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Table of contents
- मानसून और भारतीय कृषि का ऐतिहासिक संबंध
- मानसून का वैज्ञानिक आधार और कृषि पर प्रभाव
- राज्यवार मानसून निर्भरता का विश्लेषण
- फसलवार मानसून निर्भरता
- मानसून का सकारात्मक प्रभाव
- मानसून का नकारात्मक प्रभाव
- मानसून की अनियमितता और चुनौतियां
- सरकारी नीतियां और मानसून निर्भरता में कमी
- भविष्य की संभावनाएं और जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
- निष्कर्ष
- FAQs
भारत की कृषि व्यवस्था का मानसून से गहरा और जटिल रिश्ता है जो हजारों वर्षों से चला आ रहा है। यह निर्भरता न केवल भौगोलिक और जलवायु परिस्थितियों का परिणाम है, बल्कि ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक कारकों का भी प्रतिफल है।
भारत में लगभग 60 प्रतिशत कृषि भूमि मानसूनी वर्षा पर निर्भर है, और देश की कुल खाद्यान्न उत्पादन का 55 प्रतिशत हिस्सा खरीफ फसलों से आता है जो पूर्णतः मानसून की दया पर निर्भर हैं। यह निर्भरता भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था, खाद्य सुरक्षा, और लगभग 60 करोड़ लोगों की आजीविका को प्रभावित करती है। मानसून की अनियमितता न केवल फसल उत्पादन को प्रभावित करती है, बल्कि देश की समग्र आर्थिक वृद्धि दर को भी प्रभावित कर सकती है।

Green agricultural fields in India during the monsoon season showing lush crop growth under cloudy, rainy conditions
मानसून और भारतीय कृषि का ऐतिहासिक संबंध
प्राचीन काल से ही मानसून निर्भरता
भारतीय कृषि की मानसून पर निर्भरता का इतिहास सिंधु घाटी सभ्यता (9000 ईसा पूर्व) तक जाता है। प्राचीन भारतीय सभ्यताओं ने द्विमानसूनी प्रणाली का लाभ उठाकर वर्ष में दो फसल चक्र विकसित किए थे। वैदिक काल में गेहूं और जौ को रबी फसलों के रूप में उगाया जाता था, जो शीतकालीन मानसून पर निर्भर थीं। इस काल में भारतीय किसानों ने मानसून के पैटर्न को समझकर फसल चक्र और सिंचाई प्रणालियों का विकास किया था।
सिंधु घाटी सभ्यता में कृत्रिम जलाशयों का निर्माण (3000 ईसा पूर्व में गिरनार में) और नहर सिंचाई प्रणाली (2600 ईसा पूर्व) का विकास दर्शाता है कि प्राचीन भारतीयों ने मानसूनी जल के संरक्षण और प्रबंधन की तकनीक विकसित की थी। कावेरी नदी पर बना ग्रैंड अनिकट बांध (1-2वीं शताब्दी) दुनिया के सबसे पुराने जल नियंत्रण संरचनाओं में से एक है।
औपनिवेशिक काल में मानसून की भूमिका
ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में मानसून की असफलता ने भारत में भयंकर अकाल और मृत्यु का कारण बना। 1770 का बंगाल अकाल, जिसमें प्रभावित क्षेत्रों की एक तिहाई जनसंख्या मारी गई थी, 1876-1877 का अकाल जिसमें 50 लाख से अधिक लोग मरे, और 1899 का अकाल जिसमें 45 लाख लोगों की मृत्यु हुई – ये सभी मानसून की विफलता के ही परिणाम थे।
इन त्रासदियों ने जलवायु विज्ञान में मानसून पूर्वानुमान की शुरुआत की और सर गिल्बर्ट वॉकर जैसे वैज्ञानिकों ने मानसून के कारकों का अध्ययन शुरू किया।

Major Indian agricultural crops dependent on monsoon rains including sugarcane, maize, cotton, legumes, wheat, rice, and peanuts
मानसून का वैज्ञानिक आधार और कृषि पर प्रभाव
दक्षिण-पश्चिम मानसून की महत्वता
भारतीय कृषि के लिए दक्षिण-पश्चिम मानसून सबसे महत्वपूर्ण है, जो देश की कुल वर्षा का 75 प्रतिशत लेकर आता है। जून से सितंबर तक चलने वाला यह मानसून खरीफ फसलों की बुआई, वृद्धि और कटाई के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। मानसूनी हवाएं नमी से भरी होती हैं और अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी से जल वाष्प लेकर आती हैं।
वर्षा का समय, मात्रा और वितरण, कृषि उत्पादन को सीधे प्रभावित करता है। मानसून में कुछ दिनों की देरी भी सोयाबीन, कपास, चावल और दालों जैसी फसलों को प्रभावित करती है। उत्तर-पूर्वी मानसून (अक्टूबर-नवंबर) भी महत्वपूर्ण है, विशेषकर दक्षिणी राज्यों के लिए, जहां यह कुल वार्षिक वर्षा का 60 प्रतिशत तक योगदान देता है।
मानसून की परिवर्तनशीलता और कृषि पर प्रभाव
मानसूनी परिवर्तनशीलता का मतलब है; मानसून का मौसम, वर्ष और दशकों के अनुसार बदलना। यह परिवर्तनशीलता कृषि उत्पादन में अनिश्चितता लाती है। पिछले कुछ दशकों में सूखे दिनों की संख्या में 27 प्रतिशत की वृद्धि हुई है (1981-2011 की तुलना में 1951-1980 से), जो कृषि के लिए गंभीर चुनौती है।
शोध से पता चलता है कि मानसून की लगभग 50 प्रतिशत वर्षा केवल 20-30 घंटों में होती है, जो मानसून अवधि का केवल 20 प्रतिशत समय है। यह असमान वितरण जल उपलब्धता, मृदा स्वास्थ्य और फसल उत्पादकता को प्रभावित करता है।

Monsoon dependency varies significantly across Indian states, with northeastern and central states showing highest dependence
राज्यवार मानसून निर्भरता का विश्लेषण
उच्च मानसून निर्भर राज्य
असम में 94.3 प्रतिशत, झारखंड में 85.1 प्रतिशत, और हिमाचल प्रदेश में 79.8 प्रतिशत कृषि भूमि मानसून पर निर्भर है। ये राज्य पूर्वोत्तर भारत और पहाड़ी क्षेत्रों में स्थित हैं, जहां सिंचाई की सुविधाएं सीमित हैं। असम में चावल की खेती और चाय के बागान पूर्णतः मानसूनी वर्षा पर निर्भर हैं।
छत्तीसगढ़ (69.0 प्रतिशत) और कर्नाटक (65.1 प्रतिशत) जैसे राज्य मध्यम स्तर की मानसून निर्भरता दर्शाते हैं। छत्तीसगढ़ को ‘धान का कटोरा’ कहा जाता है, और यहां की अधिकांश धान की खेती खरीफ मौसम में मानसूनी वर्षा पर निर्भर करती है।
मध्यम मानसून निर्भर राज्य
गुजरात (58.9 प्रतिशत) और आंध्र प्रदेश (58.8 प्रतिशत) मध्यम स्तर की मानसून निर्भरता दिखाते हैं। गुजरात में कपास, मूंगफली और बाजरा की खेती मुख्यतः मानसून पर निर्भर है। आंध्र प्रदेश में चावल, कपास और तिलहन की फसलें मानसूनी वर्षा पर निर्भर हैं।
बिहार (43.5 प्रतिशत) में गंगा नदी प्रणाली के कारण सिंचाई की बेहतर सुविधाएं हैं, फिर भी यहां की धान की खेती मानसून पर निर्भर है। बिहार भारत के प्रमुख चावल उत्पादक राज्यों में से एक है।
न्यूनतम मानसून निर्भर राज्य
हरियाणा में केवल 11.7 प्रतिशत कृषि भूमि मानसून पर निर्भर है। यह राज्य गेहूं और चावल के लिए व्यापक नहर सिंचाई प्रणाली और भूजल का उपयोग करता है। हरियाणा में यमुना नदी और हरियाणा राज्य नहर जैसी सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध हैं।
पंजाब भी कम मानसून निर्भरता वाला राज्य है, जहां ट्यूबवेल और नहरी सिंचाई का व्यापक उपयोग होता है। हालांकि, वर्तमान में भूजल का अत्यधिक दोहन इन राज्यों के लिए नई चुनौती बन गया है।

Kharif (monsoon-dependent) crops account for majority of India’s foodgrain production, highlighting monsoon’s critical importance
फसलवार मानसून निर्भरता
खरीफ फसलों की मानसून निर्भरता
खरीफ फसलें (जून-अक्टूबर) पूर्णतः दक्षिण-पश्चिम मानसून पर निर्भर हैं और भारत के कुल खाद्यान्न उत्पादन का 55 प्रतिशत हिस्सा प्रदान करती हैं। प्रमुख खरीफ फसलों में चावल, मक्का, ज्वार, बाजरा, कपास, गन्ना, सोयाबीन और दालें शामिल हैं।
चावल सबसे अधिक जल गहन फसल है और इसे पानी से भरे खेतों की आवश्यकता होती है। भारत में चावल की खेती के लिए वृद्धि अवधि के दौरान 1200-1400 मिमी पानी की आवश्यकता होती है। पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में चावल की खेती पूर्णतः मानसूनी वर्षा पर निर्भर है।
कपास की खेती महाराष्ट्र, गुजरात और तेलंगाना में मुख्यतः खरीफ मौसम में होती है। कपास के लिए समान वितरित वर्षा और फूल आने के समय शुष्क मौसम की आवश्यकता होती है।
रबी फसलों और मानसून का संबंध
रबी फसलें (नवंबर-अप्रैल) मुख्यतः सिंचाई पर निर्भर हैं, लेकिन उत्तर-पूर्वी मानसून और शीतकालीन वर्षा इनके लिए महत्वपूर्ण हैं। गेहूं, जौ, चना, मटर और सरसों प्रमुख रबी फसलें हैं। गेहूं की खेती के लिए बुआई के समय नमी और वृद्धि अवधि के दौरान मध्यम तापमान की आवश्यकता होती है।
दक्षिणी भारत में रबी फसलों की सिंचाई के लिए उत्तर-पूर्वी मानसून महत्वपूर्ण है। तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में इस मानसून से 60 प्रतिशत वार्षिक वर्षा प्राप्त होती है।
मानसून का सकारात्मक प्रभाव
कृषि उत्पादन में वृद्धि
समय पर आने वाला और पर्याप्त मानसून भारतीय कृषि के लिए वरदान है। 2013-14 में अच्छे मानसून के कारण कुल खरीफ बुआई में 5 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी और 129.32 मिलियन टन खाद्यान्न उत्पादन हुआ था। अच्छे मानसून के कारण जल भंडार 10 वर्षीय औसत के 123 प्रतिशत तक पहुंच गए थे।
मिट्टी की उर्वरता में सुधार मानसूनी वर्षा का एक महत्वपूर्ण सकारात्मक प्रभाव है। वर्षा जल मिट्टी में जैविक कार्बन और सूक्ष्म पोषक तत्वों को संरक्षित करती है। प्राकृतिक जल चक्र से मिट्टी की नमी धारण क्षमता में वृद्धि होती है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
अच्छा मानसून ग्रामीण क्रय शक्ति में वृद्धि करता है। कृषि GDP वृद्धि दर पर सीधा प्रभाव पड़ता है – 2013-14 में मजबूत मानसून के कारण कृषि GDP में 5.2-5.7 प्रतिशत वृद्धि का अनुमान था। फसल बीमा की आवश्यकता कम हो जाती है और किसान आत्महत्याओं में कमी आती है।
रोजगार सृजन भी मानसून का एक सकारात्मक प्रभाव है। अच्छे मानसून के कारण खेतिहर मजदूरों की मांग बढ़ती है और ग्रामीण मजदूरी दरें स्थिर रहती हैं।
मानसून का नकारात्मक प्रभाव
सूखा और फसल हानि
अपर्याप्त या देर से आने वाला मानसून सूखे की स्थिति उत्पन्न करता है। 2014-15 और 2015-16 में कम वर्षा के कारण खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट आई थी। उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में 2024 में -37 प्रतिशत वर्षा की कमी के कारण धान की नर्सरी सूख गई और बुआई प्रभावित हुई।
भूजल स्तर में गिरावट अपर्याप्त मानसून का गंभीर परिणाम है। हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में किसानों को ट्यूबवेल के पानी का अधिक उपयोग करना पड़ता है, जिससे भूजल का दोहन बढ़ता है।
बाढ़ और फसल नुकसान
अत्यधिक वर्षा और असमान वितरण बाढ़ का कारण बनता है। 2023 में हरियाणा के कई गांवों में अभूतपूर्व बाढ़ से धान की फसल नष्ट हो गई थी। वेस्ट बंगाल, ओडिशा और असम में अतिरिक्त वर्षा और बाढ़ से चावल की फसल को नुकसान होता है।
मृदा अपरदन और पोषक तत्वों का क्षालन अतिरिक्त वर्षा के कारण होता है। जल जमाव से फसलों की जड़ों में सड़न की समस्या होती है।

Traditional Indian farmer plowing a wet field with oxen, symbolizing dependence on monsoon rains for agriculture
मानसून की अनियमितता और चुनौतियां
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
जलवायु परिवर्तन ने मानसून के पैटर्न को बदल दिया है। 1981-2011 की अवधि में 1951-1980 की तुलना में शुष्क दिवसों में 27 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। तापमान में वृद्धि के कारण वाष्पीकरण दर बढ़ रही है और मिट्टी की नमी का ह्रास हो रहा है।
मानसून की शुरुआत में देरी और वापसी में देरी नए पैटर्न उभरे हैं। पारंपरिक रूप से जुलाई में सबसे अधिक वर्षा होती थी, लेकिन अब सितंबर में अधिक वर्षा का पैटर्न देखा जा रहा है।
इंडो-गंगेटिक प्लेन में चुनौतियां
इंडो-गंगेटिक प्लेन (पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार) में मानसूनी वर्षा में कमी का चलन दिखाई दे रहा है। यह क्षेत्र भारत के कुल कृषि उत्पादन का 50 प्रतिशत से अधिक योगदान देता है। 2024 में पंजाब में -34 प्रतिशत, बिहार में -23 प्रतिशत, और पश्चिम बंगाल में -21 प्रतिशत वर्षा की कमी दर्ज की गई।
वायु प्रदूषण भी इस क्षेत्र में मानसून को कमजोर करने का एक कारक है। गहन सिंचाई से तापमान का कम होना भी तापीय प्रवणता को प्रभावित करता है।
कीट-पतंगों और बीमारियों में वृद्धि
मानसून की अनियमितता कीट-पतंगों और पौधों की बीमारियों के लिए अनुकूल वातावरण बनाती है। चावल और कपास उगाने वाले राज्यों में कीट प्रकोप में वृद्धि दिखाई दे रही है। कृषि निवेश की लागत बढ़ रही है क्योंकि किसानों को अधिक कीटनाशकों का उपयोग करना पड़ रहा है।
सरकारी नीतियां और मानसून निर्भरता में कमी
प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY)
2015 में शुरू की गई प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना का मुख्य उद्देश्य “हर खेत को पानी” और “प्रति बूंद अधिक फसल” है। यह योजना सिंचाई कवरेज बढ़ाने, पानी की बर्बादी कम करने, और जल उपयोग दक्षता में सुधार के लिए बनाई गई है।
योजना के तीन मुख्य घटक हैं: जल संसाधन विकास, प्रति बूंद अधिक फसल (माइक्रो इरिगेशन), और वाटरशेड विकास। 2016-17 में 99 प्रमुख/मध्यम सिंचाई परियोजनाओं को 76.03 लाख हेक्टेयर सिंचाई क्षमता के साथ प्राथमिकता दी गई थी।
राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY)
RKVY के तहत राज्य सरकारों को सलाह दी गई है कि वे 5-10 प्रतिशत धन मानसून की विषम परिस्थितियों के प्रभाव को कम करने के लिए रखें। इसमें जल संचयन संरचनाओं का निर्माण, नमी संरक्षण की तकनीकों को बढ़ावा, और सिंचाई अवसंरचना की मरम्मत शामिल है।
अटल भूजल योजना
यह सामुदायिक नेतृत्व वाला भूजल प्रबंधन कार्यक्रम सात राज्यों में भूजल के अत्यधिक दोहन की समस्या का समाधान करता है। यह टिकाऊ जल उपयोग प्रथाओं पर केंद्रित है और अनियमित मानसून के खिलाफ लचीलापन बनाने का लक्ष्य रखता है।
जलवायु-प्रतिरोधी किस्मों का विकास
सरकार जलवायु-प्रतिरोधी फसल किस्मों के विकास और प्रचार में लगी है। फरवरी 2025 में दाल और कपास की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए छह वर्षीय कार्यक्रम की घोषणा की गई है। सूखा-प्रतिरोधी और बाढ़-प्रतिरोधी किस्मों का विकास किया जा रहा है।

A farmer driving a tractor through a wet, monsoon-irrigated field in rural India, illustrating the dependence of Indian agriculture on monsoon rains
भविष्य की संभावनाएं और जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
2025 तक प्रक्षेपण
2025 तक वर्षा परिवर्तन के कारण भारत की प्रमुख फसलों की उत्पादता में 10 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। गेहूं की उत्पादकता में 8-12 प्रतिशत की कमी, चावल में 0-10 प्रतिशत की कमी, और कपास में 5-15 प्रतिशत की कमी का अनुमान है।
उत्तरी मैदानों (पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार) में शीतकालीन ठंडे घंटों में कमी और गर्मी की लहरों में वृद्धि से गेहूं की वृद्धि अवधि छोटी हो रही है। पूर्वी भारत में अतिरिक्त वर्षा और बाढ़ से चावल की फसल को नुकसान हो रहा है।
दीर्घकालिक अनुकूलन रणनीति
जलवायु-स्मार्ट कृषि (CSA) को अपनाना आवश्यक है, जिसमें संरक्षण कर्षण, फसल चक्रण, और एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन शामिल है। माइक्रो इरिगेशन तकनीकों का विस्तार और वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देना होगा।
फसल विविधीकरण से जलवायु-प्रेरित उत्पादन अस्थिरता के जोखिम को कम किया जा सकता है। प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों का विकास और फसल बीमा कवरेज का विस्तार किसानों के लिए वित्तीय सुरक्षा प्रदान कर सकता है।
तकनीकी नवाचार की भूमिका
उपग्रह आधारित निगरानी, AI और मशीन लर्निंग का उपयोग करके मानसून पूर्वानुमान में सुधार हो सकता है। ड्रोन तकनीक से सटीक कृषि को बढ़ावा मिल सकता है। मोबाइल ऐप्स के माध्यम से किसानों को वास्तविक समय मौसम जानकारी प्रदान की जा सकती है।
CRISPR जैसी जीन एडिटिंग तकनीकों से सूखा और बाढ़ प्रतिरोधी किस्मों का विकास तेज हो सकता है। हाइड्रोपोनिक्स और एरोपोनिक्स जैसी मिट्टी रहित खेती की तकनीकें मानसून निर्भरता कम कर सकती हैं।
निष्कर्ष
भारतीय कृषि की मानसून पर निर्भरता एक जटिल और बहुआयामी समस्या है जो ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक कारकों का परिणाम है। लगभग 60 प्रतिशत कृषि भूमि की मानसून पर निर्भरता और 55 प्रतिशत खाद्यान्न उत्पादन का खरीफ फसलों से आना इस निर्भरता की गंभीरता को दर्शाता है। राज्यवार विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि पूर्वोत्तर और मध्य भारतीय राज्यों में यह निर्भरता अधिक है, जबकि उत्तर-पश्चिमी राज्यों में सिंचाई की बेहतर सुविधाओं के कारण यह कम है।
जलवायु परिवर्तन ने इस समस्या को और जटिल बना दिया है। मानसून की अनियमितता, तापमान वृद्धि, और चरम मौसम घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति कृषि उत्पादन के लिए नई चुनौतियां खड़ी कर रही है। इंडो-गंगेटिक प्लेन में मानसूनी वर्षा में कमी का चलन विशेष रूप से चिंताजनक है क्योंकि यह क्षेत्र देश के आधे से अधिक कृषि उत्पादन के लिए जिम्मेदार है।
सरकार द्वारा PMKSY, RKVY, और अटल भूजल योजना जैसी योजनाओं के माध्यम से सिंचाई अवसंरचना का विकास और जल उपयोग दक्षता में सुधार के प्रयास सराहनीय हैं। जलवायु-प्रतिरोधी किस्मों का विकास और तकनीकी नवाचारों का उपयोग भविष्य की रणनीति के महत्वपूर्ण घटक हैं।
भविष्य में जलवायु-स्मार्ट कृषि, फसल विविधीकरण, माइक्रो इरिगेशन, और डिजिटल कृषि तकनीकों को अपनाना आवश्यक होगा। किसान शिक्षा, वित्तीय सहायता, और बाजार पहुंच में सुधार के साथ-साथ अनुसंधान और विकास में निवेश बढ़ाना होगा। केवल एक समग्र दृष्टिकोण से ही भारतीय कृषि की मानसून निर्भरता को कम करके खाद्य सुरक्षा और किसान कल्याण सुनिश्चित किया जा सकता है।
FAQs
प्रश्न 1: भारतीय कृषि कितनी मानसून पर निर्भर है?
उत्तर: भारत में लगभग 60 प्रतिशत कृषि भूमि मानसूनी वर्षा पर निर्भर है। कुल खाद्यान्न उत्पादन का 55 प्रतिशत हिस्सा खरीफ फसलों से आता है जो पूर्णतः मानसून पर निर्भर हैं। केवल 35 प्रतिशत कृषि भूमि में पर्याप्त सिंचाई सुविधा उपलब्ध है।
प्रश्न 2: कौन से राज्य सबसे अधिक मानसून पर निर्भर हैं?
उत्तर: असम (94.3%), झारखंड (85.1%), हिमाचल प्रदेश (79.8%), अरुणाचल प्रदेश (73.8%), और छत्तीसगढ़ (69.0%) सबसे अधिक मानसून निर्भर राज्य हैं। इसके विपरीत हरियाणा (11.7%) में सबसे कम मानसून निर्भरता है।
प्रश्न 3: मानसून की देरी से कौन सी फसलें सबसे अधिक प्रभावित होती हैं?
उत्तर: चावल, कपास, सोयाबीन, मक्का, दालें, और गन्ना जैसी खरीफ फसलें मानसून की देरी से सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। चावल के लिए 1200-1400 मिमी पानी की आवश्यकता होती है जो मुख्यतः मानसूनी वर्षा से पूरी होती है।
प्रश्न 4: सरकार मानसून निर्भरता कम करने के लिए क्या कर रही है?
उत्तर: सरकार प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY), अटल भूजल योजना, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY) के माध्यम से सिंचाई अवसंरचना विकास कर रही है। जलवायु-प्रतिरोधी किस्मों का विकास, माइक्रो इरिगेशन को बढ़ावा, और वाटरशेड विकास भी प्रमुख कार्यक्रम हैं।
प्रश्न 5: जलवायु परिवर्तन मानसून को कैसे प्रभावित कर रहा है?
उत्तर: जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून की शुरुआत में देरी, शुष्क दिनों में 27% वृद्धि, अनियमित वर्षा वितरण, और चरम मौसम घटनाओं में वृद्धि हो रही है। इंडो-गंगेटिक प्लेन में मानसूनी वर्षा में कमी का चलन विशेष रूप से चिंताजनक है।
प्रश्न 6: भविष्य में कृषि उत्पादन पर क्या प्रभाव होगा?
उत्तर: 2025 तक मानसून परिवर्तन के कारण प्रमुख फसलों की उत्पादकता में 10% तक की कमी हो सकती है। गेहूं में 8-12%, चावल में 10%, और कपास में 5-15% तक उत्पादन घटने का अनुमान है। इसके लिए अनुकूलन रणनीतियों का विकास आवश्यक है।
Sources:-
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