Search
Close this search box.

Share

ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming)

Estimated reading time: 11 minutes

ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) से आप क्या समझते हैं?

मानवीय (Anthropogenic) कारणों से वायुमंडल का सामान्य दर से अधिक गर्म होना ग्लोबल वार्मिंग या भूमंडलीय उष्मन कहलाता है। ग्लोबल वार्मिंग वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते सांद्रण का परिणाम है। ग्रीनहाउस गैसों की उपस्थिति के कारण वायुमंडल एक ग्रीनहाउस की भांति व्यवहार करता है जिसे ग्रीनहाउस प्रभाव (Greenhouse Effect) कहा जाता है।

ग्रीनहाउस प्रभाव  (Greenhouse Effect) क्या है?

सूर्य से पृथ्वी की ओर आने वाली विकिरण ऊर्जा जिसे हम सूर्यातप (Insolation) कहते हैं, लघु तरंगों के रूप में होती है। इस प्रवेशी सौर विकिरण से पृथ्वी गर्म होती है, वायुमंडल तो इस ऊर्जा का केवल 20 प्रतिशत भाग ही अवशोषित कर पाता है। अतः सूर्य की किरणों से वायुमंडल सीधे गर्म नहीं होता। 

जब पृथ्वी को प्राप्त यह उष्मा दीर्घ तरंगों (Long Waves) के रूप में वापस लौटने लगती है तो वायुमंडल में उपस्थित कुछ गैसें इसे अवशोषित कर लेती हैं। वे गैसें जो पार्थिव विकिरण की दीर्घ तरंगों का अवशोषण करती हैं, ग्रीनहाउस गैसें कहलाती हैं। वायुमंडल का उष्मन करने वाली इन प्रक्रियाओं को सामूहिक रूप से ‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ (Greenhouse Effect) कहा जाता है।

ग्लोबल वार्मिंग के लिए उत्तरदायी ग्रीनहाउस गैसें

वर्तमान में ग्लोबल वार्मिंग के लिए उत्तरदायी प्रमुख ग्रीनहाउस गैसें कार्बन डाइ-ऑक्साइड (CO2), क्लोरो-फ्लोरो- कार्बन(CFCs), मीथेन (CH4), नाइट्रस ऑक्साइड (N₂O) और ओज़ोन (O3) हैं। नाइट्रिक ऑक्साइड (NO) और कार्बन मोनोक्साइड (CO) कुछ ऐसी अन्य गैसें हैं जो ग्रीनहाउस गैसों से आसानी से प्रतिक्रिया करती हैं और वायुमंडल में उनके सांद्रण को प्रभावित करती हैं।

ग्लोबल वार्मिंग के लिए उत्तरदायी ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव को नियंत्रित करने वाले कारक

  • गैस के सांद्रण में वृद्धि के परिणाम 
  • वायुमंडल में इसके जीवनकाल अर्थात् ग्रीनहाउस गैसों के अणु जितने लंबे समय तक बने रहते हैं, इनके द्वारा लाए गए परिवर्तनों से वायुमंडलीय तंत्र को उबरने में उतना अधिक समय लगता है।
  • इसके द्वारा अवशोषित विकिरण की तरंग लम्बाई
Top ten countries emitting carbon dioxide in the world

कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂)

वायुमंडल में उपस्थित ग्रीनहाउस गैसों में सबसे अधिक सांद्रण CO₂ का है। वैसे तो कार्बन-चक्र हज़ारों वर्षों की अवधि में वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा संतुलित बनाए रखता है, लेकिन लघु अवधि में यह संतुलन कई बार बिगड़ जाता है। 

विगत कुछ वर्षों में कोयला, पैट्रोल, डीज़ल तथा प्राकृतिक गैस; जैसे जीवाश्मी ईंधनों के जलने से प्रतिवर्ष 6 अरब टन कार्बन-डाइऑक्साइड वायुमंडल में मिल रही है। वन अपनी वृद्धि के लिए CO₂ का उपयोग करते हैं।अतः भूमि उपयोग में परिवर्तनों के कारण की गई जंगलों की कटाई भी CO₂ की मात्रा बढ़ाती है। CO₂ लगभग 0.5 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रही है। 

सन् 1750 के बाद वायुमंडल में कार्बन-डाइऑक्साइड की मात्रा 30 प्रतिशत बढ़ी है, जिसने ग्रीनहाउस प्रभाव में 65 प्रतिशत का योगदान दिया है। एक अन्य अनुमान के अनुसार, 21वीं शताब्दी के मध्य तक वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा औद्योगिक क्रांति से पूर्व की तुलना में दोगुनी हो जाएगी। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा दोगुनी हो जाए तो वायुमंडल का तापमान 3° सेल्सियस बढ़ सकता है। 21वीं सदी के अंत तक वायुमंडल का तापमान 1.4° से 5.8° सेल्सियस तक बढ़ सकता है।

Average carbon dioxide (CO₂) levels in the atmosphere

क्लोरो फ्लोरो कार्बन (CFCs)

यह गैस मनुष्य का अनुसंधान है, प्रकृति में यह नहीं मिलती। यह वास्तव में संश्लेषित (Synthetic) यौगिकों का समूह है जिसका प्रत्येक अणु कार्बन-डाइऑक्साइड की तुलना में 20 हज़ार गुना ताप प्रग्रहित करता है। ये यौगिक वातानुकूलन व प्रशीतन की मशीनों, आग बुझाने के उपकरणों में तथा छिड़काव यंत्रों में प्रणोदक (Propellant) के रूप में प्रयुक्त होते हैं। वर्तमान में इसकी मात्रा 4 प्रतिशत की दर से वायुमंडल में बढ़ रही है। 

CFCs वायुमंडल की ऊपरी सतह पर समताप मंडल में क्लोरीन को मुक्त करती है जो ओज़ोन को तोड़ती है। ओज़ोन परत पराबैंगनी (Ultraviolet) किरणों से पृथ्वी की रक्षा करती है। समताप मंडल में ओजोन के सांद्रण का ह्रास ओजोन छिद्र कहलाता है। यह छिद्र हानिकारक पराबैंगनी किरणों को क्षोभमंडल से गुजरने देता है। ओज़ोन का सबसे अधिक ह्रास अंटार्कटिका के ऊपर हुआ है।

नाइट्रस ऑक्साइड (N2O)

इसका महत्वपूर्ण स्रोत उष्ण कटिबंधीय मिट्टी है, जहां पर जीवाणु नाइट्रोजन के प्राकृतिक यौगिकों से क्रिया करके नाइट्रस ऑक्साइड पैदा करते हैं। कृषि में नाइट्रोजन उर्वरकों के इस्तेमाल, पेड़-पौधों को जलाने, नाइट्रोजन वाले ईंधन को जलाने तथा नाइलोन उद्योग द्वारा छोड़े जाने के कारण वायुमंडल में इसकी मात्रा में वृद्धि हुई है। इस समय वायुमंडल में इसकी मात्रा 0.31 भाग प्रति दस लाख भाग (PPM) है। नाइट्रस ऑक्साइड का प्रत्येक अणु कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में 250 गुना अधिक ताप प्रग्रहित (Trap) करता है।

मीथेन गैस (CH4)

तापमान बढ़ाने में मीथेन गैस का प्रत्येक अणु कार्बन-डाइऑक्साइड की तुलना में 25 गुना अधिक प्रभावी है। मीथेन अपघटकों (Decomposers) की देन है। इसके अधिकांश स्रोत जैविक हैं। मीथेन गैस धान के खेतों, नम भूमि तथा दलदल से निकलती है, इसलिए इसे मार्श (Marsh) गैस भी कहते हैं। यह सागरों, ताज़े जल, खनन कार्य, गैस ड्रिलिंग तथा जैविक पदार्थों के सड़ने से उत्पन्न होती है। पशु और लकड़ी खाने वाले कीड़े; जैसे दीमक को मीथेन छोड़ने का जिम्मेदार पाया गया है। वर्तमान में लगभग 52.5 करोड़ टन मीथेन वायुमंडल में पहुंच रही है।

जलवाष्प (Water Vapor)

अन्य ग्रीनहाउस गैसों के कारण तापमान बढ़ने से जल की वाष्पन दर भी बढ़ जाती है। वायुमंडल में जमा हुए ज्यादा जलवाष्प तापमान को और ज्यादा बढ़ाता है, क्योंकि जलवाष्प स्वयं एक प्राकृतिक ग्रीनहाउस गैस है।

ओज़ोन (O3)

यद्यपि निचले वायुमंडल में यह गैस, कम पाई जाती है पर फिर भी इसका जमाव गर्मी बढ़ाने का काम करता है।

ग्रीनहाउस शब्द का साम्यानुमान (Analogy) उस ग्रीन हाउस से लिया गया है जिसका उपयोग ठंडे इलाकों मैं उष्मा के परिरक्षण करने के लिए किया जाता है। अत्यधिक ठंडे देशों में उष्ण कटिबंधीय पौधों को सुरक्षित रखने अथवा फल या सब्जियाँ उगाने के लिए कांच या पारदर्शी प्लास्टिक की दीवारों वाले घर बनाए जाते हैं।
कांच सौर विकिरण की लघु तरंगों का अवशोषण तो करता है, लेकिन दीर्घ तरंगों के रूप में तापमान को बाहर नहीं जाने देता, जिससे ठंडे देशों में भी उच्च ताप प्राप्त कर पौधे जीवित रहते हैं, हरे रहते हैं। इसी ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण ही ग्रीनहाउस इमारत के भीतर, बाहर की अपेक्षा तापमान अधिक हो जाता है। जाड़ों में बंद दरवाजों व खिड़कियों वाला वाहन बाहर की अपेक्षा गर्म रहता है। यह ग्रीनहाउस प्रभाव का एक अन्य उदाहरण है।
ग्रीनहाउस

ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि के प्रभाव (Impact of Increased Global Warming)

भविष्य में ग्रीनहाउस प्रभाव के बढ़ने से मनुष्य के सामने निम्नलिखित दुष्प्रभाव आ सकते हैं-

  • विश्व में औसत तापमान बढ़ने से हिमाच्छादित क्षेत्रों से हिमानियां पिघलेंगी 
  • हिमटोपियों व हिमनदियों के पिघलने से समुद्र का जल-स्तर ऊंचा उठेगा जिससे तटवर्ती प्रदेश व द्वीप जलमग्न हो जाएँगे। करोड़ों लोग शरणार्थी बन जाएँगे
  • वाष्पीकरण की प्रक्रिया तेज़ होगी। पृथ्वी का समस्त पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित होगा। शीतोष्ण कटिबंधों में वर्षा बढ़ेगी और समुद्र से दूर उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में वर्षा की मात्रा घटेगी
  • आज के ध्रुवीय क्षेत्र पहले की तुलना में अधिक गर्म हो जाएँगे
  • जलवायु के दो तत्त्वों तापमान और वर्षा में जब परिवर्तन होगा तो निश्चित रूप से धरातल की वनस्पति का प्रारूप (Pattern) बदलेगा 
  • हरित गृह प्रभाव के कारण कृषि क्षेत्रों, फसल प्रारूप तथा कृषि प्राकारिकी (Typology) में परिवर्तन होना निश्चित है
  • समुद्र का खारा पानी धरती के मीठे पानी को खराब कर देगा   
  • पर्वतों की हिमानियों के पिघलने से एक बार नदियों में बाढ़ तो अवश्य आएगी। लेकिन अंत में या तो वे सूख जाएँगी या मौसमी हो जाएँगी।
  •  ऋतुएँ अनिश्चित हो जाएँगी। बे-मौसम बरसात, बर्फीले तूफान तथा सूखे इत्यादि की घटनाएं बढ़ जाएँगी
  • गल्फ़ स्ट्रीम, जैसी समुद्री धारा अवरुद्ध हो जाएँगी। पश्चिमी यूरोप को इसका लाभ नहीं मिलेगा
  • उष्ण कटिबंधीय बीमारियां; जैसे मलेरिया व हैज़ा आदि बढ़ जाएँगी
  • जनसंख्या महासमूहों के स्थानांतरण की संभावना बढ़ जाएगी
  • ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभाव जीवन पोषक तंत्र को कुप्रभावित कर सकते हैं।

ग्लोबल वार्मिंग से कितना उष्मन हुआ है भूमंडल का ?

दर्ज तापमानों के आधार पर आइए ! देखें कि भूमंडल का कितना उष्मन हो चुका है। तापमान के उपलब्ध आंकड़े 19वीं सदी के मध्य के हैं और पश्चिमी यूरोप के हैं। इस अध्ययन की संदर्भित अवधि (Reference Period) सन् 1961-80 है। इससे पहले और बाद की अवधियों की तापमान की असंगतियों का अनुमान सन् 1961-90 की अवधि के औसत तापमान से लगाया गया है। पृथ्वी के धरातल के निकट वायु का औसत वार्षिक तापमान लगभग 14°C है।

अध्ययन के निष्कर्ष:-

  • सन 1961-90 के पृथ्वी के सामान्य तापमान की तुलना में सन् 1856-2000 के दौरान पृथ्वी के धरातल के निकट वार्षिक तापमान असंगति को दर्शाते हैं।
  • तापमान के बढ़ने की प्रवृत्ति 20वीं शताब्दी में दिखाई दी। 20वीं शताब्दी में भूमंडल का सर्वाधिक उष्मन दो अवधियों में हुआ है-सन् 1901 से सन् 1944 और सन् 1977 से सन् 1999 के बीच। इन दोनों में से प्रत्येक अवधि में भूमंडलीय उष्मन 0.4°C बढ़ा है।
  • इन दोनों अवधियों के बीच थोड़ा शीतलन भी हुआ है जो उत्तरी गोलार्द्ध में अधिक प्रखर था ।
  • 19वीं शताब्दी के अंत में दर्ज किए गए तापमानों की तुलना में 20वीं शताब्दी के अंत में दर्ज किए गए तापमान 0.6°C अधिक थे।
  • 1856-2000 के बीच दर्ज किए गए सात सबसे उष्ण वर्ष 1990 के दशक में थे। वर्ष 1998 न केवल 20वीं सदी का बल्कि संपूर्ण सहस्राब्दि का सबसे गर्म वर्ष था।
Global warming projections by 2100

ग्लोबल वार्मिंग से आ पहुंचा है संकट…. दबे पांव !

मानो या नहीं, भूमंडलीय तापन का असर दिखने लगा है, जिसकी परिणिति नीचे दिए गए तथ्यों में प्रकट होती है:-

  • हर सौ साल में भारत का तापमान 0.57° सेल्सियस की दर से बढ़ रहा है। अनुमान है कि यह औसत तापमान में सन् 2020 तक 1.4° सेल्सियस तथा सन् 2050 तक 2.7° सेल्सियस की वृद्धि में होगा।
  • गंगा का उद्गम स्रोत गंगोत्री 30 मीटर प्रतिवर्ष की दर से सिकुड़ रही है।
  • भारत की सभी हिमानियों के आगामी 35 वर्षों में लुप्त हो जाने की पूरी आशंका है।
  • अंटार्कटिका की बर्फ पिघलने से पेनगुइन का भोजन सीगां मछली घट रही है। इसलिए पेनगुइन भी कम हो रहे हैं।
  • वेनेजुएला की 6 में से 4 हिमानियाँ लुप्त हो चुकी हैं।
  • कश्मीर में सूखा, शिकागो में लू व थार के मरुस्थल लूणकरणसर (बीकानेर) में एक ही रात (27-7-2000) को 5.16 सें०मी० पानी बरसना, नारनौल के गांव खाटोटी के खेतों में रहस्यमयी दरार, रेवाड़ी तथा कोटकासिम (अलवर) के कई सूखे कुओं का लबालब पानी से भरना आदि ऐसी घटनाएँ हैं जो मनुष्य को आ चुके संकट की सूचना दे रही हैं। भू-गर्भीय जल के घटते स्तर से जुड़ी घटनाओं के तार कहीं-न-कहीं जलवायु परिवर्तन से जुड़े हुए हैं।
बात चिंताजनक है…….
सन 1950 तक कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 9 प्रतिशत की दर से और इसके बाद 1990 तक 13 प्रतिशत की दर से बढ़ी है।परिवहन के आधुनिक साधनों, उद्योग, मृदा जुताई, उष्ण कटिबंधीय वनों के विनाश तथा बढ़ते नगरों के कारण पिछले 100 वर्षों में 36,000 करोड़ टन कार्बन-डाइऑक्साइड उत्पन्न हुई है।

ग्रीनहाउस प्रभाव का न होना भी ठीक नहीं…..

वायुमंडल में कार्बन-डाइऑक्साइड की उपस्थिति मुश्किल से आधा प्रतिशत है, लेकिन यह थोड़ी-सी मात्रा ही पृथ्वी को गर्म रखकर इसे मनुष्य व प्राणियों के जीने लायक बनाती है वरना यह पृथ्वी एक ठंडा निर्जन ग्रह होती। अन्य ग्रहों पर भी तापमान वहां पाई जाने वाली कार्बन-डाइऑक्साइड की सांद्रता (Concentration) के मुताबिक होता है। शुक्र ग्रह पर वर्तमान में कार्बन डाइऑक्साइड की घनी परत होने के कारण वहां का तापमान 427° सेल्सियस है। इसके विपरीत मंगल ग्रह का तापमान 53° सेल्सियस है, क्योंकि वहां कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा नहीं के बराबर है। आज से 350 करोड़ साल पहले मंगल ग्रह पर जीवन था जो ग्रीनहाउस प्रभाव घटने से समाप्त हो गया।

यह कार्बन चक्र क्या है?

कार्बन तीन प्रमुख ग्रीनहाउस गैसों-कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), मीथेन (CH4) तथा क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (CFCs) में पाया जाता है। कार्बन पर्यावरण में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है व गतिशील रहता है। इसकी गति और मात्रा का नियंत्रण प्राकृतिक जैव-भू-रासायनिक चक्र (Biogeochemical Cycle) द्वारा होता है। कार्बन सभी जैविक पदार्थों में उपस्थित होता है तथा गैस से लेकर पैट्रोलियम हाइड्रोकार्बस तक अनेक जटिल यौगिकों का रचक (Constituent) बना होता है। जीव-जगत में कार्बन पौधों में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा प्रवेश करता है। 

कार्बन डाइऑक्साइड व जल मिलकर जीवद्रव्य का निर्माण करते हैं जो जीव की मृत्यु तक उसमें रहता है। मृत्यु के पश्चात् जीवाणु और कवक के अपघटन द्वारा कार्बन पुनः वायुमंडल में लौट आती है। कार्बन डाइऑक्साइड की कुछ मात्रा श्वसन द्वारा तथा कुछ कोयला, पैट्रोल, डीज़ल व प्राकृतिक गैस के दहन (Combustion) से धुआं आदि के रूप में वायुमंडल में प्रवेश कर जाती है। हज़ारों वर्षों के टाइम स्केल में कार्बन की मात्रा संतुलित और स्थिर रहती है। केवल लघु अवधि में इसकी मात्रा असंतुलित हो जाती है।

ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रयास

ग्लोबल वार्मिंग के लिए उत्तरदायी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ प्रयास किए गए हैं जिनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण क्योटो प्रोटोकॉल है।

क्या है क्योटो प्रोटोकॉल ?

वातावरण को गर्म करने वाली ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के परिणामस्वरूप पृथ्वी पर हो रहे मौसम परिवर्तन पर रोक लगाने के उद्देश्य से सन् 1997 में क्योटो में सम्मेलन हुआ जिसमें निर्धारित किया गया कि-

  • ग्रीनहाउस प्रभाव के लिए छः प्रकार की गैसें जिम्मेदार हैं-कार्बन-डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रो-क्लोरो फ्लोरो कार्बन, परफ्लुओरो कार्बन तथा सल्फर हैक्सा-क्लोराइड ।
  • एक अन्य गैस (SF, CF3) ट्राइक्लोरोमिथाइल सल्फर पेंटाफ्लोराइड भी ग्रीनहाउस गैस है जो कि CO2 की तुलना में 18,000 गुना ऊष्मा अवशोषित करती है। इन सभी गैसों की कटौती की जाएगी।
  • विकासशील देशों पर कोई अतिरिक्त ऊर्जा सीमा लागू नहीं होती।
  • उत्सर्जन नियंत्रण की शर्तें सन् 2008 से लागू होंगी। ध्यान रहे कि 159 देशों के क्योटो प्रोटोकॉल को अमेरिका और रूस जैसे बड़े देशों ने स्वीकृति नहीं दी है।
  • 35 औद्योगिक राष्ट्रों को परिबद्ध किया गया है कि वे सन् 1990 के उत्सर्जन स्तर में सन् 2012 तक 5% की कमी लाएँ।

You Might Also Like

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Category

Realated Articles