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क्या होता है वर्षण (Precipitation)?
वायुमण्डल में उपस्थित आर्द्रता का तरलावस्था अथवा ठोस रूप में धरातल पर गिरना वर्षण अथवा अवक्षेपण (precipitation) कहलाता है। जल वर्षा, हिम वर्षा, फुहार तथा उपल-वृष्टि इत्यादि वर्षण के सामान्य रूप हैं। किन्तु कोहरा, ओस तथा तुषार को साधारण अर्थों में वर्षण के अर्न्तगत नहीं माना जाता।
वर्षण (Precipitation) की उत्पत्ति कैसे होती है?
वर्षण के लिए आवश्यक है कि वायु धरातल से ऊपर की ओर उठे तथा शीतल होकर संघनन प्रक्रिया द्वारा बादलों का निर्माण हो। लेकिन यह जरूरी नहीं की बादलों के निर्माण के बाद वर्षण की क्रिया प्रारंभ ही होगी। वैसे तो आकाश में अनेक प्रकार के बादल दिखाई पड़ते हैं, किन्तु प्रायः देखा जाता है कि कुछ विशेष प्रकार के बादलों के द्वारा विशेष परिस्थितियों में ही वर्षण की क्रिया होती है।
वर्षाकारी मेघों या बादलों के द्वारा भी कभी वृष्टि होती है, तो कभी बिना वृष्टि के ही उनका वाष्पीकरण हो जाता है। ऐसा भी पाया जाता है कि मेघों से जल की बूंदें धरातल की ओर गिरती तो हैं, किन्तु वायुमण्डल में ही वाष्पीकरण हो जाने से धरातल तक उनका पहुँचना कठिन हो जाता है। इन मेघ कणों को वृष्टि के रूप में धरातल पर गिरने के लिए आवश्यक है कि उनके आकार में इतनी वृद्धि हो जाए कि उनको ऊपर की ओर गतिमान वायु तरंगें ऊपर ही न रोक सके।
वर्षण के सिद्धान्त (Theories of Precipitation)
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि वृष्टि के लिए किसी ऐसी प्रक्रिया का पता लगाना ही मूलभूत प्रश्न है जिससे जलसीकरों या जलकणों में सम्मिलन होने से वर्षा की इतनी बड़ी बूंदों का विकास हो की वो धरातल तक पहुँच जाएँ। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित दो सिद्धान्त प्रतिपादित किए गए हैं:-
- हिम-कण सिद्धान्त
- संलयन सिद्धान्त
वर्षण का हिम-कण सिद्धान्त (Ice-crystal Theory)
नार्वे के प्रमुख मौसम वैज्ञानिक टॉर बर्गरॉन ने सन् 1933 में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। इस सिद्धान्त को बर्गरॉन प्रक्रिया (Bergeron process) अथवा हिम-कण सिद्धान्त (Ice-crystal Theory) भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त को वृष्टि को प्रारम्भ करने वाली विभिन्न प्रक्रियाओं में सबसे अधिक लोकप्रियता प्राप्त है। मध्य अक्षांशों में होने वाली लगभग सम्पूर्ण वृष्टि बर्गरॉन द्वारा प्रातिपादित हिम-कण सिद्धान्त के आधार पर होती है।
इस सिद्धान्त के अनुसार भारी मात्रा में वृष्टि केवल ऐसी मेघों से होती है जिनमें हिमांक से नीचे तापमान पर जल एवं हिम के कण एक साथ पाए जाते हैं। बर्गरॉन का मानना था कि सभी प्रकार की वृष्टि का प्रारम्भ हिम के रूप में होता है। इस सिद्धान्त की दूसरी प्रमुख विशेषता इस तथ्य को विशेष महत्व प्रदान करना है कि तापमान हिमांक से नीचे गिरने पर जल और हिम के संतृप्त वाष्प दाबों में अन्तर उत्पन्न हो जाता है। वस्तुतः इसी तथ्य पर बर्गरॉन की सम्पूर्ण प्रक्रिया आधारित है।
पवन के आरोहण(ऊपर की ओर गति) के फलस्वरूप उसका प्रसार एवं शीतलन होता है, जिससे उसकी सापेक्ष आर्द्रता में निरन्तर वृद्धि होती जाती है। अन्ततः वायु के पूर्ण संतृप्त होने पर मेघकणों का निर्माण होने लगता है। यह देखा गया है कि तापमान 0° सेल्सियस अथवा उससे नीचे रहने पर भी मेघ कण तरलावस्था में ही रहते हैं। इन मेघ कणों को अतिशीतलित (supercooled) मेघ कण कहते हैं। वायुमण्डल में -40° सेल्सियस तापमान पर भी अतिशीतल जल के कण पाए जाते हैं।
वायुमण्डल में हिम-कणों अथवा ऊर्ध्वपातन नाभिकों के अभाव में जल का अतिशीतलन अधिक मात्रा में पाया जाता है। टेलर (G.F. Taylor) के अनुसार यदि अतिशीतलित जल बिन्दुकाओं से निर्मित मेघ में एक भी हिम-कण पहुँचा दिया जाए, तो सम्पूर्ण मेघ शीघ्र ही हिम-कणों से निर्मित मेघ में परिणत हो जाता है। इसका मूल कारण एक ही तापमान पर अतिशीतल जल और हिम पर पाया जाने वाला असमान वाष्प दाब होता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार 0° सेल्सियस पर हिम कण तथा जल की बिन्दुकाओं पर वाष्प दाब समान होता है, किन्तु -10° सेल्सियस तापमान पर वाष्प दाब हिम की अपेक्षा अतिशीतल जल पर 0.266 मिलीबार अधिक हो जाता है। इस प्रकार किसी मेघ के शीर्ष भाग में जहाँ तापमान -10° सेल्सियस से कम होता है, असंख्य अतिशीतल जल कण एवं अपेक्षाकृत थोड़े से हिम कण साथ-साथ पाए जाते हैं। ऐसी स्थिति में जल कणों के सन्दर्भ में वाष्प दाब संतृप्त होता है तथा हिम कणों पर वाष्प दाब अतिसंतृप्त होता है।
वाष्प दाब में अन्तर के फलस्वरूप जल के सीकरों का वाष्पीकरण होता है तथा इसके विपरीत, हिम कणों पर जल-वाष्प का संघनन होने से उनके आकार में वृद्धि होती है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि लगभग 10 मिनट में 10 लाख मेघ-कणों से इतने बड़े हिमकण का निर्माण हो सकता है जो मेघ से तीव्र गति नीचे गिरने में समर्थ होता है।
जब गिरता हुआ हिमकण गर्म वायु की परतों से गुजरता है, तो वही पिघलकर जल की बूंदों में परिवर्तित हो जाता है। अतः बर्गरॉन प्रक्रिया के द्वारा वृष्टि के लिए आवश्यक बड़े आकार की बूंदों के निर्माण में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त, बड़े-बड़े हिमकणों के विखंडन के द्वारा वायुमण्डल को नवीन हिमकण प्राप्त होते रहते हैं। इस प्रकार बर्गरॉन प्रक्रिया के अन्तर्गत थोड़े ही हिम- कणों से वर्षा की बड़ी बूंदों के निर्माण में सहायता मिलती है।
पेटर्सन के अनुसार ज्यों ही मेघों में विभिन्न आकार के कणों का निर्माण हो चुकता है, त्यों ही बड़ी बूँदें मेघ की विभिन्न परतों सेसे होकर गिरने लगती हैं। ऐसी स्थिति में अन्य जलकणों के साथ बड़ी-बूंदों के टकराव के कारण उनके आकार में और वृद्धि हो जाती है। वर्षा की एक साधारण बूँद जब मेघ के बीच से होकर गिरती है, तब अति सूक्ष्म मेघ कण तो उसके मार्ग से हट जाते हैं, किन्तु बड़े कण गिरती हुई बूँद के अग्र भाग की पकड़ में आ जाते हैं। पेटर्सन ने इस प्रक्रिया को प्रत्यक्ष अपहरण (direct capture) कहा है।
उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि बर्गरॉन प्रक्रिया के द्वारा वृष्टि होने के लिए दो शर्तें आवश्यक हैं:-
- मेघ में अतिशीतल जल सीकर पर्याप्त मात्रा में पाए जाएं
- उन जल सीकरों के मध्य में कतिपय हिम-कण भी उपस्थित हों जिससे श्रृंखला प्रतिक्रिया (chain reaction) का सूत्रपात्र हो सके।
वर्षण का संलयन सिद्धान्त (Coalescence Theory)
प्रस्तुत सिद्धान्त के प्रतिपादन का श्रेय ई० जी० बोवेन नामक वैज्ञानिक को है जिसने आस्ट्रेलिया में मेघ भौतिकी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया था। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन ऐसे मेघों से होने वाली वृष्टि के लिए किया गया था जिनका विस्तार हिम स्तर (freezing level) तक नहीं होता। ऊष्ण कटिबन्धीय महासागरों के ऊपर केवल 2400 मीटर मोटाई वाले कपसीले मेघों से वृष्टि होने लगती है।
इन मेघों के शीर्ष भाग का तापमान भी लगभग 7° सेल्सियस होता है। स्पष्ट है कि इन मेघों में वर्षा की समुचित आकार की बूंदों के निर्माण में हिमकणों का कोई योगदान नहीं होता। ऐसे मेघों में वृष्टि के लिए आवश्यक आकार की वर्षा की बूंदों का निर्माण विभिन्न आकार वाले मेघ कणों के परस्पर मिलने से होता है। अतः इस प्रकार बूंदों के आकार में वृद्धि सम्बन्धी जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया, उसे संलयन सिद्धान्त (coalescence theory) कहा जाता है।
यदि किसी मेघ में विभिन्न व्यास वाले जल कणों का सहअस्तित्व पाया जाता है, तो आरेनबर्ग (D. Arenberg) के अनुसार वायुमण्डलीय विक्षोभ के फलस्वरूप उनमें टकराव स्वाभाविक है। टकराव के फलस्वरूप छोटी बूंदों का बड़ी बूँदों में विलय हो जाता है, जिससे बड़ी बूँदों के आकार में और भी वृद्धि हो जाती है।
ट्रेवार्था के अनुसार यदि किसी मेघ में उपस्थित जल कण विभिन्न आकार वाले होते हैं, तो उनकी नीचे गिरने की गति भी असमान होती है। गति में विभिन्नता के कारण उनमें परस्पर टकराहट होती है। टकराहट के कारण उनमें संलयन (coalescence) होता है। इस विधि के द्वारा जल की बूँद का विकास मेघ में जल कणों के संकेन्द्रन, आकार वितरण तथा कणों के आकार पर निर्भर करता है।
यदि किसी मेघ का निर्माण अत्यन्त लघु एवं समान आकार वाले जल कणों से हुआ है, तो ऐसे मेघ में स्थायित्व पाया जायेगा तथा उससे वृष्टि की सम्भावना नहीं पायी जायेगी। कारण यह है कि सभी बिन्दुकायें समान वेग से धीरे-धीरे नीचे गिरेंगी जिससे उनमें टकराव भी बहुत कम होगा। अतः वर्षा की एक आवश्यक बूंद के लिए 10 लाख जल सीकरों को परस्पर मिलने में बहुत अधिक समय की अपेक्षा होगी। किन्तु असमान बिन्दुकाओं वाले मेघों में स्थिति सर्वथा भिन्न होती है।
यदि 10 माइक्रान अर्द्धव्यास वाली बूंद 1 सेन्टीमीटर/सेकन्ड की गति से गिरती है, तो 50 माइक्रान अर्द्धव्यास की बूँद की गति 26 सेन्टीमीटर/ सेकन्ड होती है। अतः अधिक वेग से गिरने वाली बड़ी बूँदें कम वेग वाली छोटी बूंदों से टकरा जाती हैं। इस प्रकार बारम्बार के टकराव से आकार में वृद्धि होती जाती है। यहाँ यह विशेष उल्लेखनीय है कि सभी प्रकार के टकराव से संलयन नहीं होता। इस तथ्य को वैज्ञानिकों ने अत्यधिक वेग वाले चलचित्रों के द्वारा प्रदर्शित भी कर दिखाया है।
प्रयोग द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि यदि जल कणों को परस्पर टकराया जाय और उनमें विद्युत् आर्कषण हो, तो उनमें निश्चित ही संलयन होगा। अतः विद्युतीय शक्ति का भी वृष्टि की प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण योगदान होता है। जब वायु में भीषण संवहन धारायें उत्पन्न होती हैं, तब यह प्रक्रिया भारी वर्षा एवं बड़े आकार की बूंदों को उत्पन्न करने में अत्यधिक क्रियाशील होती है।
मेघों के प्रारम्भिक रूप में बड़ी बूँदों के निर्माण के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों का विचार है कि सागरी जल से प्राप्त नमक के कण ऐसे नाभिक होते हैं, जिनके द्वारा बड़ी बूँदें बनती हैं, तथा इनके द्वारा 30 से 50 माइक्रान के अर्द्धव्यास वाले जल कणों का निर्माण मात्र संघनन से सम्भव हो जाता है। प्रति घनमीटर वायु में इन प्रकार उत्पन्न कणों की संख्या 100 से 1000 तक होती है।
संलयन की प्रक्रिया प्रारम्भ करने के लिए अन्य वैज्ञानिकों ने जल की सूक्ष्म बिन्दुकाओं में विद्युत् आकर्षण को महत्वपूर्ण कारक माना है। वृष्टि उत्पन्न करने में विद्युत् प्रभावों का विस्तृत अध्ययन बर्नार्ड वॉनगुत (Bernard Vonnegut) तथा चार्ल्स बी० मूर (Charles B, Moore) द्वारा किया गया है।
वर्षण के विविध रूप (Forms of Precipitation)
वर्षाकारी मेघों से गिरने वाला जल अनेक स्वरूपों व आकारों में धरातल पर पहुँचता है। कभी जल वृष्टि (rainfall) होती है, तो कभी हिम वृष्टि (snowfall)। कभी मेघों से ओले गिरते हैं, तो कभी उनसे हल्की फुहार के रूप में वृष्टि होती है। वायुमण्डलीय अवस्था, मेघों की ऊँचाई तथा उनके प्रकार एवं वृष्टि की प्रक्रियाओं के सम्मिलित प्रभाव के फलस्वरूप वृष्टि के अनेक रूप दृष्टिगोचर होते हैं। यहाँ वृष्टि के कुछ ऐसे सामान्य रूपों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है जिनसे हम सभी परिचित हैं :-
फुहार (Drizzle)
जब वर्षा की बूँदें अत्यन्त सूक्ष्म, सघन तथा समान आकार की होती हैं तथा वायु प्रवाह की दिशा में उड़ती प्रतीत होती हैं, तो ऐसी वृष्टि को फुहार (Drizzle) तथा स्थानीय बोली में झींसा या झींसी कहते हैं। वायु की हल्की सी गति भी इनको प्रभावित करती है। इन जल कणों का व्यास 5 मिलीमीटर से भी कम होता है। इन जल बिन्दुकाओं की उत्पत्ति नीचे गिरते हुए मेघ कणों के परस्पर मिलने अथवा हिम कणों के द्रवीभूत हो जाने से होती है।
फुहार वृष्टि सदैव निम्न मोटे स्तरी मेघों से होती है। कभी-कभी इसके साथ कोहरा भी उत्पन्न हो जाता है। वायुमण्डल की पारदर्शकता अनिवार्य रूप से कम हो जाती है। संवहन से उत्पन्न कपासी अथवा ऐसे अन्य प्रकार के ऊँचें मेघों से फुहार वृष्टि कदापि नहीं होती। फुहार को कहीं-कहीं धुन्ध (mist) या स्कॉच मिस्ट (scotch mist) भी कहा जाता है।
जल वृष्टि (Rainfall)
तरलावस्था में होने वाली वृष्टि को जल वृष्टि (rainfall) कहते हैं। इसमें बूंदों का आकार निश्चित रूप से फुहार की बूंदों से बड़ा होता है। वर्षा की बूँदों का व्यास 5 से 7 मिलीमीटर (200 से 7000 माइक्रान) तक होता है। कभी-कभी वर्षा की बूँदें लघु आकार की भी होती हैं, किन्तु फुहार की अपेक्षा इनकी सघनता तथा संख्या कम होती है। साधारणतः जलवर्षा की उत्पत्ति अपेक्षाकृत अधिक ऊँचाई पर स्थित मेघों से होती है। जब वर्षा की बूँदें वायु की गर्म और शुष्क परतों से होकर गुजरती हैं, तो कुछ बूंदों का पूर्ण रूप से वष्पीकरण हो जाता है तथा शेष बूंदों का आकार छोटा हो जाता है।
इसके विपरीत, वृष्टि की प्रक्रियाओं के अधिक क्रियाशील होने, नीचे की वायु की परतों में आर्द्रता की अधिकता तथा बादलों की मोटाई अधिक होने की स्थिति में मूसलाधार वृष्टि होती है। इस प्रकार की वर्षा में बूंदों का आकार बड़ा होने के साथ ही उनकी सघनता भी अधिक होती है। नियमतः अधिक तेज वर्षा में बूंदों का आकार अपेक्षाकृत अधिक बड़ा होता है। जहाँ तक वृष्टि की तीव्रता का प्रश्न है, प्रति घण्टा कुछ बूंदों से लेकर कई सेन्टीमीटर तक वर्षा हो सकती है।
जब कभी जल वर्षा अथवा फुहार में तरल बूँदें इतने ठण्डे धरातल पर गिरती हैं कि वे जम जाती हैं, तो उसे हिमकारी वर्षा अथवा फुहार (freezing rain or drizzle) कहा जाता है। शान्त वायु में वर्षा की बूँदें प्रति सेकण्ड 3 मीटर से अधिक गति से नीचे गिरती हैं।
सहिम वृष्टि (Sleet)
ऐसी वृष्टि में जल की बूँदें तथा हिम एक साथ पाया जाता है। कभी-कभी मेघों से वर्षा की बूँदों के आकार वाली पारदर्शक तथा कठोर हिम की गोलियाँ गिरती हैं, जो कठोर धरातल पर गिरकर उछल जाती हैं तथा खिड़कियों के शीशे पर इनके गिरने से कड़कड़ाहट की आवाज होती है। सहिम वृष्टि (sleet) को जमी हुई वर्षा की बूंदों का रूप नहीं कहा जा सकता। वायु की शक्तिशाली ऊर्ध्वाधर तरंगों की उपस्थिति में सहिम वृष्टि उपल-वृष्टि (hail) में बदल सकती है।
पेटर्सन के अनुसार उच्च एवं मध्य अक्षांशीय प्रदेशों में काफी ऊँचाई पर वृष्टि हिम के रूप में आरम्भ होकर द्रवणांक स्तर (melting level) पर सहिम वृष्टि तथा धरातल पर जल वृष्टि में बदल जाती है। इसके विपरीत, यदि ऊँचाई पर स्थित गर्म वायु की परतों से जल की बूँदें धरातल पर गिरते समय उसके निकट स्थित वायु की अत्यधिक ठण्डी परतों से गुजरती हैं, तो जम कर हिम बन जाती हैं। वर्षा की बूँदें जब जम कर हिम कणों अथवा हिम की गोलियों में परिणत हो जाती हैं, तो उत्तरी अमेरिका में उन्हें स्लीट कहते हैं। सहिम वृष्टि की उत्पत्ति ऐसी अस्थिर वायु में होती है जहाँ हिमकणों का सम्पर्क जल की अत्यधिक शीतल बूंदों से होता है।
ओला अथवा उपल-वृष्टि (Hail Storm)
वृष्टि का यह एक बहुत ही भीषण रूप है जिसकी उत्पत्ति प्रबल झंझावातों से होती है। जब वायु का तापमान हिमांक से नीचे होता है तो ओले गिरने की सम्भावना नहीं पाई जाती। ओले से तात्पर्य ऐसे हिम कन्दुकों से है जिनका व्यास 5 से 50 मिलीमीटर तक होता है। हिम के ये गोले जब गिरते समय परस्पर मिल जाते हैं तो उनके आकार एवं भार में वृद्धि हो जाती है। मटर के दानों से लेकर टेनिस की गेंद के आकार के ओले गिरते देखे गये हैं।
इनकी संरचना प्याज की भांति होती है जिसमें हिम की संकेन्द्री परतें पायी जाती हैं। ओले के निर्माण की प्रक्रिया अत्यधिक जटिल होती है। कपासी वर्षाकारी मेघों में उत्पन्न वायु की प्रबल तरंगें जब वर्षा की बूंदों को अधिक ऊँचाई पर पहुँचा देती हैं, तब वहाँ वे बूँदें जम जाती हैं। उन जमी हुई बूंदों को पुनः नीचे गिरना पड़ता है। अत्यधिक शीतल जल की बूंदों के मध्य से गुजरते हुये इन पर हिम की एक परत जम जाती है। इसी प्रकार बार-बार ऊपर और नीचे आरोहण और अवरोहण करने के फलस्वरूप इन हिम के गोलों पर हिम की एक पारदर्शी तथा दूसरी अपारदर्शी रवेदार परत (crystalline layer) चढ़ती जाती है जिससे संकेन्द्री परतों का निर्माण हो जाता है।
एक अन्य सिद्धान्त के अनुसार ओले का निर्माण उन गिरते हुए हिमनाभिकों के द्वारा होता है जिन पर अधिशीतित (supercooled) जल की बूंदें तथा हिम कणों की परतें एक के बाद दूसरी जमती जाती हैं। ओले की इन हिम की पारदर्शी और अपारदर्शी परतों की व्याख्या करने की दिशा में अनेक वैज्ञानिकों ने महत्वपूर्ण कार्य किये हैं जिनमें इंगलैंड के फ्रैंक एच० लुडलैम का नाम विशेष उल्लेखनीय है। यू० एस० वेदर ब्यूरो के ‘जो फल्क’ (Joe Fulks) ने भी ओले की उत्पत्ति के विषय में अपनी अवधारणा प्रस्तुत की है।
सभी वैज्ञानिक इस बात पर एक मत हैं कि ओले का निर्माण ऐसे प्रबल झंझावातों से होता है जिनमें वायु की ऊर्ध्वाधर तरंगें (updrafts) अत्यधिक शक्तिशाली होती हैं। उपल निर्माण का सम्बन्ध सदैव अत्यधिक अस्थायी वायु से होता है। टेलर (G.F. Taylor) के अनुसार उपल-वृष्टि (hail) अनिवार्य रूप से झंझावातों से होती है। किन्तु जिन प्रदेशों में सबसे अधिक झंझावात आते हैं, यह आवश्यक नहीं है कि उपल-वृष्टि की मात्रा वहीं सर्वाधिक हो।
संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में सबसे अधिक झंझावात उत्पन्न होते हैं, किन्तु उपल-वृष्टि सबसे अधिक वहाँ न होकर ग्रेट प्लेन के पश्चिमी भाग तथा रॉकी पर्वतमाला के पश्चिम ओर स्थित ग्रेट बेसिन में होती है। ऊष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों तथा ध्रुवीय क्षेत्रों में उपल-वृष्टि का सर्वथा अभाव पाया जाता है। इसी प्रकार महासागरों में भी ओले नहीं गिरते। दानों गोलार्धों में 30° से 60° उत्तरी तथा दक्षिणी अक्षांशों के मध्य उपल-वृष्टि के क्षेत्र पाये जाते हैं।
उच्च अक्षांशों में तथा महासागरों के ऊपर धरातल के अत्यधिक ऊष्मन से उत्पन्न होने वाली संवहनी क्रियाओं के अभाव के कारण यहाँ उपल-वृष्टि की उत्पत्ति नहीं होती है। भारत में मार्च से मई तक के गर्म महीनों में उपल-वृष्टि होती है। उच्च अक्षांशों में बसन्त ऋतु तथा ग्रीष्म ऋतु में ऐसी वृष्टि होती है।
हिम वृष्टि (Snow fall)
जब हिम के विविध षट्भुजीय क्रिस्टलों की वर्षा होती है, तो उसे हिम वृष्टि या स्नोफॉल कहते हैं। इन क्रिस्टलों के साथ कभी-कभी बर्फ के साधारण रखे भी मिश्रित रहते हैं। हिम के ये रवे विभिन्न आकृतियाँ धारण कर लेते हैं जो देखने में बड़े सुन्दर लगते हैं। हिम वर्षा ऐसे भी मेघों से हो सकती है जो विशुद्ध हिम से निर्मित हों अथवा जो प्रारम्भ में जल के अतिशीतल कणों से निर्मित थे, किन्तु क्रमशः हिम मेघ में परिणत हो गए। प्रायः संलयन की प्रक्रिया के द्वारा ही हिम वृष्टि की उत्पत्ति होती है।
जिस वायु का तापमान 0° सेल्सियस से अधिक नीचा नहीं रहता तथा जिसमें आर्द्रता की मात्रा अधिक होती है, उसमे अनुकूल परिस्थितियों में भारी हिम वृष्टि होती है। जब वायु का तापमान -10° सेल्सियस से ऊँचा रहता है, तब हिम के क्रिस्टल परस्पर मिलकर हिमपत्रों (snowflakes) का निर्माण करते हैं। हिमांक से कम तापमान होने पर भी क्रिस्टलों के ऊपर तरल जल का आवरण रहता है। अतः विभिन्न क्रिस्टलों के आपस में टकराने पर इसी मध्यवर्ती जल के जम जाने से हिम पत्रों की रचना होती है। इसीलिए तापमान बहुत नीचा रहने पर हिम के क्रिस्टल शुष्क होते हैं तथा उनके द्वारा पत्रकों का निर्माण नहीं हो पाता।
जब तापमान अत्यधिक नीचा हो जाता है, तो बारीक एवं कठोर हिम के कण गिरते हैं। इसके विपरीत, तापमान अपेक्षाकृत ऊँचा रहने पर हिम के बड़े आकार वाले गीले पत्रों की वर्षा होती है। जब कभी हिम का निर्माण धरातल से बहुत ऊँचाई पर होता है तथा धरातल से संलग्न वायु की परत का तापमान हिमांक से काफी ऊँचा रहता है, तो ऐसी स्थिति में धरातल पर पहुँचने से पूर्व हिम पिघल कर जल वृष्टि में परिणत हो जाता है।
मध्य अक्षांशीय प्रदेशों में होने वाली जल वृष्टि का आरम्भ कभी-कभी आकाश में ऊँचाई पर हिम वृष्टि के रूप में होता है। निम्न अक्षांशों में हिम वृष्टि अधिक ऊँचे प्रदेशों तक ही सीमित होती है। एक निश्चित ऊँचाई पर एक ऐसी सीमा रेखा होती है जिसके ऊपर हिम की राशि वर्ष भर नहीं पिघलती। ग्रीष्म ऋतु में जिस ऊँचाई पर हिम की निम्नतम सीमा पाई जाती है, उसे हिम रेखा (snow line) कहते हैं।
यह ऐसी रेखा होती है जिस पर या जिसके ऊपर वर्ष भर हिम पाया जाता है। हिम रेखा की ऊँचाई में मौसमी परिवर्तन होते रहते हैं। उच्च अक्षांशों में हिम रेखा की ऊँचाई कम तथा निम्न अक्षांशों में अधिक होती है। हिम के स्थायी आवरण पर वर्षा की मात्रा एवं तापमान, दो कारकों का प्रभाव पड़ता है। पर्वतों के शीर्ष भाग में जमे हुए स्थायी हिम हिमनदों के निर्माण में योगदान करते हैं।