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भारत में हरित क्रान्ति (Green Revolution in India)

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हरित क्रान्ति (Green Revolution) का अर्थ

भारत में सन् 1966 से खरीफ मौसम में नई कृषि नीति अपनाई गई जिसे अधिक उपज देने वाली किस्मों का कार्यक्रम (High Yielding Varieties Programme HYVP) के नाम से पुकारा गया। सन् 1967-68 में खाद्यान्नों के उत्पादन में 1966-67 की तुलना में लगभग 25% की वृद्धि हुई। यह वृद्धि इससे पहले के योजनाकाल के 16 वर्षों में होने वाले परिवर्तनों की अपेक्षा कहीं अधिक तथा तीव्र थी। अधिक वृद्धि का होना वास्तव में एक क्रान्ति के समान ही था। अतः इस वृद्धि को हरित क्रान्ति कहा गया। 

जे०जी० हारर के शब्दों में, “हरित क्रान्ति शब्द 1968 में होने वाले उस आश्चर्यजनक परिवर्तन के लिए प्रयोग किया जाता है, जो भारत के खाद्यान्नों के उत्पादन में हुआ था और अब भी जारी है”। “The Green Revolution is the phrase generally used to describe the spectacular increase that took place during 1968 and is continuing in the production of foodgrains in India.” 

अतः हरित क्रान्ति का अभिप्राय है

(1) कृषि की उपज में अत्यधिक वृद्धि करना, तथा 

(2) लम्बी अवधि तक कृषि उपज के ऊंचे स्तर को बनाए रखना।

नोट: भारत में हरित क्रान्ति की शुरुआत 1966-67 में मेक्सिको में विकसित नई गेहूँ की बौनी प्रजातियों के प्रयोग से हुयी। इसके पहले 1959 में फोर्ड फाउन्डेशन के कृषि वैज्ञानिकों के एक समूह को भारत की कृषि में सुधार हेतु समुचित सुझाव देने के लिए आमंत्रित किया गया था जिन्होंने अपनी रिपोर्ट अप्रैल 1959 में प्रस्तुत की थी।
इसी के परिणामस्वरूप 1960- 61 में देश के 7 चयनित जनपदों (आन्ध्र प्रदेश के प० गोदावरी, बिहार के शाहाबाद, छत्तीसगढ़ के रायपुर, तमिलनाडु के तंजावूर, पंजाब के लुधियाना, राजस्थान के पाली एवं उत्तर प्रदेश के अलीगढ़) में सघन कृषि जनपद कार्यक्रम (IADP) को शुरू किया गया। इसके अन्तर्गत खाद्यान्नों के उत्पादन में वृद्धि हेतु शुरू किए गए कार्यक्रम के द्वारा किसानों को ऋण, अनुदान, उन्नत बीज, उर्वरक, कृषि यंत्र आदि उपलब्ध कराए गए। कार्यक्रम की सफलता को देखते हुए अक्टूबर 1965 में सघन कृषि क्षेत्र कार्यक्रम (IAAP) के रूप में इसे देश के 114 जनपदों तक फैला दिया गया। 
याद रखने योग्य बातें
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हरित क्रान्ति की मुख्य विशेषताएँ अथवा कारक (Salient Features or Factors of Green Revolution)

भारत में हरित क्रान्ति कई कारणों से आई जिनकी मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

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1. अधिक उपज देने वाले बीजों का प्रयोग (Use of High-Yielding Varieties- HYV) 

सन् 1966 से कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए अधिक उपज देने वाले उन्नत बीजों का प्रयोग शुरू किया गया। उन्नत बीजों के प्रयोग का यह कार्यक्रम विशेष रूप से पाँच फसलों (गेहूं, चावल, बाजरा, मक्का और ज्वार) के लिए अपनाया गया। इन बीजों में गेहूं के कल्याण सोना, बाजरे के HIV-1, मक्का के गंगा-101, ज्वार के CSH-2 तथा चावल के विजय, रत्ना पद्मा आदि प्रमुख हैं। 

इन बीजों के आविष्कार तथा विकास में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (Indian Council of Agricultural Research) तथा कृषि विश्वविद्यालयों ने बहुत योगदान दिया है। इन बीजों की पूर्ति ‘राष्ट्रीय बीज निगम’ तथा ‘तराई बीज विकास निगम (Tarai Seed Development Corporation) कर रहे हैं। सन् 1966-67 में केवल 18.9 लाख हेक्टेयर भूमि पर ही उन्नत बीजों का प्रयोग हुआ था 1985-86 में 554 लाख हेक्टेयर, तथा 2008-09 में 681 लाख हेक्टेयर भूमि पर उन्नत बीजों का प्रयोग किया गया।

2. उर्वरकों का प्रयोग (Use of Fertilizers)

हमारे देश में गोबर को खाद के रूप में प्रयोग करने की परम्परा रही है। भारत में लगभग 100 करोड़ टन गोबर प्रति वर्ष प्राप्त होता है परन्तु इसका 40 प्रतिशत भाग ईंधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। अतः हमारी मिट्टी को पर्याप्त मात्रा में उचित खाद नहीं मिलती, जिससे कृषि उत्पादन में कमी रहती है। 

नई कृषि नीति के अन्तर्गत रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग को प्रोत्साहन दिया गया जिससे कृषि उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। सन् 1967-68 में 11 लाख टन उर्वरकों का प्रयोग किया गया जो बढ़कर सन् 2020-21 में 325 लाख टन हो गया। भारत में उर्वरकों के उत्पादन में भी बड़ी तीव्र गति से वृद्धि हुई। सन् 1960-61 में केवल 150 लाख टन ही उर्वरक पैदा किए गए थे जो बढ़कर 2020-21 में 184.54 लाख टन हो गए। कृषि के क्षेत्र की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए हमें रासायनिक खादों का आयात भी करना पड़ता है।

3. सिंचाई (Irrigation) में विस्तार 

सिंचाई के विस्तार से हरित क्रान्ति को बहुत सफलता मिली है। भारत जैसे मानसून प्रदेश में सिंचाई का बड़ा महत्व है। भारत में नहरें, कुएँ, नलकूप तथा तालाब सिंचाई के महत्वपूर्ण साधन हैं। सन् 1965-66 में 320 लाख हेक्टेयर भूमि पर सिंचाई की सुविधा थी जो बढ़कर 2018-19 में 715.5 लाख हेक्टेयर हो गई। भविष्य में सिंचाई के क्षेत्र में वृद्धि करने के लिए कई योजनाएं बनाई गई हैं।

हरित क्रान्ति, पैकेज टेक्नोलोजी
1967-68 के बाद में शुरू होने वाली हरित क्रांति तीन मुख्य तत्वों – जल (सिंचाई), उर्वरक तथा उन्नत बीजों पर आधारित थी जिसे पैकेज टेक्नोलॉजी के नाम से भी पुकारा जाता है। इसके अंतर्गत चावल, गेहूँ, ज्वार, बाजरा और मका की उपज बढ़ाने के लिए कार्यक्रम बनाए जाते हैं।

4. कीटनाशक औषधियों का प्रयोग (Use of Pesticides)

अधिक उत्पादन लेने के लिए फसलों को कीड़ों तथा बीमारियों से बचाना अति आवश्यक है। इसके लिए कीटनाशक औषधियों का प्रयोग किया जाता है। हरित क्रान्ति के अधीन इन औषधियों के प्रयोग को बढ़ाया गया है। भारत सरकार ने इसके लिए पौध संरक्षण निदेशालय (Directorate of Plant Protection) की स्थापना की है।

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5. आधुनिक कृषि यन्त्रों का प्रयोग (Use of Modern Agricultural Machinery) 

भारतीय कृषि में पुराने, साधारण तथा परम्परागत हाथ के औजारों के स्थान पर आधुनिक मशीनों का प्रयोग अधिक बढ़ गया जिससे हरित क्रान्ति को सफलता मिली। आधुनिक कृषि-यन्त्रों में ट्रैक्टर, कम्बाइन हार्वेस्टर, थ्रेशर, बिजली की मोटरें तथा पम्पिंग सेट आदि प्रमुख हैं। किसानों को सस्ती तथा अच्छी मशीनरी दिलाने के लिए विभिन्न राज्यों में कृषि उद्योग निगम (Agro-Industries Corporation) स्थापित किए गए हैं। कई राज्यों में ट्रैक्टर तथा अन्य कीमती उपकरण किराए पर दिलाने के लिए कृषि सेवा केन्द्र (Agro-Service Centres) खोले गए हैं।

6. बहु-फसल (Multiple Cropping) 

उन्नत बीज, रासायनिक उर्वरक, सिंचाई, कृषि मशीनरी आदि के प्रयोग से फसलें कम समय में तैयार होने लगीं जिससे एक खेत में एक वर्ष में एक से अधिक फसलें उगाना सम्भव हो गया। उदाहरणतः यदि किसी खेत में अप्रैल के महीने में गेहूं की फसल काट ली जाए तो उसके पश्चात् उस खेत में मूंग आदि की फसल बो दी जाती है जो लगभग दो माह में तैयार हो जाती है।

इसके पश्चात् उसी खेत में चावल आदि बोया जा सकता है। एक खेत में वर्ष में कई फसलें पैदा होने से कृषि उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि होती है। भारत के कई इलाकों में बहु फसली योजना 1967-68 में शुरू की गई और 2005-06 में बहुफसलीय क्षेत्र बढ़कर 5.09 करोड़ हेक्टेयर हो गया।

7. ऋण सुविधाएं (Credit Facilities) 

सरकारी नीति के अन्तर्गत किसानों को ऋण की सुविधाएँ प्राप्त होने लगीं। पहले किसान अपनी आवश्यकता का 90 प्रतिशत ऋण महाजनों से ऊँचे ब्याज पर लिया करता था जिसे चुकाना उसके लिए बहुत कठिन हो जाता था। परन्तु अब किसानों को सहकारी समितियों, बैंकों तथा अन्य साधनों से कम ब्याज पर ऋण मिलने लगा है।

सन् 1969 में व्यापारिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया जिससे किसानों को ऋण की सुविधा और बढ़ गई। 1969-70 में इन बैंकों द्वारा किसानों को 183 करोड़ र के ऋण दिए गए। सन् 1990 में छोटे किसानों के दस हजार रुपय से कम ऋणों को माफ करने की घोषणा की गई। कम ब्याज पर आवश्यकतानुसार ऋण मिलने पर किसान उचित मात्रा में उन्नत बीज, कृषि यन्त्र, उर्वरक आदि खरीद सकता है और सिंचाई के साधनों का उचित उपयोग कर सकता है।

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अगस्त, 1998 में किसानों की सुविधा के लिए किसान क्रेडिट कार्ड (Kisan Credit Card – KCC) योजना शुरू की गई और नवम्बर, 2019 तक 622 लाख किसान क्रेडिट कार्ड खाते सक्रिय थे।

8. मृदा परीक्षण (Soil Testing) 

हरित क्रान्ति के विस्तार हेतु मृदा परीक्षण अति आवश्यक है। इस संदर्भ में सरकार ने विस्तृत कार्यक्रम बनाया जिसके अन्तर्गत विभिन्न क्षेत्रों की मृदा का सरकारी प्रयोगशालाओं में परीक्षण किया जाता है। इन परीक्षणों से यह पता लगाया जाता है कि विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में किन तत्वों की कमी है और उसे किन उर्वरकों के प्रयोग से दूर किया जा सकता है। इसके साथ ही यह भी जाना जाता है कि कौन-सी मिट्टी में कौन-सी फसल अधिक होगी ओर उसमें किस प्रकार के बीज बोए जाएँ।

9. भू-संरक्षण (Soil Conservation)  

हरित क्रान्ति को सफल बनाने के लिए भू-संरक्षण का कार्यक्रम भी लागू किया गया है। भूमि कटाव को रोकने तथा भूमि की उर्वरता को बनाए रखने के लिए विभिन्न उपाय किए गए हैं। मरुस्थलों के विस्तार को रोकने तथा शुष्क कृषि प्रणाली के विस्तार के लिए भी कई योजनाएं बनाई गई है। देश में लगभग पाँच करोड़ एक बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाने के लिए प्रयत्न किए जा रहे हैं। फसलों के शस्यावर्तन (Crop Rotation) को भी साहन मिल रहा है।

10. ग्रामीण विद्युतीकरण (Rural Electrification) 

कृषि उपकरणों को चलाने के लिए विद्युत सबसे सस्ता एवं सुगम शक्ति साधन है। अतः कृषि के विकास के लिए ग्रामीण विद्युतीकरण अति आवश्यक है। इसके लिए 1969 में ग्रामीण विद्युतीकरण निगम ( Rural Electrification Corporation) की स्थापना की गई है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय हमारे देश के केवल 0.5 प्रतिशत गाँवों को ही बिजली उपलब्ध थी। सन् 1965-66 में लगभग 8 प्रतिशत गाँवों को बिजली प्राप्त हो गई। इसके पश्चात् ग्रामीण विद्युतीकरण में उल्लेखनीय वृद्धि हुई 2022 तक भारत के कुल 6,49,481 (जनगणना, 2011 के अनुसार) गाँवों में से 5,97,464 (अर्थात् 91.99%) गाँवों का विद्युतीकरण हो चुका था। 

हरियाणा देश का पहला राज्य था जहाँ पर सभी गाँवों को बिजली उपलब्ध कराई गई। पंजाब, केरल, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र तथा नागालैंड में 97% से 100% गाँवों को बिजली प्राप्त हो चुकी है। अन्य राज्यों में भी ग्रामीण विद्युतीकरण का कार्य बड़ी तेजी से किया जा रहा है। अप्रैल, 2005 में ‘राजीव गाँधी ग्रामीण विद्युत योजना’ शुरू की गई जिससे ग्रामीण विद्युतीकरण को काफी प्रोत्साहन मिला है।

11. बिक्री सम्बन्धी सुविधाएँ (Marketing Facilities) 

पहले किसानों को अपनी उपज अनियन्त्रित मण्डियों में बेचनी – पड़ती थी। इन अनियन्त्रित मण्डियों में किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता था जिससे उनकी आय बहुत कम होती थी।परन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् इस दिशा में काफी सुधार हुआ और लगभग 7.521 नियन्त्रित मण्डियाँ स्थापित की गई हैं। किसानों को अपनी कृषि उपजों को रखने के लिए गोदाम तथा शीत भण्डारण की सुविधा भी उपलब्ध है। इससे किसानों की आय में पर्याप्त वृद्धि हुई और उन्होंने कृषि के विकास के लिए काफी धन व्यय किया। इससे हरित क्रान्ति को काफी बढ़ावा मिला।

12. फसलों की कीमतों का निर्धारण करना

पहले कृषि उत्पादन अधिक बढ़ जाने से बाजार में फसलों की कीमतों के कम हो जाने का भय रहता था जिससे कृषि उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता था। इस समस्या के समाधान के लिए सरकार ने ‘कृषि मूल्य आयोग’ (Agricultural Price Commission) नियुक्त किया। यह आयोग समय-समय पर विभिन्न फसलों का न्यूनतम मूल्य निर्धारित करता है। 

जब फसलों का वास्तविक मूल्य पूर्व-निश्चित मूल्यों से नीचे गिरने लगता है तो सरकार स्वयं न्यूनतम मूल्य पर फसलें खरीद लेती है। इससे किसान आर्थिक शोषण से बच जाते हैं और उन्हें कृषि उपज को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन मिलता है। सरकार द्वारा फसलों की खरीद अब सामान्य सी बात हो गई है। इस दिशा में भारतीय खाद्य निगम (Food Corporation of India-FCI) महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

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