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इस लेख को पढ़ने के बाद आप तापमान व्युत्क्रमणता के प्रकारों (Types of Temperature Inversion) के बारे में विस्तार से जान सकेंगे।
तापमान व्युत्क्रमणता के प्रकार (Types of Temperature Inversion)
तापमान व्युत्क्रमणता को उत्पन्न करने वाली विभिन्न प्रक्रियाओं तथा धरातल से व्युत्क्रमणता स्तर की सापेक्षिक ऊँचाई के आधार पर इसके निम्नलिखित प्रकार हो सकते हैं:-
(1) धरातलीय अथवा निम्न स्तरीय व्युत्क्रमणता (ground inversion);
- पार्थिव विकिरण-व्युत्क्रमणता (radiation inversion)
- अभिवहन-व्युत्क्रमणता (advection inversion) I
( 2) उच्च-स्तरीय व्युत्क्रमणता (upper air inversion)
- विस्तृत वायु राशियों के अवतलन से उत्पन्न व्युत्क्रमणता (subsidence inversion)
- विक्षोभ एवं संवहन द्वारा उत्पन्न व्युत्क्रमणता (turbulence and convective inversion)
(3) वाताग्री व्युत्क्रमता (frontal inversion) |
पार्थिव विकिरण-व्युत्क्रमणता
तापमान व्युत्क्रमणता के प्रकारों में पार्थिव विकिरण-व्युत्क्रमणता सबसे प्रमुख है। इस प्रकार की व्युत्क्रमणता धरातल से लगी हुई वायु की परतों में कुछ ऊँचाई तक पायी जाती है। सूर्यास्त के बाद धरातल से ऊष्मा का पार्थिव विकिरण के रूप में तीव्र गति से क्षय होता है, जिसके फलस्वरूप स्थलीय धरातल रात्रि काल में पर्याप्त ठंडे हो जाते हैं। अत: धरातल से लगी हुई वायु की परतें भी ताप विकिरण और चालन की प्रक्रियाओं से शीघ्र ही अत्यधिक शीतल हो जाती हैं।
वायु की ऊपरी परतें शीतलन की इस प्रक्रिया के द्वारा निचली परतों की अपेक्षा कम प्रभावित होती हैं। अतः धरातल के समीप की वायु की अपेक्षा ऊपरी वायु का तापमान ऊँचा बना रहता है। इस प्रकार धरातल से थोड़ी ऊँचाई तक की परतों में तापमान नीचे से ऊपर की ओर बढ़ता हुआ पाया जाता है। इस प्रकार इन निचली परतों में रात्रि काल में तापमान की व्युत्क्रमणता उत्पन्न हो जाती है।
इन परिस्थियों में धरातल से ऊपर उठा हुआ धुआं, धूलि कण आदि सन्ध्या के समय वायुमण्डल में व्युत्क्रमणता स्तर के नीचे धरातल के समान्तर फैल जाते हैं। शीतकाल में मानव बस्तियों में सन्ध्या समय घरों से निकला हुआ धुआँ धरातल से थोड़ी ऊँचाई पर स्पष्ट धूम रेखाओं में फैला हुआ दिखाई पड़ता है। औद्योगिक नगरों में, जहाँ कल- कारखानों की चिमनियों से निकला हुआ धुआं वायुमण्डल की निचली परतों में छाया रहता है, शीत ऋतु में प्रातःकाल घना कुहरा पड़ता है।
अभिवहन व्युत्क्रमणता (Advection Inversion)
शीतल अथवा उष्ण वायुराशियों के आगमन के फलस्वरूप विस्तृत क्षेत्रों में तापमान की व्युत्क्रमणता उत्पन्न हो जाती है। शीतकाल में महाद्वीपों के धरातल अधिक ठंडे हो जाते हैं। जब उनकी ओर समीपवर्ती महासागरों के ऊपर से होकर चलने वाली हवायें अथवा उष्ण कटिबन्धीय वायु राशियाँ जिनका तापमान अपेक्षाकृत अधिक होता है, आती हैं, तब ठंडी वायु की परत के ऊपर उनकी स्थापना हो जाती है। इस प्रकार तापमान की व्युत्क्रमणता उत्पन्न हो जाती है।
उसी प्रकार ग्रीष्म ऋतु में समुद्र महाद्वीपों की अपेक्षा ठण्डे होते हैं। जब महाद्वीपों की अधिक ऊष्ण स्थलीय वायु राशियाँ ठंडे महासागरों की ओर आती हैं, तब वहाँ भी तापमान की व्युत्क्रमणता उत्पन्न हो जाती है। इसी प्रकार महासागरों से आने वाली ठंडी वायु महाद्वीपों पर पहुँच कर उनके धरातल के निकट की वायु को ऊपर उठा देती है तथा तापमान-व्युत्क्रमणता की दशा उत्पन्न कर देती है। उत्तरी अमेरिका तथा यूरेशिया के विशाल हिमाच्छादित उत्तरी मैदानों में शीत ऋतु में महासागरीय उष्ण कटिबन्धीय वायु-राशियों के आगमन से इसी प्रकार की अभिवहनजनित व्युत्क्रमणता उत्पन्न होती है।
अवतलन व्युत्क्रमणता (Subsidence Inversion)
तापमान की ऐसी व्युत्क्रमणता वायुमण्डल में धरातल से कुछ ऊँचाई पर वायु के अवतलन अथवा नीचे की ओर प्रवाह से उत्पन्न होती है। स्वतन्त्र वायुमण्डल में गहरी और विस्तृत वायु राशियों के बड़े पैमाने पर अवतलन तथा इस नीचे उतरती हुई वायु के पार्श्ववर्ती फैलाव से भी व्युत्क्रमणता उत्पन्न हो सकती है। उपोष्ण कटिबन्धीय उच्च वायु भार क्षेत्रों (subtropical high pressure areas) में, जहाँ प्रतिचक्रवातीय दशायें उत्पन्न होकर अधिक समय तक रहती हैं, उच्च-स्तरीय तापमान-व्युत्क्रमणता विशेष रूप से उत्पन्न होती है।
अवतलन की प्रक्रिया में वायुमण्डल में व्यापक स्तर पर वायु नीचे की ओर उतरती है। 150 से 350 मीटर प्रति घण्टे की गति से वायु का अवरोहण (descent) होता है। नीचे उतरने के कारण वायु का सम्पीडन (compression) होता है जिससे उसमें रुद्धोष्म ताप परिवर्तन (adiabatic temperature change) होता है तथा वायु के तापमान में वृद्धि हो जाती है। वायु के इस अवतलन के कारण उसका तापमान इतना बढ़ जाता है कि यदि वायुमण्डल में मेघ हों, तो उनका भी पुनः वाष्पीकरण हो जाता है और आकाश स्वच्छ हो जाता है।
ऊपरी भागों में वायु के अवतलन के कारण वायु की शुष्क और गरम परतें ऊपर तथा धरातल के निकट की वायु की अपेक्षाकृत शीतल परतें नीचे हो जाती हैं, जिससे कुछ दूर ऊपर की ओर ऊँचाई के साथ तापमान में वृद्धि अंकित की जाती है। उच्च-स्तरीय तापमान-व्युत्क्रमणता के कारण वायुमण्डल में साम्यावस्था अथवा स्थिरता की दशा उत्पन्न हो जाती है, जिससे वायु में ऊपर उठने की प्रवृत्ति का लोप हो जाता है और मौसम साफ और सुहावना होता है। इस प्रकार की व्युत्क्रमणता से सूखे (drought) की स्थिति उत्पन्न होती है।
विक्षोभ एवं संवहन द्वारा उत्पन्न व्युत्क्रमणता (Inversion by Turbulence and Convection)
धरातल से कुछ ऊँचाई पर वायुमण्डल में तापमान की व्युत्क्रमणता कभी-कभी बलकृत प्रक्रियाओं के द्वारा उत्पन्न होती है। धरातल के साथ घर्षण के कारण वायुमण्डल में भँवरें (eddies) उत्पन्न होती हैं, जो नीचे की वायु को ऊपर तथा ऊपर की वायु को धरातल तक ले जाती है। धरातल के तप्त होने पर संवहन धारायें उत्पन्न होकर वायु को ऊपर ले जाती हैं, तथा शीतल वायु नीचे की ओर आती है।
वायुमण्डल की जिन परतों में विक्षोभ अथवा संवहन की प्रक्रियायें क्रियाशील रहती हैं, उनमें वायु का भली- भाँति मिश्रण हो जाता है। किन्तु वायुमण्डल में इन प्रक्रियाओं की एक निर्धारित सीमा होती है, जिसके ऊपर न तो संवहन धारायें (convectional currents) और न ही वायु भँवरें प्रवेश कर पाती हैं। वायु मिश्रण की इसी ऊपरी सीमा पर साधारणतः तापमान की व्युत्क्रमणता उत्पन्न हो जाती है। वायुमण्डल की जो परतें विक्षोभ अथवा संवहन से प्रभावित होती हैं उनमें निरन्तर वायु तरंगें ऊपर से धरातल की ओर उतरती हैं।
इस प्रक्रिया में इनका तापमान रुद्धोष्म संपीडन (adiabatic compression) के द्वारा बढ़ जाता है। इसी प्रकार जो वायु धरातल से ऊपर की ओर उठती है, उसका तापमान कम दबाव वाले क्षेत्र में जाने कारण रुद्धोष्म प्रसरण (adiabatic expansion) के द्वारा नीचे गिर जाता है।
इस प्रकार रुद्धोष्म ताप परिवर्तन की प्रक्रिया कुछ समय तक चलते रहने के कारण धरातल के निकट की वायु अधिक गरम, और मिश्रण की ऊपरी सीमा के पास की वायु अत्यधिक शीतल हो जाती है। अतः विक्षोभ मण्डल (troposphere) की सीमा के निकट की वायु का तापमान कम तथा उसके ऊपर की वायु का तापमान (जो विक्षोभ अथवा संवहन धाराओं से अप्रभावित होता है) अपेक्षाकृत अधिक रहता है। इस प्रकार मिश्रण सीमा के ऊपर की कुछ परतों में तापमान की व्युत्क्रमणता उत्पन्न हो जाती है।
वाताग्री व्युत्क्रमणता (Frontal Inversion)
जब उष्ण तथा शीतल दो विभिन्न लक्षणों वाली वायु राशियाँ आस-पास होती हैं, तब शीतल वायु राशि उष्ण राशि के नीचे स्फान (wedge) की भाँति फैल जाती है। इन दोनों वायु राशियों की ढालुआ सीमा (sloping boundary) को वाताम्र (front) कहते हैं। वायु राशियों में मिश्रण के कारण वाताग्र एक ऐसी संक्रमण पेटी होती है जिसमें ठंडी और उष्ण दोनों वायु राशियों की विशेषतायें क्रमशः मिल जाती हैं।
वाताम्र पर गरम वायु ऊपर और ठंडी वायु उसके नीचे होती है। वाताग्र की संक्रमण पेटी के नीचे से ऊपर की ओर तापमान में वृद्धि अंकित की जाती है। इस पेटी के निचले भाग में ठंडी वायु के प्रभाव के कारण तापमान नीचा, तथा ऊपरी भाग में उष्ण वायु राशि के प्रभाव के कारण तापमान ऊँचा रहता है। अतः दो विभिन्न राशियों के बीच की सीमान्त पेटी (frontal zone) वस्तुतः व्युत्क्रमणता स्तर में परिवर्तित हो जाती है।
वाताग्री व्युत्क्रमणता में दो प्रमुख विशेषतायें पायी जाती हैं, जो अन्य प्रकार की तापमान व्युत्क्रमणता में नहीं पायी जातीं। ये इस प्रकार हैं :-
- वायुमण्डल की वाताग्री-व्युत्क्रमणा वाली परत ढालुआ होती है, जबकि अन्य प्रकार की तापमान-व्युत्क्रमणता में वायुमण्डल की परतें समान्तर होती हैं।
- वाताग्री-व्युत्क्रमणता में वायु में आर्द्रता की मात्रा अधिक होती है, जिससे व्युत्क्रमणता के ठीक ऊपर बादल दिखाई पड़ते हैं। बायर्स’ के अनुसार सामान्य तापमान-व्युत्क्रमणता में वायु राशि में तापमान में वृद्धि के साथ-साथ आर्द्रता की मात्रा में कमी होती जाती है, किन्तु वाताग्री व्युत्क्रमणता आपेक्षिक आर्द्रता में वृद्धि प्रदर्शित करती है। बायर्स ने वाताग्र ही को तापमान तथा आर्द्रता की व्युत्क्रमणता कहा है।