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भारत में मृदा का वर्गीकरण (Soil Classification in India)
पिछले कुछ दशकों में भारत की मृदा के वर्गीकरण के कई प्रयास किए गए। भारतीय मृदाओं का प्रथम वैज्ञानिक वर्गीकरण वोयलकर (1893) और लीदर (1898) ने किया था। इनके अनुसार भारतीय मृदाओं को चार वर्गों में बांटा गया था: (i) जलोढ़, (ii) रेगड़ (काली मिट्टी), (iii) लाल मृदा, और (iv) लैटेराइट (मखरला) मृदा ।
अखिल भारतीय मृदा एवं भू-उपयोग सर्वेक्षण संगठन द्वारा भी 1956 में भारतीय मृदाओं को वर्गीकृत करने का प्रयास किया गया। अगले वर्ष 1957 में राष्ट्रीय एटलस एवं थिमेटिक संगठन (NATMO) द्वारा भारत के मृदा मानचित्र को प्रकाशित किया, जिसमें भारतीय मृदाओं को 6 प्रमुख समूहों और 11 उप-समूहों में वर्गीकृत किया गया। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (ICAR) के द्वारा भी वर्ष 1963 में भारत का मृदा मानचित्र प्रकाशित किया (एस.पी. राय चौधरी के पर्यवेक्षण में) जिसमें भारत की मृदा को 7 समूहों में विभाजित किया गया। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के हाल के वर्गीकरण में भारत की मृदाओं को निम्न 10 मृदा समूहों में विभाजित किया गया है:
1. जलोढ़ मृदा
2. रेगड़ (काली मिट्टी) मृदा
3. लाल और पीली मृदाएँ
4. लैटेराइट मृदा
5. मरुस्थलीय या शुष्क मृदाएँ
6. पर्वतीय मृदा
7. लवण मृदाएँ तथा क्षारीय मृदाएँ
8. पीटमय मृदाएँ
9. भूसर एवं भूरी मृदाएं
10. भूसर एवं भूरी मृदाएं
11. अन्य मृदाएं
जलोढ़ मृदाएँ (Alluvial Soils)
निर्माण
- प्रमुख रूप से जलोढ़ मिट्टियों का निर्माण नदियों द्वारा बहाकर लाए हुए अपरदित पदार्थों के जमा होने से होता है। ये मृदाएँ समुद्रों की जलीय प्रक्रिया द्वारा भी निक्षेपित होती हैं।
विस्तार
- जलोढ़ मिट्टियाँ नदी घाटियों, डेल्टाई प्रदेशों और बाढ़ के मैदानों में पाई जाती हैं। उत्तरी भारत का विशाल मैदान इन्हीं मिट्टियों से बना हुआ है।
- महानदी, गोदावरी, कृष्णा व कावेरी इत्यादि नदियों के डेल्टाई भागों में भी यही मिट्टियाँ पाई जाती हैं। इसी कारण इन्हें डेल्टाई मिट्टी (Deltaic Soil) भी कहा जाता है।
- इसके अतिरिक्त ये मिट्टियाँ असम घाटी, गुजरात तथा पश्चिमी व पूर्वी तटीय मैदानों में भी पाई जाती हैं।
- भारत में जलोढ़ मृदा 142.50 मिलियन वर्ग कि.मी. क्षेत्र को घेरे है, जो भारत की सभी मृदाओं के क्षेत्रफल का लगभग 43.4 प्रतिशत है।
विशेषताएँ
- इन्हें काँप की मिट्टियाँ अथवा कछारी मिट्टियाँ भी कहा जाता है।
- ये मिट्टियाँ हल्के भूरे व पीले रंग की होती हैं।
- मुलायम होने के कारण इन मिट्टियों में कुएँ, नलकूप व नहरें खोदना आसान और कम खर्चीला होता है। इसलिए जलोढ़ मिट्टियों के क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधाओं को आसानी से विकसित किया जा सकता है।
- जलोढ़ मिट्टियों में गहन कृषि (Intensive Farming) की जाती है। चावल, गेहूँ, गन्ना, कपास, तिलहन, दालें, तंबाकू व हरी सब्जियाँ इन मिट्टियों में बहुतायत से उगाई जाती हैं।
- जलोढ़ मिट्टियों में पोटाश और चूना पर्याप्त मात्रा में मिलता है, जबकि नाइट्रोजन, फास्फोरस, वनस्पति अंश (ह्यूमस) आदि की कमी होती है।
संरचना और उपजाऊपन के आधार पर जलोढ़ मिट्टियों के तीन उप-विभाग हैं-
(i) खादर मिट्टियाँ
नदी तट के समीप नवीन कछारी मिट्टियों से बने निचले प्रदेश जहां हर साल बाढ़ आती है, को खादर कहते हैं। नदियों की बाढ़ के कारण यहाँ हर वर्ष जलोढ़ की नई परत बिछ जाने के कारण ये मिट्टियाँ अधिक उपजाऊ होती हैं। इसे ‘बेट’ भूमि भी कहा जाता है।
(ii) बांगर मिट्टियाँ
पुराने जलोढ़ निक्षेप से बने ऊँचे प्रदेश जहाँ बाढ़ का जल नहीं पहुँच पाता, को बांगर कहते हैं। बांगर में मृतिका का अंश अधिक पाया जाता है। इसमें कैल्शियम संग्रथनों अर्थात् कंकड़ों की भरमार होती है। इसे ‘धाया’ भी कहते हैं।
(iii)नवीनतम जलोढ़ मिट्टियाँ
ये नदियों के डेल्टाओं में पाई जाने वाली दलदली, नमकीन और अत्यंत उपजाऊ मिट्टियाँ होती हैं। इनके कण अत्यंत महीन होते हैं। इनमें ह्यूमस, पोटाश, चूना, मैग्नीशियम व फॉस्फोरस अधिक मात्रा में मिलते हैं।
Soil Map of India
काली मृदाएँ (Black Soils)
निर्माण
- आधुनिक मान्यता के अनुसार, काली मृदाएँ ज्वालामुखी विस्फोट से बनी दरारों से निकले पैठिक लावा (Basic Lava) के जमा होने से बनी हैं।
विस्तार
- काली मृदा का विस्तार महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, गुजरात तथा तमिलनाडु के लगभग 5 लाख वर्ग कि०मी० क्षेत्र में हैं।
- जलोढ़ मिट्टियों के बाद देश में काली मिट्टियों का विस्तार सबसे बड़े क्षेत्र पर है।
विशेषताएँ
- रंग की गहराई के आधार पर काली मिट्टियों के तीन प्रकार होते हैं- (i) छिछली काली मिट्टियाँ, (ii) मध्यम काली मिट्टियाँ तथा (iii) गहरी काली मिट्टियाँ
- ये अपने ही स्थान पर बनकर पड़ी रहने वाली स्थायी (In Situ) मिट्टियाँ हैं ।
- इन मिट्टियों में चूना, लोहा, मैग्नीशियम, कैल्शियम, कार्बोनेट, एल्यूमीनियम व पोटाश (LIMCAP – Lime, Iron, Magnesium, Calcium Carbonate, Aluminium and Potash) अधिक पाया जाता है, परंतु इसमें जीवित पदार्थों, फॉस्फोरस और नाइट्रोजन की मात्रा कम पाई जाती है।
- लोहे के अंश की मात्रा अधिक होने के कारण इन मिट्टियों का रंग काला होता है।
- काली मिट्टियों में कणों की बनावट घनी और महीन होती है जिससे इसमें नमी धारण करने की पर्याप्त क्षमता होती है। इसके लिए सिंचाई की आवश्यकता कम पड़ती है।
- जल के अधिक देर तक ठहर सकने के गुण के कारण ये मिट्टियाँ शुष्क कृषि (Dry Farming) के लिए श्रेष्ठ हैं।
- स्वभाव से काली मिट्टियाँ चिकनी (Clayey) होती हैं।
- इन मिट्टियों का प्रमुख दोष यह है कि ग्रीष्म ऋतु में सूख जाने पर इसकी ऊपरी परत में दरारें पड़ जाती हैं। दरारें काली मिट्टियों में वायु-संचरण (Aeration) अथवा वातन क्रिया में सहायता करती हैं। वर्षा ऋतु में ये मिट्टियाँ चिपचिपी (Sticky) हो जाती हैं। दोनों दशाओं में इसमें हल चलाना कठिन हो जाता है । अतः पहली बारिश के बाद इन मिट्टियों की जुताई जरूरी है।
- कपास के उत्पादन के लिए ये मिट्टियाँ अत्यंत उपयोगी हैं। अतः इन्हें काली कपास वाली (Black Cotton Soil) मिट्टियाँ भी कहते हैं।
- गन्ना, तंबाकू, गेहूँ व तिलहन के लिए भी ये मिट्टियाँ श्रेष्ठ सिद्ध हुई हैं।
- कहीं-कहीं काली मिट्टियों को रेगड़ (Regur) भी कहते हैं।
लाल और पीली मृदाएँ (Red and Yellow Soils)
निर्माण
- लाल और पीली मृदाएँ अपक्षय के कारण प्राचीन रवेदार और रूपांतरित चट्टानों के टूटने-फूटने से बनती हैं। ये मृदाएँ अपने ही स्थान पर बनने वाली स्थायी (In Situ) मिट्टियां हैं।
विस्तार
- ये मृदाएँ भारत में लगभग 2 लाख वर्ग कि०मी० क्षेत्र में विस्तृत है।
- लाल और पीली मृदाएँ प्रायद्वीपीय पठार के बाहरी क्षेत्रों में विस्तृत हैं जिसमें तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना छत्तीसगढ़, दक्षिण-पूर्वी महाराष्ट्र, ओडिशा और छोटा नागपुर पठार कुछ हिस्से शामिल हैं।
विशेषताएँ
- लोहे के यौगिकों की उपस्थिति के कारण इन मिट्टियों का रंग लाल होता है।
- कहीं-कहीं इन मिट्टियों का रंग पीला, भूरा, चॉकलेटी और काला भी होता है।
- जलयोजित होने के कारण इन मिट्टियों का रंग पीला दिखाई देता है।
- लाल और पीली मिट्टियों में लोहा, चूने और एल्युमीनियम की प्रधानता होती है, परंतु नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और जैव पदार्थों की कमी पाई जाती है।
- ये अपेक्षाकृत कम उपजाऊ मिट्टियाँ होती हैं जो शुष्क कृषि के लिए अधिक अनुकूल हैं।उर्वरकों का प्रयोग करने के बाद इन मिट्टियों में चावल, गेहूँ, गन्ना, कपास व दालें आदि उगाई जा सकती हैं।
लैटेराइट मृदाएँ (Laterite Soils)
निर्माण
- लैटेराइट मृदाओं का निर्माण मानसून जलवायु की अधिक वर्षा और ऊँचे तापमान की दशाओं में होता है। उष्ण-आर्द्र प्रदेशों में आर्द्रता और शुष्कता के क्रमिक परिवर्तन के कारण इन मिट्टियों की ऊपरी परत से चूना तथा सिलिका वर्षा के जल के साथ घुलकर निचली परत में पहुँच जाते हैं और लोहे तथा एल्युमीनियम के कण ऊपर रह जाते हैं। इस कुदरती प्रक्रिया को निक्षालन (Leaching) कहा जाता है।
विस्तार
- लैटेराइट मृदाएँ लगभग 1.2 लाख वर्ग कि०मी० क्षेत्र में फैली हुई हैं।
- भारत में लैटेराइट मिट्टियाँ पश्चिमी घाट, नागपुर पठार, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश व असम के पहाड़ी इलाकों में पाई जाती हैं।
विशेषताएँ
- लैटेराइट मृदाएँ ईंट के समान लाल रंग की होती हैं।
- ये मिट्टियाँ अम्लीय (Acidic) प्रकृति की हैं जिनमें नाइट्रोजन, चूना, फॉस्फोरस, मैग्नीशियम तथा जैव पदार्थ की मात्रा कम होती है। जिस कारण ये मिट्टियाँ कम उपजाऊ हैं।
- यद्यपि लैटेराइट मिट्टियाँ कृषि के लिए उपयुक्त नहीं होतीं फिर भी चरागाहों व झाड़ीनुमा वनों के लिए अनुकूल मानी जाती हैं।
- उर्वरकों के प्रयोग के साथ इन मिट्टियों में कॉफी, रबड़ व काजू जैसी फसलें उगाई जा सकती हैं।
- भवन-निर्माण (ईंट बनाने) के लिए इन मिट्टियों का खूब प्रयोग किया जाता है।
मरुस्थलीय या शुष्क मृदाएँ (Arid Soils)
निर्माण
- शुष्क और उष्ण जलवायु में चट्टानों के भौतिक अपक्षय (Mechanical Weathering) के फलस्वरूप रेत का निर्माण होता है। पवनों द्वारा इस रेत के परिवहन तथा अन्यत्र निक्षेपण के उपरांत इन मिट्टियों का जन्म होता है।
विस्तार
- शुष्क मृदाएँ 1.42 लाख वर्ग कि०मी० क्षेत्र में फैली हुई हैं।
- ये मिट्टियाँ 50 सें०मी० से कम वार्षिक वर्षा वाले शुष्क प्रदेशों, विशेष रूप से राजस्थान, उत्तरी गुजरात, दक्षिण-पश्चिमी पंजाब व दक्षिणी हरियाणा में मिलती है।
विशेषताएँ
- इन्हें बलुई अथवा मरुस्थलीय मृदाएँ भी कहा जाता है।
- इन मिट्टियों में खनिज लवण (Mineral Salts) अधिक मात्रा में पाए जाते हैं।
- पानी और प्राकृतिक वनस्पति की कमी तथा तीव्र वाष्पीकरण के कारण इन मिट्टियों में नाइट्रोजन व जैव पदार्थ की भारी कमी होती है।
- वर्षा की कमी के कारण घुलनशील लवणों का निक्षालन नहीं हो पाता। अतः ये मिट्टियाँ स्वभाव से क्षारीय (Alkaline) होती हैं ।
- सिंचाई की सुविधा होने पर ये मिट्टियाँ उपजाऊ बन जाती हैं और तब इसमें गेहूँ, चना, ज्वार, बाजरा तथा सब्जियाँ आदि पैदा की जाती हैं।
- इंदिरा गांधी नहर परियोजना ने सिद्ध कर दिया है कि सिंचाई की उचित व्यवस्था होने पर राजस्थान के मरुस्थल में लहलहाती फसलें उगाई जा सकती हैं।
- इन मृदाओं का रंग लाल से लेकर किशमिशी तक होता है।
पर्वतीय मृदाएँ (Forest Soils)
निर्माण
- पर्वतीय मृदाओं का निर्माण पर्वतीय पर्यावरण में होता है। इन मिट्टियों की रचना हिम, वर्षा तथा क्रमिक तापांतर से हुए चट्टानों के यांत्रिक (भौतिक) अपक्षय से होती है।
- चट्टानों से प्राप्त यह अपक्षयित सामग्री अपने स्थान पर बनी नहीं रह पाती तथा गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव तथा हिम और जल के साथ ढाल के सहारे बह जाती हैं। अत: इन मिट्टियों के निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाती।
विस्तार
- भारत में इन मिट्टियों का विस्तार 2.85 लाख वर्ग कि०मी० क्षेत्र में मिलता है।
- ये मिट्टियाँ जम्मू-कश्मीर, सिक्किम, असम, उत्तराखंड तथा अरुणाचल प्रदेश के पर्वतीय भागों के वनाच्छादित क्षेत्रों में पाई जाती हैं।
विशेषताएँ
- ये खुरदरी (Coarse) मिट्टियाँ हैं जिनमें कंकड़ व चट्टानी टुकड़ों की प्रचुरता होती है।
- अपेक्षाकृत बड़े आकार के कणों तथा चीका की अनुपस्थिति के कारण वन मिट्टियों में जल धारण करने की क्षमता नहीं होती। अतः ये मिट्टियाँ वृक्षीय फसलों (Tree Crops) तथा ऐसी फसलों के लिए उपयुक्त होती हैं जिन्हें पारगम्य (permeable) मिट्टी की जरूरत होती है।
- इन मिट्टियों में लोहे के अंश व जैव पदार्थ तो अधिक होते हैं किंतु चूने व पोटाश की मात्रा कम होती है ।
- पर्वतीय ढलानों पर इन मिट्टियों में चाय, कॉफी, सेब, आडू, चेरी, अखरोट तथा चिकित्सा उपयोगी पौधे उगाए जाते हैं।
लवण मृदाएँ (Saline Soils) तथा क्षारीय मृदाएँ (Alkaline Soils)
निर्माण
- जब किसी मिट्टी विशेष में लवणों और क्षारों का अंश अधिक हो जाता है तो ऐसी मिट्टी को लवणीय तथा क्षारीय मिट्टी कहा जाता है।
- इन मिट्टियों का निर्माण जलाक्रांति जल (Water logging) की समस्या से ग्रस्त कुप्रवाहित (IIldrained) भूमि पर होता है।
- नहरों द्वारा सिंचित तथा उच्च भूमिगत स्तर वाले इलाकों में जब वाष्पन होता है तो केशिका क्रिया (Capillary Action) द्वारा भूमिगत लवण नीचे से ऊपर धरातल पर आ जाते हैं और मिट्टी को अनुपजाऊ बना देते हैं।
- समुद्र-तटीय प्रदेशों में ज्वारीय जल के इकट्ठा होने से भी तटीय मिट्टियाँ लवणीय हो जाती हैं ।
विस्तार
- इस प्रकार की मिट्टियाँ शुष्क प्रदेशों में विशेषतः पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, दक्षिणी पंजाब, दक्षिणी हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मिलती हैं। गुजरात में खंभात की खाड़ी के इर्द-गिर्द भी समुद्र के नमकीन पानी के इकट्ठा होने के कारण ऐसी मिट्टियाँ मिलती हैं।
विशेषताएँ
- इन मिट्टियों को थूर, ऊसर, रेह, कल्लर, शंकड़ और चोपन आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है।
- ये अनुपजाऊ मिट्टियाँ हैं लेकिन जैव उर्वरकों का प्रयोग करके इस पर खेती की जा सकती है ।
पीटमय मृदाएँ (Peaty Soils)
निर्माण
- इन मिट्टियों का निर्माण अधिक आर्द्रता वाले क्षेत्रों अथवा समुद्र-तटीय क्षेत्रों में जल की निरंतर उपस्थिति के कारण होता है।
विस्तार
- ये मिट्टियाँ पश्चिमी बंगाल के सुंदर वन क्षेत्र, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश व तमिलनाडु के तटीय क्षेत्रों तथा उत्तर प्रदेश की तराई पट्टी में पाई जाती हैं।
विशेषताएँ
- दलदली मिट्टियों में लोहांश तथा जीवांश की मात्रा अधिक पाई जाती है।
- पटसन की खेती के लिए ये उपयोगी मिट्टियाँ हैं।
- वर्षा ऋतु में अधिकांश पीट मिट्टियाँ जल में डूब जाती हैं। वर्षा ऋतु के बाद इन पर चावल की फसल बोई जाती है।
भूसर एवं भूरी मृदाएं (Grey and Brown Soils)
निर्माण
- भूसर एवं भूरी मृदाओं का निर्माण ग्रेनाइट, नाइस और क्वार्ट्जाइट के अपक्षय द्वारा होता है।
विस्तार
- ये मृदाएं राजस्थान एवं गुजरात में पायी जाती हैं।
विशेषताएँ
- ये ढीली और भुरभुरी (friable) मृदाएं हैं।
- इनमें मौजूद लोहे के आक्साइड (हेमेटाइट और लिमोनाइट) इनको लाल, काले या फिर भूरे रंगों की भिन्नता प्रदान करता हैं।
उपपर्वतीय मृदाएं (Submontane Soils)
निर्माण
- उपपर्वतीय मृदाओं का निर्माण शिवालिक एवं लघु हिमालय से प्राप्त अपरदित पदार्थों के निक्षेपों से हुआ है।
विस्तार
- ये मृदाएं जम्मू एवं कश्मीर से लेकर आसाम तक तराई प्रदेशों के उपपर्वतीय भागों में एक संकीर्ण पट्टी के रूप में पायी जाती हैं।
विशेषताएँ
- उपपर्वतीय मृदाएं उपजाऊ है तथा उन्नत जंगलों के विकास के अनुकूल हैं।
- कृषि कार्यों के लिए इन क्षेत्रों में की गई जंगलों की कटाई ने यहां मृदा अपरदन के संकट को जन्म दिया है।
अन्य मृदाएं
करेवा मृदाएं (Karewa Soils)
निर्माण
- करेवा मृदाएं सरोवरीय निक्षेपों से बनी हैं। इन मृदाओं का निर्माण महीन गाद, दोमट, बालू एवं कंकड़ों से हुआ है। इनमें स्तनधारियों के जीवाश्म और पीट विद्यमान हैं।
विस्तार
- करेवा मृदाएं कश्मीर घाटी तथा जम्मू मंडल के ‘डोडा जिले की भद्रवाह घाटी में पायी जाती हैं।
- ये मृदाएं चपटी सतहों वाले टीलों (mounds) के रूप में कश्मीर घाटी की सीमाओं पर फैली हैं।
विशेषताएँ
- भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार पूरी कश्मीर घाटी अभिनूतन काल (Pleistocene Period) में जल के नीचे थी।
- कुछ समय बाद अंतर्जात बलों द्वारा बारामुला खड्ड (gorge) का निर्माण हुआ तथा इस झील का जल बारामुला खड्ड द्वारा बाहर निकल गया।
- इस झील या सरोवर में निक्षेपित पदार्थों से ही करेवा की रचना हुई।
- झील या सरोवर की वर्तमान स्थिति के निर्माण में झेलम नदी का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
- करेवा मृदाओं में मुख्यतया केसर, बादाम, अखरोट, सेब और फलों, की खेती की जाती है।
- केसर की खेती वहां के किसानों को अच्छी आय अर्जित कराती है। पालमपुर, पुलवामा और कुलगाम की करेवा मृदाएं उच्च गुणवत्ता वाले केसर की खेती के लिए प्रसिद्ध हैं।
हिम क्षेत्र (Snowfields)
- भारत की लगभग 4 मिलियन हैक्टेयर भूमि बर्फ से ढकी है जिन्हें हिमक्षेत्र के नाम से जाना जाता है। वृहत् हिमालय की ऊंची चोटियां, काराकोरम, लद्दाख और जास्कर (जास्कर) इसके मूल क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रों की मृदाएं अप्रौढ़ हैं तथा यहाँ साधारणतया मृदा अपरदन नहीं हुआ है। ये मृदाएं वर्ष भर जमी रहती हैं तथा ये कृषि कार्य के लिए अनुपयुक्त हैं।