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रोमन मानचित्रकला (Roman Cartography)

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रोमन मानचित्रकला (Roman Cartography)

ग्रीस के राजनीतिक पतन होने के साथ-साथ रोम साम्राज्य का उत्थान प्रारंभ हो गया था। जिसका प्रभाव उस समय की ग्रीक मानचित्रकला पर देखने को मिला रोमन लोगों का उद्देश्य अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ाना तथा जीते हुए भागों में अपनी शक्ति को संगठित करना था। जिसके लिए उन्हें ऐसे अधिकारी वर्ग की आवश्यकता थी जो इतने बड़े रोमन साम्राज्य के विभिन्न भागों तथा स्थानों से लगातार संपर्क बनाए रख सके तथा जरूरत पड़ने पर सैनिक टुकड़ियों को भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेज सके। 

इन प्रशासनिक तथा सैनिक कार्यों के अलावा भी रोमन साम्राज्य को अपना व्यापार बढ़ाने के लिए देश-विदेश के व्यापारिक केन्द्रों की स्थिति व दूरियों का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करना अति आवश्यक हो गया था। इन सभी कार्यों के लिए रोमन काल में ऐसे व्यावहारिक और क्रियात्मक मानचित्रों के बनाने पर जोर दिया जाने लगा जो सैनिकों, व्यापारियों तथा सरकारी अधिकारियों का देश-विदेश की यात्राओं हेतु मार्गदर्शन कर सकें।

रोमन विद्वान ग्रीक विद्वानों की तरह दार्शनिक अथवा वैज्ञानिक तो नहीं थे। फिर भी वे सिद्धांत की अपेक्षा क्रिया को अधिक महत्व देते थे। जिसके कारण वे मानचित्रों को उनकी उपयोगिता की दृष्टि से देखते थे। उनके मानचित्रों के प्रति इस क्रियात्मक एवं व्यवहारिक दृष्टिकोण के कारण उनकी मानचित्रकला के वैज्ञानिक व गणितीय पक्ष में कोई विशेष रुचि नहीं थी। अतः पृथ्वी की आकृति व आकार कैसा है, खगोलीय पिंडों की खोज, अक्षांश-देशांतर प्रणाली तथा प्रक्षेप आदि से इन विद्वानों का कोई नाता नहीं था। 

रोमन विद्वानों को इओनियन भूगोलवेत्ताओं के द्वारा बनाए गए तश्तरी के समान वृत्ताकार पुराने मानचित्र अपने उद्देश्य की दृष्टि हेतु अधिक उपयोगी प्रतीत होते थे। अत: रोमन विद्वानों ने यूनानियों का अनुसरण करने की बजाय पृथ्वी के वृत्ताकार  मानचित्र बनाए थे। उदाहरण स्वरूप इस संबंध में मारकस विपासेनियस एगरिप्पा रोमन मानचित्रकार का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिसे 12 ईसवी पूर्व में प्रसिद्ध ऑरबिस टेरारम अर्थात संसार का सर्वेक्षण मानचित्र बनाया था। इस मानचित्र में अफ्रीका, एशिया तथा यूरोप तीनों महाद्वीपों में एक सममिति दिखाई देती है। 

roman cartography example: orbis terrarum and peutinger table

एशिया महाद्वीप को पूर्व में, लेकिन मानचित्र के ऊपरी भाग में दर्शाया गया है तथा मानचित्र के लगभग 4/5 भाग पर रोमन साम्राज्य को तथा 1/5 भाग पर शीर्ष संसार को दिखलाना इस बात को दर्शाता है, कि ये लोग पृथ्वी के अधिकांश भाग को रोम साम्राज्य का ही अंग समझते थे। इन्होंने चीन, रूस तथा भारत को मानचित्र की सीमा पर छोटे-छोटे बाह्य भागों के रूप में दर्शाया है। 

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यहां यह बताना महत्वपूर्ण है कि वर्तमान समय में रोमन लोगों के द्वारा बनाई गई ऑरबिस टेरारम मानचित्र की कोई भी मूल प्रति उपलब्ध नहीं है। लेकिन इस मानचित्र का स्ट्राबो, पंपोनियस मेला आदि प्राचीन रोम के विद्वानों ने अपने-अपने कार्यों में इतना बृहद वर्णन किया है, जिसको पढ़कर इस मानचित्र की पुनः रचना की जा सकती है।

अधिकतर रोमन मानचित्र लिखित अभिलेखों के रूप में ही होते थे, जिनसे भौगोलिक अभिव्यक्ति मात्र होती थी तथा उनमें विभिन्न स्थानों एवं युद्ध स्थलों के चित्रण के साथ-साथ सड़कों के जाल की भी भरमार रहती थी। प्यूटिंजर टेबुल इस प्रकार के मानचित्र का सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस टेबुल को 12वीं शताब्दी में एक भिक्षु ने चौथी शताब्दी के किसी पुराने मानचित्र की मूल प्रति को नकल करके बनाया था। वहीं सोलहवीं शताब्दी में इस टेबल पर प्यूटिंजर नामक एक व्यक्ति का अधिकार था। जिसके नाम पर इसका वर्तमान नाम पड़ा है। 

रोम साम्राज्य के विभिन्न मार्गो को दर्शाने वाले लगभग कि 21 फुट लंबी इस टेबुल को मोड़कर रखा जा सकता है। देखा जाए तो सही अर्थों में यह मार्ग-मानचित्र एक मानारेख है, जिस पर मार्गों के अलावा 534 छोटे-छोटे चित्रों को अंकित किया गया है। विभिन्न स्थान अथवा अन्य विवरणों की स्थिति दर्शाने वाले ऐसे चित्रों की संख्या यूरोपीय भाग में 311, एशियाई भाग में 161 एवं अफ्रीकी भाग में 62 है। 

इस मानचित्र में सरल रेखाएं विभिन्न मार्गो को दर्शाती हैं एवं सरल रेखाओं के छोटे-2 मोड मार्गो में दिशा परिवर्तन को दर्शाते हैं। प्रत्येक मार्ग पर दो पड़ावों के बीच की दूरी को यथा स्थान शब्दों में लिखा गया है।

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