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वायुमंडल की संरचना (Structure of Atmosphere)
बीसवीं शताब्दी से पहले मनुष्य को वायुमंडल की केवल निचली परतों के बारे में ही कुछ ज्ञान था। लेकिन बीसवीं शताब्दी में वायुयान व रेडियो युग की जैसे ही शुरुआत हुई, तो मनुष्य की वायुमंडल के ऊपरी भाग की जानकारी भी बढ़ी।अनेकों प्रकार के राकेट, वायुयान, ध्वनि व रेडियो तरंगों, अंतरिक्ष यान तथा विभिन्न प्रकार के आकाशीय पिंडों के अध्ययन से इस कार्य में बहुत सफलता मिली।
अब तक प्राप्त ज्ञान के आधार पर भूगोलवेताओं व अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने विभिन्न आधारों पर वायुमंडल को विभिन्न परतों या स्तरों में विभाजित किया है। लेकिन हम यहां केवल तापमान एवं गैसों की रचना के आधार पर वायुमंडल की संरचना के बारे में जानेंगे।
तापमान के आधार पर वायुमंडल की संरचना (Composition of atmosphere based on temperature)
तापमान के आधार पर वायुमंडल को अनेक परतों में विभाजित किया गया है। इनका वर्णन नीचे किया जा रहा है:-
क्षोभमंडल (troposphere)
- यह वायुमंडल की सबसे निचली परत है।
- इसे परिवर्तनमंडल भी कहा जाता है। इस शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के ट्रोपोस से हुई है; जिसका अर्थ है मुड़ना अथवा परिवर्तन।
- इसमें वायुमंडल की कुल राशि का 90% भाग सम्मिलित है।
- इसकी औसत ऊंचाई 16 किलोमीटर है। भूमध्य रेखा पर ऊँचाई 18 किलोमीटर तथा ध्रुवों पर 8 किलोमीटर है।
- भूमध्य रेखा पर इसकी ऊंचाई अधिक होने का कारण यहां पर चलने वाली संवहन धाराएँ हैं जो ऊष्मा को ऊंचाई तक ले जाती है। यही कारण है कि किसी भी अंक्षाश पर क्षोभमंडल की ऊंचाई ग्रीष्म ऋतु में शीत ऋतु की अपेक्षा अधिक होती है।
- इस परत में प्रत्येक 165 मीटर की ऊँचाई पर 1 डिग्री सेल्सियस तापमान गिर जाता है, जिसे तापमान की सामान्य ह्रास दर कहते हैं। उदाहरण के लिए धरातल के निकट वायु का तापमान 21 डिग्री सेल्सियस है; तो 12 किलोमीटर की ऊंचाई पर वायु का तापमान – 55 डिग्री सेल्सियस होगा।
- इस मंडल में सामान्यतः ऊंचाई के साथ तापमान में कमी होती है परंतु कुछ परिस्थितियों में तापमान ऊंचाई के साथ बढ़ने लगता है। इस प्रकार की स्थिति को तापमान की विलोमता कहा जाता है।
- क्षोभमंडल में धूल कण तथा जलवाष्प सबसे अधिक मात्रा में होते हैं,.जिससे बादल बनते हैं और वर्षा होती है तथा अन्य जलवायु एवं मौसम संबंधी घटनाएं घटती हैं।
क्षोभसीमा (tropopause)
- क्षोभमंडल की ऊपरी सीमा को क्षोभसीमा कहते हैं।
- यह बहुत ही पतली एवं अस्थाई परत है। इसकी मोटाई 1.5 किलोमीटर है।
- इस परत में वायुमंडल के तापमान का गिरना बंद हो जाता है।
- इस सीमा पर वायु का तापमान भूमध्य रेखा पर लगभग -80 डिग्री सेल्सियस तथा ध्रुवों पर -45 डिग्री सेल्सियस होता है।
- यह सीमा क्षोभमंडल तथा ऊपरी समताप मंडल को अलग करती है।
- इसमें दोनों ही परतों के गुण विद्यमान हैं।
समताप मंडल (stratosphere)
- यह 50 किलोमीटर की ऊंचाई तक फैली है। इसकी मोटाई भूमध्य रेखा पर कम तथा ध्रुवों पर अधिक होती है। कभी-कभी यह परत भूमध्य रेखा पर सर्वथा लुप्त हो जाती है।
- इसके निचले भाग में 20 किलोमीटर की ऊंचाई तक तापमान में कोई परिवर्तन नहीं होता, जिस कारण इसे समताप मंडल कहते हैं।
- इसके ऊपर 50 किलोमीटर की ऊंचाई तक तापमान में वृद्धि अंकित की जाती है, इसका कारण यहां पर उपस्थित ओजोन गैस है; जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों का अवशोषण करती है।
- इसमें संवहन धाराएं, आंधी, बादलों का गरजना, बिजली की कड़क, धूल आदि कुछ भी नहीं पाया जाता।
- समताप मंडल की सीमा को समताप सीमा कहते हैं। इसमें ओजोन की मात्रा अधिकतम होती है तथा कभी-कभी मोतियों जैसी आभा वाले बादल दिखाई देते हैं।
मध्य मंडल (mesosphere)
- समताप मंडल और तापमंडल के मध्य स्थित वायुमंडल की तीसरी परत मध्यमंडल कहलाती है।
- यह परत धरातल से 50 से 80 किलोमीटर के बीच स्थित है।
- इसमें ऊंचाई के साथ तापमान गिरने लगता है और 80 किलोमीटर की ऊंचाई पर -100 डिग्री सेल्सियस रह जाता है।
- मध्य मंडल की ऊपरी सीमा को मध्यमंडल सीमा कहते हैं।
आयनमंडल (ionosphere)
- मध्यमंडल सीमा के ऊपर 80 किलोमीटर से 400 किलोमीटर की ऊंचाई तक आयन मंडल है।
- यहां पर उपस्थित गैस के कण विद्युत आवेशित होते हैं। ऐसे विद्युत आवेशित कण आयन कहलाते हैं। अतः इसका नाम आयन मंडल रखा गया है।
- आयनमंडल धरातल से प्रेषित रेडियो तरंगों को परावर्तित कर के वापस पृथ्वी पर भेजता है।
- 60 किलोमीटर की ऊंचाई पर वायुदाब केवल 35 मिलीबार रह जाता है। इतने कम दबाव के कारण पराबैंगनी फोटोन्स व उच्चवेगीय कणों के द्वारा वायुमंडल पर लगातार प्रहार होने से गैसों कि आयनन हो जाता है।
- इसलिए यह मंडल अनेक आयनीकृत परतों में विभक्त है जो इस प्रकार हैं:-
डी परत (60 से 90 किलोमीटर तक):- यह परत दीर्घ रेडियो तरंगों का परावर्तन करती है तथा मध्यम और लघु तरंगों को सोख लेती है। ई परत (90 से 130 किलोमीटर तक):- इसके द्वारा रेडियो की मध्यम तथा लघु तरंगों का धरातल की ओर परावर्तन होता है। इस परत की उत्पत्ति का कारण वायुमंडल में उपस्थित ऑक्सीजन तथा नाइट्रोजन के परमाणुओं पर सूर्य की पराबैंगनी फोटोन्स की प्रतिक्रिया है। एफ परत (150 से 380 किलोमीटर तक) :– ई परत के ऊपर स्थित रेडियो तरंगों को परावर्तित करने वाली परत को एफ कहते हैं। इसे मध्यम तथा लघु तरंगों का परावर्तन होता है। जी परत (400 किलोमीटर तक) :– आधुनिकतम अनुसंधान से इस परत के अस्तित्व का पता लगा है। इस परत की उत्पत्ति नाइट्रोजन के परमाणुओं पर पैराबैंगनी फोटोन्स की प्रतिक्रिया के कारण होती है। |
बाह्यमंडल (exosphere)
- वायुमंडल की यह सबसे ऊपरी परत है।
- इसके बारे में सबसे पहले लेहमेन स्पिट्जर ने बताया।
- इसकी ऊंचाई 500 से 1000 किलोमीटर तक मानी जाती है।
- यहां वायु में हाइड्रोजन तथा हीलियम गैसों की प्रधानता है।
- वायुमंडल की सीमा पर तापमान लगभग 5500 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है।
गैसों की रचना के आधार पर वायुमंडल की संरचना (composition of atmosphere based on the composition of gases)
गैसों की रचना के आधार पर वायुमंडल को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।
सममंडल (homosphere)
- इसकी ऊंचाई 90 किलोमीटर तक है।
- यहां की मुख्य गैसें नाइट्रोजन व ऑक्सीजन है।
- तापमान के आधार पर सममंडल में तीन उपमंडल पाए जाते हैं। क्षोभमंडल, समतापमंडल एवं मध्यमंडल।
- इन तीनों मंडलों को संयुक्त रूप से सममंडल इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इनमें गैसों के अनुपात में परिवर्तन नहीं होता।
विषममंडल (hetrosphere)
- इस मंडल की ऊंचाई 90 किलो मीटर से ऊपर-ऊपर मानी जाती है।
- इसमें तापमंडल तथा बाह्यमंडल आते हैं।
- विषममंडल में गैसों की चार विभिन्न परतें पाई जाती हैं
नाइट्रोजन परत: इसमें मुख्यतः नाइट्रोजन की अणु पाए जाते हैं। इस परत की ऊँचाई 90 से 200 किलोमीटर तक होती है। ऑक्सीजन परत: इस परत में ऑक्सीजन के अणु पाए जाते हैं तथा इसकी ऊंचाई 200 से 1100 किलोमीटर तक है। हीलियम परत: यह परत 1100 से 3500 किलोमीटर के बीच पाई जाती है। हाइड्रोजन: इसमें हाइड्रोजन के अणु पाए जाते हैं। यद्यपि इसकी ऊंचाई निश्चित नहीं है, फिर भी इसका विस्तार 10000 किलोमीटर तक माना जाता है। |
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