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हरित क्रान्ति की सफलता को लेकर अलग-अलग विद्वानों के अपने मत है। कुछ विद्वान तो इसे पूर्ण रूप से सफल क्रान्ति मानते हैं, जिसने भारत के साथ कई अन्य विकासशील देशों में भी कृषि उत्पादन में सचमुच ही क्रान्ति ला दी। परन्तु कुछ अन्य विद्वानों का मानना है कि हरित क्रान्ति से उम्मीद के मुताबिक परिणाम नहीं मिल पाए और इससे आर्थिक, सामाजिक तथा क्षेत्रीय विषमताएँ बढ़ी हैं। इनका विवरण निम्न प्रकार है:
हरित क्रान्ति के दोष (Demerits of Green Revolution)
सीमित फसलें (Limited Crops)
हरित क्रान्ति का प्रभाव सीमित फसलों पर ही देखने को मिला। इसके प्रभाव मुख्य रूप से खाद्यान्नों के उत्पादन पर ही पड़ा और खाद्यान्नों में भी गेहूं की उपज ही विशेष रूप में बढोतरी हुई। ज्वार, बाजरा तथा मक्का की उत्पादन में भी वृद्धि हुई। चावल भारत की सबसे अधिक महत्वपूर्ण खाद्य फसल है परन्तु इसके उत्पादन पर भी हरित क्रान्ति का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। केवल आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु में ही हरित क्रांति से चावल की उपज में वृद्धि हुई।
पटसन, कपास, चाय, गन्ना आदि जैसी व्यापारिक फसलें हरित क्रान्ति के लाभ से लगभग पूर्णतः वंचित रही। जिन क्षेत्रों में पहले दालें बोई जाती थीं, वहां हरित क्रान्ति के अन्तर्गत गेहूं बोया जाने लगा, जिससे दालों के उत्पादन में कमी आ गई। सन् 1985-86 के बाद दालों की उपज में कुछ वृद्धि होने लगी।
सीमित प्रदेश (Limited Areas)
भारत में हरित क्रान्ति का प्रभाव बहुत ही सीमित क्षेत्र पर पड़ा। देश की लगभग 40% भूमि ही हरित क्रान्ति से प्रभावित हुई और शेष 60% भूमि इसके लाभ से वंचित रह गई। पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित क्रान्ति का प्रभाव सबसे अधिक हुआ। आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु पर भी इसका प्रभाव पड़ा। परन्तु उत्तर प्रदेश के बहुत से क्षेत्रों, मध्य प्रदेश, उड़ीसा तथा शुष्क प्रदेशों में हरित क्रान्ति अपना कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखा पाई।
क्षेत्रीय असमानता में वृद्धि (Increase in Regional Inequalities)
हरित क्रान्ति का प्रभाव सीमित क्षेत्र पर ही पड़ने से क्षेत्रीय असमानता भी बढ़ गई। केवल उन्हीं क्षेत्रों में कृषि का उत्पादन बढ़ा जहाँ कृषि पहले से ही अपेक्षाकृत उन्नत अवस्था में थी। पिछड़े हुए क्षेत्रों में स्थिति अब भी लगभग पहले जैसी ही है, क्योंकि हरित क्रान्ति मुख्यतः ‘गेहूँ क्रान्ति’ तक ही सीमित रही। हरित क्रान्ति का प्रभाव पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग तक ही सीमित रहा। सन् 1964-65 में पंजाब तथा हरियाणा मिलकर भारत का 7.5% खाद्यान्न पैदा करते थे जो 2020-21 में बढ़कर 15.57% हो गया।
2020-21 में इन दो राज्यों ने भारत का लगभग 27% गेहूँ पैदा किया। वर्तमान में भी पंजाब और हरियाणा में प्रति हेक्टेयर गेहूं की उपज देश में प्रथम व द्वितीय स्थान पर आते हैं। देश में गेहूं की औसत उपज जहां 34.5 क्विंटल/हेक्टेयर है, वहीँ पंजाब और हरियाणा में यह क्रमशः 50 व 47 क्विंटल/हेक्टेयर है। पिछले कुछ वर्षों में चावल की उपज में भी वृद्धि हुई, परन्तु यह फसल भी मुख्यतः पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में ही अधिक बढ़ी। सन् 1970-71 में ये क्षेत्र देश का कुल 5.9%, चावल पैदा करते थे और 2020-21 में यहाँ भारत का लगभग 25% चावल पैदा होने लगा।
पिछले कुछ वर्षों में देश के मध्यवर्ती शुष्क क्षेत्र में दालों के उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई जिससे क्षेत्रीय विषमताएँ कुछ कम करने में सहायता मिली। इस क्षेत्र में गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश के अपेक्षाकृत शुष्क क्षेत्र सम्मिलित है। सन् 1969-72 से 1981-84 के बीच महाराष्ट्र तथा गुजरात में क्रमशः 9.7% तथा 3.1% प्रति वर्ष दालों के उत्पादन में वृद्धि हुई जबकि इसी अवधि में पंजाब तथा हरियाणा में क्रमशः 7.3% तथा 5.6% प्रति वर्ष की कमी हुई। क्योंकि हमारा मुख्य ध्यान गेहूँ के उत्पादन की ओर केन्द्रित रहा, इसलिए इस महत्वपूर्ण उपलब्धि की प्रायः अनदेखी की जाती है।
पूर्वी क्षेत्र, जिसमें असम, बिहार, पश्चिम बंगाल तथा उड़ीसा सम्मिलित हैं, हरित क्रान्ति से लाभ नहीं उठा सका। इसी प्रकार से दक्षिणी क्षेत्र (तमिलनाडु तथा आन्ध्र प्रदेश को छोड़कर) भी हरित क्रान्ति के प्रभाव से वंचित ही रहा और क्षेत्रीय विषमताओं को प्रोत्साहन मिला।
व्यक्तिगत विषमताओं में वृद्धि (Increase in Interpersonal Inequalities)
हरित क्रान्ति से क्षेत्रीय असमानताओं के साथ-साथ व्यक्तिगत विषमताएँ भी बहुत बढ़ी हैं। इसका कारण यह है कि हरित क्रान्ति का अधिकतम लाभ बड़े किसान ही उठा सके क्योंकि उनके पास कृषि उपकरण, उन्नत बीज, उर्वरक तथा सिंचाई का प्रयोग करने के लिए पर्याप्त आर्थिक साधन थे। इसके विपरीत, निर्धन तथा छोटे किसानों के पास इन वस्तुओं को खरीदने के लिए पर्याप्त धन नहीं होता और वे अपना उत्पादन अधिक नहीं बढ़ा सकते। इस प्रकार अमीर किसान अधिक अमीर तथा गरीब किसान अधिक गरीब हो गए।
हरित क्रान्ति का लाभ मुख्यतः वही किसान उठा पाते हैं जिनके पास 10-15 हेक्टेयर भूमि होती है। भारत में लगभग 810 लाख खेत है जिनमें से केवल 15% खेत ही 10 हेक्टेयर से अधिक बड़े हैं। फ्रेन्सिन आर० फ्रेन्कल ने लुधियाना (पंजाब), पश्चिमी गोदावरी (आन्ध्र प्रदेश), तंजावुर (तमिलनाडु), पालबाट (केरल), तथा बर्दवान (पश्चिम बंगाल) के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला कि हरित क्रान्ति का सबसे अधिक लाभ 10-12 हेक्टेयर भूमि वाले किसानों ने उठाया।
चार हेक्टेयर से कम भूमि वाले किसानों की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई। इसी प्रकार का निष्कर्ष जी० आर० सैनी ने फिरोजपुर (पंजाब) तथा मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) के अध्ययन से निकाला। पंजाब में छोटे तथा मध्यम वर्ग के किसानों पर हरित क्रान्ति के प्रभाव का अध्ययन करते हुए जी०एस० भल्ला तथा जी० के० चड्डा ने निष्कर्ष निकाला कि
“हरित क्रान्ति से किसानों को आमतौर पर लाभ पहुँचा है परन्तु 25 एकड़ से कम भूमि को जोतने वाले एक-तिहाई छोटे किसान गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे हैं। अन्य 24% किसान 2.5 से 5 एकड़ भूमि को जोतते हैं और वे भी गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे हैं। यह बड़े खेद की बात है कि तकनीकों में इतना विकास हो जाने के बाद भी पंजाब में बहुत-से छोटे किसान अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ हैं।
चावल उत्पादक क्षेत्रों में खेत प्रायः छोटे होते हैं और किसानों की आर्थिक स्थिति दयनीय है। डी० वी० के० चार० वी० राव के कथनानुसार, “यह एक सर्वविदित तथ्य है कि जिस हरित क्रान्ति के फलस्वरूप उत्पादन में वृद्धि हुई है उसके कारण आर्थिक असमानता भी बढ़ी है। काफी संख्या में छोटे किसानों के काश्तकारी हक समाप्त कर दिए गए औरों में सामाजिक तथा आर्थिक तनाव बढ़ा है।”
बेरोजगारी में वृद्धि (Increase in Unemployment)
हरित क्रान्ति के अन्तर्गत धनी किसानों ने मशीनों का प्रयोग अधिक करना शुरू कर दिया जिससे कृषि मजदूरी में बेरोजगारी अधिक फैल गई। यद्यपि ग्रामीण तथा कुटीर उद्योगों में कुछ धनिक रोजगार प्राप्त कर सके है तथापि निर्धन तथा भूमिहीन मजदूरों की दशा पहले से भी अधिक खराब हो गई।
कृषि उत्पादन में कम वृद्धि दर (Less Growth Rate of Agricultural Production)
हरित क्रान्ति से कृषि उत्पादन में उतनी अधिक वृद्धि नहीं हो सकी जितनी इससे आशा की जाती थी। 1949-50 से 1964-65 तक खाद्यान्नों के उत्पादन में 2.8% की दर में वृद्धि हुई जबकि 1970-71 से 1980-81 तक यह वृद्धि दर घटकर 2.5% रह गई। 2000-01 सर्वेक्षण (Economic Survey. 2000-01) के अनुसार 1961 में 399.7 ग्राम खाद्यान्न प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपलब्ध थे जो 1981 में 417.3 ग्राम तथा 2000 में 439.8 ग्राम थे। दालों की उपलब्धता 1956 में 78.4 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से घटकर 2000 में 31.2 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन रह गई।
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