दक्षिण के निचले इलाकों में चरागाह उपलब्ध होते हैं। वहीं बसंत ऋतु में निम्न तथा मध्यम भागों में उत्तम चरागाह पाए जाते हैं। अप्रैल महीने के आखिर में उत्तर में स्थित पर्वतीय भागों में शीतकालीन चरागाहों की घास समाप्त हो जाती है जबकि दक्षिण के निचले इलाकों में भी गर्मी के कारण घास सूख जाती है।
इस समय पर उत्तर में लगभग 2800 मीटर की ऊँचाई पर बर्फ पिघल जाती है और चरागाह (घास के मैदान ) विकसित हो जाती है। इस प्रकार ग्रीष्म तथा शीत ऋतुओं में विभिन्न क्षेत्र में विभिन्न ऊंचाई पर विभिन्न समय अवधियों में चरागाह विकसित होते हैं जिससे ऋतु प्रवास अनिवार्य हो जाता है।
जैसे ही ग्रीष्म ऋतु आरंभ होती है, वैसे ही दक्षिण के निचले इलाकों की चरागाहें सूखने लगती हैं और गुजर-बकरवाल अपने पशुओं को लेकर उत्तर की उच्च भूमियों की ओर प्रवास करते हैं। इन चरागाहों को स्थानीय भाषा में ढ़ोक (Dhok) कहते हैं। सितंबर के माह में शीत ऋतु आरंभ होने लगती है।
उच्च भूमि के चरागाहों पर बर्फ जमने लगती है और ये लोग निचले इलाकों इलाकों की ओर प्रवास करते हैं। इस प्रकार गुज्जर-बकरवाल चारे तथा जल की खोज में प्रतिवर्ष ग्रीष्म ऋतु में उच्च स्थानों को ओर तथा शीत ऋतु में निम्न स्थानों की ओर प्रवास करते रहते हैं और ऋतु प्रवास होता रहता है। ये लोग ऋतु प्रवास के लिए मुख्यतः दो मार्गो का अनुसरण करते हैं। इन दोनों मार्गों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है.
पीर पंजाल मार्ग (The Pir Panjal Route)
इस मार्ग से गुजरने वाले गुज्जर-बकरवाल अप्रैल के तीसरे सप्ताह में, जब र्वतीय घाटियों (निचले इलाके) में चरागाहों की घास सूखने लगती है, तब ये ग्रीष्मकालीन चरागाहों (पर्वतीय चोटियों) की ओर चल पड़ते हैं। इस प्रक्रिया में इन्हें लगभग 60 दिन का समय लगता है, जिसमें से 22 दिन यात्रा करते हैं और 38 दिन विभिन्न स्थानों पर पड़ाव डालते है।
इनकी यात्रा लम्बेरी (Lumbers) से शुरू होती है और मार्ग में नीली डेरी पर ये लोग लगभग दो सप्ताह रुकते हैं। इस अवधि में ये आस-पास के चरागाहों में अपने पशुओं को चराते हैं और अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ खरीदते हैं।
नीली डेरी से ये लोग चीता-पानी को पार करते हुए ( चीता-पानी धारा को पार करना काफी कष्टदाई होता है, क्योंकि इसमें बर्फ के टुकड़े बहते रहते हैं) गडसर के मैदान में पहुँचते हैं। इन स्थानों के बीच ही पीर पंजाल दर्रे (3491 मीटर) को पार करना होता है। इस मार्ग में आने वाले अन्य दरें जामिया गली (4088 मीटर), तोष मैदान दर्रा (4091 मीटर), नूर पुरगली (4093 मीटर), हरहाल दर्रा (4946 मीटर), बुधील दर्रा (4099 मीटर) तथा कोनसामग दर्रा (4261 मीटर) भी शामिल हैं।
गडसर मैदान से होते हुए, आगे ये लोग श्रीनगर के निकट डल झील के उत्तर-पूर्वी तट पर स्थित शालीमार पहुंचते हैं। यहाँ पर 2-3 दिन ठहर कर ये येइल, कंगन, वानगत तथा नरांग की ओर प्रस्थान करते हैं। गड़सर चरागाह ग्रीष्मकालीन आधार है, जहाँ पर ये लोग ग्रीष्म ऋतु में अपनी भेड़-बकरियाँ चराते हैं।
बनिहाल मार्ग (Banihal Route)
इस मार्ग से जाने वाले गुज्जर-बकरवाल 20 अप्रैल के आस-पास अपनी यात्रा किरनग्याल तथा उसके आस-पास के इलाके के शुरू करते हैं और ग्रीष्मकालीन चरागाह (ढोक) तक पहुँचने से पहले लगभग 12 स्थानों पर विश्राम करते हैं। इनके मार्ग में आने वाले प्रमुख विश्राम स्थल मनावल कटा, कबीखट्टर, बनिहाल, डिन्गूनार, अच्छावल, सलार, मसितनार, गिखर, चन्दनवाड़ी, गबडाल्या, पंचतरणी तथा सूखा नाला है।
खट्टर तथा बनिहाल के बीच की इनकी यात्रा जोखिम भरी होती है क्योंकि यह भाग राष्ट्रीय राजमार्ग पर पड़ता है। यात्रा के इस हिस्से में दुर्घटनाओं का भय, भोजन की कमी तथा पशुओं को उठा ले जाने की आशंका बनी रहती है। यह यात्रा लगातार 23 घंटे तक चलती है। इस लम्बी, कष्टदाई तथा तनावपूर्ण यात्रा के पश्चात् बनिहाल के निकट शैतानी नाला नामक स्थान पर एक दिन का विश्राम किया जाता है।
बनिहाल सुरंग को पार करने के पश्चात् ये लोग कश्मीर घाटी में प्रवेश करते हैं। इस दरें से घाटी में उतरते समय ये लोग बेरीनागा तथा एशमुकाम से होते हुए दकसुम, चन्दनवाड़ी तथा सूखा नाला चरागाहों तक पहुंचते हैं। यह इनकी यात्रा का अंतिम चरण है।
गुज्जर-बकरवाल लोग शीतकालीन चरागाहो के लिए अपनी वापसी यात्रा सितंबर माह में आरंभ करते हैं। इस समय उत्तर में स्थित ग्रीष्मकालीन चरागाह वाले क्षेत्रों में रात का तापमान की हिमांक तक गिर जाता है। तथा पाले व कोहरे की घटनाएं बढ़ जाती है। जिस कारण घास नष्ट हो जाती है और चरवाहे दक्षिण में स्थित निचले इलाकों की ओर प्रवास करना शुरू कर देते हैं। वापसी की यात्रा के दौरान भी ये लोग अपने निश्चित पड़ाव पर ही रुकते हैं। और इनको ऊपर से नीचे आने में भी लगभग 60 दिन का समय लग जाता है।
गुज्जरों की अर्थव्यवस्था तथा समाज
गुज्जर-बकरवाल समाज को सामान्यतः तीन वर्गों में बाँटा जाता है।
(1) डेरा (परिवार)
यह गुज्जर-बकरवाल समाज की मुख्य इकाई है। जब एक व्यक्ति विवाह के पश्चात् स्वयं की गृहस्थी स्थापित करता है तो एक डेरा बनता है। एक डेरे में प्रायः 5-6 सदस्य होते हैं। परिवार के सभी सदस्य अपना-अपना काम करते हैं और काम का विभाजन लिंग तथा आयु के आधार पर किया जाता है।
महिलाओं के कार्यों में खाना बनाना, कपड़े धोना, पानी भरना, बच्चों को पालना, ईंधन के लिए लकड़ियाँ एकत्रित करना आदि घरेलू कार्य शामिल होते हैं। जबकि पुरुष कठिन कार्य करते हैं। इनके मुख्य कार्य पशुओं को चराना, यंत्रों की मरम्मत करना, कस्तूरी तथा जड़ी-बूटियाँ एकत्रित करना, आखेट करना आदि है।
(ii) वंश
कई डेरे मिलकर एक वंश बनाते हैं। एक वंश में सामान्यतः 200 व्यक्ति होते हैं। पिता अपनी पशु संपत्ति को विवाहित पुत्रों में बराबर बाँट देता है। वंश में कई पीढ़ियों होती है जिसमें दूर के संबंधी तथा भाई-भतीजे सम्मिलित होते हैं। प्रत्येक वंश का एक मुखिया होता है जो वंश के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक क्रियाकलापों के लिए उत्तरवाई होता है। वंश का सबसे बड़ा आदमी ही मुखिया होता है।
पिता की मृत्यु के बाद सबसे बड़े पुत्र को वंश का मुखिया बनाया जाता है। मुखिया द्वारा लिए गए निर्णय वंश के सभी सदस्यों को मान्य होते हैं। वंश के किसी सदस्य द्वारा गलत काम करने पर मुखिया को उसे दंड देने का अधिकार होता है।चरागाह किसी व्यक्ति विशेष को नहीं बल्कि वंश को आवंटित किया जाता है।
(iii) गोत्र
गुज्जर-बकरवाल समुदाय कई गोत्रों में विभाजित होता है। एक कुल के सदस्य एक ही पूर्वज के वंशज होते हैं। इनकी गोत्र व्यवस्था हिंदू गुज्जरों से ली गई है। गोत्र का नाम प्रायः इनके नाम के बाद जोड़ा जाता है।
प्रकार्यात्मक समूह (Functional Groups)
गुज्जर ऋतु प्रवासियों के कई प्रकार्यात्मक समूह होते हैं।
(i) पशुपालक इकाई
यह मूलभूत इकाई होती है और कई डेरों पर आधारित होती है, जो रेवड़ की ‘देखभाल तथा सफल चराई के लिए अनुकूल होती है। रेवड़ का आकार पशुचारक इकाई का आकार निश्चित करता है। रेवड़ का आकार बड़ा हो जाने पर कुछ डेरे अलग हो जाते हैं। रेवड़ का आकार छोटा होने पर ये अपनी मूल पशुचारक इकाई में मिल जाते हैं।
(ii) काफिला
यह इनका दूसरा महत्वपूर्ण प्रकार्यात्मक समूह होता है। यह कुछ परिवारों का समूह होता है। काफिले के सभी सदस्य परिवार एक साथ ऋतु प्रवास करते हैं औरअपने मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का मिल-जुल कर सामना करते हैं।
(iii) जिरगा
यह एक किस्म की पंचायत होती है जो इनके आपसी झगड़ों को सुलझाती है।
गुज्जरों का धर्म और संस्कृति
जम्मू कश्मीर के प्रवासी गुज्जर-बकरवाल इस्लाम धर्म के अनुवाई है और अपने धर्म का श्रद्धा से पालन करते हैं। ये दिन में पाँच बार नमाज पढ़ते हैं तथा रमजान के महीने रोजे रखते हैं। ईद-उल-फितर, ईद-उल-जोहर, नवरोज बैशाखी इनके प्रमुख त्योहार हैं। ऋतु प्रवास के मार्ग में आने वाली पीरों की समाधियों और मकबरों की भी यात्रा करते हैं। इस्लाम की प्रथा के अनुसार ये लोग अपने सगे-संबंधियों मृत्यु हो जाने पर मृत शरीर को दफनाते हैं।
यदि प्रवास के दौरान किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो मृत व्यक्ति को मार्ग के पास ही किसी उचित स्थान पर दफन कर दिया जाता है। पहचान के लिए ये मृत व्यक्ति की कब्र पर पत्थरों का ढेर लगा देते हैं। इसके बाद ये जब भी ऋतु प्रवास करते समय कब्र के पास से होकर गुजरते हैं तो कवर पर दीपक जलाकर दिवंगत आत्मा के प्रति आदर व्यक्त करते हैं। ये लोग सीधे-साधे तथा अंध-विश्वासी होते हैं जिस कारण पीरो द्वारा इनका शोषण किया जाता है।
गुज्जरों का विवाह
प्रवासी गुज्जर-बकरवाल समाज में कम आयु में ही विवाह हो जाते हैं। मंगनी प्रायः 8 वर्ष की आयु में ही हो जाती है। मंगनी के पाँच वर्ष बाद विवाह होता है। विवाह प्रायः ग्रीष्म ऋतु में होता है जब सभी के पास पर्याप्त समय होता है। विवाह साधारण तरीके से किया जाता है।
विवाह के समय वर के पिता द्वारा मेहर की राशि भेड़-बकरियों, जवाहरात, धन तथा आय संपत्ति के रूप में निश्चित की जाती है। विवाह इस्लामिक रीति-रिवाजों के अनुसार होता है। विवाह का समापन, विवाह के तीन-चार वर्ष बाद ‘रूखसती’ नामक समारोह के साथ होता है। तलाक की घटनाएँ प्रायः कम होती हैं। विधवाओं को पुनर्विवाह की अनुमति है।
गुज्जरों के रीति-रिवाज तथा परंपराएं
जब परिवार में बच्चे का जन्म होता है तो मौलवी उसके कान में अजान (Azan) देता है। मौलवी की अनुपस्थिति में परिवार का सबसे बड़ा सदस्य बच्चे के कान में कल्मा (Qalma) पढ़ता है। कुछ दिनों के पश्चात् काफिले के सदस्यों को बच्चे के नामकरण के लिए निमन्त्रण दिया जाता है। पाँच वर्ष की आयु में प्रत्येक लड़के की सुन्नत कराई जाती है।
यदि बच्चे का जन्म ऋतु प्रवास के दौरान होता है तो जच्चा का परिवार तथा कुछ नजदीकी महिला रिश्तेदार दो दिन के लिए रुकते हैं और शेष काफिला आगे बढ़ जाता है। तीसरे दिन जच्चा को घोड़े पर बिठा कर आगे की यात्रा शुरू कर देते हैं। शेष रीति-रिवाज चरागाहों पर पहुँच कर पूरे किए जाते हैं।
गुज्जरों के वस्त्र
पुरुष विशेष प्रकार के वस्त्र पहनते हैं जिनमें लम्बा तहमत (तम्बा), तुरेंदार पगड़ी तथा कढ़ाई (embroidery) वाली रंगीन जैकेट प्रमुख होते हैं। स्त्रियां चूड़ीदार बैगी तथा कमीज पहनती हैं।
गुज्जरों की भाषा
ये लोग इण्डो-आर्यन भाषा ‘गुज्जरी’ बोलते हैं और अरबी लिपि का प्रयोग करते हैं। इनकी बोली पुश्तो भाषा बोलने वाले पुराने पड़ोसियों से प्रभावित हुई बुरे है।
गुज्जरों में सामाजिक परिवर्तन
1947 में भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन के परिणामस्वरूप गुज्जरों की जीवन शैली में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए जिनमें से कुछ परिवर्तन अच्छे तथा कुछ बुरे हैं।
(i) पाक-अधिकृत कश्मीर का बहुत बड़ा भाग गुज्जरों का आश्रय स्थल हुआ करता था नियन्त्रण रेखा (Line of Control-LoC) लागू हो जाने से इन लोगों के परंपरागत प्रवास मार्ग बन्द हो गए और ये अपने बहुत से प्रियजनों से अलग हो गए।
(ii) जम्मू और कश्मीर में भारत सरकार द्वारा सड़क, संचार, शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराई गई है जिससे इनके दैनिक जीवन में बड़े पैमाने पर परिवर्तन हुए हैं।
(iii) ऋतु प्रवासियों के लिए विशेष सुविधाएं दी गई है ताकि उनके जीवन में उन्नति हो सके।
(iv) जम्मू और श्रीनगर से गुजरों पर विशेष रेडियो एवं टी.वी कार्यक्रमों का प्रसारण होता है जिससे अन्य लोगों के साथ इनका संपर्क बढ़ता है।
समय के साथ-साथ सम्पूर्ण पश्चिमी हिमालय में जनजीवन में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि परिवर्तन आ रहे हैं। और गुज्जर समाज भी इन परिवर्तनों से प्रभावित हो रहा है। आर्थिक दृष्टि से समृद्ध गुजर-बकरवाल अब ऋतु प्रवास के दौरान अपना घरेलू सामान ट्रकों द्वारा पहले ही शीतकानीन अथवा ग्रीष्मकालीन चरागाहों में भिजवा देते हैं, जिससे ऋतु प्रयास में अधिक कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता।
1991 में जम्मू-कश्मीर के गुज्जर-बकरवालों को अनुसूचित जनजाति घोषित किया गया जिससे इनको अनुसूचित जनजातियों को मिलने वाले लाभ प्राप्त होने लगे हैं। शिक्षा के परिणामस्वरूप ये लोग अपने परंपरागत व्यवसाय को छोड़कर डाक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, वकील आदि बनने लगे हैं और सरकारी नौकरियों में इन की रुचि बढ़ गई है।
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