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भारत : विविधताओं का देश (Diversities in India): परिचय
भारत विश्व का सातवाँ बड़ा देश है, जिसका क्षेत्रफल 32.87 लाख वर्ग किमी० है । इसकी उत्तर-दक्षिण दिशा में लम्बाई 3,214 किमी० तथा पूर्व-पश्चिम दिशा में चौड़ाई 2,933 किमी० है। साथ ही यह दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे अधिक आबादी वाला लोकतंत्र है। इतने बड़े देश में भौतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक विविधताओं का पाया जाना स्वाभाविक ही है। जहां विभिन्न जातियों, भाषाओं, धर्मों और संस्कृतियों का मिश्रण सामंजस्यपूर्ण रूप से सह-अस्तित्व में है।
भारत में पाई जाने वाली प्रमुख विविधताओं का संक्षिप्त वर्णन नीचे दिया गया है:-
संरचनात्मक विविधताएँ (Geological Diversities)
संरचनात्मक दृष्टि से भारत को तीन मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है। ये तीनों भू-भाग एक-दूसरे के सर्वथा भिन्न हैं और अपनी अलग अलग पहचान बनाए हुए हैं।
इनका संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार से है:-
(क) प्रायद्वीपीय पठार
भारत के दक्षिण भाग में प्राचीन पठार स्थित है जिसे दक्षिणी पठार कहते हैं। तीन ओर से समुद्र से घिरा होने के कारण इसको प्रायद्वीपीय पठार भी कहते हैं। यह प्राचीन भू-पर्पटी शैलों से बना है जो पूर्व कैम्ब्रियन महाकल्प (Precambrian Era) में निक्षेपित अवसादों के समुद्र की सतह के ऊपर उठने के पश्चात् फिर कभी समुद्र में नहीं डूबा। यह सपाट उच्च भूमि सारे समय दृढ़ एवं अगम्य खण्ड के रूप में बनी रही। अतः इसकी तुलना प्रायः उत्खण्ड (Hoarst) से की जाती है।
प्रायद्वीपीय पठार के निर्माण में सबसे महत्त्वपूर्ण घटना तब घटी जब पुराजीवी विन्ध्य (Palaeozoic / Vindhyan) महाकल्प में अरावली प्रदेश की भू-अभिनतियों (geosynclines) से अरावली पर्वत का निर्माण हुआ। आज की अवशिष्ट अरावली की पहाड़ियों उस समय की विशाल अरावली पर्वत श्रेणी की तुलना में कुछ भी नहीं है। अपरदन के विभिन्न कारकों ने इसे काट कर छोटा कर दिया है।
भू-वैज्ञानिकों का मानना है कि दक्षिण की नल्लामलाई पर्वतमाला (Nallamalai Range) का वर्तमान रूप भी सम्भवतः उसी काल में विकसित हुआ जिस काल में अरावली पर्वतों का निर्माण हुआ था। इस घटना के बाद प्रायद्वीपीय पठार लम्बे समय तक संपीड़न तथा वलन क्रियाओं से मुक्त रहा। परन्तु पृथ्वी में तनाव से सम्बन्धित ऊर्ध्वमुखी तथा अधोमुखी (Upward and Downward) हलचलों के कारण भ्रंशन तथा विभंजन (Faulting and Fracturing) होते रहे जिससे भू-स्थलों का उत्थान तथा धँसाव होता रहा।
उत्थान तथा धँसाव के कारण अपरदन प्रक्रियाओं का पुनर्जीवन होता रहा। उदाहरण के लिए ऐसे नए उत्थानों के प्रमाण पलनी (Palni) तथा नीलगिरि (Nilgiri) की पहाड़ियों में देखे जाते हैं। दूसरी ओर गोदावरी, महानदी तथा दामोदर घाटियों की द्रोणी भी भ्रंशन तथा नर्मदा एवं तापी नदियों की भ्रंश घाटियाँ तथा मालाबार एवं मेकरान तटों के भ्रंश धंसाव के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
(ख) हिमालय पर्वत तथा उससे सम्बन्धित पर्वतमालाएँ
हिमालय पर्वत नवीन वलित (Young Fold) पर्वत हैं। आज से लगभग 7 करोड़ वर्ष पहले मध्यजीवी पुराकल्प (Mesozoic ) में वर्तमान हिमालय पर्वत के स्थान पर एक विशाल भू-अभिनति (Geosyncline) थी जिसे टेथिस सागर (Tethys Sea) के नाम से जानते थे। इस विशाल सागर के उत्तर में अंगारालैण्ड (Angaraland) तथा दक्षिण में गोंडवानालेण्ड (Gondwanaland) नामक स्थल भाग थे।
इन स्थलीय भागों से निकलने वाली अनेक नदियां समय के साथ अवसादों की विशाल राशि टेथिस सागर में जमा करती गई। मध्यजीवी पुराकल्प के अन्त में भू-गर्भीय हलचलों के कारण गोंडवानालैण्ड तथा अंगारालेण्ड एक-दूसरे के नजदीक आए और टेथिस सागर में जमा अवसाद पर संपीड़न होने लगा। इस संपीड़न के कारण यह अवसाद या तलछट वलित होकर ऊपर उठने लगा और वर्तमान हिमालय का निर्माण हुआ।
हिमालय पर्वत के निर्माण के सम्बन्ध मे प्लेट विवर्तनिकी (Plate Tectonic) के सिद्धान्त को आजकल अधिक मान्यता दी जाने लगी है। इस सिद्धान्त के अनुसार पर्वत-निर्माणकारी घटनाएं प्लेटों की गति से संबंधित हैं। अतः भू-अभिनति सिद्धान्त का स्थान प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त ने ले लिया है। हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं का निर्माण उस समय हुआ जब भारतीय प्लेट उत्तर की ओर खिसकी तथा उसका यूरेशियाई प्लेट के साथ टकराव हुआ।
भारतीय प्लेट के उत्तर की ओर खिसकने से 6½-7 करोड़ वर्ष पूर्व टेथिस सागर सिकुड़ने लगा। लगभग 3 से 6 करोड़ वर्ष पूर्व भारतीय एवं एशियाई प्लेटें एक-दूसरे के काफी निकट आ गई। फलस्वरूप टेथिस में जमा अवसाद या तलछट वलित होकर ऊपर उठने लगा। लगभग 2 से 3 करोड़ वर्ष पूर्व हिमालय पर्वत उभरने लगा।
(ग) सिन्धु-गंगा एवं ब्रह्मपुत्र का मैदान
उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में दक्षिणी पठार के बीच स्थित इस विशाल मैदान को भारत का उत्तरी मैदान भी कहते हैं। यह मैदान अर्धचन्द्राकार रूप में पश्चिम में सिन्धु नदी के डेल्टा से पूर्व में गंगा नदी के डेल्टा तक फैला हुआ है। यह सिन्धु, गंगा एवं ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा निर्मित है। इसका निर्माण मुख्यतः हिमालय से निकलने वाली नदियों तथा कुछ दक्षिणी पठार से उत्तर की ओर बहने वाली नदियों द्वारा अवसादों के जमा करने से हुआ है।
हिमालय के निर्माण के बाद हिमालय पर्वत तथा दक्षिणी पठार के बीच एक गर्त बन गया जिसे टेथिस सागर के जल ने भर दिया। कालान्तर में इस गर्त को सिन्धु, गंगा, बह्मपुत्र तथा उनकी अनेक सहायक नदियों ने अपने निक्षेप से भर दिया और इस विशाल मैदान का निर्माण हुआ।
धरातलीय विविधताएँ (Diversities of Relief)
धरातल सम्बन्धी विविधताएँ जितनी भारत में पाई जाती हैं उतनी अन्य किसी भी देश में नहीं पाई जाती। इसके उत्तर में गगनचुम्बी हिमालय पर्वत श्रृंखलाएं हैं। ये विश्व की सबसे ऊँची पर्वत श्रेणियाँ हैं जिनका अधिकतर भाग बर्फ से ढका रहता है। विश्व की अधिकांश ऊंची चोटियाँ इसी पर्वत प्रदेश में हैं। बहुत सी चोटियाँ तो 8,000 मीटर से भी अधिक ऊँची हैं। प्रमुख चोटियों के नाम एवरेस्ट, कंचनजंगा, मकालू, धौलागिरी, मसालू, अन्नपूर्णा आदि है।
अति तीव्र ढाल वाली ये पर्वत श्रेणियाँ अभेद्य हैं और इन्हें पार करना मनुष्य तथा पवनों के लिए अति कठिन है। यही कारण है कि इन पर्वतों के कारण भारतीय उपमहाद्वीप शेष एशिया से भिन्न है और इसकी अपनी भौगोलिक पहचान है।
हिमालय पर्वत श्रेणियों के बिल्कुल विपरीत भारत का उत्तरी मैदान है। यह एकदम मन्द ढाल वाला समतल मैदान है और कहीं पर भी इसकी समुद्रतल से ऊँचाई 300 मीटर से अधिक नहीं है। गंगा तथा सिन्धु नदियों के प्रवाह क्षेत्र के बीच जलविभाजक अम्बाला के पास है और इसकी भी अधिकतम ऊँचाई 291 मीटर है। यह भी एक निम्न भू-भाग है और उत्तर प्रदेश से पंजाब-हरियाणा के मैदान में प्रवेश करने पर कहीं भी इसके जल विभाजक वाले लक्षण दिखाई नहीं देते।
सहारनपुर से कोलकाता तक इस विशाल मैदान की औसत ढाल केवल 20 सेमी० प्रति किलोमीटर है और वाराणसी तथा कोलकाता के बीच तो यह घटकर केवल 15 सेमी प्रति किलोमीटर ही रह जाती है। हिमालय प्रदेश में उत्पन्न होने वाली नदियाँ पर्वतीय भाग में तीव्र गति से चलती हैं और मुख्यतः अपरदन का कार्य करती हैं।
परन्तु जैसे ही ये नदियाँ पर्वतीय प्रदेश को छोड़कर विशाल मैदान में प्रवेश करती हैं, काल एकदम मन्द हो जाने से नदियों में जल बहाव की गति एकदम धीमी पड़ जाती है और इस भाग में नदियाँ मुख्यतः निक्षेप का कार्य करती हैं। इस प्रकार यह मैदान नदियों की निक्षेप क्रिया द्वारा बना है। नदियों द्वारा उपजाऊ मिट्टी का निक्षेप किया गया है और इस मैदान की गणना विश्व के सबसे उपजाऊ मैदानों में की जाती है।
उत्तरी मैदान के दक्षिण में भारत का प्रायद्वीपीय पठारी भाग है। यह विश्व के प्राचीनतम भागों में से एक है जहाँ नदियाँ प्रौढ़ अवस्था को प्राप्त कर चुकी हैं। इसके विपरीत हिमालय से निकलने वाली नदियाँ अभी युवावस्था में ही हैं। आग्नेय तथा रूपान्तरित चट्टानों से बना हुआ यह भाग खनिज सम्पदा की दृष्टि से बड़ा धनी प्रदेश है।
छोटानागपुर पठार में भारत के अधिकांश खनिज मिलते हैं। इसके विपरीत भारत के उत्तरी विशाल मैदान में खनिजों का पूर्ण अभाव है। हिमालय पर्वत प्रदेश में अल्प मात्रा में खनिज मिलते हैं परन्तु ऊबड़-खाबड़ भूमि तथा शीतल जलवायु के कारण वहाँ पर परिवहन के साधनों का विकास नहीं हो सका और इन खनिजों के दोहन में बाधाएँ आती हैं।
जलवायु सम्बन्धी विविधताएँ (Diversities of Climate)
भारत में जलवायु सम्बन्धी विविधताएँ भी कम नहीं हैं। यद्यपि भारतीय जलवायु को समूचे तौर पर मानसूनी कहा जा सकता है तथापि यहाँ की जलवायु में स्थानिक तथा सामयिक विविधताएँ स्पष्ट दिखाई देती हैं। निम्न उदाहरणों से भारत की जलवायु सम्बन्धी विविधताएँ स्पष्ट हो जाती हैं।
(i) राजस्थान के बाड़मेर क्षेत्र में जून के माह में दिन का तापमान 48° से 50° सेल्सियत तक हो जाता है, जबकि उसी दिन काश्मीर के पहलगाम या गुलमर्ग में तापमान केवल 22° सेल्सियस तक ही रहता है। अधिक ऊँचाई पर तो तापमान हिमांक से भी कम होता है और हिमालय के उच्च पर्वतीय प्रदेश सदा बर्फ से ढके रहते हैं ।
(ii) दिसम्बर के माह में रात्रि के समय द्वास एवं कारगिल का न्यूनतम तापमान -40° सेल्सियस तक गिर जाता है। जबकि तिरुअनंतपुरम् या चेन्नई में तापमान 20° से 22° सेल्सियस तक रहता है।
(iii) मौसिनरम की औसत वार्षिक वर्षा 1221 सेंटीमीटर है जबकि जैसलमेर में कुल वार्षिक वर्षा केवल 12 सेंटीमीटर ही है। गारो की पहाड़ियों में स्थित तुरा (Tura) नामक स्थान पर एक दिन में इतनी वर्षा हो जाती है जितनी जैसलमेर में दस वर्षों में भी नहीं हो पाती।
(iv) जुलाई तथा अगस्त माह में बंगाल के डेल्टा तथा उड़ीसा के तटीय मैदानों में हर तीसरे या पाँचवें दिन वर्षा वाले प्रचण्ड तूफान आते हैं जबकि एक हजार किलोमीटर दूर तमिलनाडू का कोरोमण्डल तट शुष्क रहता है।
(v) मुम्बई जैसे तटवर्ती क्षेत्रों में ऋतु परिवर्तन का प्रभाव अधिक नहीं पड़ता जबकि दिल्ली व आगरा में रहने वाले लोगों को ग्रीष्म तथा शीत ऋतु की भीषणता को सहन करना पड़ता है।
(vi) केरल में वर्षा जून के पहले सप्ताह में शुरू हो जाती है जबकि पश्चिमी राजस्थान में वर्षा जुलाई के दूसरे सप्ताह से पहले नहीं आती।
(vii) उत्तर-पश्चिमी भारत में पश्चिमी विक्षोभों द्वारा शीतलकालीन वर्षा होती है जबकि तटीय भागों में बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर में पैदा होने वाले उष्ण कटिबन्धीय चक्रवातों का प्रभाव होता है। ये चक्रवात बड़ी तीव्र गति से चलते हैं और बहुत ही विनाशकारी होते हैं।
(viii) कन्याकुमारी पर दिन और रात की अवधि में केवल 45 मिनट का अन्तर होता है जबकि कश्मीर में यह अन्तर बढ़कर चार घण्टे से भी अधिक हो जाता है।
वनस्पति सम्बन्धी विविधताएँ (Diversities in Vegetation)
जलवायु सम्बन्धी विविधताएँ सहज ही वनस्पति की विविधताओं में प्रतिबिंबित होती हैं। 200 सेमी० से अधिक वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन पाए जाते हैं। 100 से 200 सेमी० वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती अथवा मानसूनी वन उगते हैं। इसके विपरीत राजस्थान की मरुभूमि में बबूल, कीकर तथा कांटेदार झाड़ियाँ ही उगती हैं।
हिमालय प्रदेश में वनस्पति पर वर्षा की अपेक्षा तापमान का प्रभाव अधिक है। ऊँचाई के साथ तापमान कम होने से वनस्पति में परिवर्तन आ जाता है। अतः हिमालय में ऊँचाई के क्रम के अनुसार उष्ण कटिबन्धीय से लेकर अल्पाइन वनस्पति प्रदेशों तक का अनुक्रम पाया जाता है।
स्थानीय समय की विविधताएँ (Diversities of Local Time)
भारत 68°7′ पूर्वी देशान्तर से 97°25′ पूर्वी देशान्तर तक फैला हुआ है और इस प्रकार भारत का देशान्तरीय विस्तार लगभग 30° है। हम जानते हैं कि पृथ्वी 24 घण्टे में अपने अक्ष पर 360° देशान्तर घूम जाती है। इस प्रकार 1° देशान्तर पार करने के लिए 4 मिनट का समय लगता है। अतः अरुणाचल प्रदेश तथा सौराष्ट्र के बीच स्थानीय समय का अन्तर 30 x 4 = 120 मिनट अर्थात् दो घण्टे हैं।
क्योंकि अरुणाचल प्रदेश सौराष्ट्र के पूर्व में है, इसलिए वहाँ सूर्योदय पहले होगा। इस प्रकार जब अरुणाचल प्रदेश में सूर्य को निकले काफी देर हो चुकी होती है तब सौराष्ट्र में सूर्य की पहली किरण पडती है।
जनसंख्या के वितरण में विविधताएँ (Diversities in Distribution of Population)
उपरोक्त भौतिक तत्वों में विविधता के कारण जनसंख्या के वितरण मे काफी विविधता पाई जाती है। एक तरफ तो लद्दाख तथा थार की मरुभूमियाँ लगभग मानव विहीन हैं तो दूसरी ओर नदी घाटियों तथा डेल्टाओं में अत्यधिक जनसंख्या पाई जाती है। पर्वतों की अपेक्षा मैदानों में अधिक मानव बसाव होता है।
सन् 2011 की जनगणना के अनुसार अरुणाचल प्रदेश में जनसंख्या का घनत्व केवल 17 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है जबकि बिहार में 1,106 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर जनसंख्या पाई जाती है। दिल्ली में सर्वाधिक 11,320 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर जनसंख्या का घनत्व है।
भाषाई और धार्मिक विविधता (Linguistic and Religious Diversity)
भारत देश में अनेक भाषाएं बोली जाती हैं। हिंदी और अंग्रेजी आधिकारिक भाषाओं के रूप में काम करती हैं, लेकिन बंगाली, तेलुगु, मराठी, तमिल, उर्दू, गुजराती, कन्नड़ और पंजाबी सहित 21 अन्य आधिकारिक रूप से मान्यता प्राप्त भाषाएं हैं। भाषाई विविधता भारत में फलने-फूलने वाली क्षेत्रीय पहचान और सांस्कृतिक विभिन्नताओं को दर्शाती है।
भारतीय समाज को आकार देने में धर्म की भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका है। हिंदू धर्म, देश का सबसे पुराना धर्म है, जिसका पालन अधिकांश आबादी करती है। भारत बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म जैसे अन्य प्रमुख धर्मों का भी जन्मस्थान है।मुसलमानों की आबादी हिन्दुओं के बाद दूसरे स्थान पर है। इसके अतिरिक्त, ईसाइयों और अन्य धार्मिक समुदायों की पर्याप्त आबादी है।
त्योहार और समारोह (Festivals and Celebrations)
भारत त्योहारों की भूमि के रूप में जाना जाता है। देश अपनी विविध धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं को प्रदर्शित करते हुए साल भर में कई त्योहार मनाता है। दीवाली, होली, ईद, क्रिसमस, नवरात्रि, पोंगल, और दुर्गा पूजा कुछ ऐसे त्योहार हैं जिन्हें देश भर में बड़े उत्साह और उत्साह के साथ मनाया जाता है। ये त्योहार लोगों को एक साथ लाते हैं, जाति, पंथ और धर्म की बेडियों को तोड़तें हैं, और विविधता में एकता की भावना को मूर्त रूप देते हैं।
सामाजिक तत्वों में विविधताएँ (Diversities in Social Elements)
भारत के विभिन्न भागों में विभिन्न जातियों, धर्मों, भाषाओं तथा समुदायों के लोग रहते हैं जो एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। विभिन्न क्षेत्रों के लोगों के भोजन, वस्त्र तथा रीति-रिवाजों में काफी भिन्नता पाई जाती है।