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वायुमण्डल के ऊष्मन एवं शीतलन की विधियाँ (Methods of Heating and Cooling of Atmosphere)
सामान्य व्यक्ति यही सोचता है कि हमारा वायुमण्डल सीधा सौर किरणों से गर्म होता है, लेकिन ऐसा नहीं है। वायुमण्डल के ताप का मुख्य स्रोत पृथ्वी का धरातल है, जो सूर्य से आने वाली ऊर्जा की लघु तरंगों को अवशोषित करके उन्हें ऊष्मा में बदल देता है। उसके बाद धरातल से यह अवशोषित ऊर्जा दीर्घ तरंगों के माध्यम से पार्थिव विकिरण के रूप में वायुमंडल तक पहुचती है, जो वायुमंडल द्वारा अवशोषित कर ली जाती है। इस प्रकार हमारा वायुमंडल गर्म होता है।
पृथ्वी और वायुमण्डल के बीच ऊष्मा का यह आदान-प्रदान सदैव होता रहता है। ऊष्मा का यह आदान-प्रदान या कहें संचरण प्रमुख तीन विधियों चालन, विकिरण तथा संवहन के माध्यम से होता है। इनके अतिरिक्त वाष्पीकरण तथा घनीभवन (condensation) की प्रक्रियाओं का भी वायुमण्डल के तापन और शीतलन में विशेष महत्व है। इस कार्य में वायुदाब परिवर्तन के द्वारा उत्पन्न ताप परिवर्तन (adiabatic temperature change) भी एक अन्य महत्वपूर्ण कारक है। वायुमण्डल जिन विधियों से गरम और ठण्डा होता है, उनका वर्णन यहां किया जा रहा है –
वायु द्वारा लघु-तरंगीय सौर ऊर्जा के आंशिक अवशोषण द्वारा
यह हम पहले ही बतला चुके हैं कि सूर्य की किरणें सीधे वायुमण्डल को गरम करने में असमर्थ होती हैं। फिर भी वायु की निचली परतों में विद्यमान जल-वाष्प तथा धूल के कणों के द्वारा उसके कुछ भाग (14 प्रतिशत) का अवशोषण कर लिया जाता है। ट्रेवार्था के अनुसार धरातल से लगभग दो किलोमीटर की ऊँचाई तक की वायु को सूर्याभिताप का 7 प्रतिशत भाग गरम करता है।
सौर विकिरण के इस सूक्ष्म अंश के द्वारा धरातल के निकट की वायु के तापमान में होने वाला परिवर्तन नाम मात्र का होता है। यही कारण है कि जब धरातल हिम के आवरण से ढका रहता है, स्वच्छ आकाश और सूर्य की प्रखर किरणों के बावजूद वायु का तापमान नीचा रहता है। जाड़े के दिनों में प्रायः लोग मकानों की पूर्वी दीवार के पास बाहर बैठ कर धूप का आनन्द लेते हैं। इसका कारण यह है कि दीवार पर पड़ने वाली किरणें ऊष्मा में परिवर्तित हो जाती हैं तथा उससे निकट की वायु का तापमान ऊँचा हो जाता है, जबकि बिना किसी धरातल पर पड़े सीधे सूर्य की किरणें गर्मी पैदा करने में असमर्थ होती हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वायुमण्डल द्वारा सोखी गई सौर ऊर्जा अथवा परावर्तित ऊर्जा का वायुमण्डल के तापन या शीतलन में विशेष महत्व नहीं है।
चालन द्वारा
ऊष्मा संचार की इस विधि के अन्तर्गत ऊष्मा माध्यम के गरम भागों से ठण्डे भागों की ओर प्रत्येक कण से समीपवर्ती कणों से होती हुई संचारित होती है। अतः दिन के समय सूर्य किरणों से गर्म हुए धरातल के सम्पर्क में आने वाली वायु की परत में, जो अपेक्षाकृत शीतल होती है, ऊष्मा का संचार इसी विधि से होता है। वायु की प्रत्येक निचली परत से उससे सम्बद्ध ऊपरी परत की ओर ऊष्मा का संचार होता है। अतः धरातल से ज्यों-ज्यों दूरी बढ़ती जाती है, वायु के तापमान में क्रमशः कमी आती जाती है।
चालन (conduction) विधि ऊष्मा संचार की अत्यन्त धीमी प्रक्रिया है। इसके अन्तर्गत् किसी वस्तु के प्रत्येक कण की क्रियाशीलता में वृद्धि हो जाती है और इस बढ़ी हुई ऊर्जा का समीपवर्ती कण में स्थानान्तरण हो जाता है। यदि धरातल और वायु के तापमान में अधिक अन्तर रहता है, तो ऊष्मा संचरण तीव्र गति से होता है। अन्यथा दोनों के तापमान में कम अन्तर होने की स्थिति में यह क्रिया मन्द गति से होती है।
अतः चालन विधि से ऊष्मा स्थानान्तरण के लिए यह परमावश्यक है कि धरातल और वायु के तापमान में अन्तर पाया जाए। ऊष्मा संचार को प्रभावित करने वाला दूसरा महत्वपूर्ण कारक माध्यम की ऊष्मा चालकता है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वायुमण्डल के तापन अथवा शीतलन में चालन विधि का अपेक्षाकृत कम महत्व है। इसका मूल कारण यह है कि सामान्यतः धरातल और उसके निकट की वायु के तापक्रम में विशेष अन्तर नहीं पाया जाता और वायु की ऊष्मा चालकता भी अत्यधिक न्यून होती है।
इसके अतिरिक्त गर्म हुए धरातल से ऊष्मा को बहुत अधिक ऊँचाई या दूरी तय करनी पड़ती है, जिससे उसका ह्रास होता जाता है। यदि केवल चालन क्रिया के द्वारा ही वायुमण्डल में ऊष्मा का संचरण होता तो शीत ऋतु की लम्बी रातों में भी शीतल धरातल से केवल 2 मीटर ऊँचाई तक की वायु ही ठण्डी हो पाती।
पार्थिव विकिरण द्वारा
जैसा कि सौर विकिरण के सन्दर्भ में पहले ही बतलाया जा चुका है, सूर्य से विकीर्ण ऊर्जा का लगभग दो-तिहाई भाग प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में पृथ्वी के धरातल पर लघु तरंगों के द्वारा पहुँचता है। धरातल उन विद्युत् चुम्बकीय लघु तरंगों (electromagnetic waves) का अवशोषण करके उन्हें ऊष्मा में परिवर्तित कर देता है।
किर्कहाफ नियम (Kirchoff’s Law) के अनुसार धरातल ऊष्मा का विकिरण दीर्घ तरंगों अथवा अवरक्त किरणों में करता है। यह स्मरणीय है कि पार्थिव विकिरण दिन-रात होता रहता है। दिन में सूर्याभिताप की प्राप्ति के कारण विकिरण के द्वारा ऊष्मा का कम क्षय होता है, किन्तु रात में पार्थिव विकिरण के द्वारा धरातल से ऊष्मा का अधिक ह्रास होता है।
पृथ्वी के धरातल से कृष्णिका विकिरण (blackbody radiation) होता है, किन्तु वायुमण्डल वरणात्मक विकिरण (selective radiation) करता है। वायुमण्डल की अधिकांश गैसें, जो लघु-तरंगीय सौर ऊर्जा के लिए पारदर्शक (transparent) होती हैं तथा उसके अत्यन्त सूक्ष्म अंश (14 प्रतिशत) का ही अवशोषण कर पाती हैं, लेकिन वहीँ ये गैसें पार्थिव विकिरण (जो दीर्घ तरंगों में होता है) के लगभग 85 प्रतिशत भाग का अवशोषण कर लेती हैं।
इस प्रकार वायुमण्डल को धरातल से ही ऊष्मा की प्राप्ति होती है। पार्थिव विकिरण के अवशोषण की इस क्रिया में जल-वाष्प, कार्बन-डाइआक्साइड, ओजोन आदि गैसें तथा धूल के कण भाग लेते हैं। किन्तु इनमें जल-वाष्प का सर्वाधिक महत्व है। यही कारण है कि शुष्क मरु प्रदेशों में, जहाँ वायुमण्डल में जल-वाष्प अत्यधिक न्यून मात्रा में पाया जाता है, पार्थिव विकिरण के कारण ऊष्मा के ह्रास होने से रातें शीतल होती हैं।
इसके विपरीत जाड़े की लम्बी रातों में भी, जब आकाश मेघाच्छादित होता है, पार्थिव विकिरण का जलवाष्प के द्वारा अवशोषण होने से वायु का तापक्रम अपेक्षाकृत ऊँचा रहता है और रात्रि-कालीन तापक्रम बहुत नीचा नहीं होने पाता।
धरातल से वायु की परतों में ऊष्मा का विकिरण तथा उनसे उसका पुनर्विकिरण होता है। वायु की परतों से विकिरण ऊपर तथा नीचे दोनों ओर होता है। अतः धरातल से दूरी बढ़ने के साथ वायु के तापक्रम में सामान्यतया क्रमिक गिरावट आती है। वायु की सबसे ऊपरी परत से कुछ ऊष्मा अन्तरिक्ष की ओर विकिरित हो जाती है। इस प्रकार पृथ्वी का तल जहाँ एक ओर सूर्याभिताप से ऊष्मा प्राप्त करता है, वहीं दूसरी ओर दीर्घ-तरंगों द्वारा वायुमण्डल व अन्तरिक्ष को उसका विकिरण भी करता है। आदान-प्रदान की इस प्रक्रिया के कारण ही धरातल द्वारा प्राप्त सूर्यातप और विकिरित ऊर्जा में सन्तुलन की स्थिति बनी रहती है।
संवहन (Convection) द्वारा
यह ऊष्मा संचार की वह विधि है जिसमें तरल अथवा गैस के कण ऊष्मा लेकर स्वयं विस्थापित होते हैं तथा ऊष्मा को उस पदार्थ के विभिन्न भागों में पहुँचा देते हैं। धरातल के सम्पर्क में रहने वाली वायु चालन अथवा विकिरण के द्वारा ऊष्मा की प्राप्ति करके गरम हो जाती है। गरम होने से उसके आयतन में वृद्धि हो जाती है, अर्थात् उसका प्रसार हो जाता है। फैलने से वायु का घनत्व कम हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप वह अपने आस-पास की वायु में हल्की हो जाती है।
आस-पास की ठण्डी और भारी हवा गर्म और हल्की हवा को धक्का देकर ऊपर उठने को बाध्य करती है। ठण्डी और भारी हवाओं से घिरी हुई गर्म और हल्की वायु जल के भीतर बलपूर्वक डुबाए गए कार्क (cork) के समान होती है, जो असन्तुलित अवस्था में रहता है, तथा जिसमें ऊपर उठने की प्रवृत्ति विद्यमान रहती है। धरातल से दूर ऊपरी वायुमण्डल में गर्म और हल्की वायु के स्तम्भ के ऊपरी भाग से कुछ हवा हटकर चारों ओर फैल जाती है जिससे धरातल पर गर्म वायु स्तम्भ के दाब में कमी आ जाती है।
इसके विपरीत, समीपवर्ती ठण्डी वायु के स्तम्भ के वायु दाब में वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार धरातल पर अधिक दबाव से कम दबाव की ओर वायु का प्रवाह होने लगता है। इस प्रकार गर्म और हल्की वायु निरन्तर ऊपर उठने लगती है तथा शीतल भारी हवायें नीचे उतरने तथा गर्म वायु के द्वारा रिक्त स्थान की पूर्ति करने के लिए उस ओर प्रवाहित होने लगती हैं, जिससे वायुमण्डल में संवाहनिक प्रणाली (convectional system) उत्पन्न हो जाती है। इस प्रक्रिया को, जिसमें उपर्युक्त विधि से ऊष्मा का स्थानान्तरण होता है, संवहन विधि कहते हैं।
गर्म वायु से उत्पन्न सम्वहन धारायें धरातल से प्राप्त ऊष्मा को वायुमण्डल में काफी ऊँचाई तक ले जाती हैं तथा वायु की ऊपरी परतों को गरम करती हैं। विकिरण और चालन विधियाँ वायुमण्डल की ऊपरी परतों को गरम करने में प्रभावशाली नहीं होतीं।
दिन के उत्तरार्द्ध में जब धरातल पर उच्चतम तापमान अंकित किया जाता है, वायु में सम्वहन धारायें उत्पन्न हो जाती हैं, बशर्ते कि आकाश स्वच्छ हो और सूर्य की प्रचण्ड किरणें धरातल पर लम्बवत् पड़ती हों। ट्रेवार्था ने वायुमण्डल से उत्पन्न भंवर धाराओं (eddy currents) को, जो विभिन्न आकार की होती हैं, धरातल से प्राप्त ऊष्मा को बहुत ऊपर तक ले जाने में सहायक बतलाया है।
क्षोभ मण्डल (troposphere) में धरातल से कई किलोमीटर की ऊँचाई तक वायुमण्डल में ऐसी धारायें प्रायः पायी जाती हैं। इसीलिए क्षोभ मण्डल को संवहन कटिबन्ध भी कहते हैं। ट्रेवार्था के ही अनुसार धरातलीय विषमताओं से उत्पन्न वायु विक्षोभ (turbulence) 60 मीटर से 3000 मीटर की ऊँचाई तक वायुमण्डल में विभिन्न तापमान वाली वायु की परतों में मिश्रण उत्पन्न कर देता है। इस प्रकार उपर्युक्त विधियों से घरातल के निकट पाई जाने वाली गरम हवा वायुमण्डल में विभिन्न ऊँचाइयों तक पहुंचा दी जाती है।
अभिवहन (Advection) द्वारा
जब वायुमण्डल में ऊष्मा का क्षैतिज स्थानान्तरण (horizontal transfer) होता है तब उस विधि को अभिवहन (advection) कहते हैं। सम्पूर्ण पृथ्वी पर ऊष्मा स्थानान्तरण की दृष्टि से अभिवहन विधि अन्य सभी विधियों से अधिक महत्वपूर्ण है। अधिकांश मध्यक्षांशीय देशों में मौसम में पाए जाने वाले महत्वपूर्ण दैनिक परिवर्तनों का मूल कारण विभिन्न प्रकार की अभिवहन धाराएं ही हैं।
उत्तर भारत में ग्रीष्म ऋतु में चलने वाली झुलसने वाली तेज पछुवा हवायें, जिन्हें “लू” कहा जाता है, अभिवहन धाराओं के उदाहरण हैं। शीतोष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में शीत ऋतु में चलने वाली उष्ण कटिबन्धीय दक्षिणी हवायें ऊँचे तापक्रम के कारण मौसम को सुखदायी बना देती हैं। इसी प्रकार ध्रुवीय क्षेत्रों में अथवा हिमाच्छादित धरातल से होकर आने वाली हवायें अपने साथ ठण्डक लाती हैं।
इस प्रकार अभिवहन विधि के द्वारा भारी पैमाने पर वायुमण्डल के तापमान में उलट-फेर होता रहता है। अतः स्पष्ट है कि क्षैतिज अथवा ऊर्ध्वाधर दोनों ही प्रकार के संवहन से वायुमण्डल के एक बहुत बड़े भाग को ऊष्मा की प्राप्ति होती है। यहाँ यह स्मरणीय है कि संवहन धारायें वायुमण्डल के सबसे निचले भाग (क्षोभ मण्डल) में ही पायी जाती हैं। ट्रोपोपाज इनकी ऊपरी सीमा है।
वाष्पन का गुप्त ताप (Latent Heat of Vaporization) द्वारा
पृथ्वी के धरातल से वायुमण्डल को ऊष्मा की प्राप्ति दीर्घ तरंगीय पार्थिव विकिरण, चालन तथा संवहन आदि प्रक्रियाओं द्वारा होती है। किन्तु वायुमण्डल के तापन में वाष्पन के गुप्त ताप का विशेष महत्व होता है। यह गुप्त ताप वायु की विभिन्न परतों में, आर्द्र धरातल, वनस्पतियों तथा महासागरों के तल से होने वाले वाष्पन के द्वारा पहुँचता है।
वाष्पन के विभिन्न स्रोतों में महासागरों का सर्वाधिक महत्व है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि उनके द्वारा प्राप्त सूर्याभिताप का लगभग 50 प्रतिशत भाग वाष्पीकरण में व्यय हो जाता है, क्योंकि इस कार्य के लिए ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। वाष्पन में खर्च की गई ऊर्जा जल-वाष्प के कणों में गुप्त ताप के रूप में विद्यमान रहती है जिसे वाष्पन का गुप्त ताप कहते हैं। इस गुप्त ताप के कारण जल-वाष्प के तापमान में कोई वृद्धि नहीं होती।
जब जल-वाष्प का संघनन (condensation) या ऊर्ध्वपातन (sublimation) होता है, और वह वाष्प अवस्था से द्रव या ठोस अवस्था में परिवर्तित होता है, तब इस प्रक्रिया से वाष्पन का गुप्त ताप मुक्त होकर वायु को ऊष्मा प्रदान करता है।
वैज्ञानिकों ने प्रयोग द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि द्रव की एक निश्चित मात्रा को (ताप के अपरिवर्तित रहने पर) वाष्प में बदलने में जितनी ऊष्मा की मात्रा की आवश्यकता होती है, उतनी ऊष्मा की मात्रा उसको वाष्प से द्रव अवस्था में बदलने पर मुक्त होती है। 20° सेल्सियस तापक्रम पर जल-वाष्प जब संघनित होकर तरलावस्था में आता है, तब उसके प्रत्येक ग्राम से 585 कैलोरी ऊष्मा मुक्त होती है। जल की बूंदें जब हिम बनती हैं, तब इस परिवर्तन के फलस्वरूप प्रति ग्राम 80 कैलोरी अतिरिक्त ऊष्मा की प्राप्ति होती है।
पृथ्वी के धरातल का लगभग दो-तिहाई भाग जल से ढका हुआ है। जल खण्ड की व्यापकता को देखते हुए महासागरों में होने वाले वाष्पीकरण और उसके गुप्त ताप को वायुमण्डलीय ऊष्मा का प्रमुख साधन मानना चाहिए।
वायु का प्रसरण तथा सम्पीडन (Expansion and Compression of Air) द्वारा
धरातल से दूर ऊपरी वायुमण्डल में वायु के दाब में परिवर्तन से उत्पन्न ताप परिवर्तन वायुमण्डल के गरम और ठण्डा होने में बहुत अधिक सहायक होता है। अन्य गैसों की भाँति वायु भी अपने ऊपर दबाव में न्यूनता आने पर फैलती है तथा दाब अधिक होने पर सिकुड़ती है। जब कोई वायु राशि किन्हीं कारणों से ऊपर उठती है, तो वह क्रमशः अधिक से कम दाब की ओर अग्रसर होती है, क्योंकि ऊपर उठने के साथ ही वह अपने नीचे की वायु के भार को छोड़ती चलती है।
इस ऊपर उठती हुई वायु दाब में न्यूनता आने के कारण उसका प्रसरण होता है जिससे उसके आयतन में वृद्धि हो जाती है। प्रसरण क्रिया में वायु की ऊर्जा का ह्रास होता है। अतः वायु का तापमान नीचे गिर जाता है। इसके विपरीत, ऊपर से नीचे उतरने वाली वायु राशि क्रमशः अधिक दबाव के क्षेत्र में प्रवेश करती है जिससे उसका सम्पीडन होता है। संपीडन के कारण वायु का आयतन कम तथा उसका तापमान बढ़ जाता है।
इस प्रकार ऊपर उठने वाली अथवा नीचे उतरने वाली वायु में दाब परिवर्तन के कारण होने वाले ताप परिवर्तन को एडियाबैटिक ताप परिवर्तन कहते हैं। इस प्रकार के ताप परिवर्तन का पृथ्वी के धरातल की ऊष्मा से कोई सम्बन्ध नहीं होता।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वायुमण्डल का तापन और शीतलन उसके और धरातल के बीच ऊष्मा के आदान-प्रदान की अत्यन्त जटिल प्रक्रिया का प्रतिफल है।
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